गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

फ़िल्म समीक्षा

 

असुरन

सुशीला भूरिया

          भारतीय सिनेमा के अंतर्गत हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में आती हैं, जिनमें से एक है तेलुगू सिनेमा यानी टॉलीवुड। टॉलीवुड की बात आती है तो अभिनेता धनुष का नाम सबसे पहले लिया जाता है। इस नाम से शायद ही कोई फिल्म प्रेमी अनजान रहा हो। धनुष ने टॉलीवुड में बहुत अच्छा नाम कमाया है। इनकी ज्यादातर फिल्में ब्लॉकबस्टर रही हैं। इनमें से एक है ‘असुरन’ जो 2019 में आई थी।

          ‘असुरन’ पूँजीवादी सवर्ण जमींदारों के शोषण और दलितों के संघर्ष को दिखाती फिल्म है। जिसमें एक साधारण-सी कहानी को शानदार तरीके से प्रस्तुत किया गया है। दलित विमर्श के दृष्टिकोण से बनी अपनी बात को प्रतिरोध के माध्यम से रखती ‘असुरन’ एक भारतीय, तमिल भाषा की एक्शन फिल्म है। जिसे तमिल डायरेक्टर वेत्रिमारन द्वारा लिखित और निर्देशित किया गया है। यह फिल्म कलाईपुली एस. थानु द्वारा निर्मित है, जिसमें धनुष और मलयालम अभिनेत्री मंजू वारियर मुख्य भूमिका में है। जीवी प्रकाश कुमार ने फिल्म के लिए संगीत दिया है और वेजराज द्वारा छायांकन तथा आर. रामर द्वारा संपादन किया गया है। फिल्म तमिल लेखक पूमानी के उपन्यास ‘वेक्कई’ पर आधारित है और फिल्म का प्लॉट सन् 1968 में तमिलनाडु के एक गाँव में हुए हत्याकांड से प्रभावित है, जिसमें 40 दलित किसानों को जमींदारों के कहने पर एक झोपड़े में बंद करके जिंदा जला दिया था।

          बात शुरू करते हैं फिल्म के नाम ‘असुरन’ से जिसका हिन्दी अनुवाद है ‘असुर’। ‘‘भारत के हिन्दू प्राचीन धार्मिक काल को पढ़ते हैं तो पाते हैं कि वेद, पुराण में देवताओं और असुरों की बात प्रमुख रूप से कही जाती है। इनके अनुसार जो धर्म का पालन करते हैं, धार्मिक सामाजिक व्यवस्था का अनुसरण करते हैं वे अच्छे हैं इसलिए वे देवता हैं और जो धर्म का पालन नहीं करते हैं, धार्मिक सामाजिक व्यवस्था का अनुसरण नहीं करते हैं वे बुरे हैं इसीलिए उन्हें धर्म से बेदखल कर असुर की पहचान दे दी जाती है।’’1 निर्देशक वेत्रिमारन अपनी फिल्म को असुरों के दृष्टिकोण से प्रस्तुत कर रहे हैं जो हिन्दु धर्म के धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था के ढाँचे में नहीं आते यानी दलितों का पक्ष वे अपनी फिल्म के माध्यम से रख रहे हैं।

          अब बात करे इसकी हिन्दी डबिंग की तो फिल्म का हिन्दी डब काफी अच्छे तरीके से किया गया है। स्क्रीनप्ले के अंदर कोई बदलाव नहीं है, हाँ कुछ संवाद जरूर बदले गए हैं तथा मूल तमिल में जो नाम है, वे हिन्दी में डब होने पर बदले हैं। शिवमणि जो पटकथा का मुख्य पात्र है जिसका रोल अभिनेता धनुष ने निभाया है। फिल्म की शुरुआत  के पहले दृश्य में दो युवकों को नदी पार करते हुए दिखाया गया है। दूसरी तरफ एक औरत, एक बच्ची और एक युवक किसी पुल के नीचे छिपकर पुलिस से बचने की कोशिश कर रहे हैं। तीसरा दृश्य मार-पीट का है, जिसमें एक युवक दूसरे युवक को यह कहकर मार रहा है कि उसकी वजह से उसका बाप मर गया। यहाँ तक कुछ समझ में नहीं आता कि क्या हो रहा है? लेकिन पर्दे के पीछे से आवाज़ आती है जो तीनों दृश्यों से जुड़ी पहेली को हल करना शुरू करती है।

          ‘असुरन’ बात कर रही है ‘‘बड़े जमींदारों (जो निसंदेह सवर्ण हैं) द्वारा छोटे किसानों / महेनती मजदूरों की ज़मीन को हड़पने की। ये देश के लोगों की बहुत साधारण सी वैचारिकी है कि जिस के पास जितनी ज़मीन, पूँजी है उसको अपनी बात रखने में, अपना वर्चस्व स्थापित करने में उतनी ही आसानी होती है।’’2 पूरा खेल पूँजी वर्चस्व का है और इसी खेल को असुरन पर्दे पर दर्शकों के समक्ष रख रही हैं। फिल्म के निर्देशन में वेत्रिमारन की सर्जनात्मकता ने चार चाँद लगा दिए है, इन्होंने फिल्म के शुरुआती दृश्य कलाइमैक्स से पीछे के रखे हैं जिस कारण फिल्म की कहानी धीरे-धीरे दृश्यों के साथ नहीं बल्कि किरदारों के साथ खुलना शुरू होती है।



          पहले दृश्य पर कैमरा एक बार फिर लौटता है, जिसमें नदी पार करके दोनों व्यक्ति चट्टान पर बैठे हैं, उनमें एक शिवमणि है और दूसरा उसका छोटा बेटा चिंतामणि। शिवमणि एक गरीब किसान है जिसके पास तीन एकड़ ज़मीन है जो उसकी खुद की नहीं बल्कि उसकी पत्नी पार्वती के भाई की है जिसकी देखभाल की जिम्मेदारी शिवमणि पर है। शिवमणि के पास इस तीन एकड़ ज़मीन का आना, अब वह उस ज़मीन को छोड़कर दूसरे इलाकों में क्यों भाग रहा है उसकी भी अपनी कहानी है। शिवमणि अपने बेटे को अपनी कहानी बताना शुरू करता है। यहाँ फिल्म फ्लेशबैक में जाती है जहाँ शिवमणि अपने जवानी के दिनों में अपने बड़े भाई के साथ संयुक्त परिवार में दलित बस्ती में रहता था। वह गाँव के ही बड़े व्यापारी ठाकुर विश्वनाथ के लिए शराब बनाने का काम करता था। उसके हाथों से बनी शराब इतनी प्रसिद्ध थी जिसका फायदा ठाकुर अच्छे से उठाता था। वह शिवमणि से अपने स्वार्थ के खातिर ठीक-ठाक पेश आता था ताकि उसका शराब का धंधा खूब चलता रहे। इस बीच उसे एक लड़की से प्रेम होता है। जो स्कूल पढ़ने भी जाती है लेकिन एक दिन स्कूल से लौटते वक्त लड़की के पाँव में काँटा चुभ जाता है। इतने पर शिवमणि उसके लिए चमड़े की चप्पलें बनवा लाता है। दूसरे दिन लड़की चप्पलें पहनकर स्कूल जाती है तो ठाकुर के मुंशी को यह बात पसंद नहीं आती वह अपने आदमियों के साथ मिलकर उसे खूब जलील करता है, पीटता है और चप्पलें सर पर रखवाकर पूरे गाँव में घुमाते है। समस्या चप्पल पहनना नहीं बल्कि सवर्ण पुरुष के आगे उसके सम्मान में चप्पलें ना उतारना था। दुःख की बात यह है कि आज भी हमारे देश में इस प्रकार की अमानवीय घटनाएँ जातीय दंभ से भरे लोगों द्वारा घटित होती रहती है। शिवमणि को जब यह पता चलता है तो वह मुंशी और उसके आदमियों को पूरे गाँव के सामने चप्पलों से पिटकर उसे दिखाता है कि वह उसकी पैरों की जूती नहीं बल्कि उसके बराबरी की औकात रखता है।

          शिवमणि का भाई क्रांतिकारी होता है। वह अपने दलित भाइयों को विश्वनाथ जैसे जमींदार जो छोटे मेहनती किसानों की ज़मीन गैरकानूनी तरीके से छीन चुके है ऐसे लोगों के खिलाफ आंदोलन करने के लिए प्रोत्साहित करता रहता है। जिसमें एक वकील उनका खूब साथ देता है। शिवमणि को जब अपने मालिक की साजिशों का पता चलता हैं तो वह नौकरी छोड़ अपने बड़े भाई की मुहीम में जुड़ जाता है। अब उनका एक ही लक्ष्य था अपनी ज़मीन को वापस लेना। जो उनके सम्मान, स्वाभिमान को वापस लेने के बराबर था।।


          
हक की लड़ाई के लिए सबको आंदोलन के लिए तैयार किया जाता है। गाँव के एक बड़े पेड़ के नीचे सभा होती है। एक वकील को पूरे मामले को कानूनी रूप से समझाने के लिए बुलाते हैं। पुलिस उन्हेंदलित बस्ती तक पहुँचने नहीं देती फिर सभा स्थल पर पुलिस उनसे सभा के लिए अनुमति पत्र माँगती है। ‘‘जब किसी सवर्ण को सभा करनी हो तो पुलिस फोर्स, क्षेत्र का पूरा प्रशासन उस सभा को सुरक्षित बनाता है लेकिन जब सभाएँ दलित-वंचित वर्ग से आते लोग करते हैं तब अनुमति पत्र पहले माँगे जाते हैं, अनुमति पत्र हो तो भी पुलिस सुरक्षा के भाव से नहीं बल्कि जरा सी गड़बड़ी होने पर गिरफ्तार करने के लिए मौजूद होती है।’’3 फिल्म में पुलिस और जमींदार द्वारा आंदोलन रोकने की पूरी प्रक्रिया के परिणाम यह आता है कि पूरी दलित बस्ती में जमींदार के आदमियों द्वारा आग लगा दी जाती है, लोग जिंदा मर जाते हैं। दलित बस्तियाँ आज भी ऐसे ही फूँक दी जाती हैं जैसे कोई घास-फूस हो। इस घटना में शिवमणी का पूरा परिवार खत्म हो जाता है जिस कारण वह गुस्से में आकर ठाकुर के घर जाकर उसकी हत्या कर देता है और गाँव पहुँचता है जहाँ उसकी मुलाकात एक अच्छे इन्सान से होती है जो उसे अपने घर में रखता है। वह अपनी ज़मीन उसे सँभाल ने के लिए कहता है और अपनी बहन पार्वती से शादी करने के लिए कहता है। लेकिन एक दिन पुलिस उसे ढूँढ लेती है, जात-पात का झगड़ा करते हुए कोर्ट उसे कुछ ही महीनों की सजा सुनाती है। कुछ ही महीनों बाद शिवमणी सजा से लौटता है और पार्वती से शादी करता है। इसी गाँव का एक बड़ा जमींदार है नरसिंह जो सब दलितों की ज़मींन हड़प चुका है और अब उसकी नजर शिवमणी की तीन एकड़ ज़मीन पर है। उसका भाई सिमेन्ट फैक्टरी लगाना चाहता है जिसके लिए और ज़मीन चाहिए।

          फिल्म आगे बढ़ती है तो हम देखते हैं कि शिवमणि के स्वभाव में अब काफी परिवर्तन आ चुका है, अब वह एकदम शांत हो गया है और अहिंसा में मानने लगा है वजह उसका अतीत है। लेकिन उसका बड़ा बेटा गुरुमणि बिल्कुल उससे विपरीत स्वभाव का है वह नरसिंह के खिलाफ आवाज़ उठाता है। जिस कारण उसे पुलिस के हवाले कर दिया जाता है। गुरुमणि को पुलिस से छुड़ाने के लिए शिवमणि जब नरसिंह के पास जाता है तो बेटे को छुड़ाने के बदले में उससे पूरे गाँव में नंगे पैर लेटकर उससे माफी मँगवाई जाती है। ये माफी का खेल इतना गहरा है कि शोषक शोषण भी करता है और शोषण के खिलाफ खड़ा होने पर शोषित से माफी भी मँगवाता है। गुरुमणि पुलिस की गिरफ्तर से छूट जाता है पर वहाँ उसे बहुत मारा गया था। जब उसे पता चलता है कि उसके पिता से किस प्रकार माफी मँगवाई गई है तो वह नरसिंह को बंद शौचालय में चप्पलों से पीटता है। फलस्वरूप गुरुमणि की हत्या उसी के खेत में कर दी जाती है। चिंतामणि अपने भाई की हत्या होते देख लेता है। वह घटना स्थल से बचकर निकल जाता है। इस घटना से शिवमणि का पूरा परिवार मानसिक रूप से पूरी तरह बिखर जाता है। चिंतामणि पढ़ने में होशियार था पर अपने बड़े भाई की हत्या के बाद वह पढ़ाई छोड़ देता है और इसीलिए चिंतामणि को बचाने पूरा परिवार खुद को बचा रहा है क्योंकि चिंतामणि ने अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए जमींदार नरसिंह की हत्या कर दी थी।

          फिल्म के आगे बढ़ने पर आप देखेंगे कि चिंतामणि को मारने की पूरी कोशिश होती है, शिवमणि जान पर खेलकर अपने बेटे को बचाता है। आगे का रास्ता ना देख पाने पर वह वकील की सलाह पर आत्मसमर्पण करते हुए चिंतामणि को बचाने के लिए शिवमणि खुद पर सभी आरोप ले लेता है और कहता है कि ‘‘पुलिस ने अपना काम किया होता तो अन्याय के खिलाफ जैसा तुझे ठीक लगा वैसा नहीं करता, जो चिंतामणि ने किया वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने का एकमात्र तरीका नहीं था।’’ वह आगे उससे कहता है कि चिंतामणि अगर तू पढ़ा-लिखा होगा तो कोई तुझसे कुछ नहीं छीन सकता अगर अन्याय से जितना है तो पढ़-लिखकर एक ताकतवर इन्सान बनना होगा। वह आगे सलाह देते हुए कहता है कि हाँ अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल मत करना जैसे आजकल लोग कर रहे हैं। ‘‘नफरत हमें तोड़ती है, प्यार जोड़ता है। हम एक ही मिट्टी के बने हैं लेकिन जातिवाद ने अलग कर दिया हम सबको इस सोच से उभरना होगा। पूरी फिल्म का निष्कर्ष यही है कि ज़मीन होगी, तो छीन लेंगे, धन होगा तो लूट लेंगे लेकिन शिक्षा हमसे कोई नहीं छीन सकता। इसी के साथ बाबा साहब आंबेडकर का यह विचार जेहन में आता है कि - ‘शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पियेगा वो दहाड़ेगा।’

संदर्भ सूची -

1.  www.hindi.feminismininda.com

2.  वही,

3.  वही, 


 

सुशीला भूरिया

पीएच.डी. शोधछात्रा

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय,

वल्लभ विद्यानगर

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