प्रासंगिकता के निकष पर प्रेमचंद और उनका साहित्य
डॉ. हसमुख परमार
जो किसी प्रसंग या स्थिति के अनुकूल और
अनुरूप हो, उसे प्रासंगिक कहा जाता है। अर्थात् किसी समय, स्थिति, विषय व प्रसंग
से जो संबद्ध हो, उससे मिलता-जुलता हो, उससे मेल खाता हो, वह प्रासंगिक। अंग्रेजी
में इसके लिए शब्द है – Relevent. · appropriate to current time, period or circumstances, of
contemporary interest. · connected with what is happening or being talked about. किसी साहित्यकार की प्रासंगिकता के विषय में सामान्यतः दो
संदर्भों में विचार किया जाता है। एक- साहित्यकार और उसका सृजन उस सर्जक के समय व
समाज यानी सर्जक के युगीन परिवेश से कितना, कहाँ तक और किस रूप में संबद्ध है। इस
दृष्टि से जब विचार करते हैं तो यही देखते है कि लगभग प्रत्येक सर्जक कहीं-न-कहीं,
किसी-न-किसी रूप में अपने समय से प्रभावित होता ही है, जिसके चलते वह अपने समय व
समाज से कटकर नहीं रह सकता। अतः उसकी रचनाओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसका
देशकाल रेखांकित होता ही है, जिससे साहित्यकार की अपने समय के संदर्भ में
प्रासंगिकता सिद्ध होती है। कहा गया है कि ‘‘साहित्यकार समाज और अपने युग को साथ
लिए बिना रचना कर ही नहीं सकता, क्योंकि सच्चे साहित्यकार की दृष्टि में साहित्य
ही अपने समय की अस्मिता की पहचान होता है।’’ प्रासंगिकता विषयक विचार जिस दूसरे
संदर्भ से जुड़ा है वह यह है कि गुजरे हुए समय का कोई साहित्यकार वर्तमान समय में,
सांप्रत समाज- स्थितियों से कितना और किस तरह से जुड़ता है, वर्तमान समय में उसका महत्त्व
व उपयोगिता कितनी ? इसे देखा जाता है। प्रासंगिकता से जुड़े इस संदर्भ के तहत पूर्ववर्ती
रचनाकारों को आज के समय-संदर्भ में परखा जाता है, इनका मूल्यांकन किया जाता है। इस
तरह प्रासंगिकता को एक कसौटी, एक मापदण्ड के रूप में लेकर रचनाकारों की वर्तमान
समसामयिकता और उपयोगिता को बताया जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रासंगिकता
और वो भी साहित्यकार की प्रासंगिकता से आशय है- जो अतीत में घटित-प्रकट या व्यक्त
हुआ वह आज से कितना संबद्ध है, उसकी आज कितनी अहमियत है, कितनी सामाजिक उपादेयता
है ? इन्हीं प्रश्र्नों के आधार पर अतीत के साहित्यकारों या साहित्यकार विशेष को
देखना है। प्रेमचंद की प्रासंगिकता संबंधी चर्चा में प्रासंगिकता से जुड़े उपरोक्त
दो संदर्भों में से दूसरे संदर्भ को आधार बनाकर प्रेमचंद की प्रासंगिकता को तलाश
ने का हमने यहाँ प्रयास किया है।
हिन्दी के ख्यातनाम कथा-लेखक मुंशी
प्रेमचंद का हिन्दी कृतित्व लगभग सन् 1915 के आसपास प्रारंभ हुआ और उनका निधन सन्
1936 । अतः उनके कृतित्व का युगबोध लगभग दो दशकों से भी ज्यादा समय की सामाजिक,
राजनीतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों को समेटता है। परतंत्र भारत के समाज का यथार्थ
चित्र हमें प्रेमचंद जी के कथासाहित्य में प्रतिबिंबित होते हुए दृष्टिगत होता है।
प्रश्न यह है कि लगभग 90-100 साल के बाद आज प्रेमचंद कितने और कहाँ तक प्रासंगिक
है ?
पिछले कुछ वर्षों से या यूँ कहिए कि
पिछले दो-तीन दशकों से हम देखते हैं कि कुछ नवीन दृष्टियों से साहित्य संबंधी
समीक्षात्मक व शोधपरक कार्य को ज्यादा वेग मिला है। जिन नवीन दृष्टियों से साहित्य
व साहित्यकारों को देखा-परखा जा रहा है उनमें एक दृष्टि है- प्रासंगिकता।
प्रासंगिकता की कसौटी पर किसी रचना या रचनाकार की उपयोगिता को रेखांकित किया जा
रहा है। शोध-समीक्षा के क्षेत्र में इस तरह के अध्ययन को आजकल ज्यादा महत्त्व दिया
जा रहा है। वैसे देखें तो अतीत के किसी भी साहित्यकार का वर्तमान में शत-प्रतिशत
प्रासंगिक होना संभव नहीं है। समय की गति व बदलाव का प्रवाह बहुत तेज होता है,
जिसके चलते बीते समय के किसी साहित्यकार या साहित्यकृति का पूरी तरह नवीन बने रहना,
समय के साथ, स्थितियों के साथ पूर्ण संबद्ध रहना मुश्किल है। बावजूद इसके हमें यह
नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्यता, मानवीय मूल्य-आदर्श, मनुष्य जीवन का मूलभूत सत्य,
मनुष्य जीवन के बुनियादी सवालों, सामाजिक अभिगम, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रीय एकता,
विश्वबंधुत्व की सद्भावना को लेकर चलने वाला साहित्यकार और जिसके साहित्य में कुछ
भविष्यवत् संभावनाएँ हो, मनुष्य के सुख व शांति के सपने हो, उसकी प्रासंगिकता कभी
समाप्त नहीं होती। क्या वाल्मीकि, व्यास, कबीर, तुलसी, सूर, प्रसाद, प्रेमचंद,
निराला जैसे रचनाकार कभी अप्रासंगिक हो सकते हैं। आलोचना जगत में साहित्यकारों की
प्रासंगिकता संबंधी चर्चा के इस नवीन मार्ग व इसकी उपयोगिता के संबंध में डॉ.
शिवकुमार मिश्र लिखते है- ‘‘हिन्दी में इधर महत्त्वपूर्ण रचनाकारों की युगीन
प्रासंगिकता तलाशने का फैशन सा चल पड़ा है। फैशन इसलिए कि बात अब गोस्वामी तुलसीदास
और सूरदास आदि तक ही सीमित न रहकर प्रेमचंद जैसे आधुनिक सोचवाले रचनाकारों तक आ गई
है। यों हमें इस बात को लेकर तनिक भी एतराज नहीं कि अतीत के महत्त्वपूर्ण
रचनाकारों की युगीन प्रासंगिकता पर चर्चा क्यों की जाती है। हम तो चाहते हैं कि
अतीत के रचनाकारों को ही क्यों, समूचे अतीत को और अतीत ही क्यों, तमाम तथाकथित
समकालीनों को भी, युग के ज्वलंत संदर्भ में बार-बार देखा और विश्लेषित किया जाए।
हमारे समाज में ऐसा इसलिए जरूरी है ताकि अतीत को संपूर्णतः नकारने और इस प्रकार
अपने को उससे पूरी तरह काट लेने की गलती न कर हम इसके सार्थक तथा प्राणवान अंश के
साथ अपनी पहचान कायम कर सके, उसे अपना हमसफर बनाते हुए अपनी यात्रा की अविच्छिन्नता
के प्रति आश्वस्त हो सके और इस प्रकार, इस भ्रम का निराकरण कर सके कि आधुनिकता
समकालीनता की पर्याय है।’’ (गोदान-विमर्श, सं. डॉ. ज्ञानचन्द गुप्त, पृ. 152)
हमने पहले भी यह बताया है कि प्रेमचंद
की प्रासंगिकता पर विचार करने का मतलब है आज से आठ-दस दशक पूर्व इस लेखक ने जो
बातें कही वे आज कितनी जरूरी व उपयोगी है। आज हम जिस समय को जी रहे है, उसकी
सच्चाई के साथ, उसके एक एक अंदाज के साथ, उसकी समस्याओं के साथ तथा उसके समाधान के
साथ प्रेमचंद और उनकी सर्जना का, प्रेमचंद के विचारों का संबंध कितना और किस तरह
का है। प्रेमचंद साहित्य में निरूपित यथार्थ क्या आज के समय का भी सच है ? तो
इन्हीं प्रश्नों और सरोकारों के इर्दगिर्द हमारी विचारयात्रा होगी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मुंशी प्रेमचंद
के कालजयी कथासंसार और इस संसार में गाँव, परिवार, शहर, किसान, मजदूर, नारी, शोषण,
देश-राष्ट्र, दलित-पीडित प्रभृति संदर्भों में दिखाई देने वाली मानवीय संवेदना की
गहरी अनुभूति आज भी इस लेखक को हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कथा लेखकों में परिगणित
कराती है। इस लेखक का ऐतिहासिक महत्त्व इस बात को लेकर है कि वे एक ऐसे स्वप्नदृष्टा
और दूरंदेशी रचनाकार थे जो निरंतर समय की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए आगे बढ़ते
रहे है। अपने समय में वे जितने प्रासंगिक थे उतने आज भी है। वेदप्रकाश अमिताभ के
मतानुसार-प्रेमचंद हिन्दी कथासाहित्य के एक बड़े रचनाकार है। विपुल अनुभव संपदा,
विराट विजन, सघन मानवीय संवेदना आदि कारणों से इनकी प्रासंगिकता आज भी बनी रही है।
प्रेमचंद और उनके साहित्य की
प्रासंगिकता को निम्नांकित बिन्दुओं के तहत
देखा जा सकता है –
·
प्रेमचंद साहित्य में निरूपित सामाजिक यथार्थ के अधिकांश
संदर्भ मौजूदा समय-समाज का भी सच
·
प्रेमचंद साहित्य की सामाजिक उपयोगिता (आज हम प्रेमचंद एवं
इनके चरित्रों से क्या सीखें ?)
·
समकालीन कथासाहित्य में व्याख्यायित व विवेचित कतिपय विमर्श
और प्रेमचंद
·
प्रेमचंद के विचार (कथेतर संदर्भ – भाषण एवं पत्र-पत्रिकाओं
में संपादकीय और टिप्पणियों से सम्बन्धित) की आज उपयोगिता
·
पत्रकारिता के प्रति प्रेमचंद की प्रतिबद्धता, समर्पणभाव व
मूल्यनिष्ठता आज की साहित्यिक पत्रकारिता के लिए भी एक आदर्श
·
समकालीन शोध-समीक्षा के क्षेत्र में प्रेमचंद साहित्य का महत्त्व
अपने समय के सामाजिक यथार्थ को प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में विस्तार से
चित्रित किया है। प्रेमचंदयुगीन इस यथार्थ का आज के यथार्थ से पूरी तरह मेल खाना
तो संभव नहीं है लेकिन इनके कथासाहित्य का प्लोट अधिकांश संदर्भों में वर्तमान
समय-समाज से किसी न किसी रूप में अवश्य ही जुडता है। इनके साहित्य की मूल संवेदना
आज भी पुरानी नहीं हुई है। कहानियों व उपन्यासों में चित्रित ऐसी कई समस्याएँ जो
आज की भी एक बड़ी सच्चाई कही जा सकती है। कहीं कहीं तो ये समस्याएं पहले से भी
ज्यादा गम्भीर होती जा रही हैं। ऐसे में हम प्रेमचंद को अपने समय में भी बहुत ‘फिट’
पाते है। लगता है प्रेमचंद आज भी हमारे समय की आवाज बने हुए हैं। प्रेमचंद मुख्यतः
गरीबों के पक्षधर थे। किसान, मजदूर, गाँव आदि को उन्होंने अपने लेखन का मुख्य विषय
बनाया जो एक क्रांतिकारी काम कहा जा सकता है। किसान जीवन, दलित वर्ग, नारी जीवन,
सांप्रदायिकता, ग्रामीण जीवन जैसे विषय और इससे संबद्ध विविध समस्याओं के संदर्भ
में हम वर्तमान समय में प्रेमचंद और इनके सामाजिक सरोकार, सामाजिक यथार्थ निरूपण
की प्रासंगिकता पर विस्तार से विचार कर सकते हैं।
हमारे समाज में किसान और नारी की दयनीय स्थिति का इतिहास बहुत पुराना है।
प्रेमचंद ने दोनों को लिया है। ‘निर्मला’ नारी जीवन की व्यथा-कथा है तो ‘गोदान’
कृषक जीवन की त्रासदी। नारी जीवन के संदर्भ में हम देखते हैं कि प्रेमचंद के यहाँ
नारी के अनेक रूप मिलते हैं। नारी जीवन की व्यथा, पीड़ा प्रकट होती है निर्मला के
माध्यम से, एक गरीब किसान परिवार की नारी का आक्रोश, इसकी तेजस्विता का प्रमाण है ‘गोदान’
की धनिया, तो इसी रचना में तितली जैसी नारी मिलती है मालती के रूप में तो ‘सेवासदन’
की नायिका का एक अलग रूप। इस तरह के नारी के कई रूप जो प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं
में लिए है, जिसे आज के समाज में भी ढूँढना मुश्किल नहीं होगा। दरिद्रता और भूख
मनुष्य को कितना अमानवीय बना देती है, ‘कफन’ की ये सच्चाई भी कहीं कहीं आज मिल
सकती है। बात दलित समाज की करें तो ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘दूध का दाम’, ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’
में सिलिया प्रसंग में जो स्थिति है उससे आज का समाज भी पूरी तरह से मुक्त नहीं
हुआ है।
‘गोदान’ उपन्यास में हमें ऋण के बोझ तले दबे, शोषण की चक्की में पीस रहे और एक
गाय की लालसा मन में ही लिए हुए मर रहे भारतीय किसान की कराह सुनाई देती है। इस
उपन्यास में जमींदार, महाजन एवं पुरोहित वर्ग का किसान के साथ शोषक-शोषित वर्गीय
संबंध को प्रेमचंद बहुत गंभीरता व विस्तार से उजागर करते हैं। यहाँ तक कि पटवारी,
कारींदे, थानेदार द्वारा भी किसान को खूब लूटा जाता है। इसलिए तो प्रेमचंद किसान
को सबका नरमचारा कहते है। अब विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या आज किसान वर्ग की
स्थिति में कुछ खास सुधार हुआ है ? क्या पहले से बेहतर जीवन वह जी रहा है ? इन
प्रश्नों पर जब विचार करते हैं तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आज भी किसान का
एक वर्ग ऐसा है जो दयनीय जीवन जी रहा है। आज भी कहीं न कहीं शोषित रूप में उसकी
पहचान बनी रही है। ‘‘किसानों की जो त्रासदी ‘गोदान’ में है, वह आज भी विद्यमान है।
स्वतंत्रता के 33 वर्ष बाद (आज भी) भी भारतीय ग्रामों में होरी, धनिया, गोबर भरे पड़े
हैं और पुराने जमींदारों की जगह नये भूपति स्थापित हो गये हैं। यह नहीं कि कोई
विकास नहीं हुआ है, हुआ है किंतु भारतीय कृषकों में कुल मिलाकर गरीबी, असहायता,
उत्पीड़न, शोषण बढ़ा है क्योंकि विकास का लाभ उन्हें मिला है, जो लाभ उठाना जानते
हैं या समर्थ है। गोदन का होरी आज भी यथावत् है।’’ (डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय का
मत, गोदान विमर्श, सं. ज्ञानन्द गुप्त, पृ. 275)
आज शोषण के रूप बदले हैं, शोषण के तरीके बदले हैं, शोषण के हथियार बदले हैं,
अतः कह सकते हैं कि किसान की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हुआ। अभी कुछ समय पहले
हमारे एक मित्र ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट रखी थी, जिसमें उनके किसान पिता ने
उन्हें बताई गई बात का उल्लेख करते हुए आज के किसान जीवन की वास्तविकता से हमें
अवगत कराया। ‘‘पिताजी ने आज एक और बात कही-खेत में फसल लहलहाती है तो किसान का ही
नहीं, साहूकारों का मन भी लहलहाता है। ग्रामीण समाज का अनुभव भी यही है। सदी बदली
है, परिस्थितियाँ नहीं। लूटेरों ने सिर्फ रंग बदला है, इरादा नहीं। किसानों और
साहूकारों में घात-प्रतिघात जारी है। फसलों की हरियाली ज्यादा खुश नहीं होने दे
रही। चुनावों का साल है, दैवी भगौती भी फसलों पर नजर गड़ाए है। देखिए-दाने घर आ भी
पाते हैं कि नहीं। रूपा के हाथ पीले हो भी पाते हैं या नहीं ?’’
‘गोदान’ का शोषित किसान भाग्यवादी है साथ ही आपसी वैमनस्य, अशिक्षा, बँटवारे,
संकीर्णता, स्वार्थपरता आदि के चलते उसकी दुर्दशा में वृद्धि होती है। इस उपन्यास
में लेखक ने गोबर के माध्यम से भावी संघर्ष का जो संकेत किया है जो वर्तमान में सच
साबित हो रहा है।
हिन्दू समाज में सदियों से चली आ रही एक कलंकरूपी अछूत समस्या को प्रेमचंद जी
ने अपने ‘कर्मभूमि’ व ‘गोदान’ उपन्यास में लिया है। अपनी और भी कई रचनाओं में दलित
जीवन के विविध पक्षों को प्रेमचंद ने प्रस्तुत किया है। गोदान में सिलिया चमारिन
और मातादीन के प्रसंग में हम देखते हैं कि दलितों के हाथ से छुए भोजन-पानी से
दातादीन जैसे पंडितों का धर्म भ्रष्ट हो जाता है पर दलित स्त्रियों से संबंध रखने
में धर्म आड़े नहीं आता। साथ ही इस उपन्यास में लेखक ने दलितों में आई चेतना और
अन्याय-अत्याचार के खिलाफ उठी उनकी आवाज को भी बताया है। ‘‘इस तरह गाँव की मरजाद
बिगडने लगी तो किसी की आबरू नहीं बचेगी। मातादीन ने सिलिया की इज्जत बिगाडी है। हम
या तो उसे चमार बनाकर छोडेंगे या फिर तुम सिलिया को ब्राह्मण बनाओ, उसके हाथ का
छूआ खाओ-पीओ, उसके साथ उठो-बैठो’’ (गोदान) दलितों में चेतना इस हद तक जागृत होती
है कि इकठ्ठे हुए सभी चमारों ने मातादीन के मुँह में हड्डी का टुकडा डालकर उसके
बनावटी धर्म की जड ही काट दी।
सभी वाद-विचारधाराओं से ऊपर मनुष्यता और सिर्फ मनुष्यता को ही महत्त्व देने
वाला साहित्यकार धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण के भेदभाव का विरोधी होता है। इस
विचारधारा व संवेदना का सर्जक सांप्रदायिक वैमनस्य का सख्त विरोध करते हुए
सांप्रदायिक सद्भावना, विविध धर्मों व संप्रदायों में भाईचारा का प्रबल समर्थन करता
है। प्रेमचंद का साहित्य इस बात का भी प्रमाण है कि यह लेखक हिन्दू-मुस्लिम एकता
का समर्थक था। इनके साहित्य में मुस्लिमपात्र, सांप्रदायिक दंगों की बीभत्सता और बहशीपन,
सांप्रदायिक वैमनस्य का विरोध, हिन्दू मुस्लिम एकता, कुछ ऐसे पात्र जो
हिन्दू-मुस्लिम के रूप से ज्यादा मनुष्य रूप में ही अपनी पहचान रखते है। ‘‘प्रेमचंद
ने अपने कथासाहित्य के द्वारा यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया कि हमें आपस में
मजहबी नफरत से ऊपर उठकर प्रगति के मार्ग पर चलने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
प्रेमचंद ने अपने कथासाहित्य में हिंदू-मुस्लिम संबंधों को नवीन स्तर पर
व्याख्यायित किया है। इनकी कृतियों में हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के पूरक है और
दोनों के आपसी संबंध मधुर हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों
के सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप को स्पष्ट किया है।’’ (प्रेमचंद के
कथासाहित्य में सांप्रदायिकता सौहार्द, डॉ. श्रुति रंजना मिश्र, गगनाचंल, पत्रिका,
सितम्बर-अक्तूबर-2014, पृ. 57)
भ्रष्टाचार के दूषण का व्याप आज समाज के हर क्षेत्र में बढ़ रहा है।
भ्रष्टाचार के संदर्भ में जब हम प्रेमचंद के कथासाहित्य का अवलोकन करते हैं तो
इनकी अनेकों रचनाओं में ये समस्या भी दृष्टिगत होती है। ‘सवासेर गेहूँ’, ‘नमक का
दारोगा’, ‘गरीब की हाय’, ‘अँधेर’, ‘बलिदान’, ‘ब्रह्म का स्वांग’, ‘विषम समस्या’
जैसी और भी कई कहानियाँ मिलती हैं जिसमें किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार के
संदर्भ हैं।
प्रेमचन्द के कथासाहित्य में कथ्य का विराट, व्यापक व वैविध्यपूर्ण वितान मौजूद है। जमीन से जुड़े
इस लेखक के लेखन में जमीन, जीवन व समाज के वास्तविक रूप रंग चित्रित है। दलित,
पीड़ित, शोषित व अभावग्रस्त को प्रेमचंद जी ने अपनी रचनाओं में विशेष स्थान
दिया।स्त्री, किसान, मजदूर व दलित जीवन की विविध समस्याओं तथा अन्य सामाजिक
मुद्दों तथा मानवजीवन के प्राणप्रश्नों को प्रेमचंदजी मानो एक समाजशास्त्री की
दृष्टि से देखते है और विश्लेषित करते है। प्रेमचंद के कथासाहित्य के कथ्य पक्ष के
अंतर्गत ऊपर किसान, नारी, दलित, ग्रामीण जीवन, सांप्रदायिक, भ्रष्टाचार संबंधी
चर्चा के पश्चात हम यह कह सकते हैं कि ये सामाजिक यथार्थ आज के समय व समाज से भी
जुड़ता है। कहने का आशय यह कि कथ्य वैविध्य, विजन और चरित्र सृष्टि को लेकर प्रेमचंद
तथा उनके साहित्य की प्रासंगिकता आज भी बनी रही है।
प्रेमचंद की विचारधारा (कथासाहित्य के संबंध में), उनके चरित्रों, उन चरित्रों
का संघर्ष व समस्याएँ तथा समस्याओं के प्रस्तुत किए गए समाधान से आज हम क्या सीखें
? इसकी उपयोगिता क्या ? इन प्रश्नों पर विचार करने के पश्चात हम यह कह सकते है कि
आज भी हम, हमारा समाज प्रेमचंद से बहुत कुछ सीख सकता है। जीवनोपयोगी उचित
मार्गदर्शन मिल सकता है, बहुत से प्रश्नों का हल मिल सकता है। संघर्ष
करने-चुनौतियों से लड़ने का बल मिल सकता है। मनुष्यता, मानवीय मूल्यों व आदर्शों,
दलित चेतना, स्त्री की व्यथा व जागरूकता, हिन्दू-मुस्लिम एकता, सांप्रदायिक
भाईचारा जैसे कई मुद्दे हैं जो प्रेमचंद को आज के समय-संदर्भ से भी जोड़ते हैं। आज
भी प्रेमचंद का साहित्य हमारी चिंता व चितंन का आधार बनता है। शोषित समाज के प्रति
सहानुभूति पैदा करता है। मूल्यपरक शिक्षा भी देता है। जीवन के अंधकार में आशा के
एक टिमटिमाते दीपक का काम इस लेखक का साहित्य करता है। गोदान, निर्मला, रंगभूमि
आदि उपन्यास, ठाकुर का कुआँ, दूधका दाम, बड़े घर की बेटी, ईदगाह जैसी अनेक
कहानियों उक्त बात पर खरी उतरती है। गोदान में दलित शोषण व दलित चेतना, निर्मला की
स्त्री त्रासदी, रंगभूमि का सूरदास, गोदान का गोबर और धनिया, ईदगाह का हामिद, बडे
घर की बेटी वगैरह का प्रभाव व उपयोगिता आज भी बनी रही है।
‘रंगभूमि’ का सूरदास एक ऐसा चरित्र है जो हार-जीत की चिंता किए बिना जीवन में
अपने कर्म-कर्तव्य को ही महत्त्व देता है। ‘‘सूरदास के चरित्र की दृढ़ता मिठुआ से
उसकी बातचीत में भी झलकती है। भैरों जब सूरदास का झोंपडा जला देता है तब मिठुआ
पूछता है-
मिठुआ- दादा, अब हम रहेंगे कहाँ ?
सूरदास-तो फिर बनाएँगे।
मिठुआ-और फिर लगा दे ?
सूरदास – तो हम भी फिर बनाएंगे।
मिठुआ – और जो कोई हजार बार लगा दे ?
सूरदास – तो हम हजार बार बनाएंगे।’’ (युगनिर्माता प्रेमचंद तथा कुछ अन्य
निबंध, डॉ. पारूकांत देसाई, पृ. 77)
एक आस्थावादी सर्जक अपने इस ‘रंगभूमि’ उपन्यास के माध्यम से संदेश देते हैं-
जीवन एक खेल है, इसे खेलो, हारो तो घबराओ नहीं, जीतो तो घमंड में चूर न हो।
प्रेमचंद की प्रासंगिकता इस संदर्भ में भी देखी जा सकती है कि इस लेखक ने अपनी
विचारधारा, रचनाओं के लिए चयनित विषयवस्तु एवं भाषा शैली से अपने समकालीन एवं
परवर्ती लेखकों को प्रभावित व प्रेरित किया। परवर्ती लेखकों में रेणु, नागार्जुन,
भैरवप्रसाद गुप्त, शैलेश मटीयानी के अलावा पिछले दो-तीन दशकों की समयावधि के कई
ऐसे हिन्दी कथालेखक है जिन्हों ने प्रेमचंद की परंपरा का न मात्र अनुगमन किया
बल्कि प्रेमचंद परंपरा का विस्तार भी किया। इस तरह हमारा समकालीन हिन्दी
कथासाहित्य, इक्कीसवीं सदी का कथासाहित्य प्रेमचंद की विचारधारा, इनकी संवेदना,
सामाजिक यथार्थ के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। प्रेमचंद की किसान जीवन को
निरूपित करने वाली बेमिशाल औपन्यासिक कृति गोदान है और इसी संवेदना की इक्कीसवीं
सदी की संजीव की रचना ‘फाँस’ है। हरियशराय तथा भगवानदास मोरवाल का लेखन भी हमें
कहीं न कहीं प्रेमचंद को याद कराता है।
पिछले दो-तीन दशकों से हिन्दी कथासाहित्य में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का
प्रवाह ज्यादा तेज है। इन उभय विमर्शों की गूंज प्रेमचंद साहित्य में भी सुनाई
देती हैं। ‘रंगभूमि’ का नायक सूरदास तथा ‘गोदान’ में सिलिया से जुड़े प्रसंग में
दलित विमर्श व दलित चेतना की झलक मिलती है। ‘‘प्रेमचंद अपने कथासाहित्य में दलित
और स्त्री को उसके गौरवशाली और संघर्षों के सबसे सशक्त पात्रों के रूप में चित्रित
करने के कारण दलित और स्त्री विमर्श के भी प्रतिनिधि भारतीय कथाकार के रूप में
उभरकर सामने आते है। गोदान की दलित पात्र सिलिया या किसान स्त्री धनिया, ठाकुर का
कुआँ का दलित पात्र जोखू हो या फिर या रंगभूमि का दलित पात्र सूरदास और सुभागी या
ईसाई स्त्री पात्र सोफिया, ये सभी पात्र प्रेमचंद की दलित व स्त्री संघर्षों के
प्रति सक्रीय सकारात्मक दृष्टि के परिचायक है।’’
प्रेमचंद ने कथासाहित्य लेखन के साथ-साथ साहित्य के उद्देश्य एवं उसके विविध
पक्षों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया था। साथ ही सांप्रदायिकता, किसान, दलित प्रभृति
विषयों पर विचार इनके भाषणों तथा पत्र-पत्रिकाओं के संपादकीय तथा टिप्पणियों में
देखे जा सकते हैं। प्रेमचंद के ये विचार आज भी प्रासंगिक कहे जा सकते हैं।
प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन के उद्घाटन के अवसर पर प्रेमचंद के व्याख्यान
के कुछ अंश- ‘‘जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न
मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें
सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करें, वह आज
हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं.....’’
‘‘जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है, चाहे वह व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत
और वकालत करना उसका फर्ज है।’’ (व्याख्यान से.... साहित्य का उद्देश्य)
सांप्रदायिकता की समस्या संबंधी प्रेमचंद के विचार भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। ‘‘प्रेमचंद
सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे। वे उन सांप्रदायिक मानसिकता से बिलकुल मुक्त थे
जो मुसलमानों को विदेशी और हिन्दू विरोधी समझती थी। उन्होंने हिन्दी उपन्यास को उस
संकीर्ण विचारधारा से मुक्त करने का प्रयास किया जिसके तहत मुसलमान पात्रों को
काले और हिन्दू पात्रों को सफेद रंग में चित्रित किया जाता था।... प्रेमचंद समाज
के जिस वर्ग में भी सांप्रदायिकता, धार्मिक उन्माद और पाखंड़ देखते हैं उस पर
निर्मम प्रहार करते है। इस प्रसंग में वे हिन्दू, मुसलमान या ईसाई किसी के प्रति
कोई रियायत नहीं करते। वे अपने लेखों और सांप्रदायिक टिप्पणियों में उन सभी तत्वों
की निंदा करते है जो सांप्रदायिक भावनाओं को उभारने की कोशिश करते है। सांप्रदायिक
दंगों की बीभत्सता और बहशीपन का चित्र प्रस्तुत करने के साथ-साथ प्रेमचंद उनके मूल
कारणों का विश्लेषण भी करते हैं।’’ (हिन्दी उपन्यास का इतिहास, गोपालराय, पृ. 138)
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में भी प्रेमचंद का बहुमूल्य
योगदान रहा है। प्रासंगिकता तथा साहित्यिक पत्रकारिता को दिशानिर्देश करने के
संदर्भ में प्रेमचंद के पत्रकारिता से संबद्ध कर्म का विशेष महत्त्व है। प्रेमचंद
की विचारधारा, इनके कथासाहित्य की संवेदना तथा कथ्य वैविध्य के अतिरिक्त
पत्रकारिता के क्षेत्र में इनके योगदान के संदर्भ में भी इनकी प्रासंगिकता पर
विचार किया जा सकता है। प्रेमचंदजी ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ के संपादन से जुड़े थे। अपनी
आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के बावजूद वे इन दोनों पत्रों का संपादन घाटा उठाकर भी
करते थे। ‘हंस’ से जुड़े एक ऐसे प्रसंग की जानकारी मिलती है, जिसमें इस सर्जक की
पत्रकारिता के प्रति प्रतिबद्धता व समर्पण भावना बखूबी स्पष्ट होती है जिसे आज की
पत्रकारिता के लिए भी आदर्श कहा जा सकता है। ‘‘प्रेमचंदजी की आर्थिक स्थिति निरंतर
गिरती गई, आखिरकार 4 जुलाई, 1936 को ‘हंस’ का संपादन भार भारतीय साहित्य परिषद ने
ले लिया। उन्हीं दिनों शेठ गोविंददास का एक नाटक ‘स्वातंत्र्य सिद्धांत’ हंस में
प्रकाशित हुआ था, जिससे ‘हंस’ ब्रिटिश शासन का कोपभाजन हुआ। ‘हंस’ से एक हजार रूपए
की जमानत माँगी गई। साहित्य परिषद ने पत्र को ही बंद कर दिया। प्रेमचंदजी उछल पड़े
कि भारतीय परिषद को बिना प्रेमचंदजी की सम्मति के ‘हंस’ बंद करने का अधिकार नहीं
है, ‘हंस’ तो मेरा तीसरा बेटा है, अतः उन्होंने शिवरानी से कहा, रानी तुम हंस की जमानत
भर दो, जाहे मैं रहूँ या न रहूँ, हंस चलेगा। यदि मैं जिन्दा रहा तो सब प्रबंध कर लूँगा,
यदि मैं चल दिया तो मेरी यादगार होगी।’’ (युगनिर्माता प्रेमचंद तथा कुछ अन्य
निबंध, डॉ. पारूकान्त देसाई, पृ. 77)
आज शोध व समीक्षा के क्षेत्र में काफी विस्तार एवं वैविध्य दिखाई देता है।
नये-नये विषयों व सर्जकों का चयन करके विपुल मात्रा में शोध कार्य हुआ है और हो
रहा है। नवीन साहित्यकारों के चयन के साथ-साथ गुजरे समय के भी कई ऐसे रचनाकार हैं
जिनके साहित्य ने आज भी शोध-समीक्षा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाये रखा है।
कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, नागार्जुन, मुक्तिबोध प्रभृति लेखक कवियों के लेखन को
लेकर शोध-समीक्षा के नये-नये क्षितिज आज भी खुलते जा रहे हैं। हिन्दी कथासाहित्य
विषयक शोध-समीक्षा के क्षेत्र में प्रेमचंद को ज्यादा जगह मिली है। हिन्दी कथासाहित्य
के इस प्रमुख हस्ताक्षर का साहित्य आज भी सैकड़ों कथा लेखकों के Fiction Literature में अपना सर्वोच्च एवं सर्वोपरी स्थान बनाये रखते हुए शोधार्थियों व समीक्षकों
को आकर्षित करते रहा है। नयी-नयी दृष्टियों से, विविध विमर्शों के निकष पर
प्रेमचंद के लेखन का विवेचन-मूल्यांकन हो रहा है। प्रेमचंद के विचार, प्रेमचंद का
कथासाहित्य, प्रेमचंद की पत्रकारिता, प्रेमचंद की कृतियों पर बनी फिल्में,
प्रेमचंद साहित्य में ग्राम्य संस्कृति, टोल्सटॉय, गोर्की, मन्टो, चेखव जैसे
विश्वविख्यात सर्जकों के साथ प्रेमचंद को रखकर, भारतीय भाषाओं के बड़े कथालेखकों
के साथ प्रेमचंद जी की तुलना जैसे विषयों पर समीक्षकों-शोधार्थियों की कलम बराबर
चलती रही है। इस तरह शोध-समीक्षा के अनेकों ग्रंथों एवं आलेखों में प्रेमचंद का
वैशिष्ट्य, महत्ता एवं महानता को रेखांकित किया गया है और यह कहना भी अतिशयोक्ति
नहीं होगा कि यह सिलसिला तबतक चलता रहेगा जबतक हिन्दी कथा साहित्य को कोई और
प्रेमचंद लेवल का लेखक नहीं मिलता।
प्रेमचंद सम्बन्धी समीक्षा का एक पक्ष ऐसा भी है, जो कि इस पक्ष से जुड़े
अध्येता बहुत ही कम, कुछ गिनेचुने ही है, जिस में प्रेमचंद के कथासाहित्य में कुछ
कमियाँ-खामियाँ ढूंढने का प्रयास किया गया है। कतिपय रचनाकार, संपादक एवं समीक्षक
ऐसे हैं जिन्होंने प्रेमचंद की महानता व महत्ता को कम आंकते हुए कई प्रश्न उठाये
है, कुछ आरोप-आक्षेप लगाये हैं। इस प्रेमचंद-विरोधी स्वर निम्न बिंदुओं को लेकर
उठा है।
·
प्रेमचंद के साहित्य में व्यापकता तो है पर गहराई नहीं।
·
प्रेमचंद घृणा के प्रचारक थे।
·
प्रेमचंद के साहित्य में समाज की प्रमुखता है, व्यक्ति की उपेक्षा।
·
मनुष्य के बाहरी जीवन के चित्रण पर बल और आंतरिक अनुपस्थिति।
·
पात्र की सामान्यता और प्रतिनिधिकता तो व्यक्त होती है पर वैयक्तिक विशिष्टता
नहीं दिखाई देती।
·
प्रेमचंद के साहित्य में चित्रित दलित जीवन एवं स्त्री जीवन को लेकर भी कुछ
लोगों की शिकायत है।
मुद्राराक्षस, डॉ. धर्मवीर, रत्नकुमार सांभरिया जैसे कुछ विद्वानों को
प्रेमचंद साहित्य को लेकर कुछ शिकायतें है। विशेषतः प्रेमचंद साहित्य में निरुपित
दलित जीवन के संदर्भ में। धर्मवीर की पुस्तक- प्रेमचंद सामंत का मुंशी। इस तरह
रत्नकुमार सांभरिया ने भी (मुंशी प्रेमचंद और दलित समाज) प्रेमचंद की दलित संदर्भित
कहानियों तथा इनके साहित्य में निरूपित सामाजिक यथार्थ, ग्रामीण छवि को लेकर कुछ
टिप्पणियाँ लिखी है। इस विद्वान महोदय ने तो यहाँ तक कह दिया कि - ‘‘प्रेमचंद को
साहित्य जगत में मूर्ति मान लिया गया। मूर्ति के प्रति सिर्फ आस्था ही प्रकट की जा
सकती है। उसके चरित्र, अस्तित्व, आकार-प्रकार औऱ नखशिख की आलोचन करने वाला विधर्मी
माना जाता है। दरअसल प्रेमचंद को आज तक आराधना की दृष्टि से पढ़ा गया हैं। आलोचना
की दृष्टि से उनके लेखन का अध्ययन नहीं हुआ। यदि उनके सृजन में आई अपरिपक्वता,
अव्यावहारिकता, खामियाँ, पाखंड, ईश्वरवाद और उनके कट्टरपंथी बाना पर शोध कार्य हो
तो इसके आउटपुट से कई किताबें निकल सकती हैं।’’ (मुंशी प्रेमचंद और दलित समाज,
रत्नकुमार सांभरिया, पृ. 80)
प्रेमचंद विषयक इस तरह की टिप्पणियों के संदर्भ में सबसे पहले तो यही कह सकते
हैं कि ये अध्येताओं की अपनी सोच है, अपना नजरिया है। दूसरी बात यह बता सकते हैं
कि विश्व में ऐसा तो कौन सर्जक होगा कि जिनका सृजन पूरी तरह से निर्दोष हो। सर्जक
आखिर है तो इन्सान, ईश्वर नहीं। असल में प्रेमचंद के साहित्य की गुणवत्ता के सामने
कुछ लोगों का ये दोष-दर्शन कोई मायने नहीं रखता। इससे प्रेमचंद की महत्ता और
प्रासंगिकता कतई कम नहीं होगी।
प्रेमचंद विरोधी इस तरह के सवालों का तर्कसंगत उत्तर देते हुए कई विद्वानों ने
प्रेमचंद के कद्दावर साहित्यिक व्यक्तित्व को छोटा नहीं होने दिया। प्रेमचंद के
साहित्य में विस्तार है गहराई नहीं इस आरोप को लेकर नामवरसिंह ने (प्रेमचंद की
प्रासंगिकता विषयक डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ की नामवरसिंह से हुई बातचीत में) कहा कि
जो व्यापक होगा उसमें गहराई होगी ही और जो गहरा होगा वहां व्यापकता भी होगी। इस
संदर्भ में आगे उन्होंने प्रेमचंद जी के कहानी संग्रह मानसरोवर के शीर्षक को याद
करते हुए कहा कि मानसरोवर गहरा है, उथला नहीं। प्रेमचंद के साहित्य में सागर की
व्यापकता और मानसरोवर की गहराई भी है। इस बातचीत में नामवरसिंह ने प्रेमचंद के
कथासाहित्य में नारी के अनेकों रूपों की चर्चा की और दलित संदर्भ की भी। साथ ही इन्होंने
यह भी बताया कि प्रेमचंद सर्वोदय की भावना के लेखक थे।
असल में आज भी पूरे भारत में और भारत बाहर वैश्विक स्तर पर भी प्रेमचंद की
ख्याति है। इस बड़े रचनाकार के लेखन में कतिपय दोष ढूँढने, उन पर प्रश्न-चिह्न
लगाने से इनकी महत्ता को कोई फर्क नहीं पड़ता। हिन्दी कथासाहित्य में प्रेमचंद का
स्थान सर्वोपरी है और रहेगा। इस युगदृष्टा कथालेखक ने सिर्फ अपने समय एवं युग को
ही प्रभावित नहीं किया बल्कि आगे के समय व युग के लिए भी वह पथ प्रदर्शक बने रहे
है। अपनी मृत्यु के 85 साल बाद और जन्म के 141 साल बाद भी मुंशी प्रेमचंद
हिन्दी के सबसे लोकप्रिय कथालेखक बने रहे हैं।
डॉ. हसमुख परमार
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर
जिला- आणंद (गुजरात) – 388120
Excellent work
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद आज भी हमारे हमसफर रहे है.... इसमें कोई संदेह नही।
जवाब देंहटाएंबहुत ही विस्तृत, तार्किक एवम सारगर्भित आलेख। बधाई 💐
प्रेमचंद जी ❤️
जवाब देंहटाएंसराहनीय !!
जवाब देंहटाएं👏👏👏👏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति सर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही विस्तृत, तार्किक एवम सारगर्भित आलेख। बधाई 💐
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