भ्रष्टाचार को
उजागर करती प्रेमचंद की कहानियाँ
डॉ.
मायाप्रकाश पाण्डेय
भ्रष्टाचार आज हमारे समाज में,
देश में इस कदर घुलमिल गया कि उसे दूर कर पाना या उससे दूर हो पाना बहुत मुश्किल
है। जो समस्या समाज में घटित होती है उसका चित्रण साहित्य में अवश्य होता है। आप
प्रबुधजन हैं तो देख ही रहे होंगे कि विश्व महामारी कोरोना पर कवितायें,
कहानियाँ सामने आने लगी हैं। वह दिन दूर नहीं जब उपन्यास,
नाटक भी लिखे जाएँगे या लिखे जा रहे होंगे। इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा
जाता है। भ्रष्टाचार को इस रूप में समझा सकता है- ‘भ्रष्ट:
आचार: य: सा भ्रष्टाचार:।’ अर्थात
जो आचार,
व्यवहार नीतिच्युत हो गया है,
उसे भ्रष्टाचार कहा जाता है और ‘भ्रष्ट:
आचार: यस्य सा भ्रष्टाचारी’
अर्थात जिस व्यक्ति का आचार,
व्यवहार नीति-नियम के अनुसार नहीं होता है,
जो अपने पथ से भ्रष्ट हो जाता है,
वह व्यक्ति भ्रष्टाचारी कहलाता है।
भ्रष्टाचार आज हमारे समाज की,
देश की प्रमुख समस्या बन गया है। भ्रष्टाचार रूपी राक्षस धीरे-धीरे हमारे समाज को,
देश को निगलता चला जा रहा है। वह इसे दीमक की तरह खोखला कर रहा है। देश की अधिकांश
जनता इसका भोग बन रही है। कहने की
आवश्यकता नहीं है कि आज अधिकांश दफ्तरों का कोई भी काम बिना कुछ लेन-देन के संपन्न
नहीं हो रहा है। यदि इमानदारी से किसी काम को करवाने जाते हैं तो कितने धक्के खाने
पड़ते हैं और कितना समय नष्ट होता है,
इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। आज छोटे से छोटे मुहकमे से लेकर बड़े से बड़े तक
भ्रष्टाचार अपना पग पसार चुका है। इसका आकार मच्छर से लेकर हाथी और हाथी से भी
बड़ा है। एक चपरासी 50 रूपये में मान जाता है तो बड़ा अधिकारी लाखों में बातें
करता है। जब तक फाइल के ऊपर कुछ वजन न रखा जाय तब तक वह आगे नहीं बढ़ पाती। भ्रष्टाचार
आज अपनी हदें पार करता नजर आ रहा है।
भ्रष्टाचार को बढ़ावा हमारे समाज से
ही मिलता है। आज लोगों के पास समय नहीं है,
उन्हें जल्दी से अपना काम करवाना है, दो
दिन की छुट्टी बिगाड़ने के बजाय यदि कुछ ले-देकर एक दिन में काम हो जाता है तो वह
उसे करना चाहता है और कहता है कि यह उसकी विवशता
है। घूस लेने वाले की आदत बिगड़ती जाती है और वह बिना कुछ लिए किसी गरीब का भी काम
नहीं करना चाहता। जिसके पास देने को कुछ नहीं है,
वे बेचारे दर-दर की ठोकरें खाते रहते हैं। भ्रष्टाचार
को नाबूद करने की बेचारी सरकार की अपनी विवशता है,
क्योंकि कहीं ना कहीं उसकी कड़ी जुड़ी हुई होती है। हर पाँच साल में चुनाव आता है
जिसमें करोड़ों का औपचारिक या अनौपचारिक रूप से खर्च होता है। चुनाव के लिए सरकार
का सीमित बजट होता है तो उसके पास इतना पैसा कहाँ से आता है?
जो लोग या संगठन जिन लोगों या पार्टियों को आर्थिक सहयोग प्रदान करते हैं,
समय आने पर वह उसे वसूल भी करना चाहते हैं। यह वसूली सीधे-सीधे तो हो नहीं सकती,
इसके लिए कहीं ना कहीं,
कोई ना कोई गड़बड़ करनी पड़ती है। यह गड़बड़ ही भ्रष्टाचार को जन्म देती है।
सरकार ‘नरो
वा कुंजरो वा’
की स्थिति में अपने आपको बचाने के लिए सीधे सरल ढंग से भ्रष्टाचार विरोधी लचर-पचर कानून
बनाकर मुक्त हो जाना चाहती है। जिससे न साँप मरता है और न ही लाठी टूटती है। कानून
बहुत प्रभावशाली हो किंतु उसका पालन करने वाला ही ढीला-ढाला हो तो उस प्रभावशाली
कानून का क्या करना। कानून बनने से पहले उसमें से बचने के उपाय ढूंढ लिए जाते हैं।
इसलिए कानूनी दायरे में बहुत कम लोग आ पाते हैं। अक्सर यह भी देखा जाता है कि 5
लाख लेने वाला व्यक्ति खुलेआम घूमता है और 500 रूपये लेने वाला पकड़ा जाता है और
सजा काटता है,
यह कैसी विडंबना है।
यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि
आज देश की छवि को ये घोटालेबाज ही बिगाड़ रहे हैं। हमारे देश में घोटाले की एक
श्रृंखला बनती जा रही है और उस श्रृंखला की हर आने वाली कड़ी बड़ी ही होती जा रही
है। चारा घोटाला,
तहलका कांड से लेकर टू. जी. स्पेक्ट्रम से होते हुए कामनवेल्थ घोटाले से गुजरते
हुए घोड़ा कांड की सवारी करते हुए बहुत दूर तक जाया जा सकता है। मेरी ‘नेता’
पर लिखी कविता की चंद पंक्तियाँ
इस संदर्भ में देखी जा सकती हैं-
“जड़ता
के वशीभूत हो,
करता
रहा घोटाला।
हार
नहीं मानी मैंने,
चलता
रहा हवाला।.....
पकड़
नहीं पाए मुझको,
देश
के तुर्रमखांओं (सी.बी.आई.) ने।
किया
बंद जेलों में मुझको,
बाल
न बाँका कर पाए।”1
इतना ही नहीं आगे तो वे भ्रष्टाचार की
हद ही पार कर जाते हैं,
यथा-
“खून
चूस इस मिट्टी का,
भरता
रहा हूँ पेट।
काट
पेट लोगों ने अपना,
देते
रहे हैं भेंट।”2
देश के विकास के नाम पर सरकारें विश्व
बैंक से करोड़ों,
अरबों रूपए कर्ज लेती हैं और उसमें से कितने रूपए विकास के काम में खर्च होते हैं
बताने की आवश्यकता नहीं है, हम
सभी जानते हैं। सरकार यदि थोड़ा-सा कड़ा रुख अख्तियार करे और तमाम घोटालेबाजों को
पकड़ कर उनसे पैसे निकलवाए जैसाकि विजय माल्या और नीरव मोदी के साथ सरकार कड़ाई से
पेश आ रही है। इसी तरह विदेशों में जमा भारतीय धन को भारत में वापस लाया जाए तो
शायद जहाँ तक मैं समझता हूँ देश के विकास के लिए उसे विश्व बैंक से कर्ज नहीं लेना
पड़ेगा और देश का सही मायने में विकास हो सकेगा,
साथ ही देश पूर्णरूपेण आत्मनिर्भर बन सकेगा।
सरकार गरीबों के उत्थान के लिए ‘नरेगा’
जैसी तमाम योजनाएँ बनाती है,
करोड़ों रूपए खर्च करती है। उसमें से गरीबों के पास तक एक चौथाई हिस्सा भी नहीं पहुँच
पाता,
तीन चौथाई हिस्सा बीच में ही गायब हो जाता है। इसी संदर्भ में एक बार हमारे देश के
भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने कहा था कि ‘हम
दिल्ली से गरीबों के लिए जब एक रूपए भेजते हैं तो उन तक मात्र 25 पैसा ही पहुँच पाता
है।’ यह बड़े दुख की बात
है कि भारत का प्रधानमंत्री यह देख रहा है,
अनुभव कर रहा है कि चोरी हो रही है,
किंतु चोर को पकड़ पाने में वह लाचार है,
बेबस है तो सामान्य आदमी की क्या विसात है?
भ्रष्टाचार से त्रस्त भारत की इससे बड़ी दयनीय स्थिति और क्या हो सकती है?
भ्रष्टाचार पर मेरी कुछ काव्य-पंक्तियाँ अवलोकनार्थ
प्रस्तुत हैं-
“भ्रष्टाचार
रूपी रावण
मन
में छल कपट लिए,
घूम
रहा है,
ईमानदारी
रूपी लक्ष्मण रेखा के आसपास।
जैसे
ही ईमानदारी रूपी सीता,
करती
है पार लक्ष्मण रेखा,
भ्रष्टाचारी
रावण,
सीता
रूपी आदमी को,
कर
लेता है बस में अपने।
फिर
तो वह आदमी,
लोभ
में फँस कर,
कर
देता है समर्पित अपने आपको,
भ्रष्टाचार
के सामने,
बन
जाता है गुलाम,
भ्रष्टाचार
का, और
कहलाने
लगता है भ्रष्टाचारी।”3
भ्रष्टाचारियों ने देश को खोखला कर
दिया है। वे देश को अंदर ही अंदर खाए जा रहे हैं,
जिससे देश आर्थिक रूप से कमजोर होता जा रहा है। वैश्विक बाजार में रूपए की कीमत कम
होती जा रही है। गरीबों के लिए गरीबी एक अभिशाप के रूप में सिद्ध हो रही है। यही
कारण है कि हमारी बेचारी सरकार भी विवश होकर बार-बार चीजों के दाम बढ़ाने के लिए बाध्य
हो रही है। पेट्रोल,
डीजल,
गैस का दाम बेलगाम घोड़े की तरह भागता ही जा रहा है। महंगाई थमने का नाम ही नहीं
ले रही है। इसलिए लोग त्राहिमाम त्राहिमाम पुकारते हुए कहने पर मजबूर हो रहे हैं
कि ‘महँगाई डायन खाए जात है’।
इस सबके केन्द्र में भ्रष्टाचार ही है। सारे भ्रष्टाचार की जड़ ये बिचौलिये हैं
इसीलिए आज की सरकार ने इन बिचौलियों को खत्म करने के लिए आनलाईन पेमेंट सिस्टम
लागू किया है जिससे किसानों,
गरीबों,
मजदूरों आदि को उनका पूरा पैसा मिल सके। फिर भी उसमें चोरी के नए-नए किस्से सामने
आ रहे हैं।
अभी कुछ वर्ष पूर्व आप सबने देखा कि देश
में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को श्री अन्ना हज़ारे जी ने चलाया था। श्री अन्ना
हजारे दूसरे गांधी के रूप में सामने आ चुके हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ
हुंकार भरी है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए उन्होंने सरकार के सामने ‘जन
लोकपाल बिल’
का प्रस्ताव रखा है। ऐसा माना जा रहा है कि ‘जन
लोकपाल बिल’
के लागू होने पर 65 से 70 प्रतिशत भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। केंद्र के लिए ‘जनलोकपाल’
हो, जिसमें छोटे
कर्मचारी तथा ग्राम सभा से लेकर प्रधानमंत्री तक इसके दायरे में हों और राज्यों के
लिए ‘लोकायुक्त’
हो जिसके अंतर्गत राज्य के सारे कर्मचारी होंगे। कहा जा रहा है कि यह एक सशक्त
हथियार है भ्रष्टाचार रूपी दानव पर काबू पाने के लिए। यह सच है कि जनलोकपाल रूपी
दवा खाकर कुछ भ्रष्ट अच्छे बन जाएँगे,
कुछ दवा की सुगंध से ठीक हो जाएँगे,
तो कुछ दवा का नाम सुनते ही अच्छे हो जाएँगे। ‘जन
लोकपाल’
और ‘लोकायुक्त’
शायद इतनी कड़वी दवा है कि उससे भ्रष्टाचार यदि पूरी तरह खत्म नहीं हुआ तो
निष्क्रिय अवश्य हो जाएगा। अन्ना हज़ारे जी संभवत: आज भी उसी स्थिति में हैं किन्तु
उनका साथ देने वाले राजसिंहासन तक अवश्य पहुँच गए।
हिंदी साहित्य में कहानी,
कविता,
उपन्यास आदि में भ्रष्टाचार योगानुरूप पात्रों के माध्यम से उभर कर सामने आता रहा है।
हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा जो अभी पूर्णरूपेण साहित्यिक विधा के रूप में
स्वीकृत नहीं हो पायी है,
व्यंग्य के माध्यम से भ्रष्टाचार पर करारा प्रहार करती है। उसकी विषयवस्तु के
अंतर्गत राजनीति,
नेता,
पुलिस,
अधिकारी,
पूंजीवाद,
बेकारी,
बेरोजगारी,
शोषण,
अत्याचार,
भ्रष्टाचार आदि तमाम समस्याएँ आती हैं। हरिशंकर परसाई व्यंग्य विधा के जाने-माने
हस्ताक्षर हैं। उनकी भ्रष्टाचार पर आधारित बहुत चर्चित कहानी है ‘सदाचार
का ताबीज’,
जो भ्रष्टाचार की बुनियादी समस्या को उद्घाटित करती है। ‘परमात्मा
का कुत्ता’
मोहन राकेश की बहुत ही प्रसिद्ध कहानी है जो भ्रष्टाचार पर आधारित है। जितना खुलकर
मोहन राकेश ने भ्रष्टाचार का इस कहानी में निरूपण किया है,
शायद ही इतना खुलकर किसी और कहानीकार ने किया हो। ‘नमक
का दरोगा’
प्रेमचंद की कहानी है जो भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करती है। भ्रष्टाचार करने से पहले
आदमी बहुत डरता है,
घबराता है, काँपता
है, घूस लेने के लिए
हिम्मत नहीं जुटा पाता। जैसे प्रेमचंद के उपन्यास ‘सेवासदन’
का कृष्णचंद। किंतु यह तो कृष्णचंद का दुर्भाग्य है कि वह पहली ही बार में पकड़ लिया
जाता है। हिंदी में एक बहुत प्रसिद्ध मुहावरा है ‘सिर
मुड़ाते ओले पड़े’।
कृष्णचंद की यही स्थिति रही है। घूस के लेन-देन के सिलसिले में एक-दो बार सफलता
मिलने पर व्यक्ति उसके व्यामोह से फिर कभी उबर नहीं पाता। भ्रष्टाचार के दलदल में
जो एक बार फँस गया तो फिर वह उसमें से निकल नहीं पाता। भ्रष्टाचार एक ऐसे
चक्रव्यूह की तरह है जिसमें फँस जाने पर निकलने का रास्ता होने के बावजूद भी
व्यक्ति निकल नहीं पाता है।
प्रेमचंद के समय में संभवत: भ्रष्टाचार
इतना नहीं था,
वह अपनी बाल्यावस्था में रहा होगा, यदि
यह कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। किंतु आज तो उसने अपना विकराल रूप धारण कर लिया
है।
यह भ्रष्टाचार भी अंग्रेजों की ही देन
है। ‘फूट
डालो और राज करो’
की नीति भी उन्हीं की ही है। हम भारतीय तो ईश्वर में श्रद्धा,
विश्वास रखने वाले हैं,
अपनी नियत में कभी खोट नहीं आने देते। दूसरे की आत्मा को कष्ट ना पहुंचे इसका
बराबर ख्याल रखने वाले हैं। जैन संप्रदाय के अनुयायियों को देखो वे तो कीड़े-
मकोड़ों तक की प्रवाह करते हैं। दूसरों की संपत्ति को छीनने,
उसे नुकसान पहुँचाने की प्रवृत्ति भी अंग्रेजों ने ही दी है। आप देखिए प्रेमचंद के
‘गोदान’
का ‘होरी’
कर्ज न चुका पाने को पाप समझता है। इस तरह की तमाम पौराणिक कथाएँ,
दंत कथाएँ हमारे यहाँ हैं जिसमें किसी की चीज को चुराना,
जबरदस्ती लेना,
लेकर वापस न देना आदि पाप माना जाता है। यहाँ तक की किसी का कर्ज यदि इस जन्म में
हम अदा नहीं कर पाते तो अगले जन्म में हमें अदा करना पड़ता है। इससे लोग अनधिकृत
वस्तु व मूल्य को प्राप्त करने से डरते हैं।
प्रेमचंद हिंदी कथा साहित्य के सम्राट
माने जाते हैं,
मेरुदंड हैं। समाज के विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने दृष्टिपात किया है। इसलिए मैंने उनके
कहानी साहित्य में से ऐसी 23 कहानियों का यहाँ नामोल्लेख करने का प्रयास किया है
जिनमें कहीं ना कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भ्रष्टाचार की झलक मिलती है। वे
कहानियाँ हैं- नमक का दारोगा,
सवा सेर गेहूँ,
गरीब की हाय,
शिकारी राजकुमार,
बलिदान,
ब्रह्म का स्वांग, विषम
समस्या,
उपदेश,
यह मेरी मातृभूमि है,
अमावस्या की रात्रि,
पछतावा,
कप्तान साहब,
पिसनहारी का कुआँ, सभ्यता
का रहस्य,
डिक्री के रूपये,
नेकी,
करिश्मा-ए-इन्तिकाम (अद्भुत प्रतिशोध),
अंधेर,
बैंक का दिवाला,
खूनी,
दण्ड,
दारोगा जी,
कानूनी कुमार। प्रेमचंद की अन्य कहानियों में भी भ्रष्टाचार की समस्या की झलक
देखने को मिल सकती है,
किन्तु मुझे उपरोक्त कहानियों में भ्रष्टाचार की समस्या स्पष्टतया दिखाई देती है। मैं
यहाँ उनकी कुछ कहानियों को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
नमक
का दारोगा :
नमक का दारोगा कहानी का प्रारंभ करते
हुए प्रेमचंद जी लिखते हैं कि- “जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर प्रदत्त वस्तु
के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यवहार करने लगे। अनेक
प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ,
कोई घूस से काम निकालता था,
कोई चालाकी से।”4
नमक की चोरी को रोकने के लिए दारोगा
के पद के लिए सभी लोग लालायित थे। कोई भी उस पद पर पहुँचने के लिए कुछ भी कर
गुजरने को तैयार था। वंशीधर माध्यमवर्गीय परिवार का एक नवयुवक लड़का अपनी पढ़ाई
पूरी करके नौकरी की तलाश में जब घर से निकलने लगता है तो उसके पिता ने उसे बहुत
समझाया। अपने घर की परिस्थितियों को भी उसके सामने रखा और कहा कि अपने घर की
स्थिति बहुत खराब है। लड़कियाँ बड़ी हो गई हैं और मैं वृद्ध हो चुका हूँ,
कभी भी कुछ भी हो सकता है। इसलिए अब घर की पूरी जिम्मेदारी आपके कंधों पर है। वंशीधर
के पिता वंशीधर को समझाते हुए कहते हैं कि- “नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना,
यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढना जहाँ कुछ
ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है,
जो एक दिन दिखाई देता है। और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है
जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है,
इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है,
इसी से उसकी बरकत होती है,
तुम स्वयं विद्वान हो,
तुम्हें क्या समझाऊँ।” (वही,
पृ.42) हमने तो यह सुना है कि मेहनत की कमाई में बरकत होती है,
किंतु यहाँ वंशीधर के पिता कहते हैं कि बरकत ऊपर की कमाई से होती है। शायद वे अपने
अनुभव के आधार पर कह रहे होंगे।
वंशीधर ने आज्ञाकारी पुत्र होने के
नाते उनकी बात को ध्यान से सुना और उनका आशीर्वाद लेकर नौकरी की तलाश में निकल पड़े।
संयोगवशात उन्हें नमक विभाग में दारोगा के पद के लिए चुन लिया जाता है। इस पद पर
अच्छा वेतन था और ऊपरी आमदनी की कोई सीमा नहीं थी। वंशीधर के पिता को जब यह समाचार
मिला तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उनके पिता के कर्जदार भी शांत पड़ गए।
एक दिन ठंडी के मौसम में रात के समय
जब वंशीधर अपने कमरे में सो रहे थे और चौकी पर तैनात सिपाही अपने नशे में मस्त थे
तो यमुना नदी के किनारे अचानक हलचल बढ़ जाती है। गाड़ियों के आने की आवाज और मल्लाहों
की आवाज सुनाई देने लगती है। वंशीधर खिड़की से देखते हैं तो उन्हें कुछ गलत होने
की आशंका होती है। दारोगा वंशीधर जल्दी से अपनी वर्दी पहनते हैं और घोड़े पर सवार
होकर उस स्थान पर पहुँच जाते हैं। उन्होंने देखा कि गाड़ियों की एक लंबी लाइन लगी
हुई है जिसमें नमक भरा हुआ है। दारोगा जी के पूछने पर पता चला कि यह सारी गाडियाँ अलोपीदीन
की है। अलोपीदीन वहाँ के बहुत ही प्रतिष्ठित सम्माननीय जमीदार थे। वंशीधर सारी गाडियाँ
जप्त कर लेते हैं और सभी को गिरफ्तार कर लेते हैं। अलोपीदीन दारोगा से कहते हैं कि-
“आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो ही नहीं सकता कि इधर से जाएँ और इस घाट के
देवता को भेंट ना चढ़ावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था।” (वही,
पृ.45) किन्तु अलोपीदीन की बातों का दारोगा वंशीधर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने
अलोपीदीन को हिरासत में ले लिया।
अलोपीदीन ने दारोगा जी को 1000 रूपए
का घूस देने का प्रस्ताव रखा। जिसके लिए वंशीधर ने कहा कि 1 लाख भी मुझे सच्चे
मार्ग से नहीं हटा सकता। इस प्रकार अलोपीदीन ने घूस की रकम 1000 से प्रारंभ करके
40 हजार कर दी,
लेकिन फिर भी दारोगा जी अपनी बात पर अडिग रहे। अलोपीदीन “अत्यंत दीनता से बोले-
बाबू साहब,
ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिये,
मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने को तैयार हूँ।
‘असंभव
बात है।’
‘तीस
हजार पर।’
‘किसी
तरह भी संभव नहीं।’
‘क्या
चालीस हजार पर भी नहीं?’
‘चालीस
हजार नहीं,
चालीस लाख पर भी असम्भव है।” (वही,
पृ.46)
दारोगा जी ने अलोपीदीन को गिरफ्तार कर
लिया। इस प्रकार मामला कोर्ट में पहुँचा। कोर्ट में अलोपीदीन बाइज्जत बरी कर दिए
गए क्योंकि सारे गवाह आदि सब बिक चुके थे। दारोगा वंशीधर पर एक प्रतिष्ठित व्यक्ति
को गिरफ्तार करने के जुर्म में मुकदमा चला और उन्हें उसकी सजा भुगतनी पड़ी। वंशीधर
अपने घर वापस आ गए। घर पर पिताजी की डांट सहनी पड़ी।
अलोपीदीन एक दिन वंशीधर के घर आए और
उन्हें अपनी सारी संपत्ति का स्थायी मैनेजर नियुक्त करने की सिफारिश की। अंततोगत्वा
घर की विषम परिस्थिति को देखते हुए वंशीधर अलोपीदीन के आग्रह को स्वीकार कर लेते
हैं और अलोपीदीन प्रसन्न होकर वंशीधर को गले लगा लेते हैं। वंशीधर जो नहीं चाहता
था विवशतावश उसे वही करना पड़ता है।
सवा
सेर गेहूँ :
‘सवा
सेर गेहूँ’ कहानी
में शंकर कुर्मी की कथा है,
जो एक सीधा साधा आदमी अपने काम से काम रखने वाला,
छल प्रपंच से रहित,
जो मिला वह खाकर गुजारा करने वाला,
यदि कुछ न मिला तो पानी पी कर भी भूंख मिटा देने वाला,
सरल हृदय का व्यक्ति है। वह भारतीय परंपरा ‘अतिथि
देवो भव’
में विश्वास करता है। इसलिए जब उसके यहाँ एक महात्मा आते हैं तो उन्हें वह भोजन
कराना चाहता है,
किंतु उसके घर में जो अनाज है,
उसकी रोटी वह महात्मा को नहीं खिला सकता और महात्मा को भूखे सुला भी नहीं सकता। क्योंकि
यह भारतीय संस्कृति है यहाँ अतिथि को भगवान दर्जा दिया जाता है। इसीलिए मनुष्य भगवान
से यदि कुछ माँगता है तो बस यही कि उसके दरवाजे से कभी कोई खाली हाथ न जाए।
‘साईं
इतना दीजिए,
जामे कुटुम समाय ।
मैं
भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए।।’
(कबीर)
इसलिए शंकर को महात्मा के लिए गेहूँ की
व्यवस्था करनी है अन्यथा महात्मा को भूंखा सोना पड़ेगा जो वह नहीं चाहता है। इसके
लिए शंकर गाँव में प्रयास करता है किंतु उसे गाँव भर में किसी के यहाँ गेहूँ का
आटा नहीं मिला। प्रेमचंद जी लिखते हैं कि- “गाँव में सब मनुष्य-ही-मनुष्य थे,
देवता एक भी न था,
अतएव देवताओं का खाद्य पदार्थ कैसे मिलता। सौभाग्य से गाँव के विप्र महाराज के
यहाँ से थोड़े-से मिल गए। उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिया और स्त्री से कहा कि पीस
दे। महात्मा ने भोजन किया,
लम्बी तानकर सोए। प्रात:काल आशीर्वाद देकर अपनी रह ली।” (वही,
सवा सेर गेहूँ,
पृ.103)
फसल तैयार होने पर शंकर ने विप्र
महाराज से लिए हुए सवा सेर गेहूँ को लौटाने के लिए अपने मन में सोचा कि- “सवा सेर गेहूँ
इन्हें क्या लौटाऊँ, पंसेरी
बदले कुछ ज्यादा खलिहानी दे दूँगा, यह
भी समझ जाएँगे,
मैं भी समझ जाऊँगा। चैत में जब विप्रजी पहुँचे तो उन्हें डेढ़ पंसेरी के लगभग गेहूँ
दे दिया और अपने को उऋण समझकर उसकी कोई चर्चा न की।” (वही,
पृ.103) उसके बाद शंकर ने तो समझ लिया कि मैं अपने कर्ज से उऋण हो चुका हूँ,
लेकिन महाराज ने उस समय उससे कुछ नहीं कहा। सात साल का समय बीत गया। शंकर के यहाँ भाई
भाई अलग हो गए,
तमाम मुसीबतें आई। शंकर एक दिन मजदूरी करके आ रहा था। रास्ते में विप्रजी मिल गए
और उन्होंने शंकर से कहा कि- “शंकर, कल
आकर के अपने बीज-बैग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कबके बाकी पड़े
हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता,
हजम करने का मन है क्या?”
(वही,
पृ.104)
विप्रजी की बात सुनकर शंकर ने आश्चर्यचकित
होकर कहा- “मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे जो साढ़े पाँच मन हो गए?
तुम भूलते हो,
मेरे यहाँ किसी का छटांक-भर न अनाज है,
न एक पैसा उधार।” (वही,
पृ.104) विप्रजी ने शंकर को सात साल पहले
की घटना को स्मरण करवाया और कहा की महात्मा के लिए आपने सवा सेर गेहूँ उधार लिया
था, जिसे आज तक चुकाया
नहीं है। शंकर कहता है कि मैंने साल में दो बार खलिहान दिया है। जब भी आपसे कुछ साइत-सगुन
विचरवाया है तो उसकी भी दक्षिणा दी है। अब मेरे खाने का ठिकाना नहीं है,
यह मैं कैसे दूँगा?
अंततोगत्वा उस सवा सेर गेहूँ का हिसाब
जब बाजार-भाव से हुआ तो शंकर को विप्रजी को देने के लिए कुल मिलाकर 60 रूपए की रकम
हुई। प्रेमचंद लिखते हैं कि- “हिसाब लगाया तो गेहूँ के दाम 60) हुए। 60) का
दस्तावेज लिखा गया, 3)
सैकड़े सूद। साल भर में न देने पर सूद की दर 2II)
सैकड़े। II)
का स्टाम्प,
1) दस्तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी पड़ी।” (वही,
पृ.105)
शंकर साल भर मेहनत करके 60 रूपए अदा
कर देता है किंतु उसका ब्याज 15 रूपए अभी भी बाकी रह जाता है। वह वादा करता है कि
बहुत जल्द उसे लौटा देगा। शंकर बहुत कोशिश करता है लेकिन उसे 15 रूपए कहीं से भी नहीं
मिल पाते और धीरे-धीरे करके एक रूपए ब्याज के बजाय 3 रूपए ब्याज के हो जाते हैं।
तीन साल बाद अब शंकर को 15 रूपए के बजाए 120 रूपए अदा करने पड़ेंगे। इस प्रकार
शंकर बहुत परेशान हो जाता है किन्तु 120 रूपए अदा नहीं कर पाता । अब विप्रजी के यहाँ
शंकर 120 रूपए के बदले में सपरिवार गुलाम की तरह काम करने लगता है । जब शंकर विप्रजी
से कहता है कि “महाराज यह तो जन्म-भर की गुलामी हुई। तब विप्र ने कहा- गुलामी समझो,
चाहे मजूरी समझो। मैं अपने रूपए भराये बिना तुमको कभी न छोडूंगा। तुम भागोगे तो
तुम्हारा लड़का भरेगा। हाँ,
जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है।” (वही,
पृ.107)
इस प्रकार प्रेमचंद ने सेठ,
साहूकारों के द्वारा गरीबों के साथ हो रहे आर्थिक शोषण,
अत्याचार, भ्रष्टाचार
को इस सत्य घटना के द्वारा उभारने का प्रयास किया है।
विषम
समस्या :
विषम समस्या कहानी के प्रारंभ में एक
मैनेजर अपने दफ्तर के चपरासियों की बात करता है। उसके दफ्तर में चार चपरासी थे।
जिसमें से एक चपरासी का नाम गरीब था। जो स्वभाव से बहुत ही सरल, आज्ञाकारी, अपने
काम को व्यवस्थित रूप से करने वाला, दूसरों की डांट सहकर भी चुप रहने वाला था। काम
के प्रति उसकी लगन को देखकर सभी उसकी तारीफ करते थे। मैनेजर साहब को आए हुए एक साल
हो गया। उन्होंने देखा कि गरीब एक दिन भी गैरहाजिर नहीं रहा। समय पर आता है और चुपचाप
अपना काम करता है। एक दूसरा चपरासी जो मुसलमान था,
जिससे दफ्तर के सारे लोग डरते थे। वह बड़ी-बड़ी बातें करता था। उसके चचेरे भाई
रामपुर रियासत में कोतवाल थे। उसे सब लोग काजी साहब कह कर पुकारते थे। दूसरे और दो
चपरासी थे,
जो जाति के ब्राह्मण थे। इन चारों में एक गरीब ही था जो सारा काम ईमानदारी से करता
था बाकी तीनों कामचोर,
बहानेबाज तथा आलसी किस्म के थे। ये काम तो कुछ नहीं करते थे लेकिन प्रमोशन इन्हीं
तीनों का सबसे पहले हुआ। गरीब को कोई प्रमोशन नहीं मिला। गरीब 7 रूपए पाता था जबकि
ये तीनों 10 रूपए पाते थे।
गरीब एक दिन बाबू की मेज साफ कर रहा
था तो उसके द्वारा स्याही टेबल पर गिर गई और मेज पर फैल गई। जिससे बड़े बाबू उसे
डांटने लगे लेकिन गरीब चुपचाप सुनता रहा। मैनेजर देख रहे थे,
उन्होंने बड़े बाबू को समझाया परंतु बड़े बाबू ने बताया कि यह बहुत कमीना है। आपको
पता नहीं है,
धीरे-धीरे पता चल जाएगा। इसको अपने पैसे पर घमंड है,
इसके घर की दशा बहुत अच्छी है। बाबू मैनेजर से कहते हैं कि- “इसके घर में दो हलों
की खेती होती है,
हजारों का लेन-देन करता है,
कई भैस लगती है,
इन बातों का इसे घमण्ड है।” (वही,
विषम समस्या,
पृ.40) मैनेजर ने कहा तो इसे काम करने की क्या जरूरत है,
यह नौकरी क्यों करता है। लोगों ने बताया कि यह बहुत कंजूस है। इसके घर में बहुत
कुछ है किन्तु यह कभी किसी को कुछ नहीं देता,
जबकि इसे यह सब कुछ नौकरी के कारण ही मिला है।
मैनेजर के पूछने पर गरीब ने अपने घर
की सारी स्थिति को बता दिया। तब मैनेजर ने पूछा कि दफ्तर के बाबू लोगों की कभी कुछ
खातिर करते हो? तब
गरीब ने कहा कि नहीं सरकार। मेरे पास इनकी खातिर करने के लिए कुछ नहीं है। ये बड़े
लोग हैं,
मेरी चीज उनको पसंद नहीं आएगी। खेतों में जौ,
चना, मक्का,
ज्वार यही सब होता है। इसे इन्हें क्या दूँ । तब
मैनेजर ने कहा- “भला एक दिन कुछ लाके दो तो;
देखो लोग क्या कहते हैं। शहर में ये चीजें कहाँ मुयस्सर होती हैं।” (वही,
पृ.41)
“दूसरे दिन गरीब आया तो उसके साथ तीन हृष्ट-पुष्ट
युवक भी थे। दो के सिरों पर दो टोकरियाँ थीं,
उनमें मटर की फलियाँ भरी हुई थीं। एक के सिर पर मटका था जिसमें ऊंख का रस था। तीनों
युवक ऊंख का एक-एक गट्ठा कांख में दबाए हुए थे। गरीब आकर चुपके से बरामदे के सामने
पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। दफ्तर में उसे आने का साहस नहीं होता था मानो कोई
अपराधी है।” (वही,
पृ.41) गरीब के द्वारा लाए हुए सामान को ऑफिस में सभी लोगों को बाँट दिया गया। बड़े
बाबू पहले तो दिखावे के लिए क्रोधित हुए किन्तु बाद में प्रसन्न हो गए। उसके बाद
तो धीरे-धीरे गरीब में जो परिवर्तन आया,
वह गरीब को बदल कर रख दिया। अब दफ्तर में गरीब का मान बढ़ गया। उसे अब कोई डाँटता नहीं
है, अब उसे दिन भर
दौड़ना नहीं पड़ता,
किसी की घुड़की नहीं सहन करनी पड़ती,
दूसरे चपरासी उसका काम कर देने लगे। अब वह गरीब से गरीबदास बन गया। जो कभी छुट्टी
नहीं लेता था,
वह अब कोई न कोई बहाना लेकर छुट्टी भी लेने लगा। प्रेमचंद लिखते हैं कि- “वह अब दसवें-पाँचवें
दिन दूध,
दही आदि लाकर बड़े बाबू को भेंट किया करता। वह देवता को संतुष्ट करना सीख गया। सरलता
के बदले अब उसमें काँइयाँपन आ गया।” (वही,
पृ. 42)
जो गरीब कभी किसी का एक पैसा भी नहीं
लेता था,
वही अब कमीशन लेने लगा। एक दिन बड़े बाबू ने गरीब को रेलवे से कुछ पार्सल छुड़ाने
के लिए कहा तो गरीब ठेले पर वह पार्सल लेकर आया। गरीब ने ठेले वालों को बारह आने मजूरी
पर तय किया था और उसने बड़े बाबू से बारह आने लेता भी है किन्तु वह ठेले वालों को
पूरा पैसा नहीं देता। प्रेमचंद लिखते हैं कि- “उसने बाबू से बारह आने पैसे
ठेलेवाले को देने के लिए वसूल किये। लेकिन दफ्तर से कुछ दूर जाकर उसकी नीयत बदली,
अपनी दस्तूरी माँगने लगा,
ठेलावाले राजी न हुए। इस पर गरीब ने बिगड़ कर सब पैसे जेब में रख लिए और धमकाकर
बोला- अब एक फूटी कौड़ी न दूँगा जाओ जहाँ चाहो फरियाद करो। देखें हमारा क्या बना
लेते हो।” (वही,
पृ.42)
“ठेलेवाले
ने जब देखा कि भेंट न देने से जमा ही गायब हुई जाती है तो रो-धोकर चार आने पैसे
देने को राजी हुआ। गरीब ने अठन्नी उसके हवाले की और बारह आने की रसीद लिखवा कर
उसके अँगूठे का
निशान लगवाये और रसीद दफ्तर में दाखिल हो गई।” (वही,
पृ.42)
मैनेजर को गरीब के इस बदले हुए स्वरूप
को देखकर आश्चर्य होता है। जो कभी अपने पैसे भी दूसरों से नहीं माँग पाता था,
सत्यता और दीनता की जो मूर्ति बना था, आज
वह इतना बड़ा साहस कर रहा है। मैनेजर मन ही मन सोचते हैं कि मैंने तो इसके बाह्य स्वरूप
को बदलने का प्रयास किया किन्तु इसका
आंतरिक स्वरूप ही बदल गया। अब तो गरीब की आदत ही पड़ गई कि दफ्तर वालों को थोड़ी-सी
रिश्वत,
थोड़ा-सा घूस दे देता था जिसके कारण उसे कोई कुछ नहीं बोलता था और गरीब आराम की
जिंदगी जीने लगा।
गरीब
की हाय :
मुंशी रामसेवक चाँदपुर गाँव के एक प्रतिष्ठित
व्यक्ति थे,
जिन्हें किसी ने कभी कोर्ट में बहस करते नहीं देखा फिर भी वे सबको कानून की
दाँव-पेंच बताया करते थे। वे कोर्ट-कचहरी में कागजों का बस्ता लिए घूमा करते थे। इसीलिए
सभी उन्हें मुख्तार साहब कहते थे। उनके जीविकोपार्जन का मुख्य साधन गरीबों,
असहायों,
विधवाओं के धन को अपने पास सुरक्षित का दावा करते थे। उनके गुणों का परिचय देते
हुए प्रेमचंद ने लिखा है कि- “उनके निर्वाह का मुख्य साधन आस-पास की अनाथ पर
खाने-पीने में सुखी विधवाओं और भोले-भाले किन्तु धनी की श्रद्धा थी। विधवाएँ अपना रूपया
उनके यहाँ अमानत रखती। बूढ़े अपने कपूतों के दर से अपना धन उन्हें सौंप देते। पर
रूपया एक बार मुट्ठी में जाकर फिर निकलना भूल जाता था। वह जरूरत पड़ने पर कभी-कभी
कर्ज ले लेते थे। भला बिना कर्ज लिए किसी का काम चल सकता है?
भोर को साँझ के करार पर रूपया लेते,
पर साँझ कभी नहीं आती थी।” (वही,
गरीब की हाय,
पृ.11)
मुंशी रामसेवक ने जिससे भी उधार लिए
उसे कभी वापस नहीं किया और जिसका भी धन अपने पास जमा किया उसे कभी लौटाया नहीं। दूसरों
को विश्वास दिलाने के लिए अपने मर जाने की बार-बार धमकी देते रहते थे। इसी गाँव
में एक मूँगा विधवा थी,
जिसका पति पलटन में था। युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई,
जिसके कारण सरकार से मूँगा को पाँच सौ रूपए मिले और उसने सारे रूपए मुंशी रामसेवक
को सौंप दिये। उसमें से समय-समय पर वह थोड़ा-थोड़ा लेती रही। मूँगा बूढ़ी होने पर भी
जब मरी नहीं तो रामसेवक को चिंता होने लगी की कहीं वह अपना सारा रूपया मुझसे
निकलवा न ले। रामसेवक ने एक दिन मूँगा से कहा कि-
“मूँगा ! तुम्हें मरना है या नहीं ! साफ-साफ कह दो कि मैं ही अपने मरने की फिक्र
करूँ। उस दिन मूँगा की आँखें खुली,
उसकी नींद टूटी,
बोली- मेरा हिसाब कर दो। हिसाब का चिट्ठा तैयार था। अमानत में अब एक कौड़ी बाकी
नहीं थी। मूँगा ने बड़ी कड़ाई से मुंशी जी का हाथ पकड़ लिया और कहा- अभी मेरे ढाई सौ
रूपए तुमने दबा रखे हैं। मैं एक कौड़ी भी न छोडूंगी।” (वही,
पृ.12)
इस प्रकार मुंशी रामसेवक गरीबों,
बेसहारा लोगों के रूपये हड़प लेता था। उन्हें दर-दर की ठोकर खाने के लिए छोड़ देता
था, जिसे प्रेमचंद जी
ने गरीब की हाय कहानी में उजागर करने का प्रयास किया है।
अंधेर
:
‘अंधेर’
कहानी में प्रेमचंद जी ने पुलिस के द्वारा रिश्वत लेने और लोगों के न देने पर
उन्हें परेशान करने की दिशा में संकेत किया है। नाग पंचमी के त्योहार पर जहाँ एक
ओर औरतें पूजा के लिए गीत गाती हुई निकलती हैं,
वहीं दूसरी ओर अलग-अलग स्थानों पर लोग विभिन्न तरह से मनोरंजन करते दिखाई देते
हैं। गाँव के एक स्थान पर साठे और पाठे दो ग्रूप के लोगों में कुस्ती हो रही है,
जिसे देखने के लिए लोगों का मजमा लगा है।
गोपाल नामक एक व्यक्ति पर पीछे से
हमला होता है जिसके कारण वह घायल हो जाता है। गोपाल इस घटना की सूचना पुलिस को
नहीं देता फिर भी पुलिस मौके पर आ जाती है और सूचना क्यों नहीं दी आदि तरह-तरह की
बातें करती है। गाँव के मुखिया पुलिस को समझाने की पूरी कोशिश करते हैं किन्तु वह
समझना ही नहीं चाहती और लोगों को धमकती है। प्रेमचंद लिखते हैं कि- “मुखिया साहब
दबे पाँव गोरा के पास आए और बोले- यह दारोगा बड़ा काफिर है,
पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अव्वल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा,
हुजूर गरीब आदमी है,
घर में कुछ सुभीता नहीं,
मगर वह एक नहीं सुनता।” (वही,
अंधेर, पृ.140)
इस प्रकार मुखिया के लाख मनाने पर भी पुलिस बिना पूरी रिश्वत लिए मानने को तैयार
नहीं है। यह कोई नई बात नहीं है, आज
इस प्रकार के अनेकों उदाहरण देखने को मिल जाएँगे।
प्रेमचंद जी ने आमलोगों का पुलिस के
द्वारा जो आर्थिक,
मानसिक,
शारीरिक शोषण हो रहा था उसे अपनी कहानियों में उजागर करने का प्रयास किया है।
प्रेमचंद जी ने अंधेर,
कप्तान साहब,
कानूनी कुमार,
दारोगा जी आदि कहानियों में इस तरह की समस्याओं को उजागर किया है।
प्रेमचंद
जी जमीन से जुड़े रचनाकार हैं इसलिए शोषण,
अत्याचार,
भ्रष्टाचार,
सामाजिक कुरीतियाँ आदि समस्याएँ उनकी कहानियों की पृष्ठिभूमि हैं। हम सभी सामाजिक
प्राणी हैं,
इसलिए इस भ्रष्टाचार से हम सभी का किसी-न-किसी रूप में परिचय अवश्य हुआ होगा।
संदर्भ
:
1.
अन्वेषण के क्षण
(काव्य संग्रह)-
डॉ. मायाप्रकाश पाण्डेय,
पृ.58
2.
वही,
पृ.58
3.
प्रेमचंद की भ्रष्टाचारपरक
कहानियाँ,
सं. डॉ. मायाप्रकाश पाण्डेय,
संपादकीय,
पृ. 7-8
4.
प्रेमचंद की
भ्रष्टाचारपरक कहानियाँ – सं. डॉ. माया प्रकाश पाण्डेय,
नमक का दारोगा –प्रेमचंद,
पृ. 43
डॉ.
मायाप्रकाश पाण्डेय
असिस्टेंट
प्रोफेसर,
हिंदी
विभाग,
कला संकाय,
महाराजा
सयाजीराव विश्वविद्यालय,
बडौदा
390002,
गुजरात
यह लेख पढ़ने के बाद भ्रष्टाचार के विभिन्न रूपों और विभिन्न पदों पर बैठे लोगों द्वरा किये जाने वाले भ्रष्टाचार के बारे में गहराई से जानने और समझने का मौका मिला। प्रेमचंद जी ने अपनी कहानी, उपन्यास और अपने लेखों के माध्यम से इसे उजागर करने का प्रयास किया है। इस बेहतरीन लेख को लिखने के लिए हमारे गुरु, मृदुभाषी व्यक्तित्व के धनी डॉ. मायाप्रकाश पाण्डेय सर को हृदय पूर्वक आभार धन्यवाद। 🙏🏻
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