गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

औपन्यासिक जीवनी

 


काल के कपाल पर हस्ताक्षर : हरिशंकर परसाई

राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय

(भाग-चार)

दुनिया डरने से नहीं, डर को डराने से चलती है...

     हरि ने मैट्रिक कर लिया। हरि पढ़ाई में जितने होशियार और कुशाग्र बुद्धि वाले छात्र थे, उसके चलते उन्हें प्रथम श्रेणी तो मिलनी ही चाहिये थी। पर नहीं मिली। उसके लिये किताबों और अध्यापकों की क्षमताओं और सीमाओं के पार जाकर पढ़ना होता है, यह बात भी हरि को पता थी। उसके लिये योजना बना कर तैयारी करना होती है। संभावित प्रश्नों की खोज कर, उनके श्रेष्ठतम और सधे हुए उत्तर तैयार करने पड़ते हैं। उन उत्तरों को याद करना होता है। परीक्षा कॉपी में जस का तस लिखना होता है। पर यह सब एक तरह से मशीनी किस्म का काम था। हरि के स्वभाव से मेल खाता था। वे ज्ञानी थे। अंदर सब मौजूद था। पर व्यक्तित्व में जो निरंकुशता थी, जो व्यापकता थी, वह उन्हें किसी बंधन में बांध कर काम करने को प्रेरित करती थी। वे मन और तन, दोनों से आज़ाद थे।

गणित विषय में उनकी रुचि थी। बस पढ़ने की अनिवार्यता है, सो पढ़े चले जा रहे थे, मगर उन्हें उसी में विशेष योग्यता मिली थी। हरि अपने आप पर हँसे। भाषा और साहित्य में उनकी रुचि और प्रवीणता थी, पर प्रमाण पत्र में वह आने से वंचित हो गयी थी। रग-रग में साहित्य रचा-बसा था, परंतु परीक्षा कॉपी में वह परीक्षा के नियमों से नहीं लिखा गया था, इसलिये उसमें निर्गुण रूप में उपस्थित प्रवीणता की पहचान परीक्षक कर सका था।

   प्रथम श्रेणी आने का दुख हरि के मन पर दो-तीन दिनों तक छाया रहा। वे जानते थे कि प्रथम श्रेणी लायी जा सकती थी, पर उन्होंने उसकी परवाह की थी। घरेलु परिस्थितियों का उतना असर था, जितना हरि की परीक्षा के प्रति एक तरह की जानी-बूझी अवहेलना का था। पर उस दुख को सेंथ कर अपने कलेजे पर धरे रखने का अवकाश भी तो हरि के पास था। पिता को इसी में संतोष था, कि वे मैट्रिक हो गये हैं। नौकरी पाने की योग्यता हासिल हो गयी थी, और अब हर दिन जर्जर होते घर-परिवार को सम्हालने के उद्यम में उन्हें लग जाना चाहिये।

  तब हरि ने अपने को परीक्षा-परिणाम के अस्थायी दुख से बाहर निकाला और पूरी एकाग्रता के साथ नौकरी की तलाश में जुट गये। इसके लिये जो सबसे बेहतर उपाय था, वह था, समाचार पत्रों मेंआवश्यकता हैवाला स्तंभ देखना। उसमें अपनी योग्यता के अनुरूप नौकरी तलाशना। दिख जाये तो उसके लिये आवेदन पत्र बनाना, पोस्ट करना। बुलावा आने पर उनके दफ्तरों में जाना।

   हरि खुद क्या बनना चाहते हैं, क्या करना चाहते हैं, इस सवाल का गला तभी घोंटा जा चुका था, जब वह पैदा होने की अभी कोशिश ही कर रहा था। अब तो सारा ध्यान इस बात पर था, कि कोई भी नौकरी मिले, तुरंत मिले। मिली तो पूरा परिवार भूखों मरने के लिये विवश हो जायेगा। अब डूबते जहाज का मस्तूल थी, नौकरी। हरि संसार के सबसे उम्दा अध्यापक बनना चाहते थे, पर वह आकांक्षा मन के किसी कोने में ही कुलबुलाती हुई पड़ी हुई थी। उसे सहलाने-जगाने का अवसर था। लिहाजा हरि ने नौकरी पाने के लिये दौड़-भाग शुरु की। सरकारी दफ्तरों में अर्जियाँ लगाना शुरु किया। तरह-तरह के लोगों से जाकर मिलना किया। अनुरोध किया। उनकी उपेक्षा को सहा। कहीं-कहीं अपमान भी हुआ। ख़ून का घूंट पीकर उसे भी सह लिया। एक अदद नौकरी के सामने सब बातें छोटी हो गयी थीं।

  नौकरी की तलाश में टिमरनी से जबलपुर, इटारसी, खंडवा, इंदौर, देवास जैसी जगहों पर बार-बार जाना पड़ा। इधर से आते और उधर जाने के लिये बस्ता टाँग कर निकल पड़ते। जिंदगी के दिन-रात रेल, प्लेटफार्म और दफ्तरों में कट रहे थे। कभी खाना मिल पाता, कभी नहीं मिल पाता। कभी आधा-अधूरा ही नसीब होता। कपड़ों और देह की गत बनी रहती। यात्राएँ सिर उठाये चली रही थीं और उन्हें पूरा करने के लिये, हरि के पास टिकट खरीदने तक के पैसे होते। पैसे नहीं थे, इसीलिये तो नौकरी की तलाश की जा रही थी, तब क्या करें? कोई विकल्प था। यात्राएँ स्थगित नहीं की जा सकती थीं, इसलिये हरि, अपने मन को कडत्रा करके,  बिना टिकट ही रेल में जा बैठे। दिल धकधक करता रहा, पर उसकी परवाह करते हुए भी, की। उससे मुँह छिपाते रहे। यात्रा पूरी कर ही ली। पकड़े गये। पकड़े गये, तो दिल जरा मजबूत भी हुआ। पर हर बार ऐसा होना असंभव था, तो पकड़े भी गये। टिकट खरीदने के पैसों का होना, पहले ही एक दुख बना हुआ था, पकड़ लिये जाने पर वह दूना हो गया।

  जुर्माना भरने के लिये भी पैसे ही चाहिये, जो कि थे, तब....? तब जेल भेजे जायेंगे। जेल...! रूह काँप गयी। वे एक जिम्मेदार नागरिक बनने चले थे और जिम्मेदार नागरिक बनने से पहले ही जेल जाना पड़ेगा... आत्मा ने धिक्कारा। बाबूजी ने धिक्कारा। अध्यापकों ने धिक्कारा। रश्तेदारों और पड़ोसियों ने धिक्कारा। जो बेटिकट यात्राएँ करने के आदि थे, हरि को, वे भी धिक्कारने की प्रतियोगिता में सबसे आगे नज़र आने लगे। नहीं-नहीं। वे जेल नहीं जा सकते।

  पकड़ने वाले अंग्रेजों के बाबू थे। उनकी नकल करते थे। उनका पहिरावा पहनते थे। उनकी तरह रहते थे। उनकी भाष बोलते थे। उनकी भाषा से दबते थे। हरि ने ऐसे देसी बाबू से अंग्रेजी भाषा में कहा कि वे एक निर्धन छात्र हैं। मुसीबत में हैं। मैट्रिक कर चुके हैं। चाहें तो सर्टिफिकेट देख लें... पैसे नहीं हैं, इसलिये बिना टिकट चल रहे हैं... प्लीज हेल्प मी...

  अंग्रेजी भाषा ने उस देसी बाबू को पिघला दिया। काम चलाऊ अंग्रेजी उसे भी आती थी, उसने अपने साथी से कहा- लेट्स हेल्प पुअर ब्वॉय...

  उसने मदद की। छोड़ दिया। हरि के हाथ छूटने का नुस्खा लग गया। जब भी पकड़े जाते अंग्रेजी भाषा का दामन थाम लेते। बच निकलते। चैन की साँस लेने का उपक्रम करते। पर वह भी नामुमकिन हो चुकी थी। एक मुसीबत से निकलते कि कोई दूसरी मुसीबत उन्हें अपने चंगुल में ले लेने के लिये, अगले कदम पर ही खड़ी मिल जाती।

  हरि के साथ ऐसा बार-बार होता। पर हरि भी बार-बार उनसे जूझते और उन्हें किसी किसी तरह हरा देते। एक बार तो यह भी हुआ कि वे होशंगाबाद के शिक्षा अधिकारी कार्यालय में नौकरी की अर्जी देने गये थे। वहाँ से नौकरी होने का टका सा जवाब पाकर निराशा में डूबे हुए होशंगाबाद स्टेशन पहुँचे। इटारसी जाना था। टिकट लेने के लिये जेब में हाथ डाला, तो एक रुपये का सिक्का, जो इसी निमित्त रखा था, गायब था। आशा-निराशा और आपाधापी के बीच कहीं गिर गया था। भूख भी लगी हुई थी। खाने के लिये पैसे थे, टिकट के लिये। इटारसी जाने वाली गाड़ी घंटों बाद आने वाली थी। दूसरे विश्वयुद्ध का समय था। गाड़ियाँ चार-छह घंटे से लेकर आठ-दस घंटे तक लेट चला करती थीं।

   पेट खाली था। जल रहा था। वे बार-बार पानी पीने जाते और खूब सारा पानी पीकर आते, ताकि पेट भर जाये। पेट की जलन मिट जाये। उसके मिट जाने का भ्रम भी होता था, पर चंद मिनटों बाद ही वह लौट आती थी। जठराग्नि को पानी से नहीं बुझाया जा सकता। थकान, भूख और हताशा से लस्त होकर, हरि रेल्वे प्लेटफॉर्म की बेन्च पर लेट गये। घर से खाकर चले चौदह घंटे बीत चुके थे और अन्न का एक दाना तक मिला था। सारा संसार बैरी हो गया प्रतीत होता था।

  जरा देर बाद एक किसान परिवार आया और उसी बेन्च के पास चादर बिछा कर बैठ गया। वह अपने साथ एक टोकना भी लिये हुए था। उसमें खरबूजे रखे थे। उनके रंग और गंध ने हरि के पेट की मरोड़ों को और भी बढ़ा दिया। जी हुआ कि उसके टोकने से एक-दो खरबूजे चुरा लिये जायें, पर मन की इच्छा पर विवेक ने अपना चाबुक चला दिया- चुप्...! चोरी करना पाप है। हरि एक ईमानदार और स्वाभिमानी लड़का है। वह चोरी नहीं कर सकता।

  तब क्या किया जाये?

   किसान ने टोकने से एक खरबूजा निकाला और उसे चाकू से काटने लगा। कटी हुई फाँकों से रस बह चला। गंध उड़ चली। नथुनों में भरने लगी। उसने हरि को और भी व्याकुल कर दिया। फाँकें छुड़ा लेने को जी किया। पर हरि ने दूसरा उपाय इस्तेमाल किया। किसान से बड़ी ही प्रशंसा भरी वाणी में कहा- ज़रूर तुम्हारे ही खेत के होंगे... वाह, बहुत ही अच्छे हैं...! क्या रंग है...! क्या सुगंध है...!

- सब नरमदा माई की किरपा कहानी भइया... सक्कर जैंसे मीठे हैं... लो, तुम भी खाकें देखौ...

  उसने खरबूजे की दो बड़ी-बड़ी फाँकें हरि की तरफ बढ़ा दीं। हरि ने उन्हें कृतज्ञता और सराहना के भावों को व्यक्त करते हुए, थाम लिया। हरि ने चाहा था और खरबूजा उन्हें मिल गया था। जाने हरि का जादू चल गया था या भलमनसाहत का, पर उन दो फाँकों से हरि की आँतों को राहत मिल गयी थी। हरि ने जल्दी से उनका गूदा खाया। सारा का सारा। उनके छिलकों से भी ज्यादा से ज्यादा गूदा निकाल लिया। यहाँ तक कि छिलके का कसैला स्वाद भी उसके साथ चला आया। खाकर, पानी पिया। चैन पाया। तभी रेल गयी। भीड़ उमड़ पड़ी। दरवाज़े ठसाठस हो गये। पर हरि को एक और उपाय आता था, वे लपक कर खिड़की में घुसे और डबबे के अंदर चले गये।

    नौकरी के लिये हरि ने जो भारी मशककत की थी, आखिरकार वह बेकार नहीं गयी। सरकार के जंगल विभाग में पिता की थोड़ी-बहुत पहचान भी थी। जंगल के काम से आना-जाना होता था। विभाग के एक बड़े अंग्रेज अफसर से भी दुआ-सलाम थी। पिता ने एक दिन जाकर उनसे बात की और बताया- बेटा हरिशंकर मैट्रिक हो गया है। जंगल डिपार्टमेंट में नौकरी करना चाहता है। आप की मेहरबानी हो जाये...

- ही कम्पलीटेड हिज मैट्रिक...! दैन ओके, उसको बोलो कि वो एप्लीकेशन दे दे।

 - जी, अच्छा।

    पिता ने घर आकर हरि से कहा कि वह जंगल विभाग के दफ्तर में जाकर नौकरी के लिसे अपनी दरख़्वास्त लगा आये। हरि ने खूब सुंदर लिखावट में, अंग्रेजी भाषा में एक आवेदन पत्र बनाया और जंगल विभाग के इटारसी दफ्तर में जमा करने चले गये। क्लर्क ने आवेदन पत्र ले लिया और उनसे अपने अंग्रेज साहब से मिलने के लिये कहा। अंग्रेज साहब तब तक आया था। हरि ने वहीं पर इंतज़ार किया।

   कुछ देर बाद ही वह अंग्रेज अफसर अपने घोड़े पर वहाँ पहुँचा। जब वह दफ्तर की सीढ़ियाँ चढ़ कर बरामदे में गया, तो हरि ने उसके पास जाकर कहा- गुड मार्निंग सर!

- मॉर्निंग... हू आर यू यंग मेन...?

- आय एम हरिशंकर परसाई। आई हैव पास्ड मेट्रिक एंड आई वांट टू डू जॉब इन फॉरेस्ट डिपार्टमेंट...

- ओके। आय थिंक दैट, यू आर सन ऑफ मि पारसाय...?

- यस सर...

- ओके यू सबमिट योर एप्लीकेशन टू द अवर हेड क्लार्क...

- आई हैव आलरेडी सबमिटेड माय एप्लीकेशन टू द हेड क्लर्क, सर।

- वेल, दैन यू केन ज्वाइन फ्राम टुमारो।

- थैंक्यु सर...

- ओके, इट्स ऑलराईट...

     हरि उस दिन गाते-गुनगुनाते घर लौटे। अंदर पक्का भरोसा था कि जंगल की हो या समुद्र की, वे हर प्रकार की नौकरी कर लेंगे। एक नया जीवन शुरु होगा। अपने मुख्तार खुद होंगे। एक तारीख को तनख्वाह मिला करेगी। अपने खुद के पैसे होंगे। अपनी कमायी होगी। पिता के हाथ में रखकर कहेंगे, बाबूजी, अब क्या फिकर... देखो, मैं कमाने लगा हूँ।

    घर लौटकर पिता को बताया कि एप्लीकेशन दे दी है। अंग्रेज साहब ने कल से ही ज्वाइन करने के लिये कहा है। कल ऑफिस जाना होगा।

- अच्छा, शायद वे नौकरी लगने की चिट्ठी देंगे...

- एप्वायमेंट लेटर...?

- हाँ, वोई...

   दूसरे दिन हरि समय से कुछ पहले ही घर से निकल गये। जानते थे कि जल्दी निकल पड़े हैं, तो चाल धीमी रखी। वक़्त को गुजरने का वक़्त दिया। पहुँचे तो देखा उस समय दफ्तर खोला जा रहा था। कंधे पर चपरास लटकाये चपरासी, दरवाज़ों को खोलकर सीधा कर रहा था। सफैया, सफाई में लगा था। हरि ने सड़क पर ही अपने कदम रोक लिये। दूसरी तरफ मुँह घुमा लिया। खुद पर लज्जा आयी, कि वह क्यों इतनी जल्दी चला आया। फिर उल्टी दिशा में पचास कदम चल दिये। पेड़ों-पंछियों को दोबारा देखा। देर तक देखते रहे। आसमान पर नज़र डाली। सड़क को देखा। आते-जाते लोगों को ऐसे परखा, जैसे उन प्राणियों को पहली बार देख रहे हों। इस तरह समय के साथ आँख-मिचौनी खेलते रहे।

   काफी समय निकल जाने पर लौटना शुरु किया।

   अब दफ्तर, दफ्तर हो चुका था। कर्मचारी रहे थे। साईकिलें खड़ी कर रहे थे। अपनी-अपनी जगहों पर जाकर बैठ रहे थे। कागज-पत्तर खोल-जमा रहे। उन्हें देख कर हेड क्लर्क ने बुलाया। पूछा- कल तुम्हीं आये थे न्, अपनी एप्लीकेशन लेकर...?

- जी हाँ।

- क्या नाम है, तुम्हारा...?

- हरिशंकर परसाई।

- ठीक है। तुम्हारा एपॉइंटमेंट लेटर बन गया है। ये लो। और यहाँ पर दस्तख़त कर दो। दो दिन बाद जंगल के ताकू डिपो पहुँच जाना। वहाँ यह कागज दिखा देना और ज्वाइन कर लेना... ठीक है...!

  हरि ने उस कागज़ को पढ़ते हुए कहा- जी।

- बाकी बातें उनसे समझ लो, जो वहाँ....उधर पर पर बैठे हैं और मजे से अपना कान खुजा रहे हैं।

- ओके थैंक्स। आय विल टाक टू हिम...

   वे हरि को अंग्रेजी बोलते सुन कर, उनका मुँह देखते रह गये। फिर मुस्कुराये, जल्दी से कहा- ओके-ओके...

   हरि उस दूसरे आदमी के पास पहुँचे। उसे कागज़ दिखाया। देख कर उसने कहा- देखो भाई, जंगल का मामला है। जंगल में ही रहना होगा...

- हम रह लेंगे...

- टपरों में गुजर करना पड़ेगी...

- कोई चिंता नहीं... कर लेंगे...

- ठीक है। ताकू डिपो चले जाना। वहाँ का डिपो मैनेजर काम समझा देगा...

- जी अच्छा।

 

      हरि ने घर आकर पिता को बताया कि नौकरी लग गयी है। एपॉइंटमेंट लेटर दे दिया गया है। दो दिन बाद तामू डिपो जाकर काम सम्हालना है। सुन कर पिता ने भारी चैन पाया। उनके सूखे चेहरे पर मुस्कान की भूली-बिसरी लहर पैदा हुई। पर अगले ही पल चिंता ने उस लहर को सोख भी लिया- तुझे जंगल में रहना पड़ेगा...!

- हाँ, बाबूजी। नौकरी ही जंगल की है। आप भी तो जब काम करते थे, तो जंगल में ही रहा करते थे...

- हाँ, पर तू तो अभी बच्चा ही है रे हरि...

- बच्चा...? बच्चा कहाँ, बड़ा हो गया हूँ... मैट्रिक पास कर चुका हूँ...बाबूजी।

- पर वहाँ पर, खतरा ही रहता है, जरा...

  हरि मुस्कुराये- खतरा कहाँ नहीं है, बाबूजी...?

- जंगली जानवर होते हैं, शेर-चीता...

- बाबूजी, बस्ती में प्लेग के समय चूहों ने ही सैकड़ों लोगों की जानें ले ली थीं...। जैसे चूहों से मुक़ाबला कर लिया, वैसे ही शेर-चीतों से भी कर लेंगे। उनके डर से नौकरी कैसे छोड़ी जा सकती है...?

- हाँ...यह तो है...

    एक धीमी सी हाँ के साथ बाबूजी ने असहमति और डर की तरफ पींठ फेर ली। खतरे की सर्वव्यापकता को मौन रह कर स्वीकार कर लिया।

    दोनों बहनें और छोटा भाई गौरी, हरि के पीछे आकर खड़े हो कर, उनके बीच चलने वाली बातें सुन रहे थे। वे सब ऐसे खुश थे, जैसे उनकी लाटरी लग गयी हो। लाटरी ही तो लगी थी। कई सालों से बंद, आमदनी का दरवाज़ा एक बार फिर से खुल रहा था। जाने वाला रुपया अब लौटेगा भी, यह आस बंध रही थी।

    पिता ने हरि के सिर पर हाथ रखा- खूब तरक्की करो... मेहनत से काम करना और अपनी साख बनाना...

    हरि ने पिता के पैर छुए।

    पिता उठ कर पूजा वाली जगह पर गये। हाथ जोड़े। सिर नमाया। कृतज्ञता व्यक्त की। उस दिन आरती का स्वर जरा ऊंचा रहा। सबने मिल कर आरती गायी, ओम जय जगदीश हरे। भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे...

     सीता बहन ने नौकरी लग जाने के आनंद को शक्कर का प्रसाद बाँट कर साझा किया। भाई-बहनों के दिलों में खुशियों का सागर उमड़ा। भाई नौकरी करेंगे। कमायेंगे। घर ढंग से चलेगा। चीजों की कमी होगी। सिल-सिल कर पहनने और बचा-बचा कर खाने-पीने से छुटकारा मिलेगा। कॉपी-पुस्तकें, कलम-दवात आसानी से सकेंगे।

    दूसरी सुबह हरि की आँख जल्दी खुल गयी। रात को भी सोने से पहले, यही बात उमड़ती-घुमड़ती रही कि कल काम पर जाना है। नौकरी शुरु होगी। फिर उसका प्रतिलोम विचार भी धमका, शुरु होगी, होगी कि नहीं होगा... जब वह विचार अपनी गर्दन तानने लगता, तो उसके बरखिलाफ एक दूसरा विचार कूद पड़ता, शुरु कैसे नहीं होगी... साफ-साफ बात हुई है... एपॉइंटमेंट लेटर मिला है... मैट्रिक पास हूँ... कोई हँसी-खेल है क्या...!

   विचार-प्रतिविचार आते-जाते रहे।

   द्वंद्व चलता रहा।

   हार-जीत होती रही।

   फिर उसी रणभूमि ने नींद उपजा दी और हरि को सुला दिया था।

    अगली सुबह हरि उठे तो रोज़ की तरह दौड़ने-टहलने गये। बाहर का सब नया-नया सा लगा। सुबह की उजास नयी। मकान और गलियाँ नयी। पेड़-पौधे और फूल-पत्तियाँ नयी। चिड़ियों की चहकन नयी। सूरज का गोला और उसकी सुनहरी आभा नयी। खुद अपना टहलना और चाल तक नयी। अंदर भी एक नयापन फैला हुआ सा महसूस हुआ। पुराने को जरा पीछे की ओर धकेलता हुआ।

  लौट कर चाय पी। जंगल डिपो जाने के लिये, पहने जाने वाले कपड़ों को तकिये के नीचे से निकाल कर खूँटी पर टाँगे।

  बहन ने कहा- लाओ कपड़ों में इस्तरी कर देते हैं...

- कैसे करोगी...?

- पैंदी वाले लोटे में अंगारे भरेंगे और कर देंगे...

  हरि मुस्कुराये- अरे वाह, यह कहाँ से सीखा...?

- सीखा नहीं, खुद ही उपाय खोजा है...

- तब तो तुम वैज्ञानिक हुईं... और वह हुआ तुम्हारा आविष्कार...

   बहन को कपड़े पकड़ा दिये। बहन अपनी व्यवस्था में लगी।

   अकारण घर से बाहर और बाहर से घर के अंदर आना-जाना किया। समय की सुईयाँ सुस्त रहीं। जब तक धूप परछी से उतरने लगे, तब तक काम की बेर नहीं होती। धूप अब भी परछी पर ही थरथरा रही थी। उसे कोई जल्दी थी। हरि नहाने चले गये। पीतल की गंगाल में पानी भरा। पानी से किलोलें कीं। उसकी शीतलता को महसूस किया। हथेलियों को उसमें डुबोये रखा। पारदर्शी जल की काँपना देखते रहे। यह पहले तो कभी ऐसे नहीं काँपता था, सोचा। अंजुरियों में पानी लेकर, पांवों पर डाला। पिंडलियों को गीला किया। मुँह पर मला। लोटे से सिर पर उड़ेला। धारायें फुटीं। माथे, आँखों, मुँह और गले से होकर नीचे छाती तक पहुँचीं। सिहरन उठी। फुहरन दौड़ी। जल्दी-जल्दी कई लोटे पानी उड़ेला। इससे सिहरन-फुहरन गायब हो गयी। सपरना संपन्न हुआ।

   बहन ने इस्तरी करके कपड़ों की गत सुधार दी थी। पहन कर अच्छा लगा। सरकारी कर्मचारी का पहिरावा जरा दुरुस्त रहना चाहिये। जैसे मोर्चे पर जाने वाले सिपाहियों की वर्दी कड़क होती है। कड़क वर्दी हो तभी काम करने में मुस्तैदी भी आती है।

   घर में चहल-पहल सी मची रही। भाई-बहन बेमतलब दौड़ते-भागते रहे। हरि काम पर जाने की तैयारी में लगे। टीन की एक पेटी में पुराने कपड़े वगैरह रखे थे। उन्हें निकाल कर, पेटी धोने चले। बीच में ही दूसरी बहन ने पेटी छीन ली- हम धोयेंगे भैया... आप अपनी तैयारी में लगो...

  जूते साफ करने को उठाये। पुराना लत्ता खोजा। छोटा भाई प्रकट हुआ- जूते हम साफ करेंगे भैया... आप अपनी तैयारी में लगो...

  हरि मुस्कुराकर हर बार दूसरे काम में लगते और उसे भी कोई कोई आकर उनसे हथिया लेता। पिता खाट पर लेटे-लेटे सब कौतुक देख रहे थे और उसमें रस ले रहे थे। वही रस अपने अतिरेक के कारण, उनकी आँखों से टपक रहा था, टप्प...टप्प...

   हरि को ताकू के घनघोर जंगलों में अपनी नौकरी शुरु करना थी। पिता झूमकलाल परसाई ने भी कभी जंगल का ठेकेदार बन कर, लकड़ियों से कोयला बनाने और फिर कोयले को, कस्बों-शहरों में विक्रय के लिये भिजवाने वाले ठेकेदार के अंतर्गत काम किया था। पर वह जंगल के एक सीमित भूगोल का ही काम हुआ करता था। जंगल विभाग, ठेकेदार को जितने भू-भाग में पेड़ काटने की अनुमति देता था, ठेकेदार के लकड़हारे, उतने ही इलाके में पेड़ काट सकते थे। पेड़ काट कर उसकी लकड़ियों से कोयला बनाया जाता था।

   उन दिनों, इसके लिये एक पुरानी और पारंपरिक विधि का ही प्रयोग हुआ करता था। इस विधि में ज़मीन पर, भट्ठी के लिये, सात-आठ फुट ऊँचाई वाली गुंबदनुमा संरचनायें बनायी जाती थीं। उस पर छोटे-छोटे छेद होते थे, ताकि जब भट्ठी के अंदर लकडियां भर कर, आग लगायी जाये, तब उन छिद्रों से धुआँ निकलता रहे। वे गुंबद, किसी कूप की तरह दिखायी देते थे, इसलिये उन्हें कूप ही कहा जाता था। कूप ईंटो से बनाये जाते थे। देखने पर वे मधुमक्खी के छत्तों जैसे लगते थे। भट्टी को ईंटों की एक खास तरीके से गोल-गोल चिनाई करते हुए और बीच-बीच में हल्के-हल्के छेदों को छोड़ते हुए तैयार किया जाता था।

    कूप के एक तरफ ज़मीन से लगा हुआ, एक कम ऊँचाई वाला, सुरंगनुमा रास्ता बनाया जाता था। उस रास्ते से कोयला बनाने के काम में लगा श्रमिक, उकड़ू बैठक बना कर, सरकता हुआ अंदर जा और सकता था। कूप में आने-जाने के लिये बनाया गये रास्ते का मुँह, आधे वृत्त जैसा भी होता और किसी भट्ठी में आधे आयत जैसा। ईंटों की चिनाई करने के बाद भट्ठी की लिपाई की जाती। उसे अंदर और बाहर दोनों ओर से, छोटे छेदों को छोड़ते हुए, मिट्टी से अच्छी तरह से लीप दिया जाता था। कूप के शीर्ष पर, एक हल्का बड़ा छेद होता था, जो आग सुलगाने के लिए रखा जाता था। इस तरह अधिक दाब और कम ऑक्सीजन में लकड़ियों को जला कर, कोयला बनाने का काम चला करता था।

  आम तौर पर संधर्षशील जिंदगियों को भी अधिक दाब और कम प्राणवायु में ही अपने को चलाना पड़ता है। चलाने का कौशल खोजना होता है। फिर कोयला बन कर, सुलगना, जलना, ताप पैदा करना और उस ताप से दुनिया को गरमाने की जिम्मेदारी भी निभानी होती है। 

    ऐसी भट्ठियों में कोयला बनाना, बड़ी मेहनत वाला काम होता था। आग लगाने से लेकर, कोयला निकालने तक बहुत सावधानी की ज़रूरत भी होती है। सबसे ज्यादा खतरा तो तब होता था, जब लकड़ियों के जलने के बाद भट्टी के दरवाजे को खोला जाता था।

    कोयला बनाने के लिये, लकड़ी के लगभग 3 फुट लंबाई वाले टुकड़े काटे जाते थे, फिर उन टुकड़ों की, भट्ठी के अंदर रख कर, इस तरह से चिनाई की जाती थी, कि आग हर कोने में पहुँच सके। कोयना बनाने के लिये, लकड़ी ज्यादा मोटी नहीं रखी जाती थी, अन्यथा उससे अच्छा कोयला नहीं मिलता था। लकड़ी के टुकड़ों से कोयला बनने में तीन दिन लगते थे। चौथे दिन भट्टी को ठंडा होने दिया जाता था। ठंडा करने के लिए उस पर गीली मिट्टी का लेप चढ़ा दिया जाता था। पांचवें दिन से कोयला निकालने की शुरुआत होती थी। तब तक कोयला भी ठंडा हो चुका होता था और उसे सीधे बोरी में भर लिया जाता था।

   कोयला बनाने की मजदूरी, इस पर निर्भर होती थी, कि कितनी बोरी कोयला बनाया गया है। बोरी में कोई 25 किलोग्राम कोयला आता था। एक बोरी कोयला बनाने के लिये तब, मजदूरों को दो रुपया मेहनताना मिला करता था। इस मजदूरी में भट्टी की लिपाई, लकड़ी की चिनाई और लकड़ियों में आग लगाने से लेकर कोयला बनाने तक का काम शामिल रहता था। जबकि एक बोरी कोयले की बाज़ार में कीमत होती थी, तीस से चालीस रुपया।

     हरि के पिता को सब तरह के कामों की निगरानी करना पड़ती थी। जिस तरफ भी थोड़ी सी लापरवाही हुई, कि वहाँ का काम पिछड़ जाता था। इसीलिये उन्हें पेड़ों की कटाई करने, भट्टियाँ बनाने, लकड़ी के टुकड़े करने, उनकी चिनाई करने और बने हुए कोयले को बोरियों में भरने के काम में लगे हुए मजदूरों से काम लेना और उन पर बराबर नज़र रखना पड़ती थी।

    हरि का काम इससे अलग था। वे ठेकेदार के कर्मचारी थे, सरकार के कर्मचारी थे। पिता ने हरि को नौकरी पर अकेले नहीं जाने दिया। उन्होंने अपने भाई श्यामलाल से कहा कि वे हरि के साथ जायें और कुछ दिन उनके साथ वहाँ रह कर, सब कुछ ठीक-ठाक जमवा दें। खाने-पीने का ठीक-ठिकाना करा दें और जब सब उम्दा हो जाये, तभी आयें। हरि की अपने दादा श्यामलाल से खूब बनती थी। दोनों ही मस्त तबियत के थे। इसलिये जब पिता ने श्यामलाल दादा को साथ किया तो हरि को अच्छा ही लगा।

  साथ जाने वाले सामान में एक पेटी, दरी में बाँधा गया बिस्तर और दो थैले थे। थैलों में बहनों ने हफ्ते भर के लिये राशन और खाना बनाने के चंद बरतन रख दिये थे। राशन में दो सेर आटा, एक सेर चावल, आधा सेर दाल और थोड़ा-थोड़ा नमक, मिर्च, हल्दी, आलू, प्याज वगैरह रखे थे।

  श्यामलाल दादा और हरि टिमरनी से रेल में सवार हुए। सामान को रेल के डिब्बे में बने सामान रखने के लकड़ी के लाफ्ट पर जमाया। चिकने पटियों वाली सीटों पर बैठे। हरि ने डिब्बे में चारों ओर देखा। चंद सवारियां और इधर-उधर बैठी थीं। डिब्बे की दीवार पर कुछ लिखा था। उसे पढ़ने की कोशिश की, डिब्बे में सबसे ऊपर अंग्रेजी में लिखा था, डोंट स्पिट हियर। फिर हिंदी में लिखा था, थूकना मना है। मराठी में, थूकु नका। हरि को पढ़कर मजा आया। उन्हें पढ़ने का नशा था। जब सड़क पर चल रहे होते, तो वे दीवारों पर लिखा हुआ, दूकानों और दफ्तरों के बोर्डों पर लिखा हुआ, सब पढ़ते चलते थे। टिमरनी के सभी लिखे हुए बोर्ड उन्हें याद थे। कहाँ पर वर्तनी की गलतियां हैं, यह भी वे पकड़ते रहते थे।

    ताकू रेल्वे स्टेशन पर उतरे। छोटा सा रेल्वे स्टेशन था। उस दिन वहाँ पर उतरने वाले वही दो यात्री थे। रेल पर सवार होने वाला कोई था। रेल जरा देर खड़ी रही, फिर अपनी सीटी बजाकर, खूब सारा धुआँ आसमान में फेंक कर छुक-छुक करतह आगे चली गयी। एक कमरे का रेल्वे स्टेशन था। रेल को हरी ढंडी दिखा कर रवाना करके लौटने वाले कर्मचारी से श्यामलाल दादा ने पूछा- काये भैया, जे ताकू को जंगल डिपो कहाँ पे है...?

 वह हंसा- बस स्टेशन के बा तरफ जाबो, तो लंगल को डिपो लग जात है। वो दिखा रओ है... कंटीले तारन के बाद डिपो शुरु हो जात है... काये...का बात है...?

- अरे हमाये भतीजे इतै जमादार साहब होके आये हैं...

- जमादार साहब...?

- हाँ।

- कहाँ हैं...?

- बे उतै खड़े हैं...

   वह आदमी हाथों में ली हुई लाल और हरी झंडियों को अपनी बगल में दबा कर, हरि की तरफ बढ़ गया। दादा पीछे-पीछे चले। उसने हरि के पास पहुँच कर कहा- नमस्ते साहब...

  हरि ने पहली बार अपने लिये साहब संबोधन सुना, तो भरोसा नहीं किया कि वह उन्हीं के लिये किया गया है। सुन कर जरा अचकचा गये। वहाँ पर और कोई था, तो समझ लिया कि वह संबोधन उन्हीं के लिये है। तो वे अब हरि भर नहीं रहे, साहब भी हो गये हैं।

   हरि ने प्रेम भाव से जवाब दिया- नमस्ते भाई...

- यहाँ क्यों खड़े हैं, आईये स्टेसन मास्टर साहब के दफ्तर में चलिये साहब... आईये...

   दादा और हरि सामान उठाने लगे, तो उसने रोक दिया- सामान रहन दो साहब... चलौ जाहै...बो डिपो चलो जाहै... आप फिकर ना करौ... आप तो चलौ...

    वह आगे-आगे चला। श्यामलाल दादा और हरि ने उसका अनुगमन किया। उस को यह आवभगत अच्छी लगी। पहली बार बड़े आदती होने का अहसास हुआ। वह स्टेशन मास्टर के कमरे में जाकर वहाँ पर बैठे हुए एक प्रौढ़ व्यक्ति से बोला- साहब जी, जे डिपो के जमादार साहब होके आये हैं...

   स्टेशन मास्टर हरि को देख कर मुस्कुराये। कहा- अच्छा...अच्छा... आईये-आईये... बैठिये...

   हरि और दादा कुर्सियों पर बैठ गये।

   स्टेशन मास्टर ने कहा- यहाँ पर अब पढ़े-लिखे दो आदमी हो गये। एक आप और दूसरा मैं। हम तो पढ़े-लिखे आदमी को देखने के लिये तरस गये, समझिये। अब आप गये हैं, तो जरा मिला-जुला करेंगे। हम यहीं स्टेशन से लगे मकान में रहते हैं। अकेले ही रहते हैं। फैमली नहीं लाये। जंगल में कहाँ लाते... बच्चे पढ़ रहे हैं न्...

- अच्छा...

  तब तक वही आदमी एक ट्रे में मटके का ठंडा पानी लेकर हाजिर हो गया था। उन सबने पानी पिया। स्टेशन मास्टर ने उससे कहा- हनुमान सिंह, चाय बना लाओ...

- जी साब...

  श्यामलाल दादा स्टेशन मास्टर से बातें करने लगे। हरि उस कमरे में टंगे हुए चार्ट वगैरह पढ़ने लगे। चाय आयी। चाय पीकर वे बाहर आये। हरि ने देखा कि जहाँ पर सामान रखा था, वहाँ पर सामान नहीं है। वे घबरा गये। हनुमान सिंह से कहा- हमारा सामान...?

  हनुमान सिंह हंसा- फिकर ना करौ साहब... डिपो का चौकीदार डोरीलाल आपका सामान ले गया है। हमने उसे बुला कर ले जाने के लिये कहा था।

- अच्छा...

   हरि को राहत मिली। उन्होंने स्टेशन मास्टर से विदा ली और स्टेशन के दूसरी तरफ बढ़ गये। डोरीलाल ने डिपो में ख़बर कर दी थी कि नये जमादार साहब रेल से पहुँचे हैं, तो वहाँ से खड़े होकर दो-तीन लोग उन्हें ही आता हुआ देख रहे थे। डोरीलाल दौड़ता हुआ आया और बोला- आओ साबजी...

   ताकू रेल्वे स्टेशन से चिपका हुआ ही डिपो था। जंगलात विभागों के डिपो स्टेशन के करीब ही होते हैं। परिवहन की सुविधा रहती है। दूर-दूर तक बल्लियां, पटिये और लकड़ियां भेजी जाती हैं। सरकारी कामों के लिये हो, या निजी कामों के लिये, ज्यादा मात्रा में माल भेजना हो, तो रेल ही सबसे उम्दा और सस्ता साधन होता है।

   श्यामलाल दादा, डोरीलाल के साथ आगे-आगे चले गये और हरि ने डिपो के परिसर में पैर रखते ही पहले उसे खोजी निगाहों से देखने का उपक्रम किया।

   डिपो परिसर में ही डिपो साहब का घर था। पूरा का पूरा पटियों से निर्मित। हरि ने पहले कभी पटियों के घर नहीं देखे थे। गांवों में मिट्टी के, कच्ची ईंटो के और कोई जरा मालदार हुआ, तो उनके पक्की ईंटो वाले खपरैल घरों को ही देखा था। बड़े कस्बों और शहरों में सीमेंट की छत वाले चंद मकान भी नज़र जाया करते थे, पर पटियों के घर यहाँ के अलावा और कहीं थे। डिपो, जंगल और उसके पेड़ों पर निर्भर था, इसलिये यहाँ पर सब कुछ जंगल की संपदा से ही बना हुआ था। लकड़ी का घर। लकड़ी की बैठक। लकड़ी की ढाई फुट ऊंची थुनिया पर डेढ़ फुट चौडै और चार-पांच फुट लंबे पटिये एक किनारे को ठुके हैं। आये हैं, तो यहीं बैठिये। डिपों के कर्मचारी है और फुरसत में हैं, तो यहीं सुस्ता लीजिये। बीड़ी पीना हो, तो डिपो साहब की नज़र बचा कर, पी लीजिये, मगर जरा सावधानी से, चारों ओर ईंधन बन जाने वाली चीजें फैली हुई हैं।

   दूसरे कर्मचारियों के लिये भी पटियों वाले घर ही थे। पर उनमें सिर्फ़ एक कमरा और उसके सामने दालान भर था। उसके आगे डिपो, उसके पीछे डिपो। जहाँ पैर रखो, वहाँ डिपो। डिपों के बाद जंगल।

   यहाँ के सबसे बड़े अफसर थे, डिपो साहब। उनके नीचे एक जमादार। फिर दो फॉरेस्ट गार्ड और दो चौकीदार। इस तरह जंगल डिपो नाम की इस लंबी-चौड़ी रियासत में कुल छह जने। हरि को छह महीनों के लिये जमादार के ओहदे पर यहाँ भेजा गया था। वे भी इस नयी और अनजान जगह के रहवासी बनने गये थे। उनके लिये यहाँ का सब नया-नया था। डिपो घर था। डिपो दफ्तर था। मैदान भी वही था। गांव भी वही। और उनका संसार भी वही था।

   परिसर का पिछला छोर जहाँ खत्म होता था, उसी से लग कर, जंगल का छोर शुरु हो जाता था। जहाँ तक निगाह डालो, बस जंगल ही जंगल। सघन और निराट। बियाबान और डरावना। इस तरफ जरा सी मानवीय चहल-पहल। उस तरफ उदासी का विस्तार और सन्नाटा।

  डिपो को भर-नज़र देखने के बाद जब हरि श्यामलाल दादा के पास पहुँचे, तो दादा ने कहा - इस टपरे में सामान रखने को कह रहा है डोरीलाल, तुम भी देख लो...

    हरि ने उस टपरे को अंदर जाकर देखा। वह कहीं से भी रहने लायक था। लकड़ी के पटियों को ठोक कर दीवार बनायी गयी थी। हर दो पटियों के बीच में बड़ी सी झिरी छूटी हुई थी। कहीं-कहीं तो इतनी बड़ी भी कि वहाँ से सांप-बिच्छु घुस जायें। पटिये का ही, एक तरफ को लटका हुआ टेढ़ा सा एक दरवाज़ा था। कुडी थी। दो खीले थे, जिन्हें रस्सी से बांध देने पर, दरवाज़ा बंद हो जाता था। यही हाल अंदर का था। पटियों की ही छत थी। वैसी ही झिरीदार। उससे धूप रही थी। बरसात में पानी और सर्दियों के दिनों में ओस भी आती होगी। यही कोई आठ गुणित दस फुट का टपरा रहा होगा। अंदर पत्थरों को दो-ढाई फुट की ऊँचाई तक जमा कर, उन पर भी पटिये रख दिये गये थे। वही पटिये कुर्सी थे। मेज थे। और खटिया भी वही थे।

  ऐसा ठिकाना देख कर हरि के तो होश ही उड़ गये। श्यामलाल को भी वह सब पसंद आया। दादा ने कहा- ऐसे टपरे में रहना होगा...!

- वह भी शायद खाली पड़ा है... चलिये उसे देख लेते हैं...

   वहाँ दस-बारह फुट के अंतर पर ऐसे ही चार-पांच टपरे और थे। उनमें से कुछ में तो सामान वगैरह रखा हुआ था। तो इसका मतलब था कि उनमें कोई रहता था। पर उनमें से एक खाली पड़ा था। उसकी दशा भी पहले वाले से कोई ज्यादा बेहतर थी। पर फिर भी उससे कुछ ठीक सा लगा रहा था। उसी में हरि ने सामान रख दिया।

   वे थक चुके थे। पटियों की खटिया पर बैठकर सुस्ताया। गमछे से मुँह पोंछा। श्यामलाल दादा जरा देर बाद बाहर गये और वहाँ काम करने वाले कर्मचारियों से मेल-मुलाक़ात करने लगे। इस तरह वे वहाँ के बारे में सूचनायें भी जुटा रहे थे। हरि आंखें बंद कर के लेटे रहे।

   एक-दो लोग आते-जाते और एक-दो लोग एक बड़े से टपरानुमा दफ्तर में लिखा-पढ़ी जैसा काम करते हुए भी दिख रहे थे। चारों ओर घोर सन्नाटा सा छाया था। बीच-बीच में कोई कुछ बोलता, तो उसकी आवाज़ सुनाई देती। ऐसा लगता वे बिल्कुल बाजू में ही बात कर रहे हैं। एकाध बार तो हरि को भ्रम भी हुआ, कि कोई टपरे के दरवाज़े पर खड़ा होकर कुछ कह रहा है। पर मुड़ कर देखने पर वहाँ कोई था। वे दफ्तर में बातें कर रहे थे।

  फिर दादा, अपने पीछे-पीछे उसी सोलह-सत्रह साल के लड़के को लेकर आते हुए दिखायी दिये। वह लड़का पानी से भरी एक बाल्टी लिये हुए था।

  - लो हरि, मुँह-हाथ धो लो। पी भी लो। उम्दा ठंडा पानी है। पास में ही कुआँ है। ये लड़का यहाँ काम करता है। यही पानी वगैरह भरा करता है।

 हरि ने एक बार उसे देखा और मुस्कुरा कर पूछा- क्या नाम है तुम्हारा दोस्त...?

- डोरीलाल...साबजी।

- अरे हाँ, डोरीलाल है...। वाह, बड़ा अच्छा नाम है। कहाँ के हो...?

- केसला के हैं, साबजी।

- यहाँ क्या करते हो...?

- चौकीदार हैं साबजी, चौकीदारी भी करते हैं और जो जैसा काम बता दे, वो सब भी करते हैं...

- अच्छा। पर हम तुम्हारे साबजी नहीं हैं। हरि भैया हैं...। ठीक है...?

- ठीक है साबजी...

- नहीं, हरि भैया...

- जी हरि भईया...

  हरि मुँह-हाथ धोने लगे। वह चला गया।

  श्यामलाल दादा ने कहा- जंगलई-जंगल है इतै तो...

  हरि को हँसी आयी- दादा, जंगल में जंगल ही तो होगा...

- माने दूर-दूर तक गांव-बस्ती को नाम-निशान नईंयां...

- अच्छा...

- कुल चार झने हैं इतै...

- अच्छा...

- तीन मुसलमान हैं और एक हिंदू...

- अच्छा...

- जई जरा गड़बड़ है...

   गमछे से हाथ पोंछते हुए हरि ने कहा- क्या गड़बड़ है दादा...?

- देखो हरि, हम ठहरे जिझोतिया ब्राह्मण...

- जिझोतिया ब्राह्मण हैं, तो क्या कहीं आसमान से आये हैं दादा...?

- आसमानई से आये समझौ, हरि बाबू...। जिझोतिया ब्राह्मण सबसे पुराने ब्राह्मण कहलाते हैं... वेदों तक में उनके बारे में लिखा है। अरे हम राज करने वाले ब्राह्मण हैं...राज करने वाले, क्या...? हमने जहाँ राज किया उस इलाके का नाम ही पड़ गया, जिझौती।

- हाँ, उसे जेजाकभुक्ति भी कहा जाता है... इतिहासकार डॉ काशीप्रसाद जायसवाल ने लिखा है कि उन्हें यजुर्होति कहा जाता था, जो बिगड़ कर बाद में जिझौति हो गया...

- बोई तो कह रहे हैं...। तुम तो सब जानत हौ...। पढ़े-लिखे हौ...

- पढ़े-लिखे हैं, इसी से कहते हैं दादा, कि सबसे पहले हम मनुष्य हैं... ब्राह्मण होने से भी बड़ा है, मनुष्य होना। मनुष्य से छोटा होना है, हिंदु या मुसलमान हो जाना... उससे भी छोटा होना है, ब्राह्मण हो जाना... फिर और छोटा होना है, जिझौतिया या सरयुपारी हो जाना... तो दादा, बताओ कि हमें छोटा होना चाहिये या बड़ा...?

- तुमसे जीत पाना बहुत मुश्किल है हरि बाबू...

- तो हार-जीत छोड़िये। मुसलमान भी मनुष्य हैं और हम भी मनुष्य हैं। दोनों एक ही हैं...

- मगर...

   हरि ने बीच में ही टोक दिया- जोर की भूख लगी है, तो पहले कुछ खा लिया जाये। सीता और मौली ने साग-पुड़ी बना कर रख दी हैं। जाईये...

   दादा ने गठरियां खोलीं। बरतन निकाले। एक बार उन्हें पानी से धोया। हरि ने खाना निकाला। परोसा। पूरी, आलू की तरकारी और नीबू का अथान था। दोनों ने स्वाद लेकर खाया।

 दादा ने अचार का मसाला उंगली से जीभ पर रखा और कहा- एक बात पूछें...?

- हाँ, पूछो दादा...

- यहाँ रह लोगे...?

- हाँ, रह लेंगे दादा...

- देख लो, बस पटियों के अलावा और कछु नईंया इतै...

- हर हाल में नौकरी तो करना ही है, दादा। घर पर सब कुछ है, पर रुपया-पैसा नहीं है...। यहाँ से रुपया-पैसा मिलेगा, पर बाकी और कुछ नहीं है...। दोनों एक साथ तो मिल नहीं सकते...तो रहना ही होगा। कुछ दिनों में इसे और ठीक-ठाक कर लेंगे। डोरीलाल कर देगा...। और क्या...!

- पटियों पर नींद आ जायेगी, हरि...?

- आयेगी, दादा, खूब आयेगी। मेहनत करने वाले कहीं भी सो सकते हैं। जिनके पास खूब सारी सहूलियतें होती हैं, उन्हें ही नींद नहीं आया करती...

    खाकर उठे ही थे कि डोरीलाल ने आकर कहा- भईया जी, पानी वगैरा तो नईं लाना है और...?

    श्यामलाल जी ने कहा- हाँ, लाना तो पड़ेगा। पर अभी जरा ठहर जा...। खाने के बरतन धुल जायें, तब।

- हम धोए देत हैं बरतन...

 हरि ने कहा- डोरीलाल, तुमने खाना खा लिया...?

- कहाँ भईया जी...। अबै तो अंधेरो बस भओई भओ है। हमाए खाबे की बेरा होबे में अबै कुल्ल की देर है...। जब घर जैहें, तब बनाहें-खाहें...

- ऐसा करो, ये लो, दो-चार पुड़ी तुम भी खालो...

- रोटी तो बनाबे जाई रहे हैं न भईया जी...

- अरे संकोच न करो...। घर की बनी हैं। खा लो...

  हरि ने पूरियों का डिब्बा खोलकर पूरियां निकालीं। उन पर तरकारी और नीबू का अचार रखा और डोरीलाल को थमा दीं। डोरीलाल जरा औलट जगह पर बैठकर खाने लगा।

  श्यामलाल दादा ने कहा- आज जरा जल्दिई खाबो-पीबो हो गओ...। नईं तो रात के नौ-दस बजे खाबे की आदत पड़ी है...। मनौ भूख भी लग गई हती। अब समझौ सबेरे घर से नास्ता-पानी करके जो चलै, तो दिन में कहाँ खाओ-पिओ अपन नै...है कि नईं...?

- हाँ दादा, सफरई-सफर में रहे। पहले रेल से, फिर मोटर से और फिर बैलगाड़ी से...। बहनों ने खूब सारी पूड़ियां रख दी हैं। कल दिन का खाना भी इन्हीं से हो जायेगा। मोहनी तो और रखे दे रही थी, हमने कहा, क्या दो-चार दिन के लिये रख रही हो, बहन...!

- अरे हन्ना हैई ऐंसी...सबको बड़ो ख्याल रखत है...

- हाँ। अभी भी पुड़ी बहुत हैं। सुबह चाय के साथ खायेंगे, तो नाश्ता भी हो जायेगा। और दादा, बासी पुड़ी और चाय का तो अपना ही मजा है...

- हाँ, ताजी गरमागरम पुड़ी और आलू की रसेदार तरकारी की जोड़ी है और फिर सबेरे-सबेरे बासी पुड़ी और चाय की...

  डोरीलाल ने खाकर कहा- बरतन हम लये जा रए हैं, कुआँ पे से घोके ले आहें...

- नहीं, तुम पानी ले आओ....। बरतन तो हम घोएंगे...

- कैसी बातें करत हौ हरी भईया...? अरे हम काये के लानै हैं...। हमाओं तो कामई जो है...। हम आपखौं बरतन छुअन तक ना दैहैं...। लाओ देओ...

  उसने बरतन समेटे और कुएँ की ओर चला गया।

   श्यामलाल दादा ने कहा- मौड़ा ठीक है...। बात करहैं कि जेई तुमाओ खाना बना दए करे...

- दाल-चावल तो हम बना लेते हैं, पर रोटी के लिये आटा मांड़ना, रोटियाँ बेलना और सेंकना तो बिल्कुल नहीं आता... बाई बड़ी उम्दा रोटियाँ सेंका करती थीं। ऐसी गोल फुक्का हो-होकर चूल्हे से निकलतीं कि.... बाई सब बच्चों को चौके में बैठा लेतीं और रोटियाँ सेंक-सेंक कर देतीं जातीं...  हम चारों अपने-अपने पटा-चौकियाँ लेकर जम जाते। रुक्मणीं बहन बाद में बाई के साथ खाया करती थी। खाना बनाने में बाई की मदद करती। और बाई के हाथ की तरकारी के तो क्या कहने, इतनी बढ़िया बनाती थीं कि दो रोटियाँ ज्यादाई खब जाया करती थीं... फिर बीमार पड़ीं तो रसोई का काम रुक्मणी बहन और सीता बहन ने सम्हाल लिया था... हन्ना थी तो जरा सी, मगर मदद करने में वह भी पीछे रहती थी...

- हाँ। अरे बहुरानी तो चने की दाल के गुलगुले, नमक वाले पानी में डूबे बरा और भजियों वाली कढ़ी ऐसी उम्दा बनात हतीं कि अब का बतायें...? सबरे रिस्तेदारों में दूर-दूर तक उनको नांव फैलो थो...

  श्यामलाल दादा ने महसूस किया कि यह प्रसंग ज्यादा चला, तो हरि का मन दुखी हो जायेगा, तो उन्होंने उत्साह के साथ कहा- देखो हरि बाबू..., खाना-पीना तो उम्दा हो गया... अब जरा घूमना-फिरना पड़ेगा...

- हाँ, दादा। जंगल का इलाका है, तो घूमने तो चलना ही है... अंधेरा हो रहा है, तो यहीं आसपास चलेंगे, पर जायेंगे ज़रूर... हाँ, कल शाम को जरा दूर तक जायेंगे...

  डोरीलाल एक हाथ में पानी से भरी बाल्टी और दूसरे में बरतन लिये लौटा। हरि ने उससे बरतन ले लिये और एक पटिये पर जमाने लगे। पटिया जिन ईंट-पत्थरों पर रखा था, वे डगमगा रहे थे। बरतन रखते ही पटिया लुढ़क गया और बरतन गिर गये। बरतनों की खनखनाहट सुन कर श्यामलाल दादा अंदर आये- क्सा हुआ...?

- पटिया लुड़क गया...

- तुम हटो, हम देखत हैं...

  श्यामलाल दादा ने ईंट-पत्थरों को जमाया, देखा और डोरीलाल से कहा- अरे डोरीलाल... जरा ऐसा मो करौ कि दो-चार पतली खपड़ियां तो बीन के लाबो... खपड़ियां समझत हो ... पत्थर के पतरे-पतरे टुकड़ा....

- हाँ, दादा जी, समझत हें... अभईं लाये देत हैं...

  डोरीलाल कई किस्म की खपड़ियाँ बीन कर ले आया। दादा ने उन्हें जमा कर पटिया बैठा दिया। फिर सोने वाले पटियों की जाँच की गयी। वे भी डगमगा रहे थे। उन्हें जमाया-सम्हाला। बाहर आकर हाथ झाड़े और कहा- अब ठीक है... अच्छो भओ कि अबई सब पता चल गओ, नईं तो जब सोबे जाते, तब पहले तो लुड़कते...फिर सब ठीक-ठाक करते...

  दादा अपनी ही बात पर देर तक हँसते रहे, मानो वे अपनी कल्पना में लुड़क गये थे। फिर जैसे कुछ याद आया- अरे डोरीलाल, रात को क्या करेंगे...? चिराग या लालटेन वगैरा कछु है कि नईं...?

- लालटेन है दादा जी...हम अब्भईं लाये दे रहे। सरकारी लालटेनें हैं। सबको मिलत हैं...

  वह भाग कर गया और एक लालटेन तथा बोतल में कैरोसिन तेल ले आया। लालटेन में तेल भरा। काँच की धूल साफ की और बोला- दियासलाई है का...?

  श्यामलाल दादा ने अपनी जेब से निकाल कर माचिस दी। डोरीलाल ने लालटेन जलायी और टपरे के बाहर टाँग दी। उसका पीला उजाला वहाँ झरने लगा।

 

    डोरीलाल ने दादा की माचिस लौटायी। दादा ने माचिस लेकर एक बीड़ी सुलगायी और बोले- चलो, अब जरा  घूम के आते हैं...

- चलिये...

 डोरीलाल ने कहा- अंधेरा हो गया है...जादा दूर तक मती जाना दादाजी...

- चल तू भी चल... हमें तो पता नहीं है कि किस तरफ जाना चाहिये, किस तरफ नहीं...

  डोरीलाल सोच में पड़ गया, बोला, अच्छा..., हम जल्दी से दो टपरों में पानी भर कर रख आयें, वो मियां लोग अब अपना रोटी-पानी करेंगे ... फिर चलते हैं...

- ठीक है...। तब तक हम यहीं आसपास हैं...

  डोरीलाल भागकर उस तरफ चला गया। हरि और दादा टहलते हुए आगे बढ़े।

- कितनी उम्दा हवा चल रही है, दादा...!

- हाँ, एकदम ताजी...। ठंडी...

- खुशबु भी है...

- हाँ, जंगल में कई किसम के पेड़ होते हैं और उनकी गंध भी अलग-अलग होती है न्...। बोई सब मिलके हवा के साथ आ रही है...

- शहरों में ऐसी हवा कहाँ...?

- एक बार हम भोपाल गये हते, उतै तो हरी, अब का बतायें, नालियों में कचरा और पानी सड़त रहत है, बा की दुरगंध चारों तरफ फैली रहत है...। मगर सहर बालों को दुरगंध नईं लगै...

- आदत पड़ जाती है, तो फिर पता नहीं चलता।

   डोरीलाल दौड़ता हुआ पहुँचा- हो गया... सब काम हो गया, भईया जी... अब चल सकत हैं... हम तो कै आये कि हम जा रहे हैं हरी भईया और दादा जी के संगै सूखी नदिया की तरफ घूमबे...हमें ना टेरियो...

  दादा ने उसकी तारीफ की- जे तुमने सही किया, डोरीलाल...

  हरि को नदी का नाम सुन कर अचरज हुआ- सूखी नदी...?

- हाँ, भईया जी, इस नदी को नामईं है, सुखी नदी...

- सूख गयी है, क्या...?

- नईं अबै तो मुतको पानी है नदिया में, मनो दिवारी के बाद सूखन लगत है...। हरई साल सूख जात है...। पर परनी मिलत रहत है...

  हरि को और ज्यादा अचरज हुआ- सूख जाने पर भी पानी रहता है...?

- हाँ भईया जी, बो का है कि नदिया तो सूख जात है...। मनौ रेता में गड्ढा कर लौ तो दो-तीन हाथ पै पानी निकरन लगत है...। उतै बहुत सी कुइयां बनी हैं...। सबकी कुइयां हैं उतै। मालगुजार साब की कुइयां...। डिपो बालों की सरकारी कुइयां...। गोंड़ों की कुइयां... 

- अच्छा...!

- हाँ भईया जी...

- तो उसी तरफ चलो, सूखी नदी की तरफ...

- हओ, मनौ, जरा सम्हरके चलनै पड़है भईया जी...। आपके लाने नई जघा कहानी जे...

- ठीक है...

- आईये, हम आंगे-आंगे चलत हैं...

- अच्छा...!

- जंगल तो बड़ो उम्दा है...हरी भईया...। दिन में तो जो जंगल बहुतईं अच्छौ लगत है, मनौ रात खौं जे डरात भी है...

- अरे डोरीलाल, रात को तो जंगल क्या, आदमी भी दूसरे आदमी को डरा देता है...। असल में डर जंगल में नहीं होता, हमारे मन में होता है। रात में होता है...। रात के अंधरे में होता है...। समझे डोरीलाल जी...!

- जी भईया जी...

- दुनिया डरने से नहीं, डर को डराने से चलती है...

- जी भईया जी...

-----

क्रमशः


 

राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय

अंकुर’, 1234, जेपीनगर, आधारताल,

जबलपुर (म.प्र.) - 482004

 

 

            

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...