बुधवार, 4 मई 2022

पुस्तक-चर्चा

 



आशा के कमल 

(दोहा संग्रह – आशा सक्सेना)

जय प्रभा यादव

देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर यह पंक्ति मात्र बिहारी सतसई के महत्व को ही नहीं वर्णित करती, वरन दोहे जैसे चार चरण वाले छोटे से छंद के महत्व को भी व्याख्यायित करती है। आशा के कमल हिंदी के इस छोटे से छंद के माध्यम से आशा सक्सेना द्वारा लिखित ऐसा ही काव्य -संग्रह है, जिसमें मानव -मन में घुमड़ने वाले वैचारिक जलदों का समूह स्वच्छंद रूप से साहित्याकाश में विचरण करता हुआ कवयित्री के भावों को बड़ी मार्मिकता से उभारता है ।

      संवेदनाओं के संकेतक दोहे में पूरी तरह से अपनी बात कहते हुए समाज को संदेश भी दे जाते हैं । पुस्तक में सामाजिक विषमता, यंत्रणा, जिजीविषा के साथ-साथ आस्तिकता का भी परिचय मिलता है। भारतीय रीति- रिवाज, सभ्यता और संस्कृति में पनप रही कुचेष्टाओं की ओर भी बराबर उनका ध्यान जाता है । देशराग की पगडंडियों से गुजरते हुए प्रीति के झरोखे से झाँकती नायिका का बिंब भी हमारे हृदय को आलोडित करता है। बिंब और रूपों के सहारे दोहों का स्वरूप और निखर गया है । उन्होंने कहावतों को भी छंदबद्ध किया है। प्रकृति के शृंगार में वृद्धि करने वाले मधुप, पुष्प, कलिकाओं, रंगों, कोकिलकंठी पक्षियों और ऋतुराज के आवरण में काव्यसुंदरी का आनन किसी चंद्रानना से कम नहीं दिखाई देता है । आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने मनुष्य को मानवीय गुणों को भुलाने के कारण ललकार लगाने में भी कोई संकोच नहीं किया है। हाँ, कहीं-कहीं मन के भाव को सीधा सीधा बना तो बना नहीं तो दरेरा देकर कहने की हठ में दोहे में एकाध मात्रा का विचलन भी दिखाई देता है। 

      वस्तुत: आशा सक्सेना ने अपने जीवन में दखल देने वाले हर व्यक्ति और भाव को इस संग्रह में स्थान देने में नूतन सफल प्रयास किया है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं -

ऐसी पुस्तक जिंदगी, पन्ना खुला न एक।

उम्र कटी दायित्व में, जागा अंत विवेक ।।

मुक्ताओं का बिखरना, धागा बंधन कर्म।

हम दोनों को साथ लें, यही सयाना धर्म ।।

 

टाले से टलता नहीं, अंत समय का वार।

छोड़े यदि तलवार तो, करें फूल संहार ।।

आशा ही संस्कार है, आशा ही विज्ञान ।

आशा के पर्याय हैं, बीज, प्रीति औ प्राण ।।

माँ के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हुए कवयित्री लिखती है –

रिश्तों की इस भीड़ में, अम्मा का आभास।

सबका अपना मूल्य है, अम्मा सबसे खास ।

 गृहस्थी में रमी गृहिणी को देखिए –

माटी-सा मैला बदन, धूल सने परिधान ।

मुरझाया मुखड़ा लिए, कूट रही है धान ।।

तुलसी से है आँगना, तुलसी से ही द्वार।

उगे खिले फूले फले, तुलसी से परिवार।।

लेखन धर्म की ओर वह लेखक का ध्यान खींचतीं हैं –

बिजुका रखवाली करे, रखे फसल का ध्यान ।

लेखक को भी चाहिए, लेख धर्म का ज्ञान ।।

लोक में प्रचलित मान्यताओं की ओर संकेत करती हुई कवयित्री कहती है -

कागा बोले भोर तो, आए घर मेहमान ।

आन मान आतिथ्य है, रखना इसका मान।।

ग्रामीण जीवन का  उदाहरण देखिए –

देख खेत खलिहान को, मन में उठी उमंग ।

शुद्ध सजीली है हवा, झूम उठे सब अंग।।

पोर-पोर में बस रही, पावन सुरभित गंध।

सुधा बरसती प्रकृति की, ग्रहण करो स्वच्छन्द।।

दीपावली का यह दोहा दृष्टव्य है –

छोटे-छोटे सूर्य हैं, हर द्वारे हर ओर।

दीवाली की रात है, जैसे उजली भोर ।।

प्रीत के झरोखे से कवयित्री लिखती है –

गेय तुम्हारी प्रीति थी, रसिक हमारी याद ।

कविताओं में चिट्ठियाँ, करती थीं संवाद ।।

कुछ और भी दृश्य देखें –

सावन मास सुहावना, मेहंदी रचती हाथ ।

डालों पर झूले पड़े, सखियाँ अपने साथ ।।

एक तरफ है छाँव और, एक तरफ है घाम।

बना रहे बस संतुलन, कुदरत का यह काम ।।

आते ही हिंदी दिवस, सब चिंतित यों होंय।

ज्यों ठाकुर के घर गमीं, रुदालियाँ सब रोंय ।।

हिंदी साहित्य की साधना में तल्लीन इस कवयित्री से हमारे समाज को बहुत आशाएँ हैं। हिंदी लेखिका संघ में सारस्वत मंच का संचालन करती आशा सक्सेना उन आशाओं पर खरी उतरेंगी, इसका सभी सुधी पाठकों को पूर्ण विश्वास है ।




जय प्रभा यादव

उन्नाव

 

4 टिप्‍पणियां:

  1. कवयित्री ने श्रेष्ठ दोहे लिखकर समाज को एक नयी दृष्टि देने का प्रयास किया है। आशा जी को शुभकामनाएं।

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  2. हार्दिक ‌‌‌बधाई।

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