सुजाता
डॉ.
ज्योत्स्ना शर्मा
सिनेमा
और समाज का अटूट संबंध है। समाज के किसी हिस्से में घटी कोई घटना जब फिल्म का
कथानक बनती है तो किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण समाज को प्रभावित भी करती है। श्रव्य-दृश्य
माध्यम होने के कारण सिनेमा का प्रभाव व्यापक है। ऐसे में सिनेमा का उत्तरदायित्व
मनोरंजन के दायरे से कहीं अधिक हो जाता है। यदि भारतीय सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में
विचार करें तो मनोरंजन के साथ-साथ सजग सिनेमा ने अपने इस उत्तरदायित्व का निर्वहन
करने का पर्याप्त प्रयास किया है। धार्मिक-पौराणिक परिवेश से यथार्थवाद की ओर बढ़ती
अनेक भारतीय फिल्मों ने छुआछूत , बाल विवाह ,
भ्रष्टाचार जैसी सामाजिक , राजनीतिक
विसंगतियों पर प्रहार ही नहीं किया अपितु उनके सम्यक समाधान की ओर इंगित भी किया। सुंदर,
संदेशप्रद कथानक पर आधारित ऐसी ही एक मेरी प्रिय फिल्म है ‘सुजाता’।
सन
1959 में प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक बिमल रॉय के निर्देशन में बनी यह फिल्म
‘फिल्म फ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार’ से पुरस्कृत हुई। सुनील दत्त ,
नूतन , शशिकला , ललिता
पवार, तरुण बोस, असित सेन तथा सुलोचना
आदि के जीवंत अभिनय से सजी इस फिल्म के लिए बिमल रॉय को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक,
नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री तथा सुबोध घोष को सर्वश्रेष्ठ
कहानीकार का पुरस्कार प्राप्त हुआ। फिल्म
का पटकथा लेखन नबेन्दु घोष ने किया है तथा
संवाद पॉल महेंद्र ने लिखे हैं।
फिल्म
के प्रारंभ में ही इंजीनियर उपेन्द्र दत्त एवं उनकी पत्नी चारु कामगारों की बस्ती
में हैजा फैलने पर अनाथ हुई अछूत नवजात बच्ची का पालन-पोषण स्वीकार करते हैं। बच्ची
का नाम सुजाता रखा गया। चारु ने दया पूर्वक बच्ची को रखा तो लेकिन मन से उसे बेटी
के रूप में स्वीकार न कर सकीं। यही कारण रहा कि ब्राह्मण दम्पत्ति उपेन्द्र और
चारु की बेटी रमा (शशिकला) और सुजाता (नूतन) की परवरिश एक साथ हुई लेकिन एक समान
नहीं। रमा चुलबुली, उच्च शिक्षित बाला और
सुजाता शांत ,सीधी -सादी , गृह कार्य
निपुण किन्तु अशिक्षित युवती के रूप में दिखाई पड़ती हैं। सुजाता के लिए उपेन्द्र
और चारु ही उसके माता-पिता हैं।
वक्त
के साथ सेवानिवृत्ति के उपरांत उपेन्द्र बाबू सपरिवार अपनी बुआ के घर के निकट ही
घर लेकर रहने लगे। रूढ़िवादी बुआ सुजाता को जरा भी पसंद नहीं करतीं। बुआ की दिली
इच्छा है कि चारु की बेटी रमा का विवाह उनके नवासे अधीर( सुनील दत्त) से हो जाए। यह
प्रस्ताव चारु को भी अच्छा लगा। दूसरी ओर
शहर से पढ़कर लौटा अधीर सुजाता की सादगी और गुणों पर मुग्ध हो गया और उसे प्रेम
करने लगा। सुजाता भी उसकी ओर आकर्षित हुई। इसी बीच स्वयं को उपेन्द्र और चारु की
ही संतान समझने वाली सुजाता को ज्ञात होता है कि वह उनकी बेटी नहीं अपितु एक अछूत,
अनाथ कन्या है। यह सच्चाई भी उसे पता चलती है कि घर में रमा और अधीर
के विवाह का प्रसंग चल रहा है। परिवार की खुशियों का विचार कर सुजाता ने अपनी खुशी
का त्याग किया और अधीर से दूर रहने का प्रयास करने लगी। उसने आत्महत्या का भी विचार
किया। समस्त घटनाचक्र को समझते हुए अधीर सुजाता के प्रति अपने दृढ़ प्रेम को प्रकट
करता है। यहाँ तक कि घर-परिवार को भी त्यागने के लिए तत्पर हो जाता है। प्रगतिवादी
सोच का युवक अधीर नानी को भी समझाने का प्रयास करता है कि किसी भी व्यक्ति को अछूत
जाति से नहीं वरन संस्कार से मानना चाहिए।
परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि चारु को
रक्त की आवश्यकता पड़ जाती है। घर – परिवार में किसी का भी रक्त उसके रक्त से मेल
नहीं खाता सिवाय सुजाता के। सुजाता रक्तदान कर चारु का जीवन बचाती है। इस घटना से
चारु का सुजाता के प्रति व्यवहार बदल जाता है, उसे
अपनी भूल का अहसास होता है और वह सच्चे मन से सुजाता को अपनी बेटी स्वीकार करती है।
सुंदर, सुखद , सकारात्मक सोच को आगे
बढ़ाती हुई फिल्म समाप्ति की ओर अग्रसर होती है। सभी चरित्रों को कलाकारों ने अपने
अभिनय से जीवंत किया है लेकिन नूतन का अभिनय अविस्मरणीय है। संवाद ही नहीं उनकी
भाव-भंगिमाएँ, आँखें भी बोलती हैं।
संगीत
की दृष्टि से भी फिल्म बेजोड़ है। प्रायः सभी गीत बेहद मधुर और लोकप्रिय हैं। तलत
महमूद जी का गाया गीत ‘जलते हैं जिसके लिए’ आज भी हिंदी फिल्मों के श्रेष्ठ गीतों
में गिना जाता है और बेहद लोकप्रिय है। ‘तुम
जियो हजारों साल’ जन्मदिन गीत आज भी घर-घर सुनाई पड़ता है। ‘नन्ही
कली सोने चली हवा धीरे आना’ लोरी आज भी अपनी लोकप्रियता बनाए है। कुल मिलाकर सचिन
देव बर्मन का संगीत , तलत महमूद जी , आशा
जी , गीता दत्त जी , रफी साहब की आवाज
और मजरूह सुलतान पुरी जी के बोलों ने यादगार संगीत दिया।
प्रतीकों
का अनुपम प्रयोग भी फिल्म की एक अन्य विशेषता है। खिलते फूलों के माध्यम से सुजाता
की प्रसन्नता और गाँधी जी की मूर्ति , बारिश
और आंसुओं का संयोजन बहुत कुछ कह जाता है। ऐसे अनेक दृश्य हैं जिनके लिए फिल्म को
अवश्य देखा जाना चाहिए। निःसंदेह प्रभावी कथानक , सशक्त
अभिनय और संगीत से सज्जित ‘सुजाता’ बहुत ही खूबसूरत तरीके से समाज को समानता की
सीढ़ियों पर एक पग आगे ले जाने का कार्य करती है।
डॉ.
ज्योत्स्ना शर्मा
वापी
(गुजरात)
बहुत सुंदर समीक्षा। अपने समय में यह पिक्चर कई बार देखी थी। बधाई
जवाब देंहटाएंआभार दीदी 🙏
हटाएंबहुत खूब!
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई आपको।
आभार ज्योत्स्ना जी 🙏
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