शनिवार, 11 सितंबर 2021

आलेख



साहित्य और समाज

डॉ. हसमुख परमार

          साहित्य और समाज साथ-साथ चलते हैं, एक दूसरे के पूरक होते हैं। आलंकारिक भाषा में कहना चाहे तो उनमें चोली-दामन का साथ होता है। यदि इन उभय के संबंध को नित्य संबंध का नाम दे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। समाज अपने सर्वांगीण रूप के साथ साहित्य में मौजूद रहता है। समाज का ‘सु’ व ‘कु’ दोनों पक्षों का चित्रण करने वाले साहित्यकार की दृष्टि में समाज की अच्छाइयाँ-बुराइयाँ, श्रेष्ठताएँ-क्षतियाँ, शिखर-खाइयाँ सबकुछ आता है। साहित्यकार का दायित्व सिर्फ समाज-सृष्टि के सौन्दर्य को निरूपित करने का ही नहीं बल्कि उसके साथ-साथ समाज का वर्तमान रूप, व्यवस्था और कार्यप्रणाली के प्रदूषित वातावरण के अंधकार से उसे मुक्त कराकर प्रकाश की ओर ले जाना भी है। अतः साहित्य समाज का दर्पण भी है और दीपक एवं दिशानिर्देशक भी। साहित्य और समाज एक दूसरे पर आश्रित होते हैं। समाज है तो साहित्य और साहित्य है तो वह समाज को अवश्य प्रभावित करेगा। उनके पारस्परिक संबंधों पर विचार करने से पूर्व साहित्य और समाज दोनों का स्वरूपगत संक्षिप्त परिचय देना यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा।

साहित्यः मनुष्य जीवन को विकसित करने एवं सार्थकता प्रदान करने वाली विविध उपलब्धियों में कला या साहित्य का महत्त्व  भी असंदिग्ध है। इस उक्ति से तो हम सभी ज्ञात है- ‘साहित्य संगीत कलाविहिनः। साक्षात पशु पुच्छ विषाणहीनः।’ सामान्य अर्थ में जीवन व सृष्टि विषयक साहित्यकार की अनुभूतियाँ, विचार व कल्पना की शाब्दिक अभिव्यक्ति साहित्य है। साहित्य की व्युत्पत्तिगत परिभाषा है- ‘‘सहितस्य भावः साहित्यम्। अर्थात् ‘सहित’ के भाव को अग्रसरित करता है वह साहित्य। यहाँ ‘सहित’ से एक आशय है साथ-साथ और दूसरा ‘हितेन सह सहितम’। अर्थात् किसी के साथ होना और दूसरा सबका हित निहित है वह सहित। कई बार हम बोलचाल की भाषा में कहते हैं कि अर्जुन और भीम के सहित कुल पाँच पांडव थे। तो यहाँ सहित का वही अर्थ है। साहित्य में कौन-कौन साथ होते हैं ? या उसमें किन-किन का मेल होता है ? उत्तर है- साहित्य में भाव और भाषा का मेल होता है। शब्द और अर्थ का संयोग होता है, इस संदर्भ में भामह का कथन है- ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्।’ इसके अतिरिक्त वस्तु और शिल्प भी साथ-साथ चलते हैं। प्रथम भाव और भाषा की बात करते हैं। साहित्य में जिस प्रकार के भाव को निरूपित करना होता है, भाषा भी उसके अनुरूप अपना रूप लेकर आती है। भाव यदि शृंगार का होगा तो भाषागत पदावली में भी वही लालित्य आयेगा और भाव यदि वीरता यानी शौर्य-पराक्रम-साहस से संबद्ध हो तो भाषागत प्रकृति उसीके अनुरूप होगी। अब शब्द और अर्थ के संयोजन की बात करें तो किसी भी विषय-संदर्भ के भाषाप्रयोग में शब्द-अर्थ साथ होंगे ही क्योंकि इन दोनों के संबंध को तो नित्य-अटूट कहा गया है। कालिदास वागर्थ के नित्य संबंध को पार्वतीपरमेश्वरौ, अर्धनारिश्वर की उपमा देते है और तुलसीदास कहते है- ‘गिरा अरथ जलबिचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।’ इस दृष्टि से क्या समस्त भाषाप्रयोग साहित्य कहलायेगा ? इसका उत्तर है नहीं, क्योंकि साहित्य में शब्द और अर्थ के साथ-साथ होने का मतलब है किसी विशेष परिप्रेक्ष्य में शब्द-विशेष ही चलेगा। उसके पर्यायवाची या समानार्थी शब्द से वहाँ काम नहीं चलेगा। किसी दूसरे विषय में कोई दूसरा शब्द चल सकता है, किंतु साहित्य में इसकी संभावना कम होती है। एक उदाहरण के द्वारा इसे स्पष्ट करें-

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,

आँचल में है दूध और आँखों में पानी।

          यहाँ स्त्री जीवन की जिस विवशता की व्यंजना ‘अबला’ शब्द से होती है, वह नारी, स्त्री, महिला या ललना शब्दों से नहीं। यह है शब्द और अर्थ का सायुज्य। इसी तरह वस्तु के अनुरूप शिल्प होगा, भाषा होगी, शब्द होगा, यह भी सुनिश्चित है। वस्तु यदि ऐतिहासिक या पौराणिक होगा तो भाषा का रूप भी उसीके अनुरूप होगा। और वस्तु यदि समसामयिक है तो भाषा का स्तर भी समसामयिक रहेगा। पति के लिए कहाँ ‘आर्यपुत्र’ आयेगा और कहाँ ‘हसबन्ड’ या ‘हबी’ यह वस्तु से ही निर्धारित होगा।

          साहित्य के दूसरे अर्थ ‘हितेन सह सहितम्’ के संदर्भ में कहा गया है- ‘‘साहित्य किसी न किसी प्रकार से मानव जाति का हित संपादन करता है। उसमें शिव अर्थात कल्याण की भावना अवश्यमेव रहती है। साहित्य में सत्य की स्थापना भी की जाती है, परंतु उसका सत्य ‘शिवम’ और ‘सुंदरम्’ से समन्वित होता है।’’1

          ऊपर जिस साहित्य शब्द की हमने व्याख्या की है, वह साहित्य का रूढ़िगत या संकुचित अर्थ है। जब हम हिन्दी साहित्य, गुजराती साहित्य व लोकसाहित्य कहते हैं तो वहाँ साहित्य का यही अर्थ लिया जाता है। किन्तु साहित्य की व्यापकतम परिभाषा में तो उन तमाम विषयों को साहित्य कहा जायेगा, जो भी शब्दमय है, वाणीमय है। ‘वाङमय’ अर्थात वाणीमय उसमें तो विज्ञान, समाजशास्त्र, गणित, भौतिकी सभी आ जायेंगे। परंतु यहाँ जिस परिप्रेक्ष्य में चर्चा हो रही है वह साहित्य के उसी रूढ़िगत स्वरूप पर हो रही है।

समाजः सामूहिक जीवन लगभग हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है। व्यक्ति ही फैलकर समाज बनता है। अतः व्यक्तियों के समूह या समुदाय को समाज की संज्ञा दी गई है। नालंदा विशाल शब्द सागर में समाज की व्याख्या इस तरह दी गई है- (1) समूह, गिरोह (2) एक स्थान पर रहने वाले अथवा एक ही प्रकार का कार्य करने वाले लोगों का वर्ग, दल या समूह, समुदाय (3) किसी विशेष उद्देश्य से स्थापित की हुई सभा, सोसायटी।2 समाजशास्त्र की भाषा में कहें तो निश्चित भूभाग में निवास करनेवाला, सांस्कृतिक मूल्यों, सामाजिक नियमों, विचार धारा आदि का अनुसरण करने वाला, दूरवर्ती एवं निकटवर्ती संबंधों का निर्वाह करने वाला मानव समुदाय समाज कहलाता है।

साहित्य और समाज की परस्परावलंबित स्थितिः

         पहले निर्दिष्ट किया जा चुका है कि साहित्य और समाज एक-दूसरे पर निर्भर है। डॉ. नामवरसिंह के मतानुसार ‘‘साहित्य के रूप में समाज की जो छाया प्रकट होती है वह लेखक के व्यक्तित्व के माध्यम से आती है। साहित्य रचना की प्रक्रिया में समाज, लेखक और साहित्य परस्पर प्रभावित, परिवर्तित और विकसित होता रहता है- समाज से लेखक, लेखक से साहित्य और साहित्य से पुनः समाज।’’3

समाज का साहित्य पर प्रभावः

          मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में जन्म लेता है, जीता है और उससे प्रभावित होता है। यही स्थिति हर साहित्यकार की होती है। वह अपने लेखन में महज अपनी निजी अनुभूतियाँ-भावनाएँ ही व्यक्त नहीं करता बल्कि अपने समाज के परिवेश को भी रखता है। समाज ही उसे बनाता है, उसके व्यक्तित्व का बहुत कुछ निर्माण करता है। अतः समाज का स्थिर व गतिशील रूप उसके साहित्य में अवश्य आएगा। साहित्यकार जिस कालगत या देशगत के समाज में संबद्ध होता है, उस समाज में जो स्थितियाँ होती है, उसमें जो परिवर्तन होते हैं, उतार-चढ़ाव आते हैं, नवीन स्थितियों का निर्माण होता है, समाज-सुधार होता है उन सबका प्रतिबिम्ब उनके साहित्य में पड़े बिना नहीं रह सकता। इसीलिए तो कहा गया है- ‘Literature is the Mirror of Society’ अर्थात साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य समाज का पुष्ट औह प्रामाणिक चित्र कहा जा सकता है। इसीलिए साहित्यकार अपनी आँखों से-मन की आँखों से भी-चतुर्दिक समाज को देखने के लिए बाध्य होता है। समाज ही इनके सृजन की सामग्री बनता है, प्रेरणास्रोत होता है।

          समाज किस तरह साहित्य को प्रभावित करता है उसे हम हिन्दी साहित्य के इतिहास का विहंगावलोकन करते हुए देख सकते हैं। हिन्दी साहित्य का आदिकाल जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने वीरगाथा काल नाम दिया। उक्त काल संघर्ष का काल था। उस समय समाज में चारों तरफ वीरपूजा का महत्त्व  था। समाज की यह प्रवृत्ति तत्कालीन साहित्य के आईने में दिखाई पड़ती है। रामचन्द्र शुक्ल ने जिन विख्यात ग्रंथों का हवाला दिया है वे इस प्रकार हैं- ‘‘विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, खुमाण रासो, परमाल रासो, पृथ्वीराज रासो, कीर्ति लता, कीर्तिपताका, जयमयंकजस चन्द्रिका, जयचन्द्रप्रकाश, विद्यापति की पदावली, अमीर खुसरो का साहित्य।’’4 इन ग्रंथों में से अंतिम दो को छोड़कर शेष सभी वीरगाथात्मक है। देखिए उस समय की एक राजपूतानी क्या कहती है- ‘‘भल्ला हुआ जू मारिया बहिणि हमारा कन्तु, लज्जेजं तू वयं सिंही जई भग्गा घर एन्तू।’’5 अर्थात हे बहिन ! मेरा पति युद्ध में मारा गया वह बहुत अच्छा हुआ। यदि वह युद्धभूमि में पीठ दिखाकर भाग आता तो मैं अपनी सहेलियों को क्या मुँह दिखाती। तो आल्हा में गाया गया- ‘‘बरस अठारह छत्री जीवै और जीवै को धिक्कार।’’6 अर्थात सच्चे क्षत्रिय की कारकीर्दि केवल अठारह साल की होती है। इन अठारह बरसों में वह इतने युद्धों में भाग लेता है कि किसी न किसी युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त होता है। कुल मिलाकर प्रारंभिक काल का ज्यादातर हिन्दी साहित्य आक्रमण और युद्ध के प्रभावों की मनःस्थितियों का प्रतिफलन है। इस काल के साहित्य में वैसे तो विषयों का वैविध्य भरपूर है किन्तु वीरगाथा केन्द्रीय विषय कहा जा सकता है।

          उसके बाद आइए मध्यकाल या भक्तिकाल पर। राजपूतों का परास्त होना जिसके फलस्वरूप समाज में चारों तरफ भय और निराशा का वातावरण था। ऐसे में भक्ति आंदोलन की लहर चलती है। चारों तरफ समाज में भक्ति के स्वर गूंज उठते है तो साहित्य भी भक्ति का आता है। भक्तिसाहित्य में पहले कबीर, जायसी, दादू, रैदास आदि निर्गुणवादी कवि और बाद में तुलसी, सूर आदि सगुणवादी। उक्त समय में निर्गुण व सगुण दोनों प्रकार की भक्ति के स्वर समाज और अतएव साहित्य में गूंज उठते है। कबीर ने अपनी निर्गुण भक्ति के साथ तत्कालीन समाज की सही तस्वीर को अपने साहित्य में अंकित किया तो तुलसीदास और सूरदास ने क्रमशः राम तथा कृष्ण के साकार रूप को अंकित किया। तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में अपने समय के सामाजिक माहौल को निरूपित किया। एक तरह से रावण के अत्याचारों से पीड़ित जनता के द्वारा अपने समय के शासकों के अत्याचारों की ओर ही संकेत कहा जा सकता।

          मध्यकाल का ही उत्तरार्ध रीतिकाल या शृंगारकाल है। भारत अनेक छोटे-छोटे राज-रजवाड़ों में विभक्त हो गया था। ‘‘सामाजिक दृष्टि से इस युग के समाज की तुलना अपने आप में सिमटे हुए एक कछुवे से की जा सकती है। अकबर के समय से कुछ सन्त-महात्माओं द्वारा जो समाज-सुधार की लहर चली थी वह औरंगजेब तक आते-आते प्रायः शान्त हो चुकी थी। नित्य नई राजनैतिक हलचलों और शासक वर्ग की बढ़ती हुई उच्छृंखलताओं के कारण समाज भी बिखरने लगा। फिर भी जैसे तैसे वह पुरानी रूढ़ सामाजिक व्यवस्थाओं से चिपका जीवन-यापन कर रहा था। इस तरह वास्तव में इन दो सौ वर्षों मे भारतीय समाज कछुवे की भाँति अपनी शक्तियों को अपने ही शरीर की परतों में छिपाकर परिस्थितियों के विषम थपेड़ों से किसी-न-किसी प्रकार सुरक्षित रह सका।.... (इन) परिस्थितियों ने तत्कालीन साहित्यकारों और कवियों के सम्मुख भक्तिकाल से सर्वथा भिन्न वातावरण उपस्थित कर दिया। उनके लिए एक विशेष प्रकार की दरबारी संस्कृति का अंग बनना अनिवार्य-सा हो गया था।’’7 इस समय के अधिकांश कवि राज्याश्रय में कवि कर्म करने लगे। दरबारी माहौल में पाई जाने वाली वासना-विलास-परक चमक-दमक से प्रभावित होना भी स्वाभाविक था। अभिप्राय कि समाज का उच्च तबका विलासी प्रवृत्तियों में निमग्न हो गया था। अतः साहित्य में भी घोर शृंगारिकता उद्दाम शृंगार की लहरियाँ उत्पन्न होने लगी।

·       ‘‘मुख ससि निरखि चकोर अरू, तन पानिय लखि मीन।

पद पंकज देखत भ्रमर, होत नयन रस लीन।’’

·       ‘‘कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात

भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सौं बात।।’’

और रीतिकाल के एक अन्य कवि चिन्ताणि की कामविदग्धा नायिका की ये चेष्टाएँ भी देखिए-

‘‘आंखिन मूंदिबे के मिस आनि अचानक पीठि उरोज लगावै

कैहूँ कैहूँ मुसकाय चितै अंगराय अनुपम अंग दिखावे।

नाह छुई छलसों छतिया हंसि भौंह चढाय अनंद बढ़ावें।

जोबन के मदमत्त तिया नित हित सों पति को चित चुरावै।।’’

          रीतिकाल के पश्चात आया आधुनिक काल। विगत कालों की तुलना में आधुनिककाल में साहित्य और समाज का संबंध और भी प्रगाढ़ हो गया। उक्त काल के आगमन में नवजागरण के सूर सुनाई पड़ने लगे। आधुनिकता के अग्रदूत राज। राममोहनराय, केशवचंद्र सेन, स्वामी दयानंद सरस्वती, महादेव गोविन्द रानड़े, गोपालकृष्ण गोखले, लोकमान्य तिलक, ज्योतिबा फूले, पंडिता रमाबाई, महात्मा गांधी, डॉ. बाबा साहब आंबेडकर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर-पूरी की पूरी गैलेक्षी देदीप्यमान नक्षत्रों से जगमगा उठी। समूचा आकाश प्रश्नों से भर गया। प्रश्न हमारी अधोगति को लेकर, गुलामी को लेकर, स्त्रियों और दलितों के दमन को लेकर, उनको अशिक्षित रखने के षड़यंत्र को लेकर, झूठे अंधविश्वासों और प्रगति विरोधी रीति-रिवाजों को लेकर, अस्पृश्यता के महाकलंक को लेकर, जाँत-पाँत और ऊँच-नीच के खयालों को लेकर। लिहाजा साहित्य में यह सबकुछ तो आना ही था।

          ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज, आर्यसमाज, थियोसोफिकल सोसायटी से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थितियाँ विशेष प्रभावित रहीं। इस बदलते युग में भावना का स्थान तर्क, विवेक और बुद्धि ने लिया। इस युग के हिन्दी साहित्य में काव्य के साथ कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, रेखाचित्र, आत्मकथा, जीवनी आदि साहित्यिक रूप भी अस्तित्व में आए। फलस्वरूप समाज के बहुरंगी बहुरूपी वर्णन के लिए पर्याप्त जगह मिली। भारतेन्दु, प्रेमचन्द, निराला, प्रसाद, पंत, अश्क, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, नागार्जुन, दिनकर, मुक्तिबोध, धूमिल, शमशेरबहादुर सिंह, भवानीप्रसाद मिश्र, शैलेश मटियानी, राजेन्द्र यादव, उषाप्रियंवदा, मन्नूभंडारी, कृष्णा सोबती और ऐसे अनेकों साहित्यकारों को नव्य समाज और उसके विचारों ने प्रभावित किया। दलित विमर्श, नारी विमर्श, आदिवासी समाज, गाँव, शहर उसका परिवेश, संस्कृति, समस्याएँ सबकुछ उक्तकाल के साहित्य में बिम्बित-प्रतिबिम्बित होने लगा।

साहित्य का समाज पर प्रभावः

         जिस तरह से साहित्य समाज से प्रभावित होता है। उसी तरह साहित्य भी समाज को प्रभावित करता है। साहित्य सिर्फ मनोरंजन-आनंद के लिए नहीं, माना कि वह साहित्य का महत्त्व पूर्ण प्रयोजन है- किन्तु इससे आगे साहित्य शिक्षा, उपदेश, अध्यात्मजीवन के लिए भी बहुत अहम भूमिका निभाता है। ‘कला कला के लिए’ सिद्धांत की अपेक्षा ‘कला जीवन के लिए’ सिद्धांत को ज्यादा महत्त्व  दिया गया। कई विद्वानों का मानना है कि साहित्य का समाज के प्रति बहुत बड़ा उत्तरदायित्व होता है। वह जीवन का उन्नयन करने, समाज के हित के लिए होता है। साहित्य समाज को उपदेश देता है। उसका उपदेश देने का तरीका ‘कान्तासम्मित’ वाला होता है। ‘‘प्रसिद्ध बंगला उपन्यासकार बंकिमचंद्र चटर्जी काव्य के ‘कान्तासम्मित’ उपदेश देने का समर्थन करते हुए कहते है- कवि संसार के शिक्षक है, किन्तु वे नीति की व्याख्या करके शिक्षा नहीं देते। वे सौन्दर्य की चरम सृष्टि करके संसार की चित्त शुद्धि करते हैं। यही सौन्दर्य की चरमोत्कर्ष साधक-सृष्टि काव्य का मुख्य उद्देश्य हैं। कला के उपदेश के संबंध में महात्मा गांधी का कहना है – कला से जीवन का महत्त्व है। जीवन में वास्तविक पूर्णता प्रदान करना ही कला है। यदि कला जीवन को सुमार्ग पर न लाए तो वह कला क्या हुई।’’8 तुलसीदास कवि वाणी की सार्थकता ही उसमें देखते है जो गंगा के समान सबका हित करती हो।

हमारे यहाँ तो साहित्यकारों को ऋषि कहा गया, उसे ब्रह्मा और प्रजापति तक कहा गया है-

‘‘अपारे काव्य-संसारे कविरेव प्रजापतिः।

यथास्मै रोचते विश्वं तथास्मै परिवर्तते।’’

          कहने का आशय यह कि साहित्य समाज का निर्माता भी है। वह सभ्यता और संस्कृति का निर्माण करता है। भारतीय साहित्य ने भारतीय समाज में सत्य, अहिंसा, त्याग, दान, क्षमा, शांति जैसे जीवनमूल्यों के महत्त्व को सही अर्थों में समझाया। रामराज्य की कल्पना भी हमारे साहित्य की देन कही जा सकती है। रामायण, महाभारत, गीता, वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों की समाज जीवन के सही निर्माण में अहम भूमिका रही है। भारतीय साहित्य के अमर चरित्र लोग हृदय में विराजित है।

          साहित्य समाज में परिवर्तन भी लाता है, पर धीरे धीरे। साहित्य द्वारा लाया गया परिवर्तन तलवार, आंदोलन, बड़ी-बड़ी क्रांतियों द्वारा हुए परिवर्तन से अधिक स्थायी व प्रभावशाली होता है। सम्राट अशोक उसका ज्वलंत उदाहरण है। डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन ने अपनी मोरेशियस यात्रा के दौरान कहा था कि यदि किन्हीं कारणों से हमारे सारे धर्म-ग्रन्थ और शास्त्र नष्ट हो जाते हैं पर यदि तुलसी का ‘मानस’ बच जाता है तो भी हमारी संस्कृति का पुनः पल्लवन हो सकता है।’’9 भूषण की वीररस से पूर्ण रचनाओं का शिवाजी पर पड़े प्रभाव से तो शायद ही कोई अज्ञात हो। प्रेमचंद को पढ़ना माने उनके समय के समाज-संस्कृति जीवन को पूर्णतः पढ़ना है। इसमें कोई अत्युक्ति नहीं कि अनेक बड़े लेखकों-कवियों की वाणी रूपी हाथों ने समाज रूपी घड़े को सही आकार दिया है।

          विपरीत परिस्थितियों के चलते मनुष्य यदि टूट जाए, बिखर जाए, विफल हो जाए, नैराश्य के अंधकार में घिर जाए, उसमें पलायनवादी वृत्ति पैदा हो जाए तो साहित्य से उसे बल अवश्य मिलता है। जीवन के किसी न किसी मोड़ पर कबीर, प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन जरूर काम आते हैं। हरिवंश राय बच्चन लिखते हैं- ‘‘जीवन में जो कुछ बचता है / उसका भी है कुछ आकर्षण।’’ एक अन्य जगह वह कहते हैं – ‘है अंधेरी रात पर / दीया जलाना कब मना है / जो बीत गई वह बात गई / नीड़ का निर्माण फिर फिर / नेह का आह्वान फिर फिर। एक और कवि की पंक्तियाँ देखिए, जिससे कौन ऐसा होगा जो प्रभावित व प्रेरित न होगा- ‘‘मैं नहीं टूटूँगा, जूझूँगा मैं / क्योंकि मैं ही टूट गया तो / कितने ही टूट जाएँगे बनने से पहिले।’’ एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व की झलक देखिए – ‘‘मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा / लोहा जैसे तपते देखा / गलते देखा, ढलते देखा / मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा।’’

          डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि ‘‘चन्द्रकान्ता और तिलिस्म होशरूबा के पढ़ने वाले लाखों थे। प्रेमचंद ने इन लाखों पाठकों को सेवासदन का पाठक बनाया. यह उनका युगान्तकारी काम था।’’ कार्ल मार्क्स के ‘दास केपिटल’ तथा ‘कोम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ ने तो लगभग एक तिहाई विश्व को लाल रंग से रंग दिया। क्या महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, डॉ. बाबा साहब आंबेड़कर एवं ऐसे अनेक महापुरुषों के जीवन व विचारों को निरूपित करने वाला साहित्य समाज को आज भी प्रेरित नहीं करता ?

          निष्कर्षतः हम कह सकते है कि साहित्य और समाज परस्पर संबद्ध है। दोनों का अन्योन्याश्रय संबंध है। समाज है तो साहित्य है और साहित्य है तो समाज की सही पहचान होती है। साहित्य का कलेवर बहुत कुछ समाज से ही निर्मित होता है, और सर्जक अपनी प्रतिभा से उसे इस तरह प्रस्तुत करता है कि साहित्य का पाठक व श्रोता बना हुआ समाज निश्चित रूप से उससे प्रभावित होता है, प्रेरित व प्रकाशित होता है। जीवन के उच्च आदर्श को बयाँ करने वाली इन पंक्तियों से क्या कोई प्रभावित हुए बिना रह सकता है- ‘‘इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रान्त भवन में टिके रहना, / किन्तु पहुँचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं।’’ कुछ लोगों का मानना है कि आज के विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के युग में साहित्य की क्या उपयोगिता ? किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विज्ञान व टेकनॉलॉजी मनुष्य को समुद्र के अंतःस्थल तक जाने एवं अंतरिक्ष में पहुँचने के लिए शिक्षित कर सकते हैं, पर मनुष्य को मनुष्यता का ज्ञान तो साहित्य ही दे सकता है। परस्पर सद् व्यवहार, नीति, सदाचार यह सब मनुष्य को साहित्य ही सीखा सकता है। अतः साहित्य की आवश्यकता समाज को सदा रही है और रहेगी ताजिन्दगी ताजीवन।

संदर्भः

1.  समीक्षायण, डॉ. पारूकांत देसाई, पृ. 12

2.  नालंदा विशाल शब्द-सागर, पृ. 1407

3.  आलोचना-संपादकः डॉ. नामवरिसंह, पृ. 37-38, अंक 52-53

4.  हिन्दी साहित्य का इतिहासः आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

5.  हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त सुगम इतिहासः डॉ. पारूकान्त देसाई, पृ. 9

6.  समीक्षायण, डॉ. पारूकान्त देसाई, पृ. 156

7.  बृहत साहित्यिक निबन्ध, यश गुलाटी, पृ. 380-381

8.  दृष्टव्यः भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र, राजनाथ शर्मा, पृ. 41

9.  समीक्षायण, पृ. 21   


 

डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत-बहुत सुंदर प्रस्तुति सर, आप के विचार हंमेशा हमें साहित्य की ओर मोड़ते रहे हैं।
    खालिद सैयद

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  2. साहित्य और समाज के संबंध की सुंदर सोदाहरण व्याख्या।
    बहुत उपयोगी आलेख। हार्दिक बधाई💐

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