गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

आलेख

 


मनुष्यता के कवि शैलेन्द्र

डॉ. पुनीत बिसारिया

शैलेन्द्र को जानना भारत की मनुष्यता से परिचय पाना है, जो घनघोर अभावों में भी आशा का दामन नहीं छोड़ती और समस्त दुखों में भी देश-दुनिया के लिए भारतीयता की सोंधी महक, प्रेम की कोमल भावनाएँ, सम्बन्धों की उष्णता, भक्ति की उच्चता, जीवन-दर्शन और दुखियारों के प्रति सहानुभूति की भावना की अभिव्यक्ति करती है। ‘शचीपति’ नाम से आगरा से निकलने वाली पत्रिका ‘साधना’ में एक ख़ूबसूरत लड़की के न मिलने पर केन्द्रित कविता से अपने कवि जीवन की शुरूआत करने वाले शैलेन्द्र ने चाहा था कि उन्हें कवि के रूप में दुनिया जाने और इसीलिये उन्होंने फिल्म ‘आग’ में गीत लिखने के राज कपूर के प्रस्ताव को पहली बार में ठुकरा दिया था लेकिन अभावों की आंधी ने जब उनके पारिवारिक जीवन में हलचल पैदा की तो उन्होंने फिल्मों के लिए गीत लिखना स्वीकार और बरसात के टाइटल गीत ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम’ की सफलता से जो ख्याति पाई, वह उनके फिल्म गीतकार के रूप में स्थापित होने का सबब बन गयी। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि राज कपूर ने ही उन्हें ‘कविराज’ की उपाधि से विभूषित किया।

 


शैलेन्द्र को यदि फिल्मों में लिखे गीतों से गंभीरतापूर्वक विवेचित करें तो एक महत्त्वपूर्ण तथ्य स्थापित होता है कि जिस दौर में तथाकथित मुख्य धारा का हिन्दी साहित्य जगत प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और अकविता जैसी कवितेतर प्रवृत्तियों में उलझकर दलीय आधार अथवा कला के नाम पर निम्न कोटि की कविताएँ  रच रहा था, उस पचास तथा साठ के दशक में शैलेन्द्र के नेतृत्व में फिल्मी गीतकार एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ गीत लिख रहे थे, जिन्हें हिन्दी और हिन्दी सिनेमा के देश-विदेश में फैले प्रशंसक आज भी गुनगुनाया करते हैं। इस दृष्टि से शैलेन्द्र तथा उनके समकालीन फिल्म गीतकारों का मूल्यांकन नहीं किया गया है और उनके गीतों को ‘फिल्मी गाने’ कहकर साहित्येतिहास लेखकों एवं आलोचकों ने उन्हें हिन्दी साहित्य में स्थान नहीं दिया है, जो शैलेन्द्र युग के अनेक महत्त्वपूर्ण गीतकारों के साहित्यिक अवदान को नकारने की दुरभिसंधि प्रतीत होती है। शैलेन्द्र के साथ एक दिक्कत यह भी रही है कि उन्हें राज कपूर कैंप का गीतकार मानकर लोगों ने उनके राज कपूर की फिल्मों से इतर फिल्मों के गीतों को उनका नहीं माना, या वे जान ही नहीं सके कि अन्य फिल्मों में भी शैलेन्द्र के गीतों का जादू सर चढ़कर बोला है। वे उन गीतों को यह जाने बिना गुनगुनाते हैं कि इसके रचयिता कौन हैं।

शैलेन्द्र ने लगभग 18 वर्ष के अपने फ़िल्मी सफर में 900 से अधिक ऐसे गीत दुनिया को दिए हैं, जो भारत की पहचान बन गए हैं। ‘आवारा’ का टाइटल गीत ‘आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ’, ‘श्री 420’ का ‘ मेरा जूता है जापानी’, ‘अराउंड द वर्ल्ड’ का ‘दुनिया की सैर कर लो’ आज भी रूस तथा अनेक अन्य देशों में भारतीयता की पहचान बने हुए हैं।

शैलेन्द्र को बाल मन के मनोविज्ञान की गहरी पहचान थी, इसीलिये उनके लिखे बाल गीत आज भी बच्चों और बड़ों सभी के मानस पटल पर अंकित हैं। उनका लिखा ‘मासूम’ फिल्म का गीत ‘नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए’ प्रायः हर बच्चा अपने बचपन में अवश्य गाता है। इसी तरह ‘ब्रह्मचारी’ फिल्म का ‘चक्के में चक्का चक्के पे गाड़ी, गाड़ी में निकली अपनी सवारी’, ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ फिल्म का ‘चुन-चुन करती आई चिड़िया’ गीत आज भी हमें बचपन की गलियों में ले जाता है। इस सन्दर्भ में ‘बूटपॉलिश’ का गीत ‘नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है’ का ज़िक्र करना अपरिहार्य है, जो अभावों के बावजूद बच्चों को जीवन पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। यह गीत उन्होंने अपने पहले बच्चे के जन्म पर उसकी बंद मुट्ठी देखकर रचा था। ‘ज़िन्दगी’ फिल्म का ऐसा ही आशावादी गीत बच्चों को सदैव प्रसन्न रहने की प्रेरणा देता है, जिसके बोल हैं ‘ मुस्कुरा लाडले मुस्कुरा, कोई भी फूल नहीं खूबसूरत है जितना ये मुखड़ा तेरा’। 

भारतीय बच्चे अपने बड़े-बुजुर्गों से विशेषकर दादी-नानी से लोरी सुनकर निद्रा के आगोश में जाते रहे हैं। शैलेन्द्र ने भी कुछ अविस्मरणीय लोरियाँ रची हैं, जिनमें फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ की ‘आ जा री आ निंदिया’, ‘चारदीवारी’ फिल्म की ‘नींद परी लोरी गाये’, ‘मद भरे नैन’ फिल्म की ‘आ पलकों में आ सपने सजा’ और ‘ब्रह्मचारी’ फिल्मकी ‘मैं गाऊं तुम सो जाओ’ विशेष उल्लेखनीय हैं।

यदि हिन्दी फिल्मों में शैलेन्द्र के गीतों की विवेचना करें तो पाते हैं कि यौवन के राग-रंग, प्रणय-विरह अर्थात संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार उनके प्रिय विषय रहे हैं। उनके फ़िल्मी जीवन के पदार्पण गीत ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम’ से ही वे प्रेम की ऐसी मधुर स्वरलहरियाँ छेड़ते रहे हैं कि फिर तो बस चतुर्दिक प्रणय ही दिखता है। उनके संयोग श्रृंगार के गीतों में मन के कोमल भाव और प्रिय के प्रेयसी से मिलने पर मन की उत्ताल तरंगें सरल भाषा में आकर लोगों के मन को गुदगुदा देती हैं। यूं तो शैलेन्द्र के श्रृंगार रस से सराबोर फिल्मी गीतों की एक लम्बी सूची है लेकिन इस सूची के कुछ विशिष्ट गीतों में ‘दम भर जो उधर मुँह फेरे’ (आवारा), ‘घर आया मेरा परदेसी’ (आवारा), ‘प्यार हुआ इकरार हुआ है’ (श्री 420), ‘ये रात भीगी-भीगी’ (चोरी-चोरी), ‘जहाँ मैं जाती हूँ वहीं चले आते हो’ (चोरी-चोरी), ‘दिल की नज़र से नज़रों की दिल से’ (अनाड़ी), ‘कहे झूम-झूम रात ये सुहानी’(लव मैरिज), ‘अजीब दास्ताँ है ये कहाँ शुरू कहाँ ख़तम’ (दिल अपना और प्रीत पराई), ‘तेरा-मेरा प्यार अमर’ (असली नकली), ‘ओ सनम तेरे हो गए हम प्यार में तेरे खो गये हम’ (आई मिलन की बेला), ‘पतली कमर है तिरछी नज़र है’ (बरसात), ‘मतवाली नार ठुमक-ठुमक’ (एक फूल चार काँटे), ‘मैं चली मैं चली’ (प्रोफ़ेसर), ‘खुली पलक में झूठा गुस्सा’ (प्रोफ़ेसर), ‘दिल तेरा दीवाना है सनम’ (दिल तेरा दीवाना), ‘रुक जा रात ठहर जा रे चंदा’ (दिल एक मन्दिर), ‘आ जा आई बहार’ (राजकुमार), ‘मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमना का’ (संगम), ‘हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गायेगा’(संगम), ‘ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम’ (संगम), ‘हम दिल का कँवल देंगे उसको होगा कोई एक हजारों में’ (ज़िन्दगी), ‘पान खाए सैंया हमारो’ (तीसरी कसम), ‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे’ (तीसरी कसम), ‘जोशे जवानी हाय रे हाय’ (अराउंड द वर्ल्ड), ‘दीवाने का नाम तो पूछो’ (एन इवनिंग इन पेरिस), ‘आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर जबान पर’ (ब्रह्मचारी), ‘सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं’ (मधुमती), ‘चढ़ गयो पापी बिछुआ’ (मधुमती), ‘चाँद रात तुम हो साथ; (हाफ टिकट), ‘ये रातें ये मौसम नदी का किनारा ये चंचल हवा’ (दिल्ली का ठग), ‘साथ हो तुम और रात जवां’ (कांच की गुड़िया), ‘खोया-खोया चाँद खुला आसमान’ (कालाबाज़ार), ‘नाचे मन मोरा मगन’ (मेरी सूरत तेरी ऑंखें), ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ (गाइड), ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ (गाइड), ‘गाता रहे मेरा दिल’ (गाइड), ‘रुक जा ओ जाने वाली रुक जा’ (कन्हैया), ‘नाचे मन मोरा मगन धीगदा धीगी धीगी’ (मेरी सूरत तेरी ऑंखें) को परिगणित किया जा सकता है। उनके प्यार की अजीब दास्ताँ मथुरा में शुरू हुई थी जहाँ उनका बाल्यकाल गुजरा था और कक्षा 9 में पढ़ते हुए उन्हें प्रेम की जो मासूम अनुभूति हुई, उसने उन्हें संवेदनशील कवि और  फिल्म  गीतकार बना दिया। ‘मेरी प्रेयसि’ कविता में उन्होंने इसका उल्लेख किया है-

था शांत विजन विश्राम घाट, वह जल भरने को आई थी,

मैंने पूछा था नाम और वह, शीश झुका मुस्काई थी।

फड़के थे उसके होंठ और, कांपे थे उसके अंग अंग,

तमतमा उठे उसके कपोल, औ निकला सूरज संग-संग,

मेरे जीवन के प्रथम प्यार की, यहाँ कहानी शुरू हुई,

हर बार नयी जो लगती है, वह बात पुरानी शुरू हुई।         

(‘महाराष्ट्र के लोकप्रिय हिन्दी स्वर’ संकलन से)

          जब जीवन में दुःख डेरा डाल देते हैं तो उनके घटाटोप से बाहर निकलने के बाद भी ‘वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान, उमड़कर नैनों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान’ की भांति कविगण विरह एवं अभावों की अनुभूति को काव्यात्मक अभिव्यक्ति देते हैं। प्रारंभ से निर्धनता-अभावों, दुखों का सामना करने वाले शैलेन्द्र निर्धनता के कारण पिता के साथ शैशवकाल में ही रावलपिंडी से मथुरा आये और यहाँ उनको दलित होने का दंश भी बाल्यकाल से झेलना पड़ा, जब मथुरा में हॉकी खेलते समय साथियों ने तिरस्कारपूर्वक कहा ‘अब ये लोग भी खेल खेलेंगे’ और उन्होंने अपनी स्टिक उसी समय तोड़ दी। इसके बाद उन्होंने कागज़ और कलम से रिश्ता जोड़ा। ऐसे चुनौतीपूर्ण जीवन ने अभावों से जुगलबंदी करते हुए उनके कवि रूप को निखारने का काम किया। उन्होंने ‘आवारा’ में खुद को अभिव्यक्त करते हुए लिखा ‘आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ’। ऐसी ही अभिव्यक्ति उन्होंने ‘श्री 420’ फिल्म के एक गीत में दी, जब उन्होंने लिखा ‘रंजो गम बचपन के साथी, आँधियों में जली जीवन बाती, भूख ने है बड़े प्यार से पाला, दिल का हाल सुने दिलवाला, सीधी सी बात न मिर्च मसाला, कहके रहेगा कहने वाला’, या फिर ‘कालाबाज़ार’ फिल्म के एक गीत में वे लिखते हैं ‘अपनी तो हर आह इक तूफान है’। जितने श्रेष्ठ और संवेदना से भरपूर उनके संयोग श्रृंगार के गीत हैं उतने ही मर्मस्थल पर चोट करने वाले उनके विरह गीत भी हैं। उनके महत्त्वपूर्ण विरह गीतों में ‘ऐ मेरे दिल कहीं और चल’ (दाग), ‘ये शाम की तनहाइयाँ ऐसे में तेरा गम’ (आह), ‘राजा की आएगी बारात’ (आह), ‘आ जा के इंतजार में’ (हलाकू), ‘ये मेरा दीवानापन है’ (यहूदी), ‘तेरा जाना दिल के अरमानों का लुट जाना’ (अनाड़ी), ‘दुनिया वालों से दूर जलने वालों से दूर’ (उजाला), ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ (दिल अपना और प्रीत पराई), ‘तेरी याद दिल से भुलाने चला हूँ’ (हरियाली और रास्ता), ‘छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं’ (रंगोली), ‘दोस्त-दोस्त न रहा’ (संगम), ‘तुम्हें याद करते-करते जाएगी रैन सारी’ (आम्रपाली), ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना’ (बन्दिनी), ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई’ (मेरी सूरत तेरी ऑंखें), ‘दिन ढल जाए हाय रात न जाए’ (गाइड), ‘सजनवा बैरी हो गये हमार’ (तीसरी कसम), ‘दिल की गिरह खोल दो चुप न बैठो’ (रात और दिन), ‘आ जा रे परदेसी मैं तो कबसे खड़ी इस पार’ (मधुमती), ‘जुल्मी संग आँख लड़ी’ (मधुमती), ‘बाग़ में कली खिली भंवरा मुस्काया’ (चाँद और सूरज), ‘झूमती चली हवा याद आ गया कोई’ (संगीत सम्राट तानसेन), ‘रुला के गया सपना मेरा’ (ज्वेल थीफ), ‘जाऊँ कहाँ बता ऐ दिल’ (छोटी बहन), ‘पंथी हूँ मैं उस पथ का अंत नहीं जिसका’ (दूर का राही), ‘रात ने क्या क्या ख्वाब दिखाए’ (एक गाँव की कहानी), ‘ओ बसंती पवन पागल न जा रे न जा’ (जिस देश में गंगा बहती है) आदि के नाम लिए जा सकता हैं।

          भक्ति हिन्दी फ़िल्मी गीतों का एक विशेष तत्व रही है। शैलेन्द्र को भी हिन्दी फिल्मों के श्रेष्ठ भक्त गीतकारों में गिना जा सकता है। ‘सीमा’ फिल्म का गीत तू प्यार का सागर है’ आज भी कई स्कूलों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता है। इसके अतिरिक्त ‘बड़ी देर भई कब लोगे खबर मोरे राम’ (बसंत बहार), ‘पतिव्रता सीता माई को तूने दिया बनवास क्यूँ न फटा धरती का कलेजा क्यूँ न फटा आकाश’ (आवारा), ‘मेरी विपदा आन हरो’ (पूजा), ‘राधिका तूने बांसुरी चुराई’ (बेटी-बेटे), ‘जागो मोहन प्यारे जागो रे’ (जागते रहो), ‘मन रे हरि गुन’ (मुसाफिर), ‘लागी नाहीं छूटे राम’ (मुसाफिर), ‘ना मैं धन चाहूँ ना रतन चाहूँ’ (कालाबाज़ार), ‘शिवजी बिहाने चले पालकी सजाइ के’ (मुनीमजी), ‘पावन गंगा सर पर सोहे’ (पटरानी), ‘बांसुरिया काहे बजाई’ (आगोश), ‘अल्ला मेघ दे पानी दे’ (गाइड), ‘इलाही तू सुन ले हमारी दुआ’ (छोटे नवाब), ’बता दो कोई कौन गली गये श्याम’ (मधु), ‘भय भंजना वन्दना सुन हमारी दरस मांगे ये तेरा पुजारी’ और ‘दुनिया न भाए मोहे अब तो बुला ले’ (बसंत बहार) भी पर्याप्त लोकप्रिय रहे हैं। भक्ति की भांति ही देशभक्ति भी हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता का एक विशिष्ट कारक रही है। शैलेन्द्र ने भले ही कम संख्या में देशभक्ति के गीत लिखे हैं किन्तु उनके ये गीत अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं। उनके लिखे देशभक्ति के गीतों में ‘होंठो पे सचाई रहती है’ (जिस देश में गंगा बहती है), ‘ये चमन हमारा अपना है’ (अब दिल्ली दूर नहीं) के नाम लिए जा सकते हैं।  यहाँ उनके बन्दिनी फिल्म के एक देशभक्ति के गीत का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा, जिसके बोल थे ‘मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे’। उस साल सन 1964 का फिल्मफेयर अवार्ड साहिर लुधियानवी को उनके ताजमहल फिल्म के गीत ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’ के लिए दिया जा रहा था। उस समय साहिर ने कहा था कि इस साल का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का अवार्ड मुझे नहीं बल्कि शैलेन्द्र को बन्दिनी फिल्म के उनके गीत ‘मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे’ को दिया जाना चाहिए था। यह एक महान गीतकार द्वारा दूसरे महान गीतकार  की प्रतिभा का सम्मान था।

 


15 अगस्त 1947 को भारत को मिली आज़ादी का अभिनन्दन करते हुए इसी शीर्षक से एक कविता में वे लिखते हैं-

जय-जय भारतवर्ष प्रणाम!

युग-युग के आदर्श प्रणाम !

शत-शत बंधन टूटे आज

बैरी के प्रभु रूठे आज

अंधकार है भाग रहा

जाग रहा है तरुण विहान!

आज़ादी से पहले कांग्रेस पार्टी द्वारा दिखाए गए आज़ादी के कोरे सपनों के पूरा न होने से वे इतने व्यथित थे कि आज़ादी के मात्र एक साल बाद ही सन 1948 में ‘भगत सिंह से’ कविता में वे जनता को आइना दिखाते हुए कहते हैं-

गढ़वाली जिसने अंग्रेजी शासन में विद्रोह किया

महाक्रान्ति के दूत जिन्होंने नहीं जान का मोह किया

अब भी जेलों में सड़ते हैं न्यू मॉडल आज़ादी है

बैठ गए हैं काले पर गोरे जुल्मों की गादी है

वही रीति है वही नीति है गोरे सत्यानाशी की।

चीन से युद्ध होने पर उन्होंने ‘आवाजें’ कविता के माध्यम से साम्यवादी चीन के आक्रमण की भर्त्सना की और कुछ तथाकथित भारतीय वामपंथियों की शुतुरमुर्गी नीति पर प्रहार करते हुए लिखा-

इनका तो कहना है आज़ादी अपनी सही, रक्षा करेंगे गैर

दाता है देने वाला फिर क्यों हिलें हाथ पैर!

इनकी तो मर्जी है क्यों न अमेरिका आए चीनियों से टकराए

और हम बजाएँ  ताली च्यांग काई शेक वाली!

किनकी ये आवाजें हैं, ये इनको पहचानो जरा?

गोवा पर पुर्तगाल के अवैध कब्जे को लेकर भी उन्होंने ‘अमन का सिपाही’ शीर्षक से कविता लिखी, जिसमें उन्होंने अमन के सिपाही भारत देश को छलने वाले पुर्तगालियों पर सवाल उठाते हुए लिखा-

मगर जब ये तेवर बदलती है प्यारे

समझ लो कि दुश्मन की आई हुई है

ब्रिटिश फ्रांसीसी सभी घर सिधारे

मगर पुर्तगी खुद को क्यों छल रहा है?

शैलेन्द्र अपनी जन्मभूमि से अत्यधिक प्रेम करते थे, इसका संकेत वे ‘प्यारी जन्मभूमि’ कविता में देते हैं-

ऊँचा है सबसे ऊँचा जिसका भाल हिमाला।

पहले पहल उतरा जहाँ अम्बर से उजियाला।

वही है जन्मभूमि, मेरी प्यारी जन्मभूमि।।

आशावाद शैलेन्द्र की बहुत बड़ी पूंजी थी। उनके फ़िल्मी गीतों में भी यह आशा का स्वर दिखाई देता है।  वे ‘अनाड़ी’ फिल्म में खुलेआम मुनादी करते हैं ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है’। इससे पहले ‘आवारा’ फिल्म में वो कह ही चुके थे ‘आबाद नहीं बर्बाद सही गाता हूँ ख़ुशी के गीत मगर, ज़ख्मों से भरा सीना है मेरा हंसती है मगर ये मस्त नज़र, दुनिया में तेरे तीर या तकदीर का मारा हूँ, आवारा हूँ’। ‘बूटपॉलिश’ फिल्म में उनके बच्चे अपनी मुट्ठी में तकदीर लेकर किस्मत को वश में करने का गुर जानते हैं। ‘पतिता’ फिल्म में वो कहते हैं ‘जब गम का अँधेरा घिर आए समझो के सवेरा दूर नहीं’ लेकिन इसके लिए उन्हें अहल्या को पत्थर से मनुष्य बनाने वाले राम की तलाश है, तभी तो वह ‘जिस देश में गंगा बहती है’ फिल्म में कहते हैं ‘बनके पत्थर हम पड़े थे सूनी-सूनी राह में, जी उठे हम जब से तेरी बांह आई बांह में, छीनकर नैनों से काजल न जा रे न जा’। ‘जागते रहो’ फिल्म में भी कुछ ऐसी ही आशावादी भावना है ‘एक क़तरा मय का जब पत्थर के होठों पर गिरा, उसके सीने में भी दिल धड़का, ये उसने भी कहा, ज़िन्दगी ख़्वाब है, ख़्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या’। ‘शिकस्त’ फिल्म के एक गीत में वे लिखते हैं ‘नयी ज़िन्दगी से प्यार करके देख, इसके रूप का सिंगार करके देख, इसपे जो भी है निसार करके देख’। ‘सूरत और सीरत’ फिल्म में वे ईश्वर से हरदम शिकायत करने वालों को जवाब देते हुए कहते हैं ‘बहुत दिया देने वाले ने तुझको आंचल ही न समाए तो क्या कीजे’। ‘उजाला फिल्म के एक गीत में वे आशावाद को यूं परिभाषित करते हैं ‘सूरज ज़रा पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम, ऐ आसमां तू बड़ा मेहरबां आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम’।

जिस समय शैलेन्द्र फिल्मों में लिख रहे थे उस समय देश नया-नया आज़ाद हुआ था और ढेरों समस्याएँ देश के सामने मुँह बाए खड़ी थीं, जिनका अहसास वे सन 1955 में आई फिल्म ‘श्री 420’ के गीत के माध्यम से यह सन्देश देते हुए कराते हैं कि लाख चुनौतियाँ हों हमारा दिल हिन्दुस्तानी ही रहेगा’ मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’। उनका नायक इसी फिल्म के एक गीत ‘मुड़- मुड़ के न देख’ में भारतवासियों को आश्वस्त करता हुआ कहता है ‘जिंदगानी के सफ़र में तू अकेला ही नहीं है’ और इसीलिए ‘सीमा’ फिल्म में उनका ‘घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेकरार, पंख हैं कोमल आँख है धुंधली जाना है सागर पार’ का प्रण लेता है। गैरफ़िल्मी गीतों में भे वे अपने इसी आशावाद को प्रकट करते हैं। उनका ऐसा ही एक गीत दृष्ट्रव्य है-

तू ज़िंदा है तो ज़िन्दगी की, जीत में यकीन कर

अगर कहीं है स्वर्ग तो, उतार ला ज़मीन पर ।

करोड़ों भारतीयों की भांति उनका भी छोटा सा सपना है, जो ‘नौकरी’ फिल्म के इस गीत में उभरकर सामने आता है, जिसमें वे मासूमियत से कहते हैं, ‘छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में। शैलेन्द्र का जीवन दर्शन स्पष्ट है। ‘तीसरी कसम’ में वह अपने सजन से कहते हैं ‘सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है’ क्योंकि कठपुतली फिल्म के गीत के अनुसार ‘हम कठपुतली काठ के हमें तू नाच नचाए’। ‘सीमा’ के एक गीत में वे मनुष्यता को सावधान करते हुए कहते हैं ‘ कहाँ जा रहा है तू ऐ जाने वाले अँधेरा है मन का दिया तो जला ले’। ‘गाइड’ के एक गीत में वे अपने सूफियाना अंदाज़ को बयान करते हुए कहते हैं ‘वहाँ कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहाँ दम ले ले घड़ी भर हौसला पाएगा कहाँ’।


शैलेन्द्र ने अनेक पर्वों पर कुछ अविस्मरणीय गीतों की रचना की है। रक्षाबंधन के पवित्र पर्व पर यदि हम उनके लिखे ‘छोटी बहन’ फिल्म के ‘भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना’ गीत न सुनें तो शायद कुछ अधूरापन अवश्य लगेगा। इसी तरह ‘माशूका’ फिल्म का होली पर आधारित गीत ‘होली खेलें नंदलाला बिरज में होली खेलें नंदलाला’ ऐसा गीत है, जिसके बाद में अनेक संस्करण कई फिल्मों में आए।

शैलेन्द्र को प्रकृति के सुन्दर दृश्यों को गीतों में उकेरने की अद्भुत समझ थी। ‘बरसात’ फिल्म के ‘बरसात में हमसे मिले तुम’ गाने में बारिश के गीलेपन के बीच पनपते प्रेम का जो अनुभव है, वह बेमिसाल है। प्रकृति के संयोगात्मक एवं वियोगात्मक स्वरूप के निदर्शक कुछ ऐसे ही गीतों में ‘बाग़ में कली खिली भंवरा मुस्काया’ (चाँद और सूरज), ‘झूमती चली हवा याद आ गया कोई’ (संगीत सम्राट तानसेन), ‘सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं’ (मधुमती), ‘चाँद रात तुम हो साथ’ (हाफ टिकट), ‘ये रातें ये मौसम नदी का किनारा’ (दिल्ली का ठग), ‘साथ हो तुम और रात जवां’ (काँच की गुड़िया), ‘ये रात भीगी-भीगी’ (चोरी-चोरी), ‘कहे झूम-झूम रात ये सुहानी’ (लव मैरिज), ‘रुक जा रात ठहर जा रे चंदा’ (दिल एक मन्दिर), ‘तितली उड़ी उड़ जो चली’ (सूरज), दिन ढल जाए हाय रात  न जाय’ (गाइड), ‘धरती कहे पुकार के बीज बिछा ले प्यार के’ (दो बीघा जमीन), ‘ओ सजना बरखा बहार आयी’ (परख), ‘आहा रिमझिम के ये प्यारे-प्यारे गीत लिए’ (उसने कहा था), ‘रिमझिम के तराने ले के आई बरसात’ (कालाबाजार) प्रमुख हैं। वे अपने प्रकृति प्रेम का बखान करते हुए ‘आशिक’ फिल्म के एक गीत में कहते भी हैं- ‘मैं आशिक हूँ बहारों का’।

यद्यपि शैलेन्द्र को भोजपुरी का ज्ञान न के बराबर था लेकिन  फिर भी उन्होंने छह भोजपुरी फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं। सन 1964 में आई फिल्म ‘नैहर छूटल जाय’ के गीतों के बोल थे- ‘जिया कसक मसक  मोर रहे’, ‘घर से सुन रे भैया’, ‘जमना तट स्याम खेलत’, ‘अर्रे रामा रिमझिम बरसेला’. ‘चढ़ेला असाढ़ बरसेला’ और ‘नैहर छूटल जाय’।  सन 1965 में आई ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ईबो’ सुपरहिट फिल्म मानी जाती है। इसके गीत शैलेन्द्र ने लिखे थे, जिनमें ‘हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ईबो’, ‘हम तो खेलत रहनी’, ‘मोरे करेजवा मा पीर है’, ‘सोनिया के पिंजरे में’, ‘लुक छिप बदरा में चमके’ और ‘काहे बाँसुरिया बजउले तोहरे बंसुरिया में गिनती के छेदवा मनवा हमार पिया छलनी भईल बा’, ‘अब हम कइसे चली डगरिया लोगवा नजर लगावेला’ शामिल थे। सन 1965 में आई ‘गंगा’ फिल्म के लिए भी उन्होंने भोजपुरी गीत लिखे थे, जिनके बोल थे- ‘कान्हा तोरी बंसी के जुल्मी रे तान’, ‘बनवा फुलेलवा बसंत रे’ आदि। इसी साल आई एक अन्य भोजपुरी फिल्म ‘सइयां से नेहा लगइबे’ के लिए लिखे उनके गीतों में ‘काहे के भेजल बिदेस रे मोहे’, ‘नैना मोरे कजरारे’ आदि शामिल थे। अगले वर्ष सन 1966 में आई भोजपुरी फिल्म ‘मितवा’ में उनके लिखे गीतों के बोल थे ‘देख देख हटेला’, गोरी तेरे नैना’, ‘केहू ना आने’, ‘रेशम की डोरिया’ इत्यादि।

व्यंग्य भी शैलेन्द्र के गीतों में देखा जा सकता है। ‘साधना’ फिल्म के एक गीत में वे कहते हैं- क्या हवा चली बाबा गुरबत की, सौ सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली,पहले लोग मर रहे थे भूख से अभाव से, अब कहीं ये मर न जाएँ अपनी खाव-खाव से, मीठी बात कड़वी लगे गालियाँ भली, आम में उगे खजूर नीम में फले हैं आम, डाकुओं ने जोग लिया चोर भजें राम नाम, होश की दवा करो मियाँ फजल अली’। ‘यहूदी’ फिल्म के एक गीत में वे कहते हैं ‘ये दुनिया ये दुनिया हाय हमारी ये दुनिया शैतानों की बस्ती है, यहाँ जिंदगी सस्ती है’।

शैलेन्द्र ने हिन्दी फिल्मों को अनेक अविस्मरणीय मादक गीत दिए हैं, जिनमें ‘पतली कमर है तिरछी नज़र है’ (बरसात), ‘एक तो तीन आ जा मौसम है रंगीन’ (आवारा), ‘चढ़ गयो पापी बिछुआ’ (मधुमती) और  ‘नखरे वाली देखने में देख लो है कैसी भोली-भाली’ (न्यू डेल्ही) प्रमुख हैं लेकिन यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इन गीतों में मादकता तो है किन्तु अश्लीलता, फूहड़ता और भोंडापन कटाई नहीं है। शैलेन्द्र इन दुर्गुणों के घोर विरोधी थे, इसीलिए उन्होंने ‘लव मैरिज’ फिल्म के एक गीत में अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहा था ‘टीन कनस्तर पीट-पीट कर गला फाड़कर चिल्लाना यार मेरे मत बुरा मान ये गाना है न बजाना है’। इस सम्बन्ध में उन्होंने ‘कवि तुम किनके? कविता किसकी’ शीर्षक से एक कविता भी लिखी है, जो उनके इस दृष्टिकोण को और भी स्पष्ट कर देती है-

जिनके सपनों की प्रीत परी बिक जाती है बाज़ारों में,

जिनके अरमानों की कलियाँ सो जाती हैं अंगारों में,

फिर भी जो दिल के घाव छुपा हँसते हैं जिन्दा रहते हैं....

तूफां से काँधे कदम मिला जो संग समय के बहते हैं....

कवि उनका है, कविता उनकी।

अंग्रेज़ी के शब्दों को मिश्रित कर चमत्कारपूर्ण गीतों की सृष्टि करना शैलेन्द्र की खूबी थी। उनके ऐसे कुछ फ़िल्मी गीत अत्यंत लोकप्रिय भी हुए। इन गीतों में ‘ओ ओ माय डिअर आओ नियर’ (नगीना), नाइंटीन फिफ्टी सिक्स, नाइंटीन फिफ्टी सेवेन, नाइंटीन फिफ्टी एट, नाइंटीन फिफ्टी नाइन दुनिया का ढाँचा बदला दुनिया का साँचा बदला लाला हो कहाँ’ (अनाड़ी), ‘ओ बोम्बशेल बेबी ऑफ़ बॉम्बे’ और ‘ओ मेरी बेबी डॉल’ (एक फूल चार काँटे), ‘अराउंड द वर्ल्ड इन एट डॉलर’ (अराउंड द वर्ल्ड इन एट डॉलर), ‘बेटा वाओ वाओ वाओ मेरा कान मत खाओ’ (मेम दीदी) विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं।

निरर्थक शब्दों के प्रयोग से अर्थवान गीतों को बना देना शैलेन्द्र की एक और बड़ी विशेषता रही है। उनके ऐसे अनेक फ़िल्मी गीत हैं, जिनमें निरर्थक शब्दों के संयोजन से गीत की प्रभविष्णुता बढ़ गयी है। इनमें ‘इल ले  बेली लाई ला, इल ले  बेली लाई ला इल ले  बेली आ रे, इन हैं प्यारे-प्यारे’ (काली घटा), ‘तन्दाना तन्दाना तन्दाना तन्दाना, मुश्किल है प्यार छुपाना’ (मयूर पंख), मिनी मिनी ची ची मिनी मिनी ची ची’ (कठपुतली), ‘चिनचन पपलू चिनचन पपलू चिनचन पपलू  छुई मुई मैं छू न लेना मुझे छू न लेना (बागी सिपाही), ‘लुस्का लुस्का लुई लु सा लुई लुई सा इसका उसका किसका लुई लुई सा, तू मेरा कॉपीराइट मैं तेरा कॉपीराइट’ (शरारत), ‘मैं हूँ मिस्टर चिक चिक बूम बूम’ (अप्रदर्शित फिल्म बैंडमास्टर चिक चिक बूम बूम), ‘अइयइया करूँ मैं क्या सुकू सुकू खो गया दिल मेरा सुकू सुकू’ और ‘याहू चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ (जंगली) एवं नाच रे मन बड़कम्मा (राजकुमार) को विशेष तौर पर परिगणित किया जा सकता है।

शैलेन्द्र के अन्य लोकप्रिय फ़िल्मी गीतों में ‘दम भर जो उधर मुँह फेरे’ (आवारा), ‘छोटी सी ये जिंदगानी’ (आह), ‘नखरेवाली देखने में देख लो’ (न्यू डेल्ही), ‘मंजिल वही है प्यार की राही बदल गए’ (कठपुतली),  ‘नी बलिये रुत है बहार की’ (कन्हैया), ‘कहे झूम झूम रात ये सुहानी’ (लव मैरिज), ‘मुझको यारों माफ़ करना मैं नशे में हूँ’ (मैं नशे में हूँ), ‘जा जा जा रे मेरे बचपन’ (जंगली),’ मेरा नाम राजू’ (जिस देश में गंगा बहती है), ‘ओ सनम तेरे हो गये हम’ और ‘आ आई मिलन की बेला’ (आई मिलन की बेला), ‘सबेरे वाली गाड़ी से चले जाएँगे’ (लाट साब), ‘हर दिल जो प्यार करेगा’ और ‘ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम’ (संगम), ‘हमने जफा न सीखी उनको जफा न आई’ (ज़िन्दगी), ‘तुम्हें याद करते करते’ (आम्रपाली), ‘कोई मतवाला आए मेरे द्वारे’ (लव इन टोक्यो), ‘जोशे जवानी हाय रे हाय’ (अराउंड द वर्ल्ड), ‘रात के हमसफर थक के घर को चले’ और ‘दीवाने का नाम तो पूछो’ (एन इवनिंग इन पेरिस), ‘आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे’ (ब्रह्मचारी), ‘ज़िन्दगी ख़्वाब है’ (जागते रहो), ‘जंगल में मोर नाचा’, ‘दिल तड़प तड़प के’ (मधुमती) इत्यादि प्रमुख हैं।  

शैलेन्द्र क्रांतिधर्मी कवि थे। देशवासियों की दुर्दशा और दुर्दिन से उनका कलेजा फटता था। इसके संकेत उनके अनेक गीतों में मिलते हैं। ‘मेरी अभिलाषा’ कविता से उनकी यह इच्छा प्रतिध्वनित होती है-

सुनसान ठिठुरती रातों में जो ताप तपाती है दुनिया

उस ईंधन के काम आ जाऊं, यों अपना आप मिटा जाऊं, बस मेरी यह अभिलाषा है।

शैलेन्द्र मनुष्यता के जीवन को विजयी होते देखने के पक्षपाती रहे हैं। ‘तू जिंदा है तो....’ कविता में वे इसी भावना को अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं-

तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर

अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर।

आजकल हर धरना प्रदर्शन में एक नारा अवश्य लगता है, जिसके बोल होते हैं-‘हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि यह गीत शैलेन्द्र ने लिखा था, जिसके बोल थे-

हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है

तुमने मांगें ठुकराई हैं तुमने तोड़ा है हर वादा

छीना हमसे सस्ता अनाज तुम छंटनी पर हो आमादा

तो अपनी भी तैयारी है तो हमने भी ललकारा है

हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है

मत करो बहाने संकट है, मुद्रा प्रसार इन्फ्लेशन है

इन बनियों और लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है?

बगलें मत झांको दो स्वराज, क्या यही स्वराज तुम्हारा है?

यह और बात है कि सन 1974 के लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान पर  शुरू हुए आन्दोलन में फणीश्वरनाथ रेणु ने इस गीत में ‘हड़ताल’ शब्द की जगह ‘संघर्ष’ जोड़कर इस गीत को जन-जन का कंठहार बना दिया।

इस क्रांति को वे किसलिए और किस प्रकार करना चाहते थे, इसका सुन्दर चित्र उन्होंने ‘क्रांति के लिए उठें कदम’ कविता में उकेरा है, जिसका एक अंश अवलोकनीय है-

क्रांति के लिए उठें कदम

क्रांति के लिए जले मशाल

रात के विरुद्ध प्रात के लिए

भूख के विरुद्ध भात के लिए

मेहनती गरीब जाति के लिए

हम लड़ेंगे हमने ली कसम

क्रांति के लिए उठें कदम।

वे कम्युनिस्ट पार्टी और इप्टा से जुड़े थे लेकिन कालांतर में उन्हें इस पार्टी की नीतियों और कपट चाल से वितृष्णा हो गयी और अनेक अन्य कवियों-लेखकों की भांति उन्होंने भी इनसे दूरी बना ली। शायद तभी उन्होंने लिखा-

मुबारक देने आये थे, मुबारक दे के जाते हैं,

मिला है बहुत कुछ सीने में, जो हम ले के जाते हैं।

हम तो जाते अपने गाँव, अपनी राम राम राम

सबको राम राम राम।

प्रतीकात्मक शैली में गागर में सागर भरते हुए वे डेमोक्रेसी को परिभाषित करते हैं और कांग्रेस के नेताओं पर तंज कसते हुए कहते हैं-

नीयत-फितरत अलग

सूरत सीरत अलग

बोतल बरनी, इंडिया गिलास

तांबा पीतल, कलईदार बांस

बालक बूढ़े गबरू जवान

मोटे औसत सींकिया पहलवान

छड़ी, फुलझड़ी, लट्ठ, मीठी कटार

टाइम बॉम्ब, तड़तड़िया लपलप तलवार

साहू चोर अशराफ बदमाश

चुलबुल झुलझुल, खिलखिल उदास

x        x        x        x

आह, यही सब हैं डेमोक्रेसी के मल्लाह

चुनावों के जमाने में लीडरों के अल्लाह

प्रतिनिधि इन सबके राजाजी रघुराई

स्वयंसेवक इनके मोरारजी देसाईं।

उन्होंने पंजाब, हैदराबाद, चीन, जापान इन सभी राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय विषयों पर लिखा और आज़ादी के पहले और बाद की दुरवस्था को भी अपनी लेखनी से रेखांकित किया। ‘जलता है पंजाब हमारा’ कविता में वे पंजाब की हालत पर दुःख प्रकट करते हुए लिखते हैं-

जलता है जलता है पंजाब हमारा प्यारा

जलता है भगत सिंह की आँखों का तारा

किसने हमारे जलियाँवाले बाग़ में आग लगाई

किसने हमारे देश में फूट की ये ज्वाला धधकाई

किसने माता की अस्मत को बुरी नजर से ताका

धर्म और मजहब से अपनी बदनीयत को ढांका

कौन सुखाने  चला है पाँचों नदियों की जलधारा

जलता है जलता है पंजाब हमारा प्यारा।

उपर्युक्त कविता सन 1947 में जब शैलेन्द्र एक कवि सम्मेलन के मंच पर सुना रहे थे, तब इससे प्रभावित होकर राज कपूर ने शैलेन्द्र को अपनी फिल्म ‘आग’ के गीत लिखने का उनसे अनुरोध किया था, किन्तु तब उन्होंने फिल्मों के लिए गीत लिखने से मना कर दिया था लेकिन राज कपूर की अगली ही फिल्म ‘बरसात’ में उन्हें अर्थाभाव के कारण गीत लिखने पड़े और उसके बाद सफलता की जो स्वर्णिम कहानी शुरू हुई, वह इतिहास के पन्नों में सदा-सर्वदा के लिए अमिट रूप से अंकित हो गयी।

 ‘कहानी सुनो’ कविता में वे निजाम द्वारा हैदराबाद की निर्दोष जनता पर किये गए अमानवीय और बर्बर अत्याचारों की भर्त्सना करते हैं और भारतीय सेना द्वारा उनका परित्राण करने का स्वागत करते हैं तो ‘हैदराबाद और यूएनओ’ कविता में हैदराबाद के मसले को निजाम द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने की भर्त्सना भी करते  नजर आते हैं।

शैलेन्द्र का बचपन रावलपिंडी में गुजरा था और उनके पिता उन्हें लेकर मथुरा आ गये थे। ऐसे में विभाजन से रावलपिंडी का पाकिस्तान में चला जाना उन्हें टीस देता था। ‘सुन भैया रहिमू पाकिस्तान के’ कविता में वे बंटवारे के अपने इसी दर्द को आवाज़ देते हुए लिखते हैं-

सुन भैया रहिमू पाकिस्तान के

भुलुआ पुकारे हिंदुस्तान से

x        x        x        x

परदेसी कैसी चाल चल गया

झूठे सपनों से हमको छल गया

डर के वह घर से तो निकल गया

दो आंगन कर गया मकान के

सुन भैया रहिमू पाकिस्तान के।

वे साम्यवादी खूनी क्रांति के खिलाफ थे। तभी तो उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका द्वारा जापान पर किये एटम बम के इस्तेमाल का घोर विरोध किया और लिखा-

चर्चिल मांगे खून मजूर किसानों का

ट्रूमैन मांगे ताजा खून जवानों का।

शैलेन्द्र ने फिल्मों में हास्य गीत भले परिमाण में कम लिखे हों किन्तु परिणाम में ये अत्यंत लोकप्रिय और प्रभावशाली रहे हैं। ‘गुमनाम’ फिल्म का गीत ‘हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं’ उनकी ही लेखनी से निकलकर अमर हो गया है। ‘जानवर’ फिल्म के गीत ‘लाल छड़ी मैदान खड़ी’ तथा ‘अराउंड द वर्ल्ड’ फिल्म के गीत ‘ ये मूंग और मसूर की दाल वा रे वा मेरे बांकेलाल’ और ‘चील चील चिल्ला के कजरी सुनाए’ (हाफ टिकट) में भी चपल हास्य है। ‘जंगली’ फिल्म का गीत ‘अइयइया करूँ मैं क्या सुकू सुकू खो गया दिल मेरा सुकू सुकू’ खिलंदड़पन में ही जीवन के फलसफे को समझा देता है।

प्रश्नोत्तर शैली में गीत लिखकर सवाल-जवाब की मुकरी शैली को हिन्दी फिल्मों में स्थापित करने का श्रेय शैलेन्द्र को दिया जाना चाहिए। ‘ससुराल’ फिल्म का ‘एक सवाल मैं करूँ एक सवाल तुम करो हर सवाल का सवाल ही जवाब हो’ गीत या फिर ‘संगम’ फिल्म का ‘मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमना का बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं’ या ‘कठपुतली’ फिल्म का ‘बोल रे कठपुतली डोरी कौन संग बाँधी’ या फिर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ फिल्म का गीत ‘हम भी हैं तुम भी हो दोनों हैं आमने सामने’ इसके प्रमाण हैं।    

शैलेन्द्र को लोकगीतों की पैनी समझ थी। उन्होंने देश भर के अनेक लोकगीतों को पढ़-सुन-गुन कर फिल्मों को ऐसे गीत दिए, जिन्हें हम आज भी यकायक गुनगुनाते हैं। एक बार शैलेन्द्र संगीतकार मित्र शंकर जयकिशन के साथ कहीं जा रहे थे। रस्ते में उन्हें एक निर्माणाधीन इमारत में काम करते मजदूर दिखे, जो गा रहे थे ‘रमैया वस्तावैया’ और शैलेन्द्र के ‘श्री 420’ फिल्म के अमर गीत  ‘रमैया वस्तावैया मैंने दिल तुझको दिया’ ने जन्म ले लिया। ‘बंदिनी’ का सुविख्यात गीत ‘ मेरे साजन हैं उस पार’ और ‘गाइड’ फिल्म का ‘वहां कौन है तेरा’ पूर्वी बंगाल की लोक धुनों से प्रभावित गीत हैं। ‘तीसरी कसम’ के ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’, ‘पान खाएँ सैंया हमारो’, ‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया’ और ‘ लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया’ जैसे गीतों पर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकगीतों की छाप है। ‘मधुमती’फिल्म के ‘जुल्मी संग आँख लड़ी’, ‘आ जा रे परदेसी मैं तो कब से खड़ी इस पार’ ‘चढ़ गयो पापी बिछुआ’ और ‘कंचा ले कंची ले लाजो’ जैसे गीतों में अनेक प्रदेशों के लोक गीत जीवंत हो गये हैं। 

अंततः कहा जा सकता है कि शैलेन्द्र बहुयामी प्रतिभा के धनी कवि-गीतकार थे, जिन्होंने मात्र 43 वर्ष की अल्पायु में ही अपने गीतों-कविताओं से दुनिया को चमत्कृत कर दिया। उनकी रचनाओं में जीवन के प्रायः सभी पक्ष आकर एकाकार हो जाते हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि एक साहित्य सृष्टा के रूप में उनका अभी तक निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं किया गया है, जिससे साहित्याकाश में उन्हें जो स्थान मिलना चाहिए था, अब तक वे उससे वंचित रहे हैं। आज आवश्यकता है, शैलेन्द्र के कृतित्व को नए सिरे से मूल्यांकित-नीर-क्षीर विवेचित करने की ताकि इस महँ रचनाकार को चिर काल से प्रतीक्षित साहित्यिक स्थान प्राप्त हो सके।

 


डॉ. पुनीत बिसारिया

अध्यक्ष - हिन्दी विभाग एवं पूर्व निदेशक

अध्यक्ष - शिक्षा संस्थान

बुंदेलखंड विश्वविद्यालय

झाँसी

उत्तर प्रदेश - 284128

 

 

1 टिप्पणी:

  1. शैलेन्द्र के विषय में पढ़ना हमेशा ताज़ादम लगता है। हिंदी सिनेमा के तो वे अनूठे गीतकार थे ही,साहित्यकारों के भी प्रिय गीतकार हैं। पुनीत बिसारिया ने अच्छे ढंग से लिखा है उन पर।
    - कमलेश भट्ट कमल, ग्रेटर नोएडा वेस्ट

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