बुधवार, 21 जुलाई 2021

आलेख

 

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को प्रेमचंद की देन

डॉ.गिरीश रोहित

भारत ने शांतिमय समर की रणभेरी बजा दी है, हंस भी मानसरोवर की शांति छोड़कर, अपनी नन्हीं सी चोंच में चुटकी भर मिट्टी लिये समुद्र पाटने, अपनी आज़ादी की जंग में योग देने चला है।”

–  ‘हंस’ प्रथम संपादकीय (प्रेमचंद) से।

“उपन्यास और कहानियाँ तो लिखीं ही, साहित्य, संस्कृति, समाज, राजनीति से सम्बन्ध रखने वाले विविध प्रसंगों पर ढेरों लेख भी लिखे। इस प्रकार के लेखन का उनका क्रम आजीवन चला और मुंशीजी के साहित्यिक व्यक्तित्व और देन को समझने के लिए उनका महत्व मुंशीजी के कथा साहित्य से अणुमात्र कम नही है।”

      प्रेमचंद : विविध प्रसंग -1 ‘भूमिका’ से                                                                                                                                                                      

प्रस्तावना

       आधुनिक काल में भारतेन्दु युग तक हिन्दी पत्रकारिता अपने विकास के तीन चरण-प्रथम 1826-1867,द्वितीय 1868-1885 और तृतीय 1886-1900 पूरे कर चुकी थी। प्रथम चरण (1826-1867 ई.) में उदन्त मार्तंड-1826 (कलकत्ता ),बंगदूत (कलकत्ता), बनारस अख़बार (बनारस), मालवा अख़बार (मालवा), बुद्धि प्रकाश (आगरा), समाचार सुधावर्षण (कलकत्ता), प्रजा हितैषी (आगरा), तत्व बोधिनी (बरेली), ज्ञान प्रदायिनी (लाहौर),वृतांत विलास (जम्मू) आदि उल्लेखनीय हैं। इन में अधिकांश साप्ताहिक पत्र थे,जो जन जागरण व समाज सुधार की भावना जगाने प्रयासरत थे।

        द्वितीय चरण (1868-1885 ई.) में कविवचन सुधा-1868 ( काशी), हरिश्चंद्र मैगजीन-1876 (बनारस), बालाबोधिनी-1874 (बनारस), भारत बंधु-1874 (अलीगढ़), काशी पत्रिका-1875 (काशी), हिन्दी प्रदीप-1877 (इलाहाबाद), इन्दु-1883 (लाहौर), भारतोदय-1885 (कानपुर) इत्यादि के अलावा भी कई ऐसी पत्र-पत्रिकाएँ थी जो भारतीय जन मानस में राष्ट्रप्रेम जगाने व जन जीवन के उत्थान हेतु अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे। हिन्दी पत्रकारिता के इस द्वितीय चरण में,खासकर साहित्यिक हिन्दी पत्रकारिता की नींव डालने में भारतेन्दु हरिश्चंन्द्र का बहुमूल्य योगदान रहा है। इस चरण में हिन्दी अपने परिमार्जित स्वरूप में अपनी जगह बनाने में सफल होती नज़र आती है।

        तृतीय चरण (1886-1900 ई.) में आर्याव्रत-1887 (कलकत्ता), हिन्द बंगवासी-1890 (कलकत्ता), साहित्य सुधानिधि-1894 (काशी), नागरी प्रचारिणी पत्रिका-1896 (काशी), उपन्यास-1898 (काशी), सरस्वती-1900 (इलाहाबाद) वगैरह चर्चित रही हैं। इनमें ‘सरस्वती’ पत्रिका जिसका लम्बे अर्से (20 वर्ष) तक सम्पादन आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने किया,एक विशिष्ट साहित्यिक हिन्दी पत्रिका बनकर उभरी। इसने साहित्यिक पत्रकारिता जगत में नये कीर्तिमान बनाये।

        इसके पश्चात् कुछ ऐसी पत्रिकाएँ भी अस्तित्व में आयी जिनका मुख्य स्वर विद्रोही रहा,जिसने उग्र राष्ट्रवाद को जन्म दिया । इस प्रकार की पत्रिकाओं में हिन्द केसरी ( लोकमान्य तिलक), नृसिंह (अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी), प्रताप (गणेश शंकर विद्यार्थी),अभ्युदय (पं.मदन मोहन मालवीय), कर्मयोगी (सुंदरलाल), कर्मवीर (माखनलाल चतुर्वेदी), विजय (मूलचंद अग्रवाल) आदि उल्लेखनीय हैं। ये पत्र-पत्रिकाएँ प्रखर राजनीतिक चेतना जागृत करने में अत्यंत प्रभावशाली रही। इस तरह हिन्दी पत्रकारिता राजनीतिक और साहित्यिक दोनों धाराओं में विकसित होती गयी। भारतेन्दु हरिश्चंद्र (कविवचन सुधा,हरिश्चंद्र चन्द्रिका,बालबोधिनी) से लेकर बालमुकुन्द गुप्त ( बाबूराव विष्णु पराड़कर (आज), अम्बिकादत्त वाजपेयी (स्वतंत्र), बदरी नारायण चौधरी (आनंद कादम्बिनी,भारत दीपिका,देवनागरी प्रचारक), प्रताप नारायण मिश्र (ब्राह्मण), जयशंकर प्रसाद (इन्दु), प्रेमचंद (माधुरी,हंस,जागरण), निराला (मतवाला व समन्वय), अज्ञेय (विशाल भारत), माखनलाल चतुर्वेदी (कर्मवीर), शिवपूजन सहाय (माधुरी,मतवाला), बनारसीदास चतुर्वेदी (विशाल भारत) जैसे हिन्दी साहित्यकारों ने भी पत्रकारिता की महत्ता को स्वीकार कर इसके माध्यम से अपनी वैचारिकता को वाणी प्रदान की। इन में प्रेमचंद का पत्रकारिता से जुड़ा लेखन न केवल उस काल में,बल्कि आज के दौर में भी प्रासंगिक बना हुआ है। आइये देखते है हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को प्रेमचंद की क्या देन रही है?

हिन्दी पत्रकारिता और प्रेमचंद

       आज हिन्दी कथा साहित्य जगत में प्रेमचंद और उनका लेखन एक विरासत बन चुका है। प्रेमचंद ने उपन्यास तथा कहानी लेखन के जरिये भारतीय समाज को कमोबेश अपनी संपूर्णता में देखने-परखने व उजागर करने का सार्थक  प्रयास किया है । एक कथाकार के रूप में उनके कथा साहित्य पर जितना विवेचन-विश्लेषण व शोधादि कार्य हुए  हैं,होते रहे हैं, उनके पत्रकार व्यक्तित्व पर उतनी चर्चाएँ नहीं हुई है । जब कि प्रेमचंद ने दोनों (रचनात्मक-वैचारिक) प्रकार के लेखन की शुरूआत साथ-साथ की थी । एक सर्जक के रूप में प्रेमचंद का कथा साहित्य संवेदना व सामाजिक सरोकारों से जितना उर्वर है, पत्रकारिता से जुड़ा वैचारिक लेखन भी साफगोई,पैनी दृष्टि,निष्पक्षता एवं बेबाकी से उतना ही ओतप्रोत रहा है । अगर यह कहे कि पत्रकारिता से जुड़ा उनका लेखन-टिप्पणियाँ,लेख,समीक्षाएँ आदि न केवल हिन्दी पत्रकारिता जगत के लिए, बल्कि समस्त पत्रकारिता जगत के लिए भी दिशा-निर्देश करने वाला रहा है इस में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। उनकी इस देन को हम चाहकर भी न भुला सकते है न नज़र अंदाज कर सकते हैं । क्योंकि आज भी उनका कथा साहित्य जितना प्रासंगिक बना हुआ है,पत्रकारिता से जुड़ा लेखन  भी अनेक संदर्भों में प्रासंगिक  व दिशा-निर्देश करने वाला रहा है । मैंने इस आलेख के जरिये पत्रकारिता जगत से रहे उनके  सरोकारों और साहित्यिक हिन्दी पत्रकारिता को रही देन को रेखांकित करने का स्तुत्य प्रयास किया है ।

पत्रकारिता की बात करे तो प्रेमचंद का उर्दू पत्रिका ‘जमाना’, हिन्दी पत्र-पत्रिका ‘माधुरी’, ‘हंस’, ‘जागरण’, ‘सुधा’, ‘मर्यादा’,’चाँद’, आदि तथा ‘सरस्वती प्रेस’ से विशेष ताल्लुकात रहा है। प्रेमचंद स्वराज, समाज, धर्म, संस्कृति, राजनीति, किसान, ब्रिटीश सल्तनत आदि के संदर्भ में अपने जो विचार रचनाधर्मिता के जरिये व्यक्त नही कर पाते थे,उन्हें विविध पत्र-पत्रिकाओं में टिप्पणियाँ,लेख,समीक्षाएँ आदि के जरिये बेबाक ढ़ंग से व्यक्त किये हैं। वह भी उस दौर में जब भारत पराधीन था। एक ओर ब्रिटीश सल्तनत द्वारा दमन व अत्याचार जोरों पर था, तो दूसरी ओर देश में स्वराज्य प्राप्ति हेतु आवाज़ बुलंद हो रही थी। इतना ही नहीं ब्रिटीश सल्तनत एक ओर नये-नये कानून बनाकर समाचार पत्रों आदि की स्वतंत्रता छीनती जा रही थी,दूसरी ओर राष्ट्र चेतना जगाने वाले पत्र-पत्रिकाओं पर जुर्माना लगाकर उनका गला घोंट रही थी। ऐसे विपरित हालात में भी प्रेमचंद और उनकी लेखनी दोनों राष्ट्रमुक्ति व राष्ट्र निर्माण हेतु अविरत चलते रहे। जहाँ तक विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख,टिप्पणियों की बात है,वे सन् 1905 ई. से मृत्यु पर्यंत यानी लगातार तीन दशक तक लिखते रहे। साथ ही उन्होंने ‘मर्यादा’, ‘माधुरी’, ‘हंस’ व ‘जागरण’ का जुझारू सम्पादन कार्य भी किया। सन् 1921में प्रेमचंद सरकारी नौकरी छोड़कर कानपुर से बनारस आ गये। वहाँ उन्होंने ‘मर्यादा’ का सम्पादन कार्य संभाला। यह अपने समय की एक उत्कृष्ट पत्रिका थी,जिसमें प्रेमचंद की आरंभिक कहानियाँ प्रकाशित हुई थी। ‘माधुरी’ का प्रकाशन अगस्त,1921 ई. को लखनऊ से हुआ,जिसके प्रथम सम्पादक थे विष्णुनारायण भार्गव। कुछ वर्ष पश्चात् प्रेमचंद ने इसका सम्पादन कार्य संभाला। इसी बीच उन्होंने बड़ी जद्दोजहद उठाकर ‘सरस्वती प्रेस’ ड़ाला। सन् 1930 में ‘हंस’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ,जिसके सम्पादकीय ने इसे स्वाधीनता आंदोलन की आवाज़ के रूप में उभरा। प्रेमचंद ने इसके सम्पादकीय में लिखा था कि – “भारत ने शांतिमय समर की रणभेरी बजा दी है, हंस भी मानसरोवर की शांति छोड़कर,अपनी नन्हीं सी चोंच में चुटकी भर मिट्टी लिये समुद्र पाटने, अपनी आज़ादी की जंग में योग देने चला है।”1

सन् 1932 में प्रेमचंद ने ‘हंस’ का ‘काशी’ विशेषांक निकाला। प्रेमचंद अपने प्रगतिशील विचारों एवं बेबाकपन के कारण न केवल ब्रिटीश सल्तनत के,बल्कि भारत के रूढिग्रस्त लोगों के कोपभाजन के शिकार बनते रहे। उन पर ‘घृणा के प्रचारक’ का लेबल भी लगा। इन सबकी परवाह किये बगैर वे निरंतर लिखते रहे, हंस निकालते रहे।’हंस’ के उग्र तेवर के चलते ब्रिटीश सल्तनत द्वारा इसे जब्त़ करने से लेकर उस पर ‘इण्डियन ऑर्डिनन्स 1930’ के तहत दो बार जमानत भी लगायी। प्रेमचंद आर्थिक अभाव झेलकर, कर्ज़ में डूबकर भी पत्रिका निकालते रहे। क्योंकि पत्रकारिता उनके लिए पेशा नहीं,एक मिशन थी। जिसके जरिये वे देश में आमूल क्रान्ति चाहते थे। इसी के साथ-साथ उन्होंने एक ढंग के साहित्यिक पत्र हेतु सन् 1932 में हिन्दी साप्ताहिक ‘जागरण’ का प्रकाशन शुरू किया। इसकी आवश्यकता पर उन्होंने ‘जागरण’ के (22,अगस्त 1932) अंक में लिखा था कि – “कुछ सज्जन कहेंगे, हिन्दी में कईं अच्छे साहित्यिक पत्र हैं और वह हिन्दी की यथार्थ सेवा कर रहे हैं, फिर एक नये साप्ताहिक की क्या जरूरत थी? ऐसे सज्जनों से हमारा निवेदन है कि काशी की तीर्थभूमि से, जो हिन्दू संस्कृति का केन्द्र है, इस समय एक भी साप्ताहिक पत्र ऐसा नहीं निकलता, जिसकी अन्य भाषा के पत्रों से तुलना की जा सके।”2

        पत्रकारिता के जरिये सचमुच में प्रेमचंद देश और देश की जनता को जगाने अपनी कलम चलाते रहे। बात चाहे देशी चीजों के प्रचार की हो या स्वदेशी आंदोलन की, राजनीतिक या आर्थिक स्वराज्य प्राप्ति की हो, गोलमेज परिषद की, देश के किसानों, दलितों व मजदूरों की सब पर वे तीखी व प्रखर टिप्पणियाँ करते रहे। उन्होंने ‘जमाना’ के जून 1905 के अंक में ‘देशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है’ में लिखा था कि “मगर केवल पढ़े लिखे लोगों के संरक्षण और  सहानुभूति से हमारे व्यापार की भी यथेच्छ उन्नति नही हो सकती जब तक कि आबादी का वह बड़ा हिस्सा जो मुल्की और कौमी मामलों की तरफ से बेखबर है,इस अच्छे काम में हाथ न बटाये।”3 तो दूसरी ओर 16 नवम्बर, 1905 के ‘आवाज़े खल्क़’ में ‘स्वदेशी आंदोलन’ टिप्पणी अंतर्गत सांकेतिक रूप में लिखते है – “विदेशी चीजों का रिवाज सभ्य लोगों का डाला हुआ है और अगर स्वदेशी आंदोलन को सफलता होगी तो उन्हीं के किये होगी।” मेरे खयाल से यह टिप्पणी वर्तमान समय में भी उतनी ही सोचनीय है। ऐसी ही एक मार्मिक टिप्पणी प्रेमचंद ने ‘स्वदेश’ के प्रवेशांक में सम्पादकीय के रूप में की थी – “हिन्दुस्तान का उद्धार हिन्दुस्तान की जनता पर निर्भर है। जनता में अपनी योग्यता के अनुसार यह भाव पैदा करना प्रत्येक देशवासी का परम धर्म है। तुममें उन्नति करने की ,गौरवशाली बनने की शक्ति मौजूद है।”4

स्वाधीनता आंदोलन में प्रेमचंद ने अपनी लेखनी को  एक सशक्त हथियार के रूप में इस्तेमाल किया था। इस संदर्भ में उन्होंने ‘वर्तमान आंदोलन के रास्ते में रूकावटें’, ‘स्वराज्य से किसका अहित होगा’, ‘आजादी की लड़ाई’, ‘स्वराज्य संग्राम में किसकी विजय हो रही है’, ‘स्वराज्य आंदोलन पर आक्षेप’, ‘स्वराज्य मिलकर रहेगा’, ‘महात्माजी की स्वाधीनता’, ‘आर्थिक स्वराज्य’, ‘हमारी गुलामी बढ़ेगी’, ‘स्वराज्य के फायदे’ इत्यादि टिप्पणियों द्वारा उन्होंने अपनी तेज़-तर्रार लेखनी का परिचय दे दिया था। प्रेमचंद ने स्वराज्य के संदर्भ में ‘हंस’ ( मई,1931) में जो टिप्पणी की थी, वर्तमान समय में भी अपनी कितनी अर्थवत्ता रखती हैं – कभी-कभी देश को देखकर हमें स्वराज्य से निराशा हो जाती है। जहाँ हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन काटने पर तुले हैं, जहाँ किसान और जमींदार में संघर्ष है, अछूतों और वर्ण वालों में संघर्ष है, वहाँ स्वराज्य के विषय में शंकाओं का होना स्वाभाविक है। लेकिन इन सब बाधाओं के होते हुए भी स्वराज्य के पक्ष में एक ऐसी बलवान शक्ति है, जिसके सामने यह बाधाएँ बहुत दिनों तक नहीं ठहर सकती और वह शक्ति है समय की प्रगति या संसार का जनमत।”5

प्रेमचंद ने साम्प्रदायिक समस्या पर भी समय समय पर अपने समन्वयकारी विचार व्यक्त किये हैं। स्वराज्य आंदोलन  के समय हिन्दू-मुसलमान को लेकर  ‘जागरण’ के फरवरी सन् 1924 के अंक में जो विचार व्यक्त किये थे बड़े चिन्तनीय हैं – “मुसलमानों में अली बरादरान,मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद, डॉ. किचलू एकता के लिए अपने को समर्पित कर चुके हैं। हिन्दुओं में यह कतार खाली है। कितने शर्म की बात है कि जिस एकता को प्रेमचंद ने स्वराज्य की पहली सीढ़ी करार दिया हो उसके लिए एक प्रभावशाली हिन्दू बुज़ुर्ग पूरी तरह तैयार नहीं है। अगर यही रफ्तार है तो स्वराज्य मिल चुका,और अगर हलवाई की दुकान पर दादे का फ़ातिहा पढ़ा जाना मुमकिन हो तो हमें स्वराज्य के नाम पर फ़ातिहा पढ़ लेना चाहिए।”6

साम्प्रदायिकता के संदर्भ में प्रेमचंद के विचार गांधी के विचारों के समर्थक रहे हैं। उनकी दृष्टि में राष्ट्र सर्वोपरी है,बाद में सब कुछ। इस दृष्टि से प्रेमचंद लिखित ‘साम्प्रदायिक मताधिकार की घोषणा’ ( जागरण,अगस्त  1932), ‘अब हमें क्या करना है’ (जागरण,अगस्त 1932), ‘हिन्दू महासभा की निष्क्रियता’ (जागरण,अक्टुबर 1932), ‘मुस्लिम सर्वदल सम्मेलन’ ( जागरण,19 अक्टुबर 1932) आदि टिप्पणियाँ पठनीय हैं। देखिये ‘जागरण’ 29, अगस्त 1932 में व्यक्त प्रेमचंद के विचार इस समस्या के अंत  के लिए कितने सकारात्मक हैं – “इसका केवल एक ही उपाय है- साम्प्रदायिक मनोवृत्ति का शमन। जिस दिन हम इस मनोवृत्ति को त्याग देंगे,उसी दिन मुसलमानों में भी उसका ह्रास हो जायेगा। अब आने वाले वर्षों में इसी साम्प्रदायिकता से संग्राम करना है-सहिष्णुता,विश्वास,धैर्य और सेवा के शस्त्रों से। इसी में राष्ट्र का कल्याण है।”7

आजादी के बाद भी साम्प्रदायिक समस्या की तरह छुआछूत की समस्या से आज भी भारत मुक्त नहीं हो पाया है। दलितों के अलग मताधिकार के मसले पर प्रेमचंद महात्मा गांधी के पक्षधर होते हुए भी दलितों के प्रति उतने ही चिंतित नज़र आते है। देखिये जागरण ( ‘महान तप’ 19,दिसम्बर 1932 तथा ‘हमारा कर्तव्य’ 26, सितम्बर 1932) की टिप्पणी “महात्माजी की तपस्या ने हमारे एक महान संकट को अवश्य ही टाल दिया है, किन्तु हमने अभी अपने कर्तव्य का पूरा निर्वाह नहीं किया। अभी हमारे सामने बहुत बड़ा कर्तव्य खड़ा हुआ है। हमारा कर्तव्य तभी पूरा होगा, जब हम देश के वर्तमान अछूतपन को जड़मूल से नष्ट कर देंगे।”8

प्रेमचंद ने इसी तरह  किसानों और मजदूरों की पक्षधरता में अपने प्रखर विचार व्यक्त किये हैं। किसान के संदर्भ में ‘जागरण’ में ‘हतभागे किसान’ (19,सितम्बर 1932), ‘महाजन और किसान’ ( 3 जुलाई 1933 ), ‘किसान सहायक एक्ट’ (16,अप्रैल  1934) आदि तो उल्लेखनीय हैं ही इसके अलावा भी कई धारदार टिप्पणियाँ लिखी हैं। किसान की समस्याओं को लेकर उस दौर में प्रेमचंद ने जो विचार व्यक्त किये है,कहीं न कहीं आज के किसान, सरकार और पूँजीपतियों के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक हैं – “अब तक सरकार ने किसानों के साथ सौतेले लड़के का- सा व्यवहार किया है। अब उसे किसानों को अपना जेठा (ज्येष्ठ) पुत्र समझकर उसके अनुसार अपनी नीति का निर्माण करना पड़ेगा।”9

“जब तक देश के सुदिन नहीं आ जाते सभी व्यवसायों का राष्ट्रीयकरण नहीं हो जाता ,पूँजीपतियों के हाथ में किसानों और मजदूरों की किस्मत रहेगी और सरकार ऊपरी मन से नियंत्रण करने का स्वांग भरकर कोई उपकार नहीं कर सकती।”10

प्रेमचंद की उपरोक्त टिप्पणियाँ पढ़ने पर हमें इस बात का एहसास हो जाता है कि पत्रकारिता के संदर्भ में उनके विचार कितने क्रान्तिकारी व दूरंदेशी थे। वे सदैव सत्य,निष्पक्षता,समन्वयवादिता के साहसी पक्षधर व सच्चे राष्ट्रवादी थे। सत्य के लिए उन्होंने ब्रिटीश सल्तनत की जमानतें भरना पसंद किया, लेकिन अपनी पत्रकारिता को चाटुकारिया से अवश्य बचाये रखा। इसका सटीक उदाहरण है ‘जागरण’ साप्ताहिक और ‘सरस्वती प्रेस’, जो स्वाधीनता आंदोलन में तकरीबन पौने दो साल तक देश सेवा करने के पश्चात् कम्पनी सरकार की दमनकारी नीतियों और कानूनी ऑर्डिनन्सों के चलते प्रेमचंद को ‘जागरण’ बन्द करना पड़ा। देखिये इस संदर्भें व्यक्त प्रेमचंद की चिंता व चिंतन वर्तमान में कितना प्रासंगिक बनता है – “समाज पर घोर से घोर अनाचार करने वालों पर भी इतना कठोर नियंत्रण नहीं रखा जाता, जितना सम्पादकों पर, मानों ये रींछ या मर्खने सांड़ हैं,कि जरा भी छूटे और उपद्रव मचाना शुरू कर देंगे। हमें भय है कि इन प्रतिकूल दशाओं में समाचार पत्रों का बढ़ना और पनपना कठिन हो जायेगा।”11

      निष्कर्ष रूप में कहे तो प्रेमचंद का रचनात्मक लेखन हो या पत्रकारिता से जुड़ा वैचारिक लेखन, दोनों पराधीन काल में एक मिशन के रूप में अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे थे। तमाम विषयों पर संतुलित और निष्पक्ष रूप में विचारों को व्यक्त करना प्रेमचंद के व्यक्तित्व का एक सक्षम पक्ष रहा है। उनकी इसी लेखनी ने न केवल साहित्य जगत को,बल्कि पत्रकारिता जगत को भी कालजयी प्रतिमान प्रदान किये हैं। उनके पत्रकारिता से जुड़े लेखन को सार रूप में इस प्रकार कह सकते है कि , ‘एक सच्ची पत्रकारिता न झुक सकती है,न बिक सकती है’ ।

1.हंस, अंक-1,वर्ष-1930, सं.प्रेमचंद (‘संपादकीयसे)    

2.प्रेमचंद : विविध प्रसंग-2, संकलन – अमृतराय, पृष्ठ संख्या - 539

3. प्रेमचंद : विविध प्रसंग-1,संकलन-अमृतराय, पृष्ठ संख्या - 19

4.प्रेमचंद : विविध प्रसंग-2, संकलन – अमृतराय, पृष्ठ संख्या - 22

5.वही, पृष्ठ संख्या - 75

6.वही, पृष्ठ संख्या - 357

7.वही, पृष्ठ संख्या - 382

8. वही, पृष्ठ संख्या - 440/441

9. वही, पृष्ठ संख्या - 489

10. वही, पृष्ठ संख्या - 496

11.वही, पृष्ठ संख्या - 542

                                                     


    डॉ.गिरीश रोहित

अध्यक्ष

हिन्दी विभाग

श्री आर.पी.आर्ट्स कॉलेज

खंभात (गुजरात)

 

 

1 टिप्पणी:

  1. हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता में प्रेमचंद के स्थान एवम महत्व को रेखांकित करता बढ़िया आलेख। 💐👌

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