शिवरानी
के प्रेमचन्द और प्रेमचंद की शिवरानी : संदर्भ - ‘प्रेमचन्द : घर में’
दयाशंकर
विधागत स्वरूप की दृष्टि से ‘प्रेमचंद
: घर में’ जीवनी और आत्मकथा दोनों का सीमांत छूती है। चूँकि शिवरानी देवी ने यह
पुस्तक प्रेमचंद के जीवन के संदर्भ में लिखी है, इस दृष्टि से उसका एक रंग जीवनी
का है। लेकिन शिवरानी देवी प्रेमचंद की पत्नी हैं और दाम्पत्यजीवन और घर-परिवार
में दोनों की साझेदारी है। इसलिए उसका एक बड़ा हिस्सा स्वयं शिवरानी देवी के
आत्मकथ्य के रूप में है। अतः उसमें आत्मकथा का रंग भी मिल गया है। यद्यपि शिवरानी
देवी की नजर में ‘प्रेमचंद : घर में’
प्रचलित जीवनियों से अलग विशेष प्रकार की जीवनी है। इस सिलसिले में वे लिखती हैं
कि ‘‘इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य उस महान आत्मा की कीर्ति फैलना नहीं है, जैसा
कि अधिकांश जीवनियों का होता है। इस पुस्तक में आपको घरेलू संस्मरण मिलेंगे, पर इन
संस्मरणों का साहित्यिक मूल्य इस दृष्टि से है कि उस महान साहित्यिक व्यक्तित्व का
परिचय मिलता है। मानवता की दृष्टि से वह व्यक्ति कितना महान, कितना विशाल था यही
बताना इस पुस्तक का उद्देश्य है और यह बताने का अधिकार जितना मुझे है उतना और किसी
को नहीं, क्योंकि उन्हीं के शब्दों में हम दोनों ‘एक ही नाव के यात्री थे’ और हमने
साथ-साथ ही जिन्दगी के सब तूफानों को झेला था, दुख में और सुख में हमेशा उनके साथ,
उनके बगल में थी। (प्रेमचंद : घर में, दो
शब्द)
शिवरानी देवी ने प्रेमचंद से
अपनी शादी होने के पहले के प्रेमचंद का जीवन संदर्भ-जन्म, बचपन, पहला विवाह,
छात्रजीवन का संघर्ष, कथा सृजन आदि संभवतः प्रेमचंद के मुंह से सुनकर लिखा है ताकी
जीवनी का प्रारंभिक हिस्सा छूट न जाये। इसके बाद शिवरानी देवी ने बहुत संक्षेप में
अपनी पहली शादी, विधवा होने और बाद में प्रेमचंद से शादी होने का पूरा प्रसंग
आत्मकथ्य के रूप में प्रस्तुत किया है। वे लिखती हैं कि ‘‘मेरी पहली शादी ग्यारहवें
साल में हुई थी। वह शादी कब हुई इसकी मुझे खबर नहीं। कब मैं विधवा हुई, इसकी भी
मुझे खबर नहीं है। विवाह के तीन-चार महीने के बाद मैं विधवा हो गई।’’ (प्रेमचंद : घर में, पृ. 11) प्रेमचंद के साथ दूसरी शादी
होने के समय वे पूरे होशोहवाश में थी, लेकिन पितृसत्तात्मक व्यवस्था की विडम्बना
के साथ प्रेमचंद की दिलेरी उन्हें ताउम्र याद रही कि - ‘‘मुझे यह भी नहीं मालूम कि
मेरी शादी कहाँ हो रही है ? मेरी शादी में आपकी चाची बगैरह किसी की राय नहीं थी।
मगर यह आपकी दिलेरी थी। आप समाज का बंधन तोड़ना चाहते थे। यहाँ तक कि आपने अपने
घरवालों को भी खबर नहीं दी। मेरी शादी हुई।’’ (वही, पृ.11)
शिवरानी देवी की पुस्तक का
नाम है- ‘प्रेमचंद : घर में’, लेकिन
प्रेमचंद सिर्फ एक व्यक्ति यानी किसी के पुत्र, पति, पिता, ससुर आदि भर नही थे,
बल्कि वे बहुत लोकप्रिय औऱ सक्रिय साहित्यकार थे औऱ पेशे की दृष्टि से सन् 1920 तक
वे अधिकारी थे। अतः प्रेमचंद का जीवन अभिधार्थ में घर तक सीमित नहीं है। यही कारण
है कि ‘प्रेमचंद : घर में’ शिवरानी देवी
ने प्रेमचंद और अपने व्यक्तिगत जीवन, घर-परिवार, नात-रिश्ते को तो जगह दी है,
लेकिन उसी के भीतर प्रेमचंद की स्थानातंरण प्रकृति वाली सरकारी नौकरी, प्रतिबद्ध
साहित्यलेखन, हिन्दी के विविध साहित्यिक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी और फिल्म
जगत की गतिविधियों से संबद्ध हैं। उनको भी जगह दी। इनके चलते उसका दायरा बहुत
व्यापक हो जाता है। दरअसल स्वाधीनता आंदोलन के दौर में लिखनेवाले किसी क्षेत्र और
भाषा के बड़े साहित्यकार के घर का अर्थ व्यक्तिगत दायरे तक सीमित नहीं था।
प्रेमचंद एक व्यक्ति के साथ हिन्दी-उर्दू के बड़े साहित्यकार थे और देश की आम जनता
के मद्देनजऱ लिखते रहे, वे अपनी कला को फिल्मी गलियारे तक ले गये। यह बात अलग है
कि बाद में उससे उनका मोहभंग हो गया और वे फिर साहित्य की दुनिया में लौट आये। इस
प्रकार ‘प्रेमचंद : घर में’ शिवरानी देवी
के प्रेमचंद तो हैं ही, भारत की करोड़ो आमजनता के जीवनस्तर उठाने और समझ विकसित
करने की आकांक्षा रखकर उनके लिए लिखनेवाले प्रेमचंद भी है। ‘प्रेमचंद : घर में’ की एकाधिक अर्थ संलिष्टता और उसका
निर्वाह शिवरानीदेवी की इस पुस्तक को विशिष्ट रूप और अर्थ प्रदान करता है। इस घर
में शिवरानी देवी के प्रेमचंद-स्वामी, सखा आदि अनेक रूपों में मौजूद तो है ही,
इसके साथ उसमें प्रेमचंद की शिवरानी भी आत्मसजगता के साथ हाजिर हैं। यह
शिवरानीदेवी का आत्मकथ्य है कि ‘‘मुझसे उनसे कोई आठ साल तक नहीं पटी / क्योंकि
उनके घर में बमचख बहुत था। मैं बमचख की आदी न थी। वे चाहते थे कि मैं अपने लिए खुद
स्थान तैयार करूँ। उनकी बीवी के नाते मैं घर की मालकिन बनकर बैंठू। और मैं चाहती
थी कि मैं क्यों यह झंझट बरदाश्त करूँ, मैं भी दुनिया देखना चाहती थी।’’ (वही, पृ.
12)
शिवरानी देवी ‘प्रेमचंद : घर में’ प्रारंभ में हमें जिस प्रेमचंद से
मिलवाती हैं वे अपने पारिवारिक प्रपंचों से घिरे-उलझे, हल में जूते बैल की तरह
हैं। प्रेमचंद ने अपनी इसी पारिवारिक जमीन और परिवेश में शिवरानी देवी को उनके
मायके से उखाड़कर ला रोपा था। स्थानांतरण प्रकृतिवाली नौकरी के चलते धीरे-धीरे घर
पर बिमाता का शिकंजा ढीला पड़ता गया और करीब दस वर्षों के बाद शिवरानी देवी
प्रेमचंद के घर की मालकिन बन बैठी। आगे प्रेमचंद और शिवरानी के अपने बच्चे क्रमशः
कमला, धुन्नू (श्रीपतराय), बन्नू (अमृतराय) पैदा हुए। इसी दौरान प्रेमचंद को अपने
मझले बच्चे और एक मात्र जीवित बहन की असमय मृत्यु का शोक भी बरदास्त करना पड़ा।
पूरे पारिवारिक संदर्भ में शिवरानी देवी अपने पाठकों को एक पारिवारिक-सामाजिक
दंम्पति के रूप में अपने और प्रेमचंद को बिना किसी ढाँक-तोप के यानी दोनों की आपसी
नोंक-झोंक, बतकुट्टन, मान-मनौबल, विचार-विमर्श को दिखाती हैं। इसके साथ तीनों
बच्चों के प्रति माता-पिता के रूप में अपने लगाव और व्यवहार का भी दर्शन करवाती
हैं।
प्रेमचंद और शिवरानी देवी की
प्रकृति और सोच में काफी अन्तर था। शिवरानी की नजर में प्रेमचंद निहायत सीधे और
सरल व्यक्ति थे। इसके चलते परिवार के लोग तो उन्हें परेशान करते ही थे, लेखक और
परिचित भी उनका खासा फायदा उठाते थे, जबकि खुद की दृष्टि में शिवरानी जरूरत से
ज्यादा क्रोधी और बातूनी थी। प्रेमचंद का स्वभाव काफी विनोदी और मिलनसार भी था। वे
शिवरानी देवी का गुस्सा बातों-बातों में अपने विनोद और हँसी से ठंडा कर देते थे।
स्वभाव के अन्तर के बावजूद दोनों एक दूसरे से प्यार, एक-दूसरे का खयाल रखते थे और
घर की समस्या पर विचार-विमर्श भी करते थे। शिवरानी देवी ने लिखा है कि ‘‘मेरी
बातों को वे बहुत महत्व देते थे। अपने जीवन में कोई भी काम उन्होंने मेरी सलाह के
बिना नहीं किया।’’ (प्रेमचंद : घर में,
पृ. 48) प्रेमचंद ने शिवरानी से गंभीर विचार-विमर्श के बाद नौकरी छोड़ने का निश्चय
किया था। प्रकृति की भिन्नता होते हुए दोनों में इतना लगाव और एक दूसरे का इतना
खयाल रहता था कि प्रेमचंद का अधूरा काम शिवरानी और शिवरानी का सौंपा काम प्रेमचंद
पूरा करते थे। लगाव और भरोसे का अदांजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार
शिवरानी की तबियत संग्रहणी से ठीक नही हो रही थी। वे प्रेमचंद से बोली कि ‘‘मान
लो, मैं मर ही जाऊँ तो कौन-सी कोयले की नाव डूब जायेगी। बेटी, धुन्नू सयाने ही
हैं, बन्नू की परवरिश कर लेना। तब आंखों
में आंसू लिए बोले- कोयले की नाव तो न डूबेगी, पर मैं तो डूब जाऊंगा।’’ (वही, पृ.
81)
शिवरानी देवी ने प्रेमचंद को
बहुत सहयोगी पति और पिता के रूप में बार-बार याद किया है। महरी के न आने और
शिवरानी देवी के बीमार होने पर वे स्वयं दरवाजे पर झाड़ू लगा लेते, घर का खाना बना
लेते और वर्तन साफ कर लेते थे। बच्चों की परवरिश में भी प्रेमचंद शिवरानी देवी का
हाथ बँटाते थे। उन्हें गोद में रखते, उनके साथ खेलते, उन्हें खाना खिलाते, घुमाते
और जरूरत पड़ने पर अपने साथ सुलाते और उनके पेशाब कर देने पर कपड़ा और बिस्तर
बदलते थे। बच्चों की तबियत खराब होने पर दोनों पारी बदल कर उन्हें संभालते और खाना
खाते थे। बच्चों के प्रति प्रेमचंद बहुत भावुक और संवेदनशील पिता थे। उनकी
अशिष्टता पर उन्हें क्रोध और क्षोभ होता था। एक बार छोटे बेटे बन्नू के बाजार में
खो जाने पर वे बहुत घबरा गये थे और शिवरानी के साथ बम्बई जाते वक्त धुन्नू के न
प्रणाम करने पर बहुत क्षुब्ध और दुखी हुए थे। कमजोरी के कारण वे कुछ चिड़चिडे भी
हो गये थे। प्रेमचंद के अत्यंत आत्मीय घरेलू स्वभाव और व्यवहार के बारे में
शिवरानी लिखती हैं कि ‘‘आप घर का काम करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। हमेशा घर
के काम में मदद करते थे। जो काम मुझे करना होता उसे वे मेरे सोते रहते ही खतम कर
देते। इस पर मैं कभी-कभी नाराज भी हो जाती थी। कोई घर का भारी काम करना होता तो
उनकी चोरी से मैं पहले ही कर लेती, क्योंकि वे कई साल बीमार रहने के कारण कमजोर
पड़ गये थे। हम दोनों में हमेशा होड़-सी लगी रहती। इस तरह हमारा घर का काम चलता
था।’’ (प्रेमचंद : घर में, पृ. 31,32)
इसके साथ प्रेमचंद-बहुत मिलनसार और होली-दीपावली आदि त्यौहारों के बड़े प्रेमी और
उत्साही व्यक्ति थे। वे बड़े धूम धाम से त्यौहार मनाते थे और बिना किसी भेदभाव के
गर्मजोशी से दरवाजे पर आये लोगों से मिलते थे। कभी-कभी तो पति-पत्नी दोनों मिलकर
फाग गाते थे।
शिवरानी देवी ने बड़ी
विनम्रता और श्रद्धा से ‘तुम्हारी दासी या रानी’ की ओर से अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद : घर में’ अपने ‘स्वामी’ प्रेमचंद को समर्पित
की है, लेकिन शिवरानी देवी ने व्यवहारतः कही अपना और प्रेमचंद का महिमामंडन नही
किया है। दोनों मानवीय कमजोरियों, अच्छाइयों-बुराईयों के साथ हाडमांस के पति-पत्नी
थे। ‘प्रेमचंद : घर में’ इस बात की साक्षी
है कि पति-पत्नी के जोड़े असमान से बनकर नहीं आते और न तो उनके बीच जन्म-जंमातर का
अटूट नाता होता है। दोनों को एक दूसरे को अर्जित करना पड़ता है, दोनों को निरंतर
समझदारी से विकसित और बहुत से मामले में परस्पर अनुकूलित भी होना पड़ता है। इस
प्रकार एक-दूसरे के साथ रहते और काम करते हुए भी प्रेमचंद-शिवरानी भिन्न
व्यक्तित्व के थे। शिवरानी के प्रेमचंद अपने पिता, चाचा के धनपत और नवाबराय जरूर
थे, लेकिन शिवरानी के सपनों के शहजादे न होकर पति प्रेमचंद थे और शिवरानी देवी
प्रेमचंद की ‘रानी’ के बावजूद शिवरानी ही थी। प्रगतिशीलता के बावजूद, दोनों अपने
को (प्रेमचंद अधिक) पितृसंस्कारों से पूरी तरह मुक्त नहीं कर पाये थे। प्रेमचंद ने
अपने और शिवरानी देवी के दाम्पत्यसंबंधों की लेई और ताप से धनिया और होरी जैसे
पात्रों को रचा अवश्य था, लेकिन दोनों ने उनसे बढ़कर भारत की गुलामी,
हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न, हिन्दी-उर्दू विवाद, धर्म संस्कृति स्त्री-पुरुष सवाल आदि
की समस्या के बारे में गंभीरता से सोचते हुए अपने बौद्धिक पक्ष को निरन्तर व्यापक
और समृद्ध बनाया था।
‘प्रेमचंद : घर में’ शिवरानी देवी हमें ऐसे अतिथि सज्जनों
से मिलवाती हैं जो प्रेमचंद की सिधाई और उनसे अपने संबंधों का अनुचित फायदा उठाते
थे। वे जब-तब घर आते थे, 2-4 दिन से लेकर हप्ते-दो हप्ते बिना किसी काम के डेरा
डालकर मुफ्त की रोटियाँ तोड़ते थे और जाते वक्त किसी न किसी वास्ते रुपये ले जाते
थे और वादे के मुताबिक क्या, प्रेमचंद के बार-बार पत्र लिखने पर भी वापस नहीं करते
थे। शिवरानी देवी के घर रहने पर माँगने वाले सज्जन तो आते ही थे और उनके न रहने
भी। एक बंगाली सज्जन ने तो हद कर दी थी। शिवरानी देवी जब घर पर थी तब वे 50 रूपये
माँगकर ले गये और जब शिवरानी देवी बाहर थी तो प्रेमचंद की जमानत पर बजाज और सुनार
से अपनी पत्नी के गहने भी बनवा ले गये। बाद में प्रेमचंद शिवरानी देवी से छिपाकर
उन महाशय से रुपये मगांकर उधार भरते रहे। शिवरानी देवी को यह बात जब जैनेन्द्र से
जानने को मिली तो जमकर प्रेमचंद की खबर ली, यही कि ‘‘जितना ही मैं उधार से घबराती
हूँ उतना ही आप मेरे सिर पर लाद देते हैं। अभी लड़की की शादी की, तब आप उधार लाये
और इतना फिर उधार। या तो आप मालिक रहें, नहीं तो मेरी राय से काम होना चाहिए। यह
बेहूदगी मुझे कतई पसंद नहीं।’’ (प्रेमचंद
: घर में, पृ. 60) दरसल प्रेमचंद संबंधों के मामले में बहुत दुनियादार और
व्यावसायिक नहीं थे। उनकी तुलना में शिवरानी देवी अधिक दुनियादार और गृहप्रबंधन
में मुस्तैद थी। इस मामले में प्रेमचंद ढीले तो थे ही, अपनी आदत से भी मजबूर थे।
वे सही-झूठी माँग को जाँचे-परखे बगैर परिचितों की मदद करते थे, लेकिन लोग उनसे कही
ज्यादा चालाक थे।
प्रेमचंद के घर में सिर्फ
उनकी पत्नी और बच्चे भर नहीं थे, बल्कि उनके साथ नौकर-चाकर, नौकरानी रहते थे। खाना
बनाने के लिए महराजिन, पानी भरने के लिए कहारिन, घर का काम करने के लिए बारिन तथा
अन्य कामों के लिए नौकर रहते थे। इनमें ज्यादातर औरतें विधवा थी, पर सभी अपनी
परिस्थितियों के मारे थे। नौकर-नौकरानियों के होते हुए भी प्रेमचंद अपना काम
सामान्यतः खुद करते थे ताकि उनके बच्चों में साहबीपन न आये। इनमें विधवा महराजिन,
बारिन के बच्चे आवारा और खुदगर्ज थे और प्रेमचंद को उन पर गुस्सा भी आता था।
प्रेमचंद अपने नौकर-नौकरानियों के प्रति दखावटी सहानुभूति नहीं रखते, बल्कि
व्यवहारतः उनका बड़ा ख्याल रखते थे। कच्ची जगत पर से कहारिन के फिसलकर गिर जाने पर उन्होंने जगत पक्की करवाई थी। वे अपने
प्रेस में काम करनेवाले मजदूरों का बड़ा ख्याल रखते थे। एक रोचक प्रसंग का जिक्र
स्वयं शिवरानी देवी ने किया है। जाड़े का मौसम था, प्रेमचंद के पास गरम कपड़े नहीं
थे। शिवरानी देवी ने दो बार 40-40 रूपये प्रेमचंद को गरम कपड़े बनवाने के लिए
दिये, लेकिन उन्होंने वे रुपये अपन मजदूरों में बाँट दिये। शिवरानी देवी के पूछने
पर उनका जवाब निहायत मानवीय और संजीदा था कि ‘‘रानी जो दिन भर तुम्हारे प्रेस में
मेहनत करे, वह भूखों मरे और मैं गरम शूट पहनूं यह तो शोभा नहीं देता।’’ (प्रेमचंद
घरः में, पृ. ) प्रेमचंद यह मानते थे कि ‘नौकर को नौकर मत समझो। नौकर तो अपना एक
मददगार होता है। तुम को नौकर की जरूरत होती है, नौकर को तुम्हारी।’’ (वही, पृ.
246)
प्रेमचंद और शिवरानी दोनों का
दाम्पत्य जीवन तरह-तरह की साहित्यिक और गैर साहित्यिक गतिविधियों से भरा हुआ था।
शिवरानी ‘प्रेमचंद : घर में’ में इस बात
को बाकायदा टाँकती हैं कि उनके विवाह के पहले प्रेमचंद के कृष्णा और प्रेमा
उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे, लेकिन उनके आने के बाद निरन्तर दौरेवाली नौकरी के
बावजूद प्रेमचंद के कथा लेखन की गति बढ़ गई। नौकरी छोड़ने के बाद उनकी साहित्यिक
और गैरसाहित्यिक गतिविधियां बहुत बढ़ गयी थी। शिवरानी देवी ने अत्यंत व्यस्तताओं
के बीच समय निकालकर प्रेमचंद की लिखने की धुन को रेखांकित किया है। प्रेमचंद के
जीवन और लेखन में सबसे चुनौतीपूर्ण दौर तब शुरू हुआ जब महात्मा गांधी के आहवान पर
सन् 1920 में उन्होंने अपनी जमी जमाई नौकरी को लात मार दी। तब से लेकर मरने तक
यानि 16 वर्षों का यही वह दौर था जिसमें प्रेमचंद की कर्मठता, जीवटपन की सच्ची परख
होती है। घर-परिवार चलाने के लिए इस दौर में लिखना प्रेमचंद की सिर्फ रुचि नहीं
बल्कि अनिवार्य जरूरत थी। स्वतंत्र लेखन से पेट चलाना कितना कठिन था, इस बारे में
शिवरानी देवी से प्रेमचंद ने कहा था कि ‘‘रानी
यह हिन्दुस्तान है। कलम के बल पर रोटियाँ चलाना बहुत ही मुश्किल है।’’ (प्रेमचंद : घर में, पृ. 63) इसी दौर में प्रेमचंद को
घाट-घाट का पानी पीना पड़ा। ‘मर्यादा’ और माधुरी का सम्पादन किया, उसके बाद काशी
विद्यापीठ में हेडमास्टरी की, बचनबद्ध होकर पत्रिकाओं को कहानियां देते रहे, प्रेस
खोला, नुकसान उठाकर हंस, जागरण का सम्पादन किया और आर्थिक संकट से उबरने के लिए
फिल्म नगरी बम्बई का रुख लिया, लेकिन वहाँ भी अधिक समयतक नहीं टिक सके और इसी दौरान
पेचिश, संग्रहणी, जलोदर आदि बीमारियाँ से लड़ते हुए घुलते भी रहे।
प्रेमचंद जब तक नौकरी में थे
संयुक्त प्रांत-महोबा, इलाहाबाद, काशी, कानपुर, लखनऊ, बस्ती, गोरखपुर आदि उनके
रहने और दौरा करने का प्रधान केन्द्र था, लेकिन नौकरी से मुक्त होने के बाद उनके
पंख काफी खुल गये थे। इसलिए वे संयुक्त प्राप्त के बाहर अनेक साहित्यिक
शैक्षणिक-राष्ट्रीय संस्थाओं और उनकी प्रवृत्तियों से जुड़े। हिन्दुस्तानी एकेडमी,
प्रगतिशील लेखक संघ, भारतीय साहित्य परिषद, हिन्दी परिषद, दक्षिण हिन्दी प्रचार
सभा, हिन्दी-उर्दू लेखक सम्मेलन, गल्प सम्मेलन, रेडियो कार्यक्रम आदि के चलते वे
अखिल भारतीय बन गये और लाहौर, दिल्ली, इलहाबाद, काशी, बम्बई, वर्धा, मद्रास आदि के
बीच आवाजाही करते रहे। इससे उर्दू और हिन्दी के अनेक नये पुराने लेखकों से उनका
सम्पर्क तो बढ़ा ही, व्यस्तता भी बहुत बढ़ गई। युवा लेखकों से मिलने से वे कतराते
नहीं थे, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित करते थे। प्रेमचंद के कथालेखन का सबसे उर्वर दौर
भी यही था। प्रेमचंद की हिम्मत, खुद्दारी और स्वाभिमान भी इसी दौर में परवान चढ़ते
हैं। नौकरी छोड़ने के बाद जहाँ एक ओर लाल जाजम पर चलने का निमंत्रण था, वहीं दूसरी
तरफ व्यवधान भी कम नहीं थे। अलवर के राजा ने 400 प्रतिमाह वेतन पर उन्हें अपना
सेक्रेटरी बनाने का प्रस्ताव किया था, अंग्रेज बहादुर की ओर से ‘रायसाहब’ का खिताब
देने का प्रस्ताव था, लेकिन प्रेमचंद ने जनता की पीठ पर सवारी करनेवाले राजाओं और
साहबों के बदले जनता की मनसबदारी स्वीकार की। शिवरानी देवी ने दो और व्यवधानों का
जिक्र किया है। एक – ‘मोटेराम शास्त्री’ कहानी पर किसी सज्जन ने कोर्ट केस किया था
और प्रेमचंद ने इस पर विजय प्राप्त की थी और दूसरा उनके एक आलेख पर हिन्दू महासभा
खफा थी, लेकिन प्रेमचंद न डरे, न ही झुके।
प्रेमचंद के घर में साथ-साथ
रहते-रहते शिवरानी देवी ने अपनी साहित्यिक अभिरुचि के विकास और कहानी लेखन की बात
स्वीकार की है। प्रेमचंद के मरने के पहले उनके मिजाज से अलग एक महिला कहानीकार की
पहचान और हैसियत शिवरानी देवी ने प्राप्त कर ली थी। उनकी पहली कहानी ‘साहस’
(1924), ‘चाँद’ में छपी और छपने के बाद जब प्रेमचंद को पता चला तो खुशी जाहिर की
कि चलिए आप भी कहानीकार बन गई, लेकिन इसी के साथ उनके जी का जंजाल बढ़ गया। एक
पंजाबी सज्जन ने आरोप लगाया कि अपनी पत्नी की कहानियां आप लिखते हैं और प्रेमचंद
को यह सफाई देनी पड़ी थी कि ‘आप इत्मीनान कर सकते हैं कि मैं नहीं लिखता।’ ऐसी
जुझारू स्त्रियों की कथावस्तु की कल्पना मेरे बश की बात नहीं है। इन्हीं सज्जन को
लक्ष्य करके शिवरानी देवी से प्रेमचंद ने कहा था कि ‘‘हमारे यहाँ आदमियों का दिल
बहुत संकुचित है। बिना पूरी बात जाने ही ऊटपटांग बक देते हैं। यही सोचा होता कि
ऐसी कहानी पुरुष लिख सकता है ॽ’’(प्रेमचंद : घर में, पृ. 77) इसमें सचाई इतनी है कि पहले
कहानी के प्रकाशन के बाद शिवरानी देवी अपनी हर कहानी प्रेमचंद को जरूर दिखाती थी,
लेकिन कहानी तो उन्हीं की होती थी और उन्हें इस बात का जरुर खयाल रहता था कि वह
प्रेमचंद की किसी कहानी की नकल न हो, बल्कि अलग हो।
‘प्रेमचंद : घर में’ पुस्तक इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत
करती है कि घर की अधिक जवाबदारियों के चलते शिवरानी देवी को बड़ा कहानीकार बनने का
अधिक अवकाश न था, लेकिन स्वाधीनता आंदोलन में प्रेमचंद से अधिक शिवरानी देवी की
भागीदारी थी। दोनों महात्मा गांधी से प्रभावित और कांग्रेसपार्टी से जुड़े थे। यदि
प्रेमचंद ने अपनी नौकरी को लात मार दी थी तो शिवरानी देवी ने गहनों का त्याग किया
था। वे नमक कानून तोड़ने में सहयोगी थी, पिकेटिंग के कारण जेल गई थी, जेल में सी
क्लास वालों को अधिक सुविधा देने के लिए सत्याग्रह किया था। वे महिला आश्रम की
विविध प्रवृत्तियों से भी संबद्ध थी। राष्ट्रीय गतिविधियों में खास भागीदारी के
चलते प्रेमचंद को उनकी बड़ी चिन्ता रहती थी।
नौकरी छोड़ने के बाद स्वतंत्र
लेखन, बाद में प्रेस खोलने, ‘हंस’ मासिक और ‘जागरण’ साप्ताहिक निकालने के चलते
प्रेमचंद आर्थिक तंगी से उबर नहीं पा रहे थे। उन्हे विशेष चिन्ता अपने दोनों
पत्रों को निरंतर नकालने रहने की थी। आर्थिक दबाव से मुक्ति पाने के लिए शिवरानी
देवी के न चाहने पर भी उन्होंने फिल्म नगरी बम्बई का रुख किया। वहाँ वे डेढ़ साल
तक रहे। वे कई मन्सूबे लेकर बम्बई गये थे। उनका एक मन्सूबा यह था कि उनके मुद्रित
उपन्यासों और कहानियों को, जिनका पाठक वर्ग सिर्फ पढ़-लिखा समुदाय है, फिल्म
कलामाध्यम से बड़ा मंच और अधिक दर्शक मिल सकेंगे। उन्होंने शिवरानी देवी से कहा था
कि ‘‘वहाँ जाने का एक खास फायदा होगा, वह यह कि उपन्यास और कहानियाँ लिखने के जो
फायदे नहीं हो रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा फिल्म दिखला कर हो सकता है। कहानियाँ और
उपन्यास जो पढ़ेंगे वही तो उनसे लाभ उठा सकेंगे, फिल्म से हर जगह के लोग फायदा उठा
सकते हैं।’’ (प्रेमचंद : घर में, पृ. 172)
प्रेमचंद गँवई आदमी थे और गँवई आदमी सामान्यतः बड़ा घरेलू
होता है। घर-परिवार, बाल-बच्चों के बिना शहर में रहना उसे रास नही आता। हुआ भी यही
था कि बम्बई जाने के एक महीने के अंदर वे ऊबने लगे। उन्होंने शिवरानी देवी को पत्र
लिखा था कि ‘‘तुम्हारे पास तो सभी होंगे, भाई-बंद, लड़के-लड़की सभी हैं, और मुझे
तो तुम लोगों के बिना इतनी बड़ी बम्बई होते हुए सूनी ही मालूम होती है। यही बार-बार
इच्छा होती है कि छोड़-छाड़कर भाग खड़ा होऊं। बार-बार यह झुंझलाहट होती है, कहाँ
से कहाँ यह बला भी ले ली। (प्रेमचंद : घर
में, पृ. 176) बम्बई का फिल्मी संसार जुदा था, साहबी वातावरण था। यहाँ सुबह से शाम
तक काम ही काम था, इसलिए परिवार के बगैर उनका जी घबराता था। दूसरी तरफ फिल्म की
दुनिया में काफी गोल माल था । प्रेमचंद ने स्वयं एक समझौता करवाया था जिसमें फिल्म
का मालिक फिल्म बनानेवाले को थोड़ी सी पेशगी देकर उसका बाकी मेहनताना हड़पना चाहता
था। एक साल के अंदर प्रेमचंद की तबियत ज्यादा काम के कारण बिगड़ गई और शिवरानी
देवी चाहती थी कि बनारस लौट चले, लेकिन इस हालत में भी प्रेमचंद फिल्म जैसे
मनोरंजन और व्यवसाय प्रधान कला माध्यम को सुधारना चाहते थे। शिवरानी देवी से
उन्होंने कहा था कि ‘‘सोचता हूँ शायद मैं फिल्म संसार का कुछ सुधार कर सकूं, तो
वही बेहतर होगा और मेरे भाग जाने से तो कुछ सुधार तो हो नहीं जायेगा। सुधार भी
नहीं होगा और फिल्म मालिकों का कोई नुकसान भी नहीं होगा। हाँ, मेरा नुकसान होगा कि
मैं जो सुधार करना चाहता था, उसको कुछ नहीं कर पाऊँगा।’’ (वही, पृ. 190) इस तरह
जिसप्रकार प्रेमचंद उपन्यास और कहानी को मनोरंजन से अधिक एक गंभीर साहित्य विधा
बनाना चाहते थे उसी प्रकार वे फिल्म का स्तर सस्ते मनोरंजन से ऊपर उठाकर गंभीर रुचि-सम्पन्न
कलामाध्यम बनाना चाहते थे। यद्यपि कुछ महीनों में फिल्मी जगत से उनका मोहभंग हो
गया और वे अपने वतन वापस आ गये। और वहाँ से वापस आने के बाद वे अपनी कई शारीरिक
व्याधियों, खून की उल्टी और संग्रहणी से लड़ते हुए इस संसार से विदा हो गये और
अपने पीछे पत्नी शिवरानी देवी समते बच्चों को छोड़ गये।
शिवरानी देवी एक कहानीकार थीं,
लेकिन उन्होंने ‘प्रेमचंद : घर में’ को
बहुत ही अनौपचारिक बात-चीत के रूप में लिखा है। इसमें उन्होंने अपनी कहानी कला-संवाद
का रंग सहज रूप में मिला लिया है। दूसरी बात, शिवरानी देवी ने इसे बहुत योजनाबद्ध
ढंग से नहीं लिखा है। ऐसा लगता है उन्हें
जो घटनाएं जब याद आई संस्मरण के रूप में लिख लिया था और बाद में उनके स्थान
और महीने, वर्ष के सूत्रों को क्रमवार रूप दिया गया है। प्रेमचंद की ओर से लिखे
व्यक्तिगत पत्रों का भी उपयोग उन्होंने स्मृति के आधार पर किया है। जिस प्रकार यह
किताब पति-पत्नी के संबंधों की कृत्रिमता से तो दूर है उसी प्रकार विधागत सीमाओं
की जकड़बंदी और बनावटीपन से भी दूर है। इसी कारण उसमें एक प्रकार की अनगढ़ता का
सौंदर्य है।
प्रो. एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर
'प्रेमचंद घर मे'का सम्यक मूल्यांकन करता सुंदर आलेख।प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण प्रसंगों को लेकर प्रेमचंद के व्यक्तित्त्व का विवेचन करते आलेख हेतु प्रो.दयाशंकर जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर एवम ज्ञानवर्धक आलेख। बधाई 💐
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक , ज्ञानवर्धक आलेख , हार्दिक बधाई।
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