गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

औपन्यासिक जीवनी

 


काल के कपाल पर हस्ताक्षर : हरिशंकर परसाई

राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय

प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी खंडवा के न्यू हाई स्कूल में पहली बार अध्यापक होकर गये थे। वहाँ पर गायक-अभिनेता किशोर कुमार, जिनका वास्तविक नाम आभास कुमार गांगुली था, कक्षा नवमीं में उनके विद्यार्थी थे। वे बचपन में भी उतने ही चपल-चंचल थे, जितने की फिल्म संसार में जाने के बाद, उन्हें जाना गया। इस बार उनसे संबंधित ऐसा ही एक चपल-किस्सा प्रस्तुत है –


 

गाने वाले बाबू...!

खंडवा में परसाई मास्साब न्यू हाई स्कूल के खेल प्रभारी शिक्षक भी थे। उनके स्कूल का फुटबॉल मैच, शासकीय हाई स्कूल के साथ होना था। टीम की तैयारी कराने और उसे जीतने के काबिल बनाने की जिम्मेदारी परसाई मास्साब पर आयी। उन्होंने अपने स्कूल के, फुटबॉल खेलने में रुचि रखने वाले लड़कों की दो टीमें बनायीं। बताया कि दोनों टीमों को चार दिन तक आपस में खेलना है। पाँचवें दिन दोनों के बीच मैच होगा। मैच में खिलाड़ियों का खेल-प्रदर्शन देख कर ही, स्कूल की टीम बनायी जायेगी।

इस प्रकार दोनों स्कूलों के बीच होने वाले मैच की तारीख से, कोई सप्ताह भर पहले से प्रतिदिन शाम को फुटबॉल खेल का अभ्यास शुरु किया। पहले दिन परसाई मास्साब ने लड़कों को मैदान में ले जाकर बैठा दिया। खुद एक कुर्सी पर बैठ गये और खेल के बारे में ज़रूरी जानकारियाँ देना शुरु किया।

- देखो बच्चो, सबसे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि फुटबॉल का खेल क्या है...? उसे कैसे खेलते हैं...? उसके नियम वगैरह क्या हैं...? जब तक उसके बारे में ठीक से नहीं जानेंगे, तब तक हम एक अच्छे खिलाड़ी नहीं बन सकते।

- जी, मास्साब जी।

- सबसे पहले तो यह जान लो कि यह खेल एक टीम-गेम है... टीम-गेम यानी कि खिलाड़ियों के दल का खेल। यह दौड़, कूद या भाला फेंकने वाले खेलों की तरह व्यक्तिगत खेल नहीं है... चूँकि, यह व्यक्तिगत खेल नहीं है, तो इसमें अपने दल के खिलाड़ियों के साथ मिल-जुलकर खेलने की भावना प्रधान बन जाती है। यानी आप अपने लिये नहीं खेलते, अपने दल के लिये खेलते हैं और दल अपने स्कूल के लिये खेलता है। समझ रहे हो न्...!

- जी, मास्साब जी।

- टीम में ग्यारह खिलाड़ी होते हैं। फुटबॉल का मैदान आयताकार होता है। उसके दोनों छोरों पर एक-एक गोल पोस्ट होता है।

- हमने देखा है, मास्साब जी...

- किस-किसने देखा है...?

लगभग सभी बच्चों ने हाथ उठा दिये।

- शाबाश, सभी ने देखा है। यह अच्छी बात है। एक दल के खिलाड़ियों को, दूसरे दल के खिलाड़ियों को छकाते हुए, पैरों से लुढ़काते हुए, बॉल को गोल तक ले जाना होता है और गोल के अंदर डालना होता है। बॉल गोल में चली गयी, तो आपका एक गोल बना। जितने गोल बनाओगे, उतना ही दूसरी टीम से आगे होते जाओगे...

- जी...

आभास गांगुली को फुटबॉल के खेल में रुचि थी, पर वह भी मैदान में हाजिर था। वह हर गतिविधि में हाजिर रहता था। वह परसाई मास्साब की बातें नहीं सुन रहा था। मास्साब को घेरकर बैठे लड़कों के पीछे इधर से उधर चक्कर लगा रहा था और केएल सहगल का कोई गाना गुनगुना रहा था। बीच-बीच में वह किसी लड़के कान में घास का तिनका डाल देता, तो किसी के सिर पर काग़ज की नाव बना कर बैठा देता। लड़के उसे ऐसा करने के लिये, धीरे से मना करते। पर वह कहाँ मानने वाला था।

उसने काग़ज का हवाई जहाज बनाया और उसे आसमान में उड़ा दिया। जहाज पहले तो सपाटे के साथ, सीधा ऊपर की तरफ गया। फिर उसने एक चक्कर लगाया और नीचे की तरफ झुकाव लेकर, धरती की दिशा में उड़ते हुए, परसाई मास्साब की गोद में लेंड कर गया।

परसाई मास्साब का ध्यान भंग हुआ। वे चुप होकर जहाज के मालिक की तलाश में इधर-उधर देखने लगे। लड़कों ने कहा- यह सारी कारस्तानी आभास की है, मास्साब जी...

   परसाई मास्साब अपनी जगह पर खड़े हुए। आभास को गाते-गुनगुनाते और मैदान में मटकते हुए देखा। उसकी हरकतें देख कर उन्हें हंसी गयी। पर उन्होंने नाराज़गी जताने वाले स्वर में जोर से आवाज़ लगायी- आभास...!

  आभास ने चौंककर उन्हें देखा।

- इधर आओ...

  आभास सकपका कर धीमी चाल से उनके पास पहुँचा।

- क्या तुम्हें फुटबॉल टीम में रहना है...?

- नहीं, मास्साब जी।

- तो मैदान में क्यों हो...? कक्षा में जाओ...

- हमें तो यहीं रहना है, आपके पास...। और अपने दोस्तों के पास...

- क्यों...?

    उसने भोलेपन के साथ कहा- आप हमें बहुत अच्छे लगते हैं, मास्साब जी। और ये सब दोस्त भी...

    परसाई मास्साब को इस उत्तर की आशा न थी। वे अचकचा गये। होंठों से हंसी की एक पतली धार फूट पड़ी- खेलना नहीं है, पर यहीं रहना है? क्योंकि हम तुम्हें अच्छे लगते हैं...!

- जी, मास्साब जी।

- तो शरारत क्यों कर रहे हो...? चलो इधर आओ। हमारी बगल में बैठो।

   आभास ने अपने परसाई मास्साब की आज्ञा का पालन किया।

   मास्साब ने अपनी बात को आगे बढ़ाया-गोल पोस्ट पर एक गोलकीपर होता है। यानी गोलरक्षक खिलाड़ी। वही अकेला ऐसा खिलाड़ी होता है, जिसे गेंद को रोकने के लिए अपने हाथों का इस्तेमाल करने की भी छूट होती है। जो दल, खेल की समय-समाप्ति तक ज्यादा गोल करता है, वही विजयी कहलाता है। यदि स्कोर बराबर रहे, तो उस मुकाबले को बराबर या ड्रा घोषित कर दिया जाता है। या खेल को अतिरिक्त समय भी दिया जा सकता है और तब पेनाल्टी शूट आउट के द्वारा हार-जीत का फैसला किया जाता है...

- जी...

- खेल की अवधि 90 मिनट होती है, 45 मिनट के बाद मध्यांतर होता है। मैच के बारे में फैसला करने के लिये एक रेफरी होता है। वह नियमों का जानकार होता है। नियम तोड़ने वाले खिलाड़ी को वह खेल से निकाल सकता है... समझ गये...?

- जी, मास्साब जी...

- तो फुटबॉल खेल के बारे में मोटे तौर पर जिन बातों का ज्ञान खिलाड़ी को होना चाहिये, वे सब बातें हमने आप लोगों को बता दी हैं... अब जो सीखना है, वह सब, मैदान के अंदर, फुटबॉल खेलते हुए ही सीखना होगा...

- जी, मास्साब जी...

- तो चलो ग्यारह-ग्यारह खिलाड़ियाँ दो दलों में बँट जाओ। एक दल का नाम होगा, सत्य दल और दूसरे का, अहिंसा दल।

 - जी, मास्साब जी...

  आभास ने कहा- मैं अहिंसा दल में रहूँगा...

  अहिंसा दल वाले लड़कों ने कहा- पर तुम तो फुटबॉल खेलते नहीं...?

- तो क्या हुआ...? टीम में तो रह सकता हूँ...। अपने स्कूल को मैं जितवाऊँगा...। देख लेना...

  लड़के हँसने लगे।

  जो खेलता था, वह मैच जितवा देने की घोषणा कर रहा था।

    प्रभात कुमार तिवारी गवर्नमेंट हाई स्कूल की फुटबॉल टीम का सबसे धाकड़ खिलाड़ी छात्र था। वही टीम का कप्तान भी था। कई सालों से गवर्नमेंट हाई स्कूल ही फुटबॉल चैंपियन था। स्कूल के पास सभी साधन थे। बढ़ियां मैदान था। प्रशिक्षित स्पोर्ट टीचर थे। रोज़ कई प्रकार के खेल वहाँ पर खेले जाते थे। उसकी फुटबॉल टीम का खूब नाम था। हर साल स्कूली मैच हुआ करते थे और देखने के लिये लोगों में उत्सुकता रहा करती थी। मैच के समय स्कूल का मैदान दर्शकों से भर जाता था।

   प्रभात की टीम अभ्यास में जुट गयी थी। अभ्यास के बाद खिलाड़ियों को, स्कूल की तरफ से गुड़ और चना दिया जाता था। उन्हें बढ़ियाँ जूते और ड्रेस दी गयी थी। टीम का मनोबल बढ़ा हुआ था। उसे अपनी जीत का विश्वास था। हारने के बारे में किसी के मन में जरा सी भी आशंका थी। उनसे कोई जीत ही नहीं सकता, ऐसा भाव सबके मन में ठसाठस भरा हुआ था। और भरा क्यों रहे, इसमें कोई अतिशयोक्ति भी तो थी।

   जिस दिन न्यू हाई स्कूल के साथ उसके स्कूल की टीम का मैच था, उसके एक दिन पहले प्रभात अपने काका रामेश्वर प्रसाद तिवारी के पास पहुँचे। उनके पैर छूकर आशीर्वाद पाया। फिर मनुहार की- काका जी, आपसे एक प्रार्थना करने आया था...

  काका ने चाय का एक घूँट लेकर कहा- हाँ-हाँ, बोलो... क्या बात है प्रभात...?

- काका जी, कल हमारे स्कूल का न्यू हाई स्कूल के साथ फुटबॉल मैच है। मैं चाहता हूँ कि आप और काकी जी कल शाम को 4 बजे मैच देखने हमारे स्कूल आयें... मैं आपके सामने गोल करके अपनी टीम को जिताना चाहता हूँ...

- कल...! कल तो बहुत काम है...। कई जगह इंस्पेक्शन करने जाना है...

- नहीं काका जी, आप तो कैसे भी करके कल 4 बजे आईये...। काकी जी को भी साथ लेकर आईये...। मैंने उन्हें राजी कर लिया है...। आपको आना ही पड़ेगा...। मैं चाहता हूँ कि आप मुझे गोल करता हुआ देखें...। जब हमारी टीम जीत जायेगी, और खिलाड़ी मुझे अपने कंधों पर उठा कर मैदान में दौड़ रहे हों, तब आप वह सब देखने के लिये आप वहाँ हों...

- अच्छा-अच्छा...देखता हूँ...। चल कुछ करता हूँ...

- नहीं, आप तो बस यह कह दो कि कल आऊँगा ...

   काका हंसे- अच्छा प्रभात...। तू बड़ा जिद्दी है रे...! मानेगा नहीं...। अच्छा चल, मैं कल आऊँगा  रे पगले...

- काकी को भी साथ लाना है...

   काका ने दूर बैठी अपनी पत्नी की ओर, एक बार देखा और कहा- अच्छा, तेरी काकी को भी अपने साथ लेकर आऊँगा ...। अब तो ठीक है...?

- जी काका जी...। अब बिल्कुल ठीक है...

   प्रभात ने अपने काका जी के पैर एक बार और छुए और जगमोहन का गाया हुआ गीत गुनगुनाते हुए, बाहर की ओर चल दिया, दिल को है तुमसे प्यार क्यों...ये ना बता सकूंगा मैं...

  काका उसे जाता हुआ देखते रहे और मुस्कुराते रहे।

   फुटबॉल मैच वाले दिन परसाई मास्साब को अपने स्कूल की टीम लेकर गवर्नमेंट हाई स्कूल जाना था। उन्होंने टीम को जमा किया। मैच के बारे में जो बचा रह गया था, वह भी समझाया। खास तौर पर यह कि खेल, खेल ही होता है। वह कोई दुश्मनी की रणभूमि नहीं होता। जो उस तरफ वाली टीम में हैं, वे भी तुम्हारे बंधु ही हैं। इसलिये किसी को चोट न पहुँचे, ऐसे खेलना। अपनी टीम के लिये और स्कूल के लिये खेलना। बॉल पास करने पर ज्यादा ध्यान देना। सब साथ-साथ रहना।

  टीम के अलावा भी कुछ छात्र साथ रखे गये, ताकि वे अपनी टीम का प्रोत्साहन करने के लिये उपलब्ध रहें। आभास तो पहले से जाने के लिये तैयार था। वह टीम के आसपास उछल-कूद मचाता हुआ, गुनगुनाने में मस्त था, बियाही मेरी रानी हवलदार के संग...

  उसके उत्साह को देख कर लगता था, कि वही टीम का कप्तान है। वही गोल मारेगा। वही गोलकीपर है, गोल वही बचायेगा। वही रेफरी है, अपने स्कूल के प़क्ष में निर्णय देगा। परसाई मास्साब उसकी दिली हालत देख कर भीतर-भीतर प्रसन्न हो रहे थे। वह अपने संपूर्ण रूप में बालक ही था।

  तन से भी।

  मन से भी।

  मासूम और निश्छल।

   उन्होंने टीम से कहा- देखो, आभास आज कितना खुश है...! उसी में सबसे ज्यादा स्पोर्टस्मेन स्पिरिट है। नाच रहा है। कूद रहा है। गा रहा है। किसके लिये....? तुम सबके लिये। स्कूल के लिये। हमें ऐसा ही होना चाहिये... अपने निजीपन से जितना बाहर निकल सको, निकलने की कोशिश करना चाहिये...

  फिर आभास को बुला कर पूछा- आभास, तू तो खिलाड़ी नहीं है, पर इतना खुश क्यों है...?

- मास्साब जी, मैं खिलाड़ी क्यों नहीं हूँ...? हूँ। हाँ, मेरा खेल जरा अलग है। मैदान जरा अलग है। मैं मंच पर खेलता हूँ। गाना, मेरा खेल है। और जब मैं गाता हूँ, तो स्कूल के सारे लड़के तालियाँ बजाते हैं। तो आज मेरे स्कूल का मैच होना है, तो मैं भी ताली बजाने जाऊंगा... ताली बजाऊंगा... जब हमारी टीम गोल मारेगी, तो नाचूंगा... ऐसे... गाऊंगा..., बियाही मेरी रानी हवलदार के संग...

  हवलदार के संग...हो थानेदार के संग...

  बियाही मेरी रानी हवलदार के संग... ऐसे...

- शाबाश...! चलो, तुम्हीं आज टीम का सबसे ज्यादा प्रोत्साहन करने वाले हो... तुम्हारा चलना बहुत ज़रूरी है...

     टीम पैदल रवाना हुई। गवर्नमेंट स्कूल ज्यादा दूर था। वे सड़क के किनारे-किनारे चल रहे थे। आगे वाले दो लड़के स्कूल-बैनर के एक-एक बांस को पकड़े चल रहे थे। उनके भी आगे आभास कुमार नाचते-गाते-झूमते हुए चल रहा था, जैसे किसी बारात में चल रहा हो। परसाई मास्साब टीम की बगल में चल रहे थे। खंडवा शहर के लोग इस छोटे से जुलूस को देखने के लिये राह में चलते-चलते ठहर जाते थे। मुड़-मुड़कर देखते थे। दूकानों में खड़े लोग बाहर की तरफ देखने लग जाते थे। परसाई मास्साब को भी यह सब अच्छा लग रहा था। उनके स्कूल, न्यू हाई स्कूल का नाम फैल रहा था। उसकी टीम खेलने जा रही थी। जीतने जा रही थी। अपना परचम फहराने जा रही थी।

 टीम के बाकी के लड़के नारे लगा रहे थे-

- न्यू हाई स्कूल...!

- जिंदाबाद...

- जीतेगी भाई जीतेगी...!

- हमारी फुटबाल टीम जीतेगी...!

    गवर्नमेंट हाई स्कूल में मैच के लिये किसी उत्सव जैसी तैयारियाँ की गयी थीं। रंग-बिरंगी झंडियों से मैदान सजा था। फुटबॉल मैदान के एक तरफ स्कूल के लड़कों के बैठने के लिये और दूसरी तरफ शहर के दर्शकों के लिये स्थान बनाया गया था। महत्वपूर्ण व्यक्तियों और मेहमानों के लिये पंडाल में कुर्सियाँ लगायी गयी थीं। प्रभात की टीम को न्यू हाई स्कूल की टीम का इंतज़ार था, पर प्रभात को अपने काका-काकी का।

  काका अब तक नहीं आये!

    प्रभात आज दनादन गोल मार कर अपनी टीम को जिताते हुए, काका जी को दिखाना चाहता था। वह बताना चाहता था, कि वह गाने में तो सबसे आगे है ही, खेल में भी सबसे आगे है। बड़ा खिलाड़ी है। उसकी दिली हसरत थी कि काका जी उसका खेल देखें। गोल मारने का उसका अंदाज़ देखें। देख कर कहें वाह, शाबास रे प्रभात! तूने तो कमाल कर दिया रे...

    आज उसकी यह हसरत पूरी होने वाली थी। जब प्रभात यह सब सोच रहा था, तभी स्कूल के प्रवेश द्वार पर हलचल हुई और न्यू हाई स्कूल की टीम, अपने बैनर के साथ अंदर आते हुए दिखायी दी। स्कूल के स्पोर्ट टीचर और प्रिंसिपल उनके स्वागत के लिये आगे बढ़े। परसाई मास्साब को फूलों का गुलदस्ता भेंट किया गया। पधारने के लिये उनका आभार माना गया। फिर उन सबको लिवा कर, उनके बैठने के लिये निर्धारित स्थान पर ले जाया गया।

   पर काका तब भी नहीं आये!

   न्यू हाई स्कूल की टीम के साथ आये हुए आभास ने सबसे पहले अपने दोस्त प्रभात को खोजा। प्रभात ने भी उसे देख कर अपना हाथ उठाया। आभास भागकर प्रभात के पास जा पहुँचा। दोनों मिले। हंसी-मजाक चला। हम जीतेंगे, नहीं हम जीतेंगे, का उत्तर-प्रत्युत्तर हुआ।

  पहले गद्य में फिर पद्य में।

   गवर्नमेंट हाई स्कूल के प्रिंसिपल ने मैच आरंभ होने से पहले, एक छोटा सा भाषण दिया। उन्होंने मैच में पधारे हुए दर्शकों, टीमों और खेल व्यवस्थापकों का स्वागत किया। खेल की महत्ता बतायी और दोनों टीमों को अपनी शुभकामनायें दीं। भाषण पूरा होते ही रेफरी ने लंबी सीटी बजायी, जिसका मतलब था कि दोनों टीमें मैच के लिये मैदान में जायें। दोनों टीमों के स्पोर्ट शिक्षकों ने अपनी-अपनी टीम के खिलाड़ियों को अंतिम सलाहें दीं और मैदान में जाने के लिये कहा। खिलाड़ी मैदान की तरफ धीमी गति से दौड़ चले।

  प्रभात ने द्वार की तरफ व्याकुलता से देखा।

  काका अभी तक नहीं आये!

  दोनों टीमें मैदान की मध्य रेखा पर आकर डट गयीं। वे अपनी रंगीन वर्दियों में पूरी तरह से चुस्त दिखाई दे रही थीं। रेफरी ने दोनों टीमों के कप्तानों को बुलाकर उन्हें कुछ बताया-समझाया। कप्तान उनसे बात करने के बाद अपनी-अपनी टीम में जाकर खड़े हो गये। रेफरी ने मैच आरंभ होने की सीटी बजायी। दर्शकों ने तालियाँ।

  प्रभात ने द्वार की ओर देखा। देख कर निराश हुआ। वहाँ से अपनी नज़रों को मोड़ कर मैदान की तरफ गर्दन घुमायी ही थी कि उसे लगा द्वार पर कुछ हुआ है। फिर से वहाँ देखा। एक ताँगा अंदर चला रहा था। तांगे पर काका-काकी की पीठ दिखायी दी। प्रभात ने पहचान लिया। उसके मुँह से अनायास ही आनंद का भभूका निकला- काका गये...

    प्रभात के मन में आनंद और उमंग की हिलोरें उठने-दौड़ने लगीं। वह अपने काका-काकी को प्रिसपाल साहब से मिलवाना चाहता था, पर वह मैदान से बाहर नहीं जा सकता था। उसे चिंता हुई कि काका-काकी कहाँ बैठेंगे...? कौन उन्हें बैठायेगा...?

   वे तांगे से उतरे।

   स्कूल के प्रिसपाल ने उन्हें पहचान लिया, क्योंकि वे खंडवा के आबकारी दरोगा थे। वे उन्हें लिवाने के लिये आगे बढ़े। नमस्कार किया। आभास भी काका जी को देख कर, उनकी तरफ दौड़ा। उनके पैर छुए। प्रिंसिपल साहब उन्हें अपने साथ लेकर आये और अपने बाजू में बैठाया। यह ठीक रहा। प्रभात संतुष्ट हुआ। अब वह पूरे मन से मैच खेल सकेगा।

   उनके बैठ जाने के बाद, आभास वहाँ से सरक गया। वह एक जगह स्थिर रह सकता था। उसने इधर-उधर जाते-देखते हुए, पूरे मैदान का ही चक्कर लगा डाला।

    सीटी बजते ही मैच प्रारम्भ हो गया। प्रभात ने एक जोरदार किक लगाई। पर न्यू हाई स्कूल के खिलाड़ी ने उसे अपनी छाती लगा कर रोक लिया। पैरों के पास गिरने दिया और गिर जाने पर दूसरी किक लगा दी। बॉल फिर वहीं लौट गयी, जहाँ से वह आयी थी। बॉल कभी इस टीम के गोल पोस्ट की तरफ जाती, तो कभी उस टीम के गोल पोस्ट की ओर। लगता कि बस अब गोल होगा, पर अगले ही पल बॉल फिर लौट पड़ती। जल्दी ही दर्शकों को समझ में गया कि दोनों टीमों के बीच काटे का मुकाबला है।

   प्रभात ने कनखियों से देखा। काका जी उसे ही देख रहे थे।

   प्रभात ने उम्दा खेल का प्रदर्शन किया। उनका मैदान था। उनके साथी लड़के बैठे थे। वे तालियाँ बजा-बजा कर अपनी टीम का उत्साह बढ़ा रहे थे। न्यू हाई स्कूल की टीम पर दबाव बढ़ने लगा। सरकारी स्कूल के फॉरवर्ड खिलाडियों ने न्यू हाई स्कूल की टीम की ओर बॉल ले जाने का भरपूर प्रयास किया। पर न्यू हाई स्कूल की टीम के हाफ बैक खिलाडियों ने बॉल को अपने कब्जे में लेकर विपरीत दिशा में किक लगा दिया।

   आभास नाचता-गाता घूमता रहा।

   न्यू हाई स्कूल का एक खिलाड़ी ऑफ साइड था। रेफरी ने सीटी बजाकर फाउल दे दिया। प्रभात ने जोर से दौड़ते हुए एक और भी जोरदार किक लगाई। एकदम गोल होता दिखाई दिया, पर दूसरी टीम का गोलकीपर सजग था, उसने गोल बचा लिया। तालियाँ बजीं।

  मध्यातंर के कुछ पहले न्यू हाई स्कूल को एक सुनहरा मौका मिल गया। उसने गोल कर दिया। यह मैच का पहला गोल था। मैदान में सन्नाटा छा गया। पर अगले ही मिनट में सरकारी स्कूल की तरफ से भी गोल दाग दिया गया। पर यह गोल प्रभात ने किया था। दूसरे खिलाड़ी ने किया था। उसने काका जी की तरफ देखा।

  काका जी उसे ही देख रहे थे।

  वह लज्जित हुआ।

  तभी रेफरी ने मध्यांतर होने की सीटी बजा दी। दोनों टीमें एक-एक गोल करके बराबरी पर थीं। तालियाँ बजीं।

  मध्यांतर के बाद का खेल रोमांचक होने की उम्मीद में, दर्शकों ने अपने पहलु बदले और मैदान पर आँखें गड़ा दीं। ज़रूरी अंतराल के बाद, रेफरी की लम्बी सीटी बजी और मैच फिर शुरु हुआ। खिलाड़ियों में भारी उत्तेजना थी। दोनों तरफ से दबाव डालने की कोशिशें होने लगीं।

  न्यू हाई स्कूल के सेन्टर फॉरवर्ड खिलाड़ी ने जोर की एक किक लगाई और बॉल सीधे गोल पोस्ट में घुस गई। उसके समर्थकों में आनंद छा गया। तालियाँ बजती रहीं। आभास नाचने लगा। उसने परसाई माससाब के पास जाकर कहा, अब तो हमारा स्कूल जीत ही गया, मास्साब जी...

- नहीं, आभास! जब तक आखिरी मिनट और आखिरी क्षण बीत जाये, तब तक कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि वह जीत गया है। खेल और ज़िंदगी का पांसा कभी भी पलट जाया करता है।

     अब न्यू हाई स्कूल दो गोल करके, एक गोल से आगे हो चुका था। यह सरकारी स्कूल के लिये अचरज वाली बात ही थी, कि उसकी टीम अपने ही मैदान पर वैसा जादू नहीं दिखा पा रही थी, जैसा दिखाने के लिये वह मशहूर थी। प्रभात की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। एक तो स्कूल पिछड़ रहा था और दूसरे वह गोल करने का मौका भी हासिल कर पा रहा था।

    काका जी क्या सोच रहे होंगे!

    वक़्त बीत रहा था। मध्यांतर के बाद के कुछ ही मिनट और रह गये थे। न्यू हाई स्कूल वाली टीम ने अपनी रणनीति बदल ली थी। अब वह और गोल करने की बजाय, समय बिताने में लगी थी। सरकारी स्कूल की टीम खीझ रही थी और इसी कारण ग़लतियां भी कर रही थी।

    आभास को मजा रहा था। वह सरकारी स्कूल वाले गोल पोस्ट के पीछे खड़ा होकर गुनगुना रहा था। उसे समय समाप्त होने का इंतज़ार था। दो मिनट बचे थे। सरकारी स्कूल के गोल पोस्ट की तरफ बॉल जा रही थी। न्यू हाई स्कूल का एक और गोल होने के लक्षण बन रहे थे। दर्शकों की सांसें थमी हुई थीं।

    एक मिनट बचा।

    बॉल प्रभात के कब्ज़े में आयी। वह उसे लेकर पूरी गति और संकल्प के साथ न्यू हाई स्कूल के गोल पोस्ट की ओर चला। विरोधी टीम के दो-तीन खिलाड़ियों ने उससे बॉल छीनने का प्रयास किया, पर प्रभात तो प्रभात था। चमकते सूरज वाला प्रभात। अपने खेल से सबकी आँखें चौधिया देने वाला प्रभात। सबकी निगाहें उसी पर थीं।

    काका जी पलकें तक नहीं झपका रहे थे।

    यदि बॉल एक बार उनकी गिरफ्त में जाये, तो उसे छीन पाना असंभव ही हो जाता था। हो रहा था।

    तीस सेकेंड बचे।

    प्रभात बॉल लेकर बिल्कुल गोल पोस्ट के करीब पहुँचे।

    बीस सेकेंड शेष।

    प्रभात ने सिर उठा कर एक बार गोल पोस्ट को देखा। गोलकीपर को देखा। भाँपा।

    दस सेकेंड।

    बॉल को ज़मीन पर स्थिर किया।

    पाँच सेकेंड।

    किक् मारने के लिये दायें पैर को पीछे ले गया।

    तभी गोल पोस्ट के पीछे खड़े आभास ने फिकरा कसा- अरे ओ गाना गाने वाले बाबू...! तू क्या गोल करेगा...!

    आभास का ताना प्रभात के कानों से टकराया।

    मन में विचलन पैदा हुई। पैर काँपा। किक् बॉल में लगी।

    बॉल ने अपनी पूरी तीव्रता के साथ गोल पोस्ट की ओर उछाल ली।

    हवा में सन्नायी।

    अंतिम सेकेंड।

    बॉल गोल पोस्ट के किनारे से मैदान के बाहर चली गयी।

    और गोल न हुआ।

    रेफरी ने खेल समाप्ति की सीटी बजा दी। प्रभात उसी जगह पर अपना सिर पकड़ कर बैठ गया। न्यू हाई स्कूल जीत गया। उसकी टीम उछलने-कूदने लगी।

   आभास दौड़ कर अपने दोस्त प्रभात के पास गया, उसके सिर पर गाना शुरु किया -

   दुख के अब दिन बीतत नाहीं...

   सुख के दिन थे एक सपन था...। अब दिन बीतत नाहीं...

   मोरे दिन बीतत नाहीं...

     प्रभात पर इस चुहल का असर न हुआ। उसका सिर और गड़ गया।

    काका जी मैदान में आये। प्रभात को कन्धों से पकड़ कर उठाया। प्रभात खड़े हुए, पर गर्दन झुकी रही। सिर नमा रहा। काका जी ने ठुड्डी पकड़ कर सिर उठाया। प्रभात का चेहरा आँसुओं से तरबतर था। उसने पनीली आवाज़ में कहा- मुझे माफ कर दो काका जी, मैं गोल नहीं कर सका...

- तो क्या हुआ पगले...! क्या वह जीवन का आखिरी गोल था...? या कि यह जीवन का आखिरी खेल था...? नहीं, ऐसे खेल अभी बहुत से होंगे...। बहुत से गोल करने के मौके मिलेंगे...। रोने से ज़िंदगी नहीं चलती, हार कर जीतने के लिये, फिर से उठ खड़े होने से ज़िंदगी चलती है। आगे बढ़ने से जीतोगे। हार मान लेने से नहीं। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत...। उठो...। तुम बहुत अच्छा खेले...। शानदार...

   प्रभात के आंसू ढलक कर काका के हाथ पर गिरे।

- चलो, अब घर चलें। तुमने आज बहुत अच्छा खेला...। हम सब तुम्हारे अच्छा खेलने का उत्सव मनायेंगे...। खंडवा की जलेबी खायेंगे...। वही बाम्बे बाज़ार के चौहान स्टोर्स वाली...। चल, उधर काकी तेरा रास्ता देख रही है...

  काका-भतीजे मैदान से बाहर आये, तो पाया कि परसाई मास्साब उनके लिये रुके हुए हैं। उन्होंने प्रभात की पीठ थपथपायी- तुम बहुत अच्छा खेले प्रभात....। हार-जीत तो संयोग की बात है। उसका क्या दुख मनाना...! तुम तो कलाकार हो। गायक हो। और कलाकार साधारण व्यक्ति की तरह व्यवहार नहीं करता...। आंसू पोंछो...। वे व्यर्थ में बहाने के लिये नहीं होते...। उन्हें सबसे ज्यादा उपयुक्त अवसर पर बहाने के लिये बचा कर रखो...

  प्रभात ने अपनी कमींज़ की आधी बांह से आंसू  पोंछे।

- शाबाश...! यही है खिलाड़ी-भावना...!

    आभास ने डबडबायी हुई आँखों से प्रभात को देखा। उसे इस बात का तनिक सा भी अहासास न था, कि उसकी मसखरी से प्रभात को इतनी तकलीफ पहुँचेगी। उसने दुखार्द्र होकर कहा- माफ करना दोस्त..., मैंने तुम्हें बहुत दुख पहुँचाया है...। पर तुम्हें दुख पहुँचाने का मेरा इरादा न था...। मैं तो बस...!

   प्रभात ने अपना बायाँ हाथ बढ़ा कर उसके कंधे पर डाला और उसे अपने से चिमटा लिया- नहीं दोस्त, वह मेरी ही ग़लती थी...। मैं अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख सका। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं...। कोई और भी तो ऐसा कर सकता था...

  परसाई मास्साब और काका जी, उन दोस्तों की ऐसी सयानी बातें सुन कर, एक-दूसरे को देख कर मुस्कुराये।

  वे चारों काकी के पास पहुँचे। 

  काका जी ने ताँगेवाले से कहा- बाम्बे बाज़ार वाली जलेबी की दूकान पर चलो।

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राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय

अंकुर’, 1234, जेपीनगर, आधारताल,

जबलपुर (म.प्र.) - 482004

 

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अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...