पत्रकारिता
का दायित्व
डॉ.
भावना ठक्कर
पत्रकारिता
समाज का अभिन्न अंग है। यह समाज का दर्पण एवं दीपक है। समाज को एक नई दिशा प्रदान
करना इसका मुख्य उद्देश्य है। पत्रकारिता जनहितकारी नीतियों एवं योजनाओं को
जनसामान्य तक पहुँचाने का माध्यम है। यह एक ऐसी सूचनात्मक, शिक्षाप्रद
व मनोरंजनात्मक कला है जिसके अनगिनत समीक्षक हैं।
पत्रकारिता
कभी हमें प्रेरक, कभी उत्तेजक तो कभी भविष्य का स्वरूप
दिखाती है अर्थात् इसे हम क्षण-क्षण बदलता
हुआ दैनिक इतिहास भी कह सकते हैं। ऐसे में आज पत्रकार की भूमिका अत्यधिक
महत्त्वपूर्ण है। समाज में जो हुआ है, जो हो रहा है
और जो होने वाला है इन सब पर पत्रकार की एक पैनी दृष्टि का होना अति आवश्यक है।
साथ ही इसे 'बहुजन
हिताय'
की
भावना को भी सिद्ध करना है। इसीलिए आज पत्रकार का महत्व एवं उत्तरदायित्व दोनों
बढ़ गए हैं। गाँधी जी ने इसीलिए पत्रकार को एक समाज सुधारक का दर्जा दिया है।
उन्होंने पत्रकारिता के मुख्य तीन उद्देश्य बताएँ हैं, प्रथम
है- जनता के विचार एवं इच्छाओं को समझना व उन्हें व्यक्त करना। दो- जनता में
वांछनीय भावनाएँ जागृत करना। तीन- सार्वजनिक दोषों को दूर करना।
आज पत्रकारिता
का क्षेत्र अति विशाल हो गया है। रेडियो पत्रकारिता, समाचार
पत्र पत्रकारिता, टेलीविजन पत्रकारिता,
वेब
पत्रकारिता आदि। यदि इसे हम एक पत्रकारिता युग कहेंगे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
चाहे चीन से कोरोना फैलने की बात हो, पाकिस्तान से
टिड्डियों के आने की बात हो, रूस-यूक्रेन
युद्ध की बात हो, कोई भी राजनीतिक समाचार हो,
भूकंप
की बात हो या फिर बाढ़ जैसी आपदा की बात हो; पत्रकारिता
के विविध माध्यमों ने इसे जन सामान्य तक सुलभ करवाया है। ऐसे में तथ्य एवं
वास्तविकता के साथ खिलवाड़ न हो यह अति आवश्यक है।
आज भूमंडलीकरण,
बाजारवाद
एवं उदारीकरण ने पत्रकारिता के स्वरूप में काफी बदलाव एवं परिवर्तन कर दिया है।
शंकर दयाल शर्मा के अनुसार "पत्रकारिता पेशा नहीं है, यह
जनसेवा का माध्यम है। लोकतांत्रिक परंपराओं की रक्षा करना, शांति
एवं भाईचारे की भावना बढ़ाना यही इसकी अहम भूमिका है।" ऐसे में आज की परिस्थिति
में इंसाफ और इतिहास की मांग को पूर्ण करने की जिम्मेदारी पत्रकारिता की है।
पत्रकारिता की महत्ता दर्शाते हुए कलराज मिश्र जी बताते हैं कि "पत्रकारिता
ने समाज में एकजुटता पैदा की है। सकारात्मक वातावरण का निर्माण किया है। लोगों के
मन में सद्भावना का भाव जगा कर समाज को जोड़े रखा है।"
आज
पत्रकारिता के क्षेत्र में दो वर्ग उभर कर सामने आए हैं। एक वर्ग ऐसा है जो स्वयं
ही आर्थिक मोह वश बाजारीकरण के जाल में फँस गया है एवं दूसरा वर्ग अपनी स्वतंत्रता
को बचाने के लिए वास्तविक तथ्यों को उभारने के लिए लड़ रहा है,
किन्तु
राजनीतिक पहलुओं के नीचे दब-सा गया है, जिन्हें
सच्चाई को उभारने से हमेशा रोका जा रहा है। इन दोनों पहलुओं पर एक-एक करके चर्चा
करना अति आवश्यक है।
प्रथम पहलू
पर अगर बात करें तो पत्रकारिता पर आज वाणिज्य सिद्धांत, राजनीति
के सिद्धांत एवं अर्थशास्त्र के सिद्धांत अधिक लागू हैं, यह
चिंतनीय विषय है। इसमें भी आर्थिक उदारीकरण ने पत्रकारिता के चेहरे को पूरी तरह से
बदल दिया है। विज्ञापन से होने वाली कमाई ने उसे काफी हद तक व्यवसायिक बना दिया है,
जिसके
फल स्वरूप सामाजिक सरोकारों से यह भटक गया है।
बाजारवाद एवं
पत्रकारिता के अंतः संबंधों ने भी पत्रकारिता की विषय वस्तु एवं प्रस्तुति शैली
में व्यापक परिवर्तन किया है। आज समाचारों में वस्तुनिष्ठता की कमी तथा व्यक्तिगत
पक्षपात ज्यादा पाया जाता है। कोई राजनीतिक व्यक्ति या उच्च ओहदे से जुड़े व्यक्ति
की खबर को बढ़ा-चढ़ाकर अच्छे से कवर किया जाता है, किंतु सामान्य जनता को इतनी
महत्ता नहीं दी जाती है। इसका कुछ समय पूर्व का दृष्टांत देखें तो जातिवाद
(रेसिजम) का मुद्दा जिसने अमेरिका में तनातनी पैदा कर दी थी। 46
वर्षीय
अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की 25 मई को
मिनेसोटा में पुलिस हिरासत में हुई मौत के बाद हुए विरोध प्रर्दशन से हम सभी वाकिफ
हैं। भारत में ऐसे हजारों जॉर्ज जाति- धर्म के नाम पर मारे गए लेकिन एक साथ कभी
विरोध नहीं उठाया गया।
आज पत्रकार
वर्ग ग्राहक,
पाठक
के आकार एवं संख्या को बढ़ाने में लगा है। जिसके चलते अन्य व्यवसाय की तरह
पत्रकारिता को भी एक व्यवसाय मानकर संचालित करते हैं, जो
गलत है। आज समाचार पत्र आकर्षक एवं मनोरंजनप्रद अवश्य बन गए हैं लेकिन तथ्यपरकता
एवं सत्यता से काफी दूर चले गए हैं। ऐसे में सन् १९२५ में वृंदावन के हिन्दी
साहित्य सम्मेलन में सुविख्यात पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर ने जो भविष्यवाणी
की थी उसे दोहराना आवश्यक लग रहा है। उन्होंने कहा था कि "आने वाले वर्षों
में समाचार पत्र-पत्रिका निकालना बड़े-बड़े सेठ साहूकारों का काम होगा। इनकी छपाई
सुंदर व आकर्षक होगी। इनकी संख्या लाखों-करोड़ों में होंगी। यह रंग-बिरंगी होंगी।
पृष्ठ साज-सज्जा से सुसज्जित होंगे। लेकिन इसके बावजूद समाचार पत्र प्राणहीन
होंगे।" आज से 95-96 वर्ष पूर्व कही गई पराड़कर जी
की बात आज कितनी सार्थक हो रही है। उनकी भविष्यवाणी आज काफी हद तक सत्य साबित हो
रही है। ऐसे में आज पत्रकारिता के समक्ष सबसे बड़ा संकट उसकी विश्वसनीयता को लेकर
है। कुछ समय पूर्व जब कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से हर देश,
हर
व्यक्ति घिरा हुआ था उस समय के कोरोना काल के डाटा को देखें तो हर पत्रिका,
हर
न्यूज़ चैनल जो आँकड़े प्रस्तुत कर रही थी उसमें कहीं समानता नहीं थी,
फिर
चाहे वह कोरोना मरीजों की संख्या हो, कोरोना
मृतकों की संख्या हो या कोरोनावायरस से ठीक होने वाले मरीज की संख्या हो या फिर
हमारे श्रमिक मजदूरों की संख्या हो, हर जगह हमें उनके आँकड़ों में विषमता दिखाई
देती थी। उसी प्रकार रूस-यूक्रेन युद्ध जिसे चलते आज तकरीबन एक महीना होने को आया,
युद्ध
के पीछे का सही कारण, युद्ध से मरने वाले मृतकों की संख्या,
युद्ध
से होने वाले नुकसान की जानकारी पत्रकारिता के विभिन्न रूपों के जरिए हमारे पास आ रही
है। उसमें भी हमे काफी असमानता दिखती है। इतना ही नहीं आज एक ही सूचना को,
एक
ही जानकारी को अलग-अलग तरीके से, अनवरत रूप से
परोसा जा रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे आज मीडिया डिपेंडेंट की जगह इंटर डिपेंडेंट
हो गया है।
कोरोना काल
में लॉक डाउन के समय जब मीडिया एवं पत्रकारिता की माँग बढ़ी थी तब वास्तविकता के
साथ खिलवाड़ एक प्रमुख समस्या बन गई थी। समाज हित की जगह स्व हित सर्वोपरि हो गया
था। भ्रामक समाचार (फेक न्यूज़) एक चिंता का विषय बना था। कभी छानबीन के अभाव में
तो कभी सनसनी फैलाने या कभी ब्रेकिंग न्यूज़ के तहत इसका बोल बाला बढ़ा है। आज
अनेक नवीन चैनल मनमाने ढंग से समाचारों को प्रस्तुत कर रही हैं। पाठकों को बाँधे
रखना एवं वाहवाही जुटाना इनका मुख्य उद्देश्य हो गया है। आज यह पूरा प्रोफेशनल हो
गया है। हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के दबाव को लेकर, प्लाज्मा
थैरापी को लेकर एवं अन्य अनेक खबरों ने जनमानस को जो प्रभावित किया था,
उसके
दुष्परिणाम से हम सभी वाकिफ है। उस समय ऐसा लग रहा था जैसे हम कोरोना विस्फोट के
साथ-साथ समाचारों के विस्फोट से भी लड़ रहे थे, ऐसे
में अफवाहों को रोकना एवं सत्य व सटीक सूचनाओं को जनमानस तक पहुँचाना यह भी
पत्रकारिता का ही उत्तरदायित्व है।
पत्रकारिता
का एक वर्ग ऐसा है जो सत्य को जानते हुए भी सत्य का सामना करने में अक्षम है। यह
वर्ग पितामह भीष्म की तरह लाचार-सा हो गया है, जानकर
भी सच का साथ कई बार नहीं दे पा रहा है। चीन ने वायरस के कारण हुई मौतों के आँकड़ों
को छिपाने के लिए डॉक्टरों एवं मीडिया कर्मियों पर किस तरह दबाव बनाया था और अपने
दमनकारी तरीकों को इस्तेमाल किया था, हम सब इससे वाकिफ है। इसके साथ ही सत्य का
सामना करने वाली विद्रोह वादी पत्रकारिता भी है, जिनका
मानना है कि लाखों लोग हम पर नजर बनाए हुए हैं, हम
से अपेक्षा रखे हुए हैं इसलिए यह वर्ग परेशानियों का सामना करते हुए,
खतरे
की घंटी बजाते हुए आपदा कालीन परिस्थितियों में इंसाफ और इतिहास की माँग को पूरा
करते हुए,
सही
खबरों एवं सरकार की खामियों को उजागर कर रहा है। किन्तु ऐसे साहसी पत्रकारों के
विरुद्ध भी अभियान चलाया जा रहा है। उनके दमन की डरावनी तस्वीरें हम देखते ही हैं।
90
के
दशक से इसमें और तेजी आयी है और रही सही कसर आज इंटरनेट मीडिया और सोशल मीडिया ने
पूरी कर दी है। आज सूचना व संचार के विस्तृत दायरे के साथ-साथ पत्रकारों व मीडिया
कर्मियों पर हमले एवं उत्पीड़न की घटनाएँ भी बढ़ी है। आज सत्ता,
राजनीति
की हरकतों का पर्दाफाश करने या उन पर ऊँगली उठाने वाले पत्रकारों को चुन-चुन कर
निशाना बनाया जा रहा है। इसके कुछ दृष्टांत देखें तो पत्रकार चेन क्विशी को वुहान
में कोरोना संक्रमण की कवरेज करने पर फरवरी 2020 से
गायब कर दिया था। चीन में मीडिया संस्थान कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य ही चलाते
हैं। सरकार या प्रशासन के खिलाफ अपनी राय जाहिर करनेवालों के लिए चीन में सबसे बड़ा
जेल बना हुआ है। आर. एस. एस. की रिपोर्ट के मुताबिक "सोशल नेटवर्कों या
मैसेजिंग सर्विस में सिर्फ एक पोस्ट लिखने के कारण उन्हें अक्सर अमानवीय
परिस्थितियों में कैद किया जा रहा है। इथियोपिया के पत्रकार शिमेलिस को कोविड-19
के
संदर्भ में रिपोर्ट जारी करने पर उसे आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त बताकर 27
मार्च
2020
को
हिरासत में ले लिया। म्यानमार सरकार ने भी मार्च के अंत तक 220
से
ज्यादा वेबसाइट्स पर प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि उनका मानना था कि वे सभी कोविड-19
के
संदर्भ में भ्रमात्मक समाचार प्रस्तुत कर रही थी। फिलिपिंस की सरकार ने भी अपने दो
पत्रकार मारियो बचुगास और अमोर विराता पर कोविड-19 के
बारे में गलत खबरें प्रकाशित करने के आरोप में आपराधिक कार्यवाही की थी। ईरान की
सरकार ने सरकारी नीतियों की आलोचना करने पर पत्रकार मोहम्मद मौसेद को गिरफ्त में
ले लिया था,
साथ
ही ईरानी सरकार ने ईरानियन न्यूज़ लेबर न्यूज़ एजेंसी के एम.डी. मसूद हैदरी को भी
एक कार्टून के प्रकाशन पर गिरफ्तार कर लिया था। ब्राजील के राष्ट्रपति जैर
बोलसोनारो ने तो यहाँ तक कहा था कि मीडिया व पत्रकार इस ग्लोबल पैनडेमिक के दौर
में सिर्फ हिस्टीरिया और पैनिक ही फैला रहे हैं। हंगेरी के प्रधानमंत्री विक्टर
ओरबान ने तो भारी विरोध व आलोचना के चलते कोविड-19 कानून
ही पारित कर दिया था। थाईलैंड के हालात भी कुछ ऐसे ही हैं, वहाँ
आप राजा की आलोचना नहीं कर सकते। राजतंत्र वहाँ आलोचना से परे हैं।
अमेरिकी
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के असहिष्णु रवैये से भी हम सब परिचित है। ट्रंप ने तो
मेनस्ट्रीम मीडिया को जनता का दुश्मन ही घोषित कर दिया था। जो खबर उन्हें पसंद
नहीं होती थी उसे भ्रामक समाचार का दर्जा देकर स्वयं को सवालों के दायरे में लाने
वाले पत्रकारों के साथ अपमानजनक व्यवहार करते थे।
इस दमनकारी
रुख में हमारा भारत भी पीछे नहीं है। आर. एस. एफ. संस्था द्वारा जारी 2019 के
सूचकांक में पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर भारत की स्थिति बहुत खराब बताई गई थी,
इसमें कुल 180
देशों की सूची में भारत को 140 वे नंबर पर
रेड जोन में रखा गया है। भारत 2018 से दो स्थान
पीछे आ गया है। कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट के आँकड़ों के मुताबिक भारत में 1992 से 2008 तक 47
पत्रकार मारे जा चुके हैं जिनमें 33 की हत्या कर
दी है।
हर साल 30
मई
को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा खंभा
माना जाता है। लेकिन आज लोकतांत्रिक देशों में ही उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े
हो रहे हैं। लोकतंत्र के अंतर्गत आज यह सूचना का माध्यम या सरकारी नीतियों की
आलोचना का वाहक बनने की जगह राजनीतिक दलों का समर्थक या विरोध का मंच बन गया है।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आर. एस. एफ.) दुनिया भर में पत्रकारों के उत्पीड़न का
ब्यौरा रखती है और हर साल इस बारे में आँकड़े भी जारी करती है। उनके मुताबिक
दुनिया भर में पत्रकारों की मौत के मामले 8 फ़ीसदी
बढ़े हैं। 2018
के
11
महीनों
में दुनिया भर में 80 पत्रकार मारे गए,
348 पत्रकारों
को जेल में बंद किया गया और 60 से ज्यादा को
बंधक बनाया गया था। आर. एस. एफ. की रिपोर्ट बताती है कि "पत्रकारों के खिलाफ
हिंसा इस साल अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच चुकी है और अब स्थिति गंभीर है।"
उन्होंने इसके लिए राजनेताओं, धार्मिक
नेताओं और कारोबारियों को जिम्मेदार ठहराया है।
भारत या अन्य
किसी भी देश की सरकार द्वारा उठाए गए इन कदम को मैं पूर्ण रुप से नकारात्मक नहीं
मानती। देशहित को ध्यान में रखकर ही यह कदम उठाए जाते हैं। किंतु आज हम इस बात को
भी झुठला नहीं सकते कि पत्रकारिता पर से लोगों का भरोसा उठने लगा है। इसलिए आज यह
आवश्यक है कि शासन, प्रशासन, राजनीतिज्ञ,
पुलिस
और सुरक्षा बल सब मिलकर पत्रकार वर्ग का संतुलन बनाए रखें तथा पत्रकारवर्ग भी इस
सामिजक सेवाकार्य द्वारा समसामियक घटनाओं व परिस्थितियों को शब्दबद्ध व चित्रात्मक
रूप में प्रस्तुत करते हुए विश्व समुदाय को सुरक्षित रखने में अपना योगदान दें।
डॉ.
भावना ठक्कर
आसिस्टेंट
प्रोफेसर
हिन्दी
विभाग
एन.एस.
पटेल आर्ट्स कॉलेज
आणंद
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