उजाले
बेचने वाले लोग
वाणी
दवे
घूमते
हुए चाक पर माटी का लोंदा रख कुम्हार दीए पर दीए बनाए जा रहा था और उसकी पत्नी
सुखाकर दीयों को भट्टी में पका रही थी। 10 वर्षीय नन्ही बेटी भी अब इस काम में
दोनों का हाथ बँटाने लगी।
पत्नी
ने हरिकेन जलाकर झोपड़ी में रोशनी की। तभी बेटी ने अपना सवाल रखते हुए कहा-
"माँ हम दीये क्यों बेचते हैं?" माँ बोली "क्योंकि दिवाली और साल के हर दिन हर घर में हमारे दीये
जलें।” "तो माँ, हम अपने दीये क्यों नही जलाते?"
माँ बोली- "बेटी भट्टी में पक जाने के बाद दीये केवल हमारे
नहीं रह जाते हैं। दीये तो उजाला फैलाने के काम आते हैं और उजाले की जरूरत सभी को
रहती है। ये दीये हमारे घर में नहीं तो क्या बाकी सभी घरों में तो रोशनी करते ही
हैं न!’’ बेटी के चेहरे पर संतुष्टि देखकर माँ को लगने लगा
था कि बेटी दूसरों के उजाले और अपने अंधेरे का अंतर समझ गई है।
क्षितिज
से साभार (सं.सतीश राठी, वर्ष 2018, पृ. 193)
बहुत सुंदर लघुकथा।
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