सोमवार, 4 अप्रैल 2022

कहानी

 

 


जब मैं ज़िंदा थी

डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

 

अँधेरा सुनसान रास्ता है फ़ॉरेस्ट रोड का। कई बार तो स्ट्रीट लाइट्स भी ख़राब रहती हैं। बाँजों-देवदारों का आच्छादन इतना घना है कि चाँदनी रात भी हो तो भी अँधेरा बना रहता है। रात के आठ-नौ बजे तक तो लोग इस रास्ते पर चले रहते हैं, लेकिन उसके बाद आवाजाही कम ही होती है। कोई शराबी या लोफ़र ही देर रात इस रास्ते से गुज़रते हुए मिलते हैं।

आज रात के दस बज रहे हैं और इस सुनसान रास्ते पर एक युवती के सैंडलों की टापें सुनाई दे रही हैं। यहाँ से बस्ती अभी लगभग एक किलोमीटर दूर है। इस समय यह युवती इस विजन मार्ग पर कैसे?

दरअसल सारिका को घर लौटने में आज बहुत देर हो गई थी। वह कन्या महाविद्यालय में कला स्नातक  के कोर्स में तृतीय वर्ष की छात्रा थी। उसका प्रमुख विषय नृत्य था। आज गेयटी थिएटर में कथक कॉन्सर्ट के लिए गई थी। कार्यक्रम शाम सात बजे शुरू होना था, लेकिन मुख्यातिथि ने आने में बहुत विलम्ब कर दिया, जिस कारण कॉन्सर्ट आठ बजे शुरू हुआ। सभी प्रस्तुतियों के मंचन में और उन सबके बाद  मुख्यातिथि के भाषण की औपचारिकता में रात के नौ बज गए थे। अब न तो बस मिल सकती थी और न ही कोई ऐसा था जो सारिका को घर तक छोड़ देता। सारिका के पिता सरकारी टूअर पर शिमला से बाहर गए हुए थे और माँ घर पर अकेली थी। अब उसे अकेले ही घर तक पहुँचना था।

साढ़े आठ बजे मॉल रोड की बहुत-सी दुकानें बंद हो चुकी थीं। कुछ-एक रेस्तराँ खुले थे और कुछ लोग अपने-अपने घरों की ओर अग्रसर दिखाई दे रहे थे। मॉल रोड से पैदल लगभग तीन किलोमीटर का रास्ता था, जिसमें एक किलोमीटर बिल्कुल सुनसान जगह से जाना था, लेकिन सारिका ने मन पक्का किया और घर की ओर निकल पड़ी। 

तेज़-तेज़ क़दमों से वह मॉल रोड से ऊपर फ़ॉरेस्ट रोड की ओर बढ़ गई। उसने कलाई पर बँधी अपनी घड़ी में वक़्त देखा, साढ़े नौ बज रहे थे। चढ़ाई पर बढ़ते हुए उसकी साँसें फूल रही थीं मगर वह लगातार चढ़ती चली गई।

चढ़ाई पूरी होते ही फ़ॉरेस्ट रोड आरम्भ हो गया। सारिका के मन में दबा-दबा भय तो था, लेकिन साहस जुटाती हुई वह लम्बे-लम्बे डग भर रही थी। अब वह उस मोड़ पर पहुँच गई थी जिसे चुड़ैल बावली कहा जाता था, क्योंकि अँग्रेज़ी शासन काल के समय इस जगह कभी चुड़ैल का वास था। बात तो बहुत पुरानी थी, लेकिन  इस स्थान के नाम से ही लोगों के मन में भय रहता था।

सारिका ने भी चुड़ैल बावली के बारे में सुन रखा था। उसे डर तो लग रहा था, लेकिन ईश्वर का नाम लेती हुई वह बढ़ती जा रही थी। रास्ते में अँधियारा था। कुछ-कुछ दूरी पर स्ट्रीट लाइट की मद्धम-सी रोशनी थी, जिसके सहारे सड़क दिखाई दे रही थी। हल्की-हल्की धुँध छाई होने के कारण उस जगह का माहौल डर बढ़ाने वाला था। इस समय रास्ता बिल्कुल निर्जन था, ख़ामोशी पसरी हुई थी; बीच-बीच में पेड़ों पर एक-दूजे के साथ चिपक-कर बैठे हुए बन्दरों की चीं-चीं की आवाज़ कानों में पड़ रही थी। सन्नाटे में उनकी मौजूदगी भी सारिका के लिए एक बहुत बड़ा सहारा लग रही थी।

 

सिर झुकाए सारिका चलती गई। इसी पहाड़ी की चोटी पर जाखू में स्थित हनुमान मन्दिर का ध्यान करते हुए वह मन ही मन कहती जा रही थी, "हनुमान जी, घर तक ठीक-ठाक पहुँचा दो... मेरा साथ दो, भगवन।" अगले मोड़ पर पहुँचते ही सारिका ने देखा एक तेज़ रोशनी उसकी ओर बढ़ रही थी। यह एक स्कूटर था जो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रहा था। उसकी हैडलाइट इतनी तेज़ थी कि उसे कुछ भी साफ़-साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था। उस सन्नाटे में मनुष्य की उपस्थिति एक घड़ी को उत्साह बढ़ाने वाली थी, लेकिन दूसरे क्षण उसे लगा ये लोग कहीं गुण्डे-मवाली न हों। वह डरी-सहमी आगे बढ़ती गई। स्कूटर पर तीन सवार थे। लड़की को देख कर एक पल के लिए स्कूटर की ब्रेक लगी, मगर सारिका ने उनकी ओर नहीं देखा और तेज़ चाल से आगे बढ़ गई।

स्कूटर पर सवार तीनों लड़के शराब के नशे में थे और दूसरे धुँध थी, जिस वजह से वे स्कूटर को धीरे-धीरे चला रहे थे। देर रात अकेली लड़की को इस सुनसान रास्ते पर देख कर वे आपस में फुसफुसाने लगे, "भाई, ये कौन जा रही है इस वक़्त यहाँ से . . ." स्कूटर चलाने वाला पीछे लड़की की तरफ़ मुड़कर देखते हुए बोला। "चलो देख लेते हैं . . . स्कूटर मोड़ ले ज़रा," दूसरा कहने लगा। और उन्होंने यू-टर्न ले लिया।

लड़की मोड़ के दूसरी तरफ़ निकल चुकी थी। स्कूटर को अपने पीछी आते देख सारिका बहुट ज़्यादा डर गई। वह काँप रही थी लेकिन हनुमान जी का ध्यान करती हुई बढ़ती जा रही थी। हैडलाइट की रोशनी में लड़कों ने देखा लड़की ने सामान्य से कुछ अलग वस्त्र पहने हुए थे। दरअसल सारिका ने थिएटर से निकलते समय परिधान को नहीं बदला था। घर जाने की जल्दी में उसने सिर्फ़ घुँघरू उतार कर अपने बैग में डाले और दौड़ पड़ी थी। उसने गुलाबी रंग का चूड़ीदार फ़्रॉक, लाल सदरी और कसा हुआ पायजामा पहन रखा था, ऊपर फूल-बूटों वाला दुपट्टा ओढ़ा हुआ था। सारिका के समीप पहुँच कर लड़कों ने स्कूटर रोका और उससे बात करने के लिए आगे बढ़े। सारिका सिर झुकाए चली जा रही थी। एक लड़के ने तेज़ क़दम बढ़ाकर उसका रास्ता रोका और पूछा, "हैलो जी, आप इस टाइम कहाँ जा रही हैं . . . यूँ अकेले-अकेले . . . आपको डर नहीं लगता?"

सारिका डर गई थी, लेकिन उसने ख़ुद को सँभाला और गर्दन को ऐंठते हुए, आँखें फैलाते हुए, भारी आवाज़ करके उसके सवाल का जवाब दिया, "डर तो भाई तब लगता था जब मैं ज़िंदा थी।"

लड़की की बड़ी-बड़ी आँखें, उनमें काजल और मेक-अप से दमकता हुआ गुलाबी चेहरा देखकर लड़के कुछ सकपका गए। चुड़ैल बावली के पास की जगह थी और फिर लड़की की असामान्य मुद्रा एवं वाणी से वे चौंक गए। पीछे खड़े दो लड़कों ने लड़की से बात कर रहे अपने साथी को पीछे खींच लिया और उसके कान में धीरे-से कहने लगा, "चुड़ैल . . ."। फिर तीनों स्कूटर पर बैठे और तुरन्त वापिस हो लिए। उनका नशा उतर चुका था। ¡


 

डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

एसोसिएट प्रोफ़ेसर(अंग्रेज़ी)

शिमला: 171004

हिमाचल प्रदेश

3 टिप्‍पणियां:

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...