अहिंसा
दर्शन की परंपरा और गाँधी
कुलदीप
कुमार ‘आशकिरण’
मनुष्य स्वभावतः सृजनाशील होता है और
प्रत्येक सृजन मूलतः आत्मसृजन होता है। जीवन की सार्थकता ही परम साध्य है। इसी
सृजनशीलता और परम साध्य के बीच की कड़ी है अहिंसा दर्शन। अहिंसा सामान्यतया हिंसा
का विलोम है, अर्थात हिंसा न करना ही अहिंसा है। हम कह सकते हैं कि किसी भी
व्यक्ति को, पशु, पक्षी व अन्य किसी को किसी तरह का नुकसान न पपहुँचाना अहिंसा है।
हमारे भारतीय शास्त्रों में अहिंसा को परम धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है-
'अहिंसा परमो धर्म: यतो धर्मस्ततो जयः।'
अहिंसा एक दर्शन है जिसकी परंपरा हिंदू
शास्त्रों से प्रस्फुटित होकर जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई धर्म शास्त्रों के माध्यम से
पल्लवित होते हुए निरंतर प्रवहमान है। इतिहास में 10वीं सदी से 19वीं सदी तक का
समय हिंसा की चरमावस्था का काल रहा है, जहाँ सत्ता के संघर्ष के लिए आमजन के साथ
क्रूरतम व्यवहार किया गया। किंतु उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक अनेक ऐसे
महापुरुष अवतरित हुए थे जिन्होंने अहिंसा के बल पर आमजन के हृदय में अपनी जगह बनाई
महात्मा गाँधी इन महापुरुषों में से एक थे जिन्होंने सभी धर्मों से अहिंसा का पाठ
सीख कर भारत को ही नहीं दुनिया भर को अहिंसा का पाठ पढ़ाया।
हिन्दू
शास्त्रों में अहिंसा-
अहिंसा को परंपरा की दृष्टि से देखें तो
हिंदू शास्त्रों (मनुस्मृति और उपनिषद) में उसके प्रारंभिक रूप दिखाई देते हैं।
हिंदू शास्त्रों में अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह इन पाँच यमों
को जाति, देश, काल तथा समय से अविच्छिन्न होने के कारण सम्भावेन, सार्वभौम तथा
महाव्रत कहा गया है। (योगसूत्र २/३१) और इसमें अहिंसा को सबसे बड़ा महाव्रत कहा
गया है। हिंदू शास्त्रों की दृष्टि से अहिंसा का तात्पर्य सर्वथा तथा सर्वदा (मनसा
वाचा कर्मणा) सब प्राणियों के साथ द्रोह का अभाव माना गया है। व्यास भाष्य के योग
सूत्र २/३० में लिखा है- अहिंसा सर्वदा सर्वदा सर्वभूतानां मन विदोह:।
योगशास्त्र में यम तथा नियम अहिंसा मूलक
माने गए हैं और अगर इनके द्वारा किसी प्रकार की हिंसावृत्ति का उदय होता है तो वह
साधना की सिद्धि उपादेय तथा उपकारक नहीं माने जाते। हमारे वैष्णव संतों ने अहिंसा
को धर्म माना। कुछ परिस्थितियों को छोड़कर इन्होंने सदैव अहिंसात्मक मार्ग का पालन
करते हुए अहिंसा की शिक्षा दी।
मुस्लिम
धर्म में अहिंसा-
वर्तमान में मुस्लिम धर्म को जिस रूप
में प्रस्तुत किया जा रहा है और समाज में इसे जिस दृष्टि से देखा जा रहा है उससे
हम सभी परिचित हैं। यह समाज का दोष नहीं, कुछ तथाकथित मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अपने
शास्त्रों की गलत व्याख्या की जिससे आम समाज में इसे हिंसात्मकता के प्रति रूप में
माना जाने लगा। किंतु मुस्लिम धर्म के पवित्र ग्रंथ कुरान में सत्याग्रह के
पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कुरान हमें संयम और प्रेम की शिक्षा प्रदान करता है
क़ुरान में वर्णित है कि, "हिंसा कोई भलाई नहीं पहुँचा सकती है बल्कि नुकसान
ही पहुँचा सकती है।"
अपने मुस्लिम मित्रों के संदर्भ में गाँधी
जी कहते हैं कुछ मुसलमान मित्र मुझे बताते हैं कि मुसलमान विशुद्ध अहिंसा का
समर्थन कभी नहीं करेंगे। उनका कहना है कि मुसलमानों की दृष्टि में जितनी जरूरी
अहिंसा है उतनी ही हिंसा भी। इसमें से किसका प्रयोग किया जाए यह परिस्थितियों पर
निर्भर करता है। दोनों की वैधता का औचित्य सिद्ध करने के लिए कुरान की आवश्यकता
नहीं है। गाँधी जी आगे भी लिखते हैं कि मैंने अनेक मुसलमान मित्रों से सुना है कि
कुरान में अहिंसा के इस्तेमाल की सीख दी गई है उसमें प्रतिशोध से सहिष्णुता को श्रेष्ठ
बताया गया है। देखा जाए तो इस्लाम शब्द का अर्थ ही शांति है जिसका मतलब है अहिंसा।
जैन
धर्म में अहिंसा-
जैन धर्म को अहिंसा की प्रतिमूर्ति माना
गया है जैन धर्म शास्त्रों के अनुसार सभी जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार अहिंसा
है। जैन ग्रंथ आचारांगसूत्र (तीसरी-चौथी शताब्दी) में लिखा है कि भूत, भावी और
वर्तमान के अर्हूत यही कहते हैं किसी भी जीवित प्राणी को, किसी भी जंतु को, किसी
भी वस्तु को जिसमें आत्मा है न मारो, न उससे अनुचित व्यवहार करो, न अपमानित करो, न
कष्ट दो, न सताओ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु यह सब अलग जीव हैं। सभी में भिन्न-भिन्न
व्यक्तित्व के धारक अलग-अलग जीव हैं। इन स्थावर जीवों के अतिरिक्त जंगम प्राणी है
जिसमें चलने फिरने का सामर्थ्य होता है। यह जीवों के छः वर्ग हैं। जंगम हो या
स्थावर सभी जीवों को दु:ख अप्रिय है। यह समझकर मुमुक्षु सभी जीवों के प्रति अहिंसा
भाव रखें। जैन धर्मशास्त्रों में हिंसा का पूर्णतया निषेध माना गया है और स्पष्ट
रूप से कहा गया है कि 'सब जीव जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता इसीलिए निग्रंथ
प्राणी वध का वर्जन करते हैं।'
बौद्ध
तथा ईसाई धर्म ग्रंथों में अहिंसा
हिंदू और जैन धर्मों की अहिंसात्मक
प्रवृत्ति का प्रभाव बौद्ध व ईसाई धर्मशास्त्रों पर परिलक्षित होता है। बौद्ध
अहिंसा निसंदेह जैन धर्म के महत्त्व के समान न थी, किंतु उसका प्रभाव भी संसार पर कम
नहीं है। उसी का यह परिणाम था कि रक्त और लूट के नाम पर दौड़ पड़ने वाली मध्य एशिया
की विकराल जातियां प्रेम और दया की मूर्ति बन गई।
बौद्ध धर्म का प्रभाव ईसाई धर्म पर
विशेष रूप से पड़ा जिससे इसाई भी अहिंसा के प्रति विशेष आकृष्ट हुए। ईशा ने जो
आत्मोत्सर्ग किया वह प्रेम और अहिंसा का ही उदाहरण था। उन्होंने अपने हत्यारों तक
की सदगति के लिए भगवान से प्रार्थना की। टालस्टाय और गाँधी ईशा के इस अहिंसात्मक
आचरण से बहुत प्रभावित हुए और इनके मार्ग का अनुसरण भी किया।
गाँधी
जी का अहिंसा दर्शन
गाँधी जी का अहिंसा दर्शन मध्यममार्गी
अहिंसा दर्शन है। गाँधी जी ने जैनों की अतिवादी तथा कठोर अहिंसा तथा मनु द्वारा
प्रतिपादित अधिक लचीली अहिंसा के मध्य अपने अहिंसा दर्शन को विकसित किया। गाँधी जी
अपने अहिंसा दर्शन में वैचारिक सावधानी पर विशेष बल देते हैं। उनका मत है कि 'वाणी
एवं संवेगों को भी नियंत्रित करना अनिवार्य है। जीवन की आवश्यकताओं में संयम रखना
अपेक्षित है।' इस प्रकार गाँधी जी की अहिंसा की अवधारणा मन वचन कर्म से है। गाँधी
जी अहिंसा को मानव का प्राकृतिक गुण मानते थे, उनका मानना था कि 'मनुष्य प्राकृतिक
रूप से स्वभावतः अहिंसा प्रिय है। परिस्थितियों के कारण ही वह हिंसक बनता है।
गाँधी जी का अहिंसा दर्शन एक
सुव्यवस्थित समाज निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका रखता है। उनका मत था कि अहिंसा
के आधार पर ही सुव्यवस्थित समाज की स्थापना व मानव प्रगति निर्भर है। अहिंसा समस्त
जीवों का शाश्वत नियम है। अहिंसा समस्त शक्तियों से शक्तिशाली है। यह आत्मिक एवं
आध्यात्मिक शक्ति का रूप है। अहिंसा में कठोर से कठोर दृश्य को पिघलाने की शक्ति
है, यह विद्युत से अधिक निश्चयात्मक और ईश्वर से भी अधिक शक्तिशाली है।
विश्व में अहिंसा की विचारधारा कई वर्ष
पुरानी है, किंतु गाँधी जी का अहिंसा दर्शन एक नवीन मौलिक दर्शन है, क्योंकि गाँधी
जी की अहिंसा में व्यावहारिकता समाहित हैं। उन्होंने अहिंसा संबंधी केवल विचार ही
प्रस्तुत नहीं किए बल्कि अहिंसा का प्रयोग स्वयं अपने जीवन में किया और संपूर्ण
देश का इस सिद्धांत के साथ तादात्म्य करवाया। उन्होंने अपने जीवन की प्रयोगशाला
में अहिंसा का निरंतर परीक्षण किया। अहिंसा को व्यावहारिक बनाकर इसकी प्राचीन
अर्थों की सीमाओं का विस्तार किया। उसके वैयक्तिक तत्व में सामाजिकता का समावेश कर
उसके निष्क्रिय एवं सैद्धांतिक पक्ष को अत्यंत सक्रिय बना दिया। गाँधी जी से पूर्व
अहिंसा केवल व्यक्तिगत साधना या राजनीति का ही अंग थी, किंतु गाँधी जी ने इसे समाज
की समस्त साधना का अंग बना दिया। इनका मानना था कि अहिंसा सभी धर्मों का तार्किक
पूर्वाधार है।
गाँधी जी का अहिंसा दर्शन प्राचीन
संकीर्ण धारणाओं से निकलकर विस्तृत रूप में है। उन्होंने अहिंसा को अध्यात्म एवं
व्यावहारिक दोनों जीवनों के लिए आवश्यक माना इसलिए गाँधीजी के अहिंसा संबंधी
मान्यताओं को प्रगतिशील माना गया है।
गाँधी जी अहिंसा को व्यावहारिक रूप में
अपनाने पर बल देते हैं। हम कह सकते हैं कि गाँधी का अहिंसात्मक दृष्टिकोण
व्यावहारिक है, क्योंकि वह स्वयं को व्यावहारिक और आशावादी कहते हैं। गाँधी जी का
मत है कि 'मेरी अहिंसा अपने ढंग की है। मैं जानवरों को न मारने का सिद्धांत पूरी
तरह स्वीकार नहीं कर सकता। जो पशु मनुष्य को खा जाते हैं या नुकसान पहुँचाते हैं
उनकी जान बचाने कि मुझमें कोई भावना नहीं है। उनकी वंशवृद्धि में सहायक होना मैं
अनुचित मानता हूँ।' अतः गाँधी जी जानवरों को न मारने का सिद्धांत पूरी तरह स्वीकार
नहीं करते थे। इस बात को वह अपनी आत्मकथा में स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि 'पूर्ण
अहिंसा में विश्वास करने वाले व्यक्ति के लिए व्यवहारिक जीवन भी धर्म संकट है।
ज्ञात तथा अज्ञात रूप से स्थूल हिंसा किए बिना मनुष्य एक क्षण भी जी नहीं सकता है।
चाहे वह हमारा भोजन हो या जल ग्रहण या हमारा चलना हो या घूमना इन सब में कुछ ना
कुछ हिंसा होती ही है।'
गाँधी जी का अहिंसा दर्शन परिस्थितिजन्य
है। किंतु इसके मूल में प्रेम और करुणा है। उनका मानना था कि अहिंसा का अधिष्ठान
हमारा अंत:स्थल होना चाहिए। साथ ही प्रेम और करुणा को हम आचरण में जितना स्थान
देंगे उतना ही अहिंसा का पालन कर सकते हैं और नैतिकता की दृष्टि से भी ऊपर उठ सकते
हैं। हम अक्सर सुनते हैं कि अहिंसा का जन्म कायरता से होता है जबकि अहिंसा हिम्मत
से पैदा होती है। गाँधी जी भी इस संदर्भ में अपना मत व्यक्त करते हैं कि 'जहाँ
केवल कायरता और हिंसा के बीच चुनाव करना हो वहाँ मैं हिंसा की ही सलाह दूँगा।'
गाँधी जी ने अपने अहिंसा दर्शन संबंधी
मतों या सिद्धांत के लिए अन्य धर्म शास्त्रों की भाँति ही कुछ तत्वों को अनिवार्य
माना है। जिसके द्वारा मानव में अहिंसा के भाव उत्पन्न हो सके। उन्होंने इसके लिए
सत्य, आंतरिक शुद्धता, उपवास, निर्भीकता तथा अपरिग्रह को अहिंसा दर्शन का मूल तत्व
माना। उनका मानना था कि जिस मनुष्य ने इन तत्वों को पूर्णता धारण कर लिया हो वह
अहिंसात्मक कभी नहीं हो सकता।
गाँधी जी अपने अहिंसा दर्शन में केवल
अहिंसा का ही संदेश नहीं देते बल्कि उसे अपने जीवन में अपनाते भी हैं, और रचनात्मक
तरीके से जी कर भी दिखाते हैं। वह प्रेम, करुणा, सर्वधर्म समभाव, विश्व बंधुत्व,
वसुधैव कुटुंबकम, सर्वे भवंतु सुखिनः, जियो और जीने दो, प्राणियों में सद्भावना
हो, विश्व का कल्याण हो आदि शुभकामनाओं से विश्व को प्रेरित करते हैं। इनके
अहिंसात्मक विचारों में मानव मात्र का कल्याण ही नहीं अपितु वनस्पति जगत के लिए भी
मंगल भावना दिखाई देती है। इनके मतों से भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर के किसी भी
धर्म का मतावलंबी असहमत नहीं हो सकता। उन्होंने रंगभेद, लिंगभेद, असमानता, दासता,
पराधीनता आदि को अहिंसा के माध्यम से हल कर दुनियाभर को अचंभित कर दिया। और विश्व
को शाकाहार, नशा मुक्ति, सुखी परिवार संबंध आदि का संदेश देते हए व्यावहारिक तरीके
से अहिंसामय बनने का रास्ता दिखाया। शायद यही कारण है कि आज संपूर्ण विश्व उनके
जन्म दिवस को अहिंसा दिवस के रूप में मनाता है।
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
पीएच.डी. शोधछात्र
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय,
वल्लभ विद्यानगर
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