रविवार, 25 जुलाई 2021

आलेख

 

प्रेमचंदः रचनाशीलताः समाजलक्षी अभिगम

 डॉ. मदनमोहन शर्मा

मुंशी प्रेमचन्द को उन चन्द गिने-चुने साहित्यकारों में शुमार किया जाता है, जिन्हें वैश्विकस्तर पर ख्याति मिली है। उनकी रचनाशीलता और रचनाधर्मिता दरअसल एक ईमानदार चिन्ता के साथ उजागर होती है, जिसके केन्द्र में भारतीय समाज है, विशेषकर युगीन भारतीय ग्राम्य समाज रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि मानव-गतिविधियों के केन्द्र में समाज एवं सामाजिक संरचना (ढांचे) के अलावा समाजिक मूल्यों- परिपाटियों, मान्यताओं व धारणाओं का अस्तित्व मौजूद होता है और जब कोई रचनाकार समाज के प्रचलित ढांचे को अस्वीकार करते हुए किन्हीं नए मूल्यों की तलाश करता है तो उसका अभिगम स्पष्ट होते देर नहीं लगती। प्रेमचन्द भी इसका अपवाद नहीं हैं। वे अपनी रचनाशीलता में युग को जीते भी हैं, भोगते भी हैं और अपना असंतोष भी प्रकट करते हैं। समाज से बाहर वैसे भी कुछ शेष नहीं है। धर्म, कला, विश्वास, अर्थ, संस्कार (संस्कृति) आदि के निर्धारण और निदर्शन में सामाजिक सत्ता को रीढ़ की हड्डी की तरह स्वीकार किया जाता है। शायद इसीलिए प्रेमचंद की रचनाशीलता समाजलक्षी हो जाती है। अपने समय के अन्तर्विरोधों को पकड़कर उन्हें देखना तथा महसूस करना लेखक को अधिकाधिक रूप से चिन्तनशील बनाता है और मुंशीजी एक सधे हुए चिन्तक-विचारक के रूप में उभरने लगते हैं।

हालाँकि प्रेमचंद का युग वह दौर है जिसमें राष्ट्रीय गौरव और स्वाधीनता-संग्राम प्रत्यक्ष रूप से नजर आते हैं लेकिन अन्ततः तो उनका ध्येय भी भारतीय समाज को अक्षुण्ण रखने का है। फर्क केवल तब हो जाता है जब मुंशी जी एक नया भारतीय समाज की आकांक्षा अथवा आतुरता लिए युगीन समाज व्यवस्था (Social System) के कुछ पहलुओं को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं होते और इस परिवर्तनकामी चेतना के कारण ही अपनी रचनाशीलता को एक अलग दिशा में मोड़ देते हैं। वह दिशा, जिसकी तरफ अभी तक इतने व्यापक पैमाने पर अब तक किसी का ध्यान नहीं गया था। हम जानते हैं कि पूर्व-प्रेमचंद साहित्य या तो कोरे आदर्शवादी अभिगम से रूबरू रहा था या फिर तिलस्मी-एय्यारी ढाँचे का मोहताज रहा।

प्रेमचन्द की रचनाओं में धड़कने वाला समाज वास्तव में, कोई विशिष्ट समाज नहीं है बल्कि हरेक भारतीय के इर्द-गिर्द बिखरा हुआ, निरी आँखों से दिखाई पड़ने वाला समाज है। उस समाज की अपनी एक व्यवस्था है, जिसका पोषण सदियों पुरानी परिपाटियों के बल पर होता रहा है। उन परिपाटियों में कुछ मान्यताएँ हैं, कुछ विश्वास हैं, मूल्य हैं, परम्पराएँ-प्रथाएँ हैं, आदर्श औऱ नैतिकताएँ हैं लेकिन एक संघर्ष भी है, टकराहट है, द्वन्द्व है, अन्तराल है। इन्हीं सब के बीच मुंशी जी एक रास्ता बनाते हुए नजर आते हैं, जो बड़ा विकट, चुनौतीभरा, दुर्गम रास्ता है। उहें लगता है कि राष्ट्रीय अस्मिता से पहले की सीढ़ी संभवतः समाज से होकर गुजरती है। इसीलिए वे गांधीजी से मिलकर वर्धा से लौटने के बात शिवरानी देवी से उस भेंट का जिक्र करते हैं तो यह तथ्य छिपा नहीं रह जाता-

‘शिवरानी बोली’, ‘‘इसका मतलब है, आप महात्मा गांधी के चेले हो गए ?’’ प्रेमचंद ने कहा- ‘‘चेला बनने का मतलब किसी की पूजा करना नहीं, उसके गुणों को अपनाना होता है। मैंने उन्हीं गुणों को अपनाकर ही तो ‘प्रेमाश्रम’ लिखा है।’’

‘‘वह तो पहले ही लिखा जा रहा था, उसमें महात्मा गांधी की कौन खास बात हुई ?’’

‘‘इसका अर्थ यह है कि वह जो कुछ करना चाहते हैं, उसे मैं पहले से ही कर रहा था।’’

‘‘यह तो कोई दलील न हुई।’’

‘‘दलील की बात नहीं। गांधीजी भी मजदूरों-किसानों की भलाई के लिए आंदोलन चला रहे हैं और मैं भी अपनी कलम से यही कुछ कर रहा हूँ।’’1

स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आन्दोलन के क्रम में ‘रामराज्य’ की जो परिकल्पना गांधी-दर्शन से जुड़ती है वही प्रेमचंद के यहाँ समाज-केन्द्रित हो जाती है क्योंकि सामाजिक बुनियाद की स्वस्थता व मजबूती के अभाव में राष्ट्रीयता का ढाँचा भी चरमरा सकता है, इस सत्य से प्रेमचन्द अच्छी तरह वाकिफ़  हैं।

उनकी कहानियाँ तथा उपन्यास तत्कालीन भारतीय समाज की हिलती-चरमराती नींव को न केवल हमारे सामने पेश करते हैं बल्कि उसे दुरुस्त करने की दिशा में सोचने-विचारने और विसंगतियों से सीधी मुठभेड़ करने की प्रेरणा भी देते हैं। ‘निर्मला’ और ‘गोदान’ उपन्यासों की त्रासदियाँ रचनाओं का अंत नहीं हैं, बल्कि उनसे टकराने की शुरूआती स्थितियाँ हैं और क्रमशः नारी-जीवन तथा कृषक-जीवन से जुड़ी हुई जड़ीभूत धारणाओं में आमूलचूल बदलाव का रास्ता भी दिखलाती हैं। उनकी रचनाशीलता में यह तीखापन (खरापन) लेखनगत प्रतिबद्धता के कारण आता है क्योंकि वे सदियों से पददलित, दबे-कुचले और त्रस्त-शोषित तबके के प्रति अपार सहानुभूति का भाव लेकर रचनाकर्म से जुड़ते हैं और कलम को हथियार बनाकर दो-टूक लहजे में बड़ी साफगोई और तटस्थतापूर्वक अपने मंतव्य प्रस्तुत करते हैं। गाय का दान करनेवाली बात से इस जगत के परे का संदर्भ भले ही जुड़ता हो पर उस आकांक्षा को पूरा करने के लिए फूटी कौड़ी का न होना एक ऐसा कड़वा सच बन जाता है कि इस जमीन का यथार्थ उस अगोचर जगत की मान्यता पर हावी हो जाता है। यह केवल शब्दों का विलास नहीं हो सकता। यह एक विडम्बनाजनित पीड़ा और चिन्ता है जो लगातार लेखक को कचोटती रहती है। सवाल है कि इस प्रकार की विषमताओं (सामाजिक असन्तुलन) के पीछे कौन जिम्मेदार है ? जवाब है- युगों से गिनेचुने हाथों में निहित सत्ता या फिर शक्ति, जो केवल और केवल अपने हितों की रक्षा के लिए समाज का व्याकरण समय-समय पर तैयार करती रही है। जमीनदार, सामंत, पंडित, सरकारी अफसरान, पुरुष-वर्चस्ववादी लोग, ठाकुर, सेठ-साहूकार आदि अनेक ऐसे, समाज के कथित नुमाइन्दे हैं जो अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में अपने से कहीं बहुत बड़े तबके पर हुकूमत करते रहे हैं। प्रेमचंद की चिन्ता इसी विषमता को लेकर है क्योंकि उनकी नजर में यह नियति का खेल नहीं है बल्कि मानव-सर्जित असंगतता है जिसका नासूर अब काबू से बाहर हो चुका है। वैधव्य नियति हो सकती है परन्तु वैधव्य की व्याख्या करने के लिए समाज ही जिम्मेदार है। ‘निर्मला’ का सच इसी सिक्के का एक पहलू है। होरी के मुकाबले धनिया का अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाना इसीलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि प्रेमचंद समाज और परिवार-व्यवस्था की एक धुरी के रूप में नारी को अबला से सबला बनाने के पक्षधर हैं। भीष्म साहनी के शब्दों में कहें तो ‘....नारी-चरित्र का जो रूप हमारे सामने उभरकर आता है, उसमें बड़ी गरिमा है, जो ओजस्विता है, पुरुष की तुलना में प्रेमचंद नारी को अधिक श्रेष्ठ मानते हैं, क्योंकि उसमें उच्चकोटि के गुण हैं, वह त्याग की मूर्ति है, उसका प्रेम निस्वार्थ प्रेम है... सहनशीलता के साथ-साथ उसमें एक प्रकार की निर्भीकता है, न्यायप्रियता है, आत्मविश्वास है जो उसकी भूमिका को गौरवपूर्ण बना देता है... प्रेमचंद के नारी पात्र मात्र विलास की वस्तु नहीं है.....।’2 भारतीय समाज के ढांचे में मुंशी जी परिवार के अस्तित्व को नजरन्दाज नहीं करते क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति के सम्बन्धों पर टिका परिवार समाज की इकाई है। कई बार इस परिवार-व्यवस्था को वे एक से अधिक पीढ़ियों में देखते हैं। मसलन एक पीढ़ी होरी की है तो दूसरी पीढ़ी गोबर की भी है। दोनों पीढ़ियों के बीच का फासला भी प्रेमचन्द की कलम से अछूता नहीं रहता। जाहिर है वे आने वाली पीढ़ियों को संघर्ष करने का जिम्मा सौंपना चाहते हैं।

समाज के एक वर्ग-विशेष का आतंकी चेहरा प्रेमचंद की कई रचनाओं में उभरता है। ‘सवा सेर गैहूँ’ में यह आतंकी चेहरा पंडीजी के रूप में अपनी विकरालता का परिचय देता है और बड़ी सफाई से पाप-पुण्य की व्याख्या करता है तो ‘ठाकुर का कुआँ’ में भी कमोबेश वही आतंक है जो जोखू को निरन्तर डराता रहता है। एक जगह वह ईश्वर का अवतार बनकर आता है तो दूसरी तरफ किसी राजा का। लेकिन हर बार आतंकित होने वाला एक निरीह और त्रस्त तबका ही होता है।

उधर ‘कफन’ का सच एक अनावृत सामाजिक सच है जिसके केन्द्र में गर्म आलुओं से भी ज्यादा गर्म पेट की वह भट्ठी है जो अपनी आग बुझाने के लिए हर चीज को निगल जाना चाहती है। कफन का कपड़ा वहाँ किसी अनिवार्य सामाजिक रस्म को अदा करने का साधन नहीं है, बल्कि एक अरसे से खाली पड़े हुए पेट का गड्ढा भरने के लिए मिलने वाले सुनहरे मौके का भरपूर फायदा उठाने का जरिया है। प्रेमचन्द के अलावा कफन की ऐसी कड़वी सच्चाई बयान करने वाला भला कौन हो सकता है !! प्रेमचन्द समाज का बँटवारा करने वाली मान्यताओं को कतई बरदाश्त नहीं करते। मिसाल के तौर पर अस्पृश्यता (छुआछूत) को वे समाज की व्यवस्था का अंग नहीं मानते क्योंकि इससे समाज बिखरता है और वह किसी सामाजिक या राष्ट्रीय उद्देश्य की पूर्ति के लिए सक्षम साबित नहीं हो सकता। गांधी-दर्शन भी अस्पृश्यता के कोढ़ को एक सामाजिक विद्रूपता के तौर पर प्रस्तुत करता है लेकिन प्रेमचन्द का जीवन-दर्शन विशुद्ध रूप से समाज केन्द्रित है। वहाँ अहिंसा या फिर मौन का सिद्धान्त कमजोर हो जाता है जो बुराइयों से लड़ने की ताकत नहीं बटोर पाता। दूसरे शब्दों में कहें तो मुंशी जी नरमदल से मोहभंग करते हुए (परवर्ती दौर में) और गरमदल की नीतियों को स्वीकार करते दिखते हैं कारण कि गरमदल की नीतियाँ समाज को एकजुट होकर बुराइयों से प्रत्यक्ष संघर्ष करने की जमीन मुहैया कराती हैं। इसी वजह से परवर्ती दौर के प्रेमचंद गांधी-दर्शन से एक सीमा तक अलग-अलग दिशा में जाते हुए जान पड़ते हैं। यही दूरी आदर्श और यथार्थ के बीच पनपने लगती है। समाज को एकजुट करने का संदेश ‘कर्मभूमि’ उपन्यास के किसानों के माध्यम से देखा जा सकता है जो शोषक वर्ग यानि कि महंत, जमींदार और उनका प्यादा बनने वाली पुलिस (प्रशासन) के खिलाफ पूरी ताकत के साथ भिड़ते हैं और जेल जाते हैं। ‘दूध का दाम’ कहानी का वह चित्र ध्यातव्य है जब वर्ग-संघर्ष की तेजी चौथे दशक के भारतीय समाज की असलियत को सामने लाती है-

सुरेश कहता है- ‘‘तू घोड़ा बनेगा, हम लोग तेरे ऊपर सवारी करके तुझे दौड़ाएंगे’’ मंगल ने शंका की- ‘‘मैं बराबर घोड़ा ही रहूँगा कि सवारी भी करूँगा ?’’

सुरेश ने कहा- ‘‘तुझे कौन अपनी पीठ पर बिठाएगा, आखिर तू नीचा है कि नहीं ?’’ मंगल खड़ा हो गया। बोला- ‘‘जब कहता हूँ कि नीचा नहीं हूँ। लेकिन तुम्हें मेरी माँ ने दूध पिलाकर पाला है। जब तक मुझे भी सवारी करने को न मिलेगी, मैं घोड़ा न बनूंगा। तुम लोग बड़े हो, आप तो मजे से सवारी करोगे, मैं घोड़ा ही बना रहूँगा ?’’3 यह लेखकीय अभिगम प्रेमचंद-साहित्य में जगह-जगह पर आता है। युग और युगीन अपेक्षाओं को प्रेमचंद तब तक साकार होते नहीं देखते जब तक घर की दीमक साफ न कर दी जाय। वे एक लम्बी लड़ाई लड़ने का बिगुल फूंकते हैं जिसका परिणाम दूरगामी भी हो सकता है। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतें, हरेक भारतीय को पूरी हों लेकिन उनके साथ-साथ सामाजिक स्तर पर सोच में भी वे पर्याप्त बदलाव चाहते हैं। ‘ईदगाह’ सिर्फ बालमनोविज्ञान की कहानी नहीं है। उसका सच जीवन की भयावहता, जीवन के अभाव का सच है जिसे हामिद के रवैये से बड़ी आसानी से देखा जा सकता है। ‘पूस की रात’ का हल्कू (किसान) अपनी फसल बरबाद होने से इसलिए खुश है कि इतनी सर्द रात से उसे छुटकारा मिल जाएगा। यह सचमुच एक विडम्बनापूर्ण स्थिति है। जिसके लिए समाज का कोई न कोई तबका जिम्मेदार है। मजबूरी और बेबसी इतनी भारी हो जाय तो फिर ‘कफन’ की बुधिया की मौत व पीड़ा भी हल्की हो जाती है। मुंशी जी समाज की उस नब्ज पर हाथ रखते हैं जिसकी धड़कन असाधारण रूप से असंगत है और उसे दुरुस्त करने की आवश्यकता है।

मुंशीजी लिखते हैं- ‘आज तीस साल तक जीवन से लड़ते रहने के बाद... वह चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है, भाइयो, मैं दया का पात्र हूँ, मैंने नहीं जाना, जेठ की लू  कैसी होती है और माघ की वर्षा कैसी होती है। इस देह को चीरकर देखो, इसमें कितना प्राण रह गया है, कितना ज़ख्मों से चूर-कितना ठोकरों से कुचला हुआ। उससे पूछो, कभी तूने विश्राम के दर्शन किए, कभी तूं छाँह में बैठा ?’4 यह अकेले होरी की आत्मा नहीं हो सकती। यह पूरे भारतीय कृषक की आत्मा है, जो युगों से कराह रही है। प्रेमचंद का सामाजिक अभिगम इसी प्रकार की कराहों, टीसों और आहतों की आहों से तैयार होता है। उनकी दृष्टि उस छोटी से छोटी विसंगति तक जाती है जिसको देखते-देखते समाज इतना अभ्यस्त हो चुका है कि उसे वह गलत नहीं समझता। प्रेमचंद उसी समझ का परिष्कार करते हैं औऱ छोटी-सी दिखनेवाली वह विषमता अन्ततः पूरे रोग की जड़ निकलती है। पंचों में परमेश्वर का वास मुंशी जी को तभी स्वीकार्य है जब उनकी नीयत में कोई खोट न हो अन्यथा यह मुहावरा उनके लिए बेमानी हो जाता है।

कुल मिलाकर, मुंशी जी का लेखकीय अभिगम सर्वप्रथम सामाजिक आयाम पर उजाकर होता है उसके बाद ही जीवन के अन्य क्षेत्रों की दिशा में गतिशील होता है। समता, न्याय औऱ स्वावलम्बन पर टिके हुए समाज का सपना प्रेमचन्द साकार होता देखना चाहते है जिसमें बराबरी का हक हो, वर्ग-भेद और वर्ण-भेद का दूषण लेशमात्र न हो, नारी-जाति का सम्मानजनक स्थान हो और आखिरकार मानवतावादी सोच हो। साथ ही, वैचारिक स्वातंत्र्य की गुंजाइश हो जो आत्मविश्वास और पारदर्शिता जैसे गुणों से युक्त हो। उस सामाजिक ढांचे की चाह मुंशी जी की रचनाशीलता में कदम-कदम पर दिखाई देती है। वे जीवन को समझने व समझाने के लिए इसीलिए वस्तुजगत और स्थूल यथार्थ का सहारा अधिक लेते हैं। अपने समय के युग का न केवल साक्षात्कार बल्कि उस युग के ‘सत्य’ से सीधी मुठभेड़ है जिसके मूल में युगीन समाज व सामाजिक मूल्य निहित हैं।

अस्तु

डॉ. मदनमोहन शर्मा

स्नातकोत्तर हिन्दी-विभाग,

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर (गुजरात)

संदर्भः

1.  हंसराज रहबर द्वारा उद्दधृत (प्रेमचंद-घरमें) प्रेमचंद का साहित्य... (लेख) प्रेमचंद का कथा-संसार, पृ. 43-44

2.  भीष्म साहनी, प्रेमचंद के कथा साहित्य में.... (लेख) प्रेमचंद का कथा-संसार, पृ. 33

3.  ‘दूध का दाम’- प्रेमचंद (कहानी से उद्दधृत)

4.  ‘गोदान’ – प्रेमचंद, पृ. 359

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

1 टिप्पणी:

  1. प्रेमचंद के कथासाहित्य के सामाजिक पक्ष का विस्तृत परिचय एवम मूल्यांकन संबंधी स्तरीय आलेख। बधाई। 💐

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