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फिल्मों एवं दूरदर्शन को कमलेश्वर का योगदान
डॉ. शिवजी श्रीवास्तव
कमलेश्वर
हिंदी साहित्य की एक ऐसी विभूति हैं जिन्होंने अनेक क्षेत्रों में सक्रिय रह कर
सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए।हिंदी कहानी के क्षेत्र में वे ‘नई कहानी’ आंदोलन और ‘समांतर
कथा’ आंदोलन के प्रवर्तकों में रहे,उपन्यासकार
के रूप में भी बहुत चर्चित रहे।उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘कितने
पाकिस्तान’ पर उन्हें सन 2003 में साहित्य अकादमी का सम्मान
प्राप्त हुआ, वहीं उनकी समग्र उपलब्धियों हेतु सन 2005 में
उन्हें पद्म भूषण के सम्मान से सम्मानित किया गया। कमलेश्वर
ने साहित्य के क्षेत्र के साथ दूरदर्शन एवं फ़िल्म के क्षेत्र में भी अपार सफलता
प्राप्त की।प्रायः श्रेष्ठ साहित्यकार फ़िल्म क्षेत्र में सफल नहीं हो पाते पर
कमलेश्वर ऐसे साहित्यकार रहे जिन्होंने साहित्य एवं सिनेमा में समानांतर रूप से
सफलतापूर्वक कार्य किया।वे फ़िल्मों एवं दूरदर्शन में लगातार सक्रिय रहे,कथा-पटकथा, संवाद जैसे सभी दायित्वों का निर्वाह
उन्होंने किया।
हिंदी में ‘नई कहानी’ का आंदोलन जब चल रहा था उन्हीं दिनों
भारतीय दूरदर्शन (टेलीविजन इंडिया) की शुरुआत
हुई,कमलेश्वर तब तक चर्चित हो चुके थे। सन 1959 में उन्होंने
अपनी पहली नौकरी दूरदर्शन में स्क्रिप्ट राइटर के रूप में ही प्रारंभ की,वे टेलीविजन के पहले स्क्रिप्ट राइटर थे। कहानी ‘जार्ज
पंचम की नाक’ के विवाद के बाद उन्होंने 1961 में वह नौकरी
छोड़ दी और पत्रकारिता के क्षेत्र में आ गए।
बम्बई
(वर्तमान मुंबई) में ‘सारिका’ का सम्पादन करते हुए वे फ़िल्म और दूरदर्शन के क्षेत्र में भी सक्रिय हुए,
यह वह दौर था जब हिंदी फिल्मों में ‘समांतर
सिनेमा’ की शुरुआत हो रही थी और कुछ फिल्मकार फिल्मों को
फंतासी और रूमानियत से मुक्त करके जीवन के यथार्थ को चित्रित कर रहे थे, बासु चटर्जी ने 1969 में राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा
आकाश’ पर फ़िल्म बनाई जिसकी पटकथा कमलेश्वर ने लिखी पर बासु
जी ने श्रेय स्वयं लिया।कमलेश्वर इस क्षेत्र में आगे बढ़ते रहे उन्होंने अपने ही
उपन्यास ‘एक सड़क सत्तावन गलियाँ’ को
फ़िल्म हेतु चुना। मैनपुरी की पृष्ठभूमि पर लिखा ये उपन्यास कमलेश्वर ने अपने अभाव
के दिनों में एक प्रकाशक को बेच दिया था, प्रकाशक ने उसका
नाम बदलकर ‘बदनाम बस्ती’ कर दिया था,
अतः फ़िल्म भी इसी नाम से बनी। सन1971में बनी इस फ़िल्म की पटकथा भी कमलेश्वर ने लिखी और सारी शूटिंग मैनपुरी में ही
कराई ताकि फ़िल्म यथार्थपरक बने।इस फ़िल्म का निर्देशन प्रेम कपूर ने किया था। सन
1971 में ही कमलेश्वर की चर्चित कहानी ‘तलाश’ पर शिवेंद्र सिन्हा ने ‘फिर भी’ नाम से फ़िल्म बनाई यह फ़िल्म स्त्री-मुक्ति और उसके मनोविज्ञान को सशक्त ढंग
से चित्रित करने वाली फिल्म थी, तब जब साहित्य में
स्त्री-मुक्ति का आंदोलन नहीं था तब ये कहानी स्त्री-मुक्ति की सशक्त कहानी के रूप
में देखी गई। इसके बाद कमलेश्वर के उपन्यास ‘काली आँधी’
पर गुलजार ने ‘आँधी’ फ़िल्म
बनाई।ये फ़िल्म इंदिरा गाँधी के विरोध की फ़िल्म के रूप में चर्चित रही।फ़िल्म की
पटकथा में कुछ दृश्य कमलेश्वर जी ने लिखे पर फ़िल्म की कास्ट में गुलजार ने
कमलेश्वर का नाम नहीं दिया। बाद में कभी कमलेश्वर ने जब इस विषय में कहा तो गुलजार
ने टालमटोल करते हुए कहा कि सेल्यूलाइड पर तो रचना निर्देशक ही करता है.... पर
उसके बाद 1975 में ही गुलजार ने उनकी कहानी पर ‘मौसम’
फ़िल्म बनाई जिसमें कमलेश्वर का नाम भी दिया। बासु चटर्जी द्वारा
निर्देशित कहानी फिल्मों ‘रजनीगंधा’(1974) एवं ‘छोटी सी बात’(1976)
की स्क्रिप्ट भी कमलेश्वर जी द्वारा लिखी गई। 1977 में बनी फिल्म ‘वही बात’ की स्क्रिप्ट भी उन्होंने लिखी।
उसी
समय कमलेश्वर कला फिल्मों से व्यावसायिक फिल्मों की ओर अग्रसर हुए और वहाँ भी
सफलता के परचम फहराए।
बी.आर.चोपड़ा
के लिए उन्होंने ‘पति पत्नी और वो’
फ़िल्म लिखी। 1978 में आई इस फ़िल्म के लिए कमलेश्वर को श्रेष्ठ पटकथा
लेखन के लिए फिल्मफेयर अवार्ड मिला। अब कमलेश्वर फिल्मों में सफलता के पर्याय बन
चुके थे और निर्देशक उन्हें पटकथा का दायित्व सौंप के निश्चिन्त हो जाते थे। इसके
बाद फिल्मों में कथा-पटकथा लेखन में लगातार सक्रिय रह कर कुल 99 फिल्मों के लिए
लेखन किया। उन्होंने रंग-बिरंगी, अमानुष, सौतन, राम बलराम, आनन्द आश्रम, खुदा गवाह, मि.नटवरलाल, तुम्हारी
कसम, द बर्निंग ट्रेन, बरसात की एक रात, साजन बिना सुहागन जैसी अनेक चर्चित फिल्मों के लिए कथा या पटकथा का लेखन
किया। उस समय के सभी चर्चित निर्देशकों एवं अभिनेताओं के लिए कमलेश्वर ने फिल्में
लिखीं।
फिल्मों में सक्रिय रहते हुए कमलेश्वर पत्रकारिता और दूरदर्शन के
क्षेत्र में भी सक्रिय थे।हिंदी कहानी की प्रमुख पत्रिका ‘सारिका’
के सम्पादन के साथ ही वे बम्बई दूरदर्शन के लिए प्रसिद्ध कार्यक्रम ‘परिक्रमा’ भी प्रस्तुत कर रहे थे। यहाँ यह बात
उल्लेखनीय है कि ‘परिक्रमा’ उन दिनों
का दूरदर्शन का सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम था।हर सप्ताह मंगलवार की रात्रि को
सवा आठ बजे प्रसारित होने वाला यह कार्यक्रम
सन 1972 से
सन 1978 तक लगातार सात वर्षों तक प्रसारित होता रहा।उन दिनों उसका लाइव प्रसारण
होता था।दो वर्षों के बाद यह कार्यक्रम पुनः प्रारम्भ किया गया और 1982 तक चला। बाद
के दो वर्षों में यह रिकॉर्डेड प्रस्तुत होने लगा। पहले सात वर्षों में चलने वाले
कार्यक्रम की विशेषता यह थी कि समाज के हर
वर्ग में समान रूप से लोकप्रिय था।प्रसिद्ध अभिनेता अशोक कुमार ने एक साक्षात्कार
में कहा था-’लोग हमें देखते हैं और हम कमलेश्वर को देखते
हैं।’
स्वयं कमलेश्वर के शब्दों में – “इस कार्यक्रम में राह चलते, गटर की जिंदगी जीते लोगों की मुलाकातों से अपने आप सामाजिक और आर्थिक
न्याय के सवाल उभर आते थे और यह कार्यक्रम इतना ज्यादा पसंद किया जाने लगा था कि
लोग दूरदर्शन पर इसे देखने के लिए लोग अपने काम से भागकर समय पर घर पहुँच जाते थे।
बम्बई के क्रेफोर्ड मार्केट, लोहार चाल और मोहम्मद अली रोड
की दुकानों के सेल्समैनों ने तो एक प्रस्ताव तक पास किया था कि परिक्रमा वाले दिन
उन्हें काम से छह बजे छुट्टी मिले ताकि वे बसों और लोकल ट्रेनों से अपने घरों तक
समय से पहुँच पाएँ।”
भावनात्मक रूप से भी
कमलेश्वर को इस कार्यक्रम ने काफी परेशान रखा उनका कहना था – “सच कहूँ तो इस कार्यक्रम में जब हाशिए पर पड़े लोगों के त्रासद यथार्थ से
सामना होता था तो मेरा दिल दहल जाता था......प्रोग्राम समाप्त करके स्टूडियो से
निकलते हुए मैं उस ‘सक्सेसफुल’ प्रोग्राम
को लेकर सबसे ज्यादा दुःखी व्यक्ति होता था।मैं टी.वी. स्टेशन के बाथरूम में जाकर
रोता था और मुँह धोकर आँखें सुखाकर बाहर निकलता था।” इस कार्यक्रम ने लोकप्रियता
के नए कीर्तिमान स्थापित किए यूनेस्को द्वारा किए गए एक सर्वे में ‘परिक्रमा’ को दुनिया के सबसे लोकप्रिय दस कार्यक्रमो
में रखा गया था।इस सफल कार्यक्रम को भी राजनैतिक दवाबों के कारण बन्द करना पड़ा।
राजनैतिक दवाबों के कारण ही कमलेश्वर ने ‘सारिका’
को छोड़ा और दिल्ली में पत्रकारिता करने लगे। सन 1980 में उन्हें
इंदिरा गाँधी की ओर से दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक पद ग्रहण का प्रस्ताव मिला।
कमलेश्वर जी को आश्चर्य हुआ, खुद उन्हें इस बात पर विश्वास नहीं था कि इंदिरा गाँधी
उन्हें ये जिम्मेदारी देना चाहती हैं। इंदिरा सरकार के प्रस्ताव से वो हैरान थे।
इस सिलसिले में जब वे इंदिरा गाँधी से मिले तो
उन्होंने कहा- “क्या आपको मालूम है कि मैंने ही ‘आँधी’
लिखी थी?” इंदिरा गाँधी का जवाब था- “हाँ,
पता है.” तुरंत ही उन्होंने यह भी कहा- “इसीलिए आपको ये जिम्मेदारी
दे रही हूँ ....ऐसा इसलिए ताकि दूरदर्शन देश का एक निष्पक्ष सूचना माध्यम बन सके।”
अतिरिक्त महानिदेशक के रूप में कमलेश्वर ने दूरदर्शन के स्तर को बढ़ाया, दूरदर्शन को दूरदराज गाँवों तक पहुँचाया, जनता की
रुचि को देखते हुए ‘चित्रहार’ का
प्रसारण सप्ताह में दो दिन करवाना शुरू कर दिया। दूरदर्शन पर साहित्यिक कार्यक्रम ‘पत्रिका’ की शुरुआत इन्हीं के द्वारा हुई तथा पहली
टेलीफ़िल्म ‘पंद्रह अगस्त’ के निर्माण
का श्रेय भी कमलेश्वर को जाता है। दिल्ली दूरदर्शन पर भी ‘परिक्रमा’
की शुरुआत की तथा जनता की समस्याओं से जुड़े कार्यक्रम ‘लोकमंच’ की शुरुआत कराई। दूरददर्शन की आय के स्रोत
बढ़ाने की अनेक योजनाएँ भी उन्होंने बनवाईं,उन्ही के कार्यकाल
में दूरदर्शन के ब्लैक एंड व्हाइट की जगह रंगीन प्रसारण की कार्ययोजना बनी और 26
मार्च 1982 को भारतीय दूरदर्शन ने औपचारिक रूप से प्रथम बार रंगीन फ़िल्म का
प्रसारण कराया जो दस किलोमीटर के क्षेत्र में देखा
गया।यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
कमलेश्वर अपनी प्रकृति के अनुसार यहाँ भी गलत का विरोध करते रहे, धीरेंद्र ब्रह्मचारी के योग कार्यक्रम को लेकर विवाद में रहे, बाद में बढ़ते राजनैतिक हस्तक्षेप एवं लालफीताशाही के कारण उन्होंने वहाँ से भी इस्तीफा दे दिया। दूरदर्शन के इस पद पर उन्होंने
दो वर्षों तक काम किया। इसके बाद वे पुनः सक्रिय पत्रकारिता से जुड़े
पर दूरदर्शन के लिए भी कथा-पटकथा लेखन करते रहे। उन्होंने उस समय एक चर्चित
डाक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘बन्द फाइल’ का
निर्माण किया, यह फ़िल्म कानपुर में तीन बहिनों की सामूहिक
आत्महत्या के कारणों की पड़ताल और उसके रोकने में
लालफीताशाही की कहानी थी। इसमें कथा-पटकथा के साथ स्वर (कमेंट्री) भी कमलेश्वर की
था। इसके बाद उन्होंने ’चंद्रकांता’, ‘युग’,’बेताल पचीसी’, ‘आकाश गंगा’, ‘रेत पर लिखे नाम’ इत्यादि प्रमुख लोकप्रिय सीरियलों की
पटकथाएँ/संवाद लिखे। एक महत्त्वाकांक्षी सीरियल ‘कृषि कथा’
की पटकथा भी उन्होंने लिखी इसमें मानव सभ्यता के विकास की समग्र कथा
को समेटा गया था। भारतीय कथाओं पर आधारित पहला साहित्यिक सीरियल’दर्पण’ भी उन्होंने ही लिखा। बाद में वे अपने महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘कितने
पाकिस्तान’ के लेखन में व्यस्त हो गए और फिल्मों-टीवी से
दूरी बना ली।
6 जनवरी, 1932 को मैनपुरी में जन्मे कमलेश्वर सतत सक्रिय रहे और
साहित्य हो या फ़िल्म वे जन-सरोकारों के लिए रचनात्मक संघर्ष करते रहे। 27 जनवरी, 2007 को उन्होंने इस संसार से विदा ली, अपनी अंतिम साँस तक वह लेखन के लिए समर्पित रहे।साहित्य के साथ ही हिंदी
फिल्मों और दूरदर्शन के लिए उन्होंने जो योगदान दिया वह अनमोल है। इतिहास में उनका यह योगदान विशिष्ट अक्षरों में
अंकित रहेगा।
डॉ.
शिवजी श्रीवास्तव
सेवानिवृत्त
एसोशिएट प्रोफेसर
श्री
चित्रगुप्त पी.जी.कॉलेज
मैनपुरी(उ.प्र.)-205001
बहुत सुन्दर एवं सटीक विवेचना, बहुत-बहुत बधाई शिवजी भाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर विश्लेषण। साहित्य के साथ पत्रकारिता, दूरदर्शन एवं सिनेमा में उनका योगदान अविस्मरणीय है। बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा भाईसाहब!
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई ।