बुधवार, 4 मई 2022

फ़िल्म समीक्षा

 



कौन थी मीरा?

(फ़िल्म - मीरा, निर्देशक - गुलज़ार)

अनिता मंडा

इतिहास ने मीरा को महानता और देवी का जामा पहनाकर उसके व्यक्तित्व को रहस्यवाद के आवरण में छिपा दिया। यह इसलिए भी किया गया ताकि समाज अपने सुविधाजनक स्वरूप में सुरक्षित रहे। उसकी वैचारिकता की चिंगारी आडम्बरयुक्त सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था के भूसे को भस्मीभूत कर सकती थी, इसलिए उस चिंगारी को पूजनीय बनाकर अलौकिक बना दिया।

मध्यकालीन भक्ति साहित्य में मीरा का नाम अमिट है। वास्तव में तो वो कबीर जैसी क्रांतिकारी थी।

1979 में प्रदर्शित गुलज़ार निर्देशित फ़िल्म मीरा के इसी ऐतिहासिक रूप को दिखाती है। इसकी पटकथा व संवाद लेखन में भी गुलज़ार ने कमाल किया है। साधारण मानव से कुछ अधिक मानवी और संवेदनशील मीरा के व्यक्तित्व में जान डाली है हेमा मालिनी के अभिनय ने।

कहानी में समय 1680 के आस पास का दिखाया है। वैसे तो इतिहास से सब परिचित ही हैं कि अकबर का पूरे राजपूताना पर अधिकार करने का मंसूबा होता है। राजाओं की आपसी रंजिशों से उसे काफी सफलता भी मिलती है। कूटनीति से वैवाहिक सम्बंध बनाकर मित्रता स्थापित करने में भी वह सफल रहता है परंतु जो रियासतें उसका विरोध करती हैं उनसे युद्ध चलता रहता है। मेड़ता के राजा बीरम देव राठौड़ की अपने पड़ौसी मेवाड़ के सिसोदिया राजपूतों से शत्रुता है लेकिन वो यह भी जानते हैं कि जिस दिन अकबर मेवाड़ तक आ पहुँचेगा; मेड़ता भी सुरक्षित नहीं रहेगा। सिसोदियों के साथ मित्रता स्थापित करने के लिए वे अपनी पुत्री कृष्णा का विवाह भोजराज से तय करते हैं। कुछ घटनाक्रम ऐसा होता है कि कृष्णा की मृत्यु हो जाती है और मीरा जो कि बीरमदेव के भाई रतनसिंह की बेटी है, जिसका विवाह भोजराज सिसोदिया से हो जाता है।  विनोद खन्ना, शम्मी कपूर, अमजद खान, श्रीराम लागू, दीना पाठक, ए. के. हंगल, ओम शिवपुरी, विद्या सिन्हा, सुधा चोपड़ा; सभी कलाकारों का बहुत उम्दा अभिनय है।

गुलज़ार के निर्देशन व संवादों का ही कमाल है कि फ़िल्म में कहीं भी युद्ध दृश्य उपस्थित न होते हुए भी युद्ध उपस्थित रहता है। एक तरफ बाहरी परिस्थितियों वाला यानी कि राजनीति व भौतिक जगत का युद्ध। साथ ही साथ भीतरी जगत का युद्ध यानी मन का अंतर्द्वंद। कोई सिनेमा देखते हुए यदि हम अपने आप को भीतर से टटोलने लगें, सवाल उठाने लगें, भीतर संवादरत हो जाएँ तो वह सिनेमा या कला का कोई भी माध्य्म हो यदि हमें इस स्तर तक ले जाता है तो वो श्रेष्ठतम है।

सत्य के पथ पर अडिग रहते हुए मीरा सुकरात की तरह ही विषपान करना स्वीकार करती है; पीछे हटना नहीं। क्या कमी थी उस मानवी को, सब तो था राज पाट, महल, रुतबा; फिर..... ऐसा क्या था जिसने ताउम्र की भटकन दे दी। क्यों नागवार थी उसे ऊंचे महलों की बंदिशें। क्या राज गुरु, कुल गुरु के पास ज्ञान कम था कि रैदास को गुरु बनाना पड़ा। जात-पात की दीवारें जिस काल में अभेद्य थी; वो कौनसी ताकत थी कि मीरा उससे टकरा गई।

अपने आध्यात्मिक मार्ग की तलाश में बुद्ध ने  राज तज दिया था, मीरा ने भी। लेकिन क्या मीरा का मार्ग बुद्ध जितना सहज था। आज इक्कीसवीं सदी के दो दशक गुज़र जाने के बाद भी सरकारों को नारा देना पड़ता है 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' । तो मध्यकाल में जहाँ राजनीतिक अस्थिरता थी, राज्य निरन्तर आक्रमणों का सामना कर रहे थे। राजनीतिक समझौतों के लिए स्त्रियों का विनिमय हो रहा था उस काल में कोई स्त्री अपनी आध्यात्मिक स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठाये यह किस तरह बर्दाश्त किया जाता। क्या यह दुश्वारियां सिर्फ़ कोई कालखंड तक सीमित हैं?

मीरा को देखते हुए कब हमारे भीतर की मीरा तड़पने लगती है तय नहीं कर सकते। फ़िल्म के बहुत सारे दृश्य एक कविता सी रचते हैं। परिस्थितिवश मीरा का विवाह होता है, तब नौकाएँ नदी से तैरते हुए जा रही हैं, पानी स्थिर है। जैसे मीरा के मन में उलझनों की नौकाएँ बहती जा रही हैं पर अपने आराध्य पर विश्वास का जल स्थिर है। किसी विश्वास, किसी आलम्बन के ज़रिए हमारे अंदर पत्थर जैसी दृढ़ता का निर्माण हो तो वह अनुकरणीय है।

मीरा अपने विश्वास पर दृढ़ रहती है। राज की मर्यादा के तहत मीरा पर धर्मसभा बुलाई जाती है। मीरा के अन्तर्जगत की यात्रा का चरम है यह दृश्य। ओम शिवपुरी (कुल गुरु) और हेमा (मीरा)  का आमना-सामना। मीरा के चेहरे पर व्याप्त भीतरी शांति और कुलगुरु का आवेशित व्यवहार।  यहाँ पर जितने सुंदर संवाद हैं  वैसे बहुत कम देखने को मिलते हैं।

मीरा विष का पान कर प्याला वापस दे देती है। प्याला लेते हुए देने वाले के हाथ से छूटकर धर्मसभा के बीच में चक्कर काटता रहता है। मीरा की स्थिरता पर कोई फ़र्क नहीं आता। यह समाज, यह राज व्यवस्था, धर्म के अधिकारी सब उस प्याले के समान हैं जो अपने विरुद्ध उठी विद्रोह की एक आवाज़ से काँप जाते हैं। मीरा बुद्ध और सुकरात हो जाती है। कबीर हो जाती है। क्या बुद्ध, सुकरात और कबीर मीरा हो सकते हैं?

फ़िल्म में मीरा की लिखी रचनाओं को संगीत के पुजारी रविशंकर ने अपने गहरे रियाज़ वाली धुनें दी हैं। ऐसा ही संगीत मीरा के भीतर भी तो उठता होगा। तभी तो पाँच सदी बाद भी वो गीत भुलाए न जा सके।

मीरा ने तुलसी की तरह कोई  चरित या महाकाव्य नहीं रचा। सूर की तरह लीला गान भी नहीं किया।

उसने तो अपने ही भावों को आवाज़ दी।

वाणी जयराम के गाढ़े सुर जब गाते हैं  "बाला मैं बैरागन हूँगी"  तो वैराग्य की एक लहर भीतर ही भीतर तरंगित होने लगती है।

"करनी फ़कीरी फिर क्या दिलगिरी"  की आवाज़ सुविधाओं को ठोकर मारने वाले दिल से ही निकल सकती है। "मेरे तो गिरधर गोपाल" के लिए वाणी जयराम को फिल्मफेयर मिला।

कॉस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथैया ने मीरा की वेशभूषा को इस तरह डिजाइन किया कि रंगों के माध्यम से उनकी यात्रा दिखाई दे।

निर्माता प्रेमजी ने मीरा के रूप में बहुत सुंदर फ़िल्म दी परन्तु जैसा कि अक्सर होता है दर्शकों के मन में भक्त मीरा की छवि थी जो कि जगत का मोह छोड़ भजन गाती है। कुलगुरु से ज़िरह करने वाली विदुषी मीरा आलोचकों को बहुत पसंद आई। परिणामस्वरूप मीरा को बॉक्स ऑफ़िस पर वो सफलता नहीं मिली जिसकी कि वो हक़दार थी।

***



अनिता मंडा

दिल्ली

 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुलझी हुई ईमानदार समीक्षा. बेहतरीन भाव आये लेखन में.
    अनिता जी को बहुत बधाई 💐

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  2. मीरा के नाम का सजीव चित्रण गुलज़ार साहब की फिल्म में हुआ और उतनी ही कमाल समीक्षा. अशेष बधाई अनिता जी को 🌹

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  3. मध्ययुगीन कालखंड की एक कालजयी विदुषी पात्र मीरा जो कि अद्वितीय हैं अर्थात् न भूतो न भविष्यति उस युग में एक नारी द्वारा किया गया ऐसा संघर्ष जिसे कोटि कोटि नमन। इसे रजत पटल पर उकेरने वाले कलाकारों यथा गुलजार, हेमा मालिनी, विनोद खन्ना, ओमपुरी, वाणी जयराम, पंडित रविशंकर सभी को साधुवाद। इस फिल्म की सटीक, अर्थपूर्ण, ईमानदार
    व बेहतरीन समीक्षा के लिए अनिता मंडा को बधाई व आशीर्वाद।

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  4. और ...मीरा की तड़प को फिर से जीवंत किया आपने अपने लेखन में , बधाई

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  5. बेहतरीन समीक्षा के लिए अनिता मुंडा जी को हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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