डॉ. जयना
पाठक
योग
शब्द आज सर्वव्यापी बन गया है। प्राचीन काल से लेकर आज तक योग शब्द की महत्ता हमने
हमारे शास्त्र के जरिए जानी है तथा आजकल पूरे विश्व के वातावरण में योग की महत्ता का
व्याप-विस्तार हम देख सकते हैं। श्रीमद्भगवतगीता के अंतर्गत तो अठारह अध्याय को ही
अठारह योग बताते हुए समग्र श्रीमद्भगवतगीता को योगशास्त्र के रूप में स्वीकार किया
गया है। “इतिश्रीभगवतगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णाजुँनसंवादे” कहा
गया है।
समग्र गीता ही एक योगशास्त्र है। उसमें अठारह योग और अठारह अध्याय
है। गीता के समग्र अध्यायों के नामकरण को देखें तो कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्ति योग, ध्यान
योग तथा उसमें भी हठयोग, राजयोग, लययोग, मंत्रयोग अर्थात् सर्वत्र योग शब्द का ही प्रयोग हुआ है। आज की युवा
पीढ़ी एवं सामान्य से सामान्य जनता का भी योग के प्रति विशेष आकर्षण रहा है। योग शब्द पर हमारे मनीषियों ने भी विचार किया
है। योग एक निपुण एवं आदरणीय विद्या है। हमारे ऋषि मुनि, साधु,
संत, महात्मा सभी योग का आलंबन लेते रहे हैं।
इस योग का विषय क्षेत्र काफी विस्तृत एवं गहरा है।
योग का आरंभ भगवान हिरण्यगर्भ से,
ब्रह्मा जी से हुआ है। “हिरण्यगर्भ योगस्य वक्ता प्रोक्तपुरातना:।” योग का प्रचलन अनादि काल
से पाया गया है। योग क्या है? शब्दकोश में ‘योग’ शब्द के अठानबे अर्थ मिलते है। योग शब्द के मूल
में ‘युज्’ धातु हैं, जिसका अर्थ होता है - ‘जुड़ना’। योग में कौन किसके साथ जुड़ता
है? योग के साथ क्यूँ जुड़ना? किस तरीके से जुड़ना? इसके लिए श्री पतंजलि मुनि ने ‘योगदर्शन’ के माध्यम से हमारा मार्ग प्रशस्त किया है। श्री पतंजलि मुनि ने इस ज्ञान
को शास्त्र का रूप दिया ताकि कोई भी व्यवस्थित रूप में उससे जुड़े विषयों के अंग-उपांग
को समझ सकें, उसका ठीक से अध्ययन कर सकें। वैसे देखा जाए तो
श्री पतंजलि मुनि का हम लोगों पर बड़ा उपकार है। उन्होंने हमारे शरीर के लिए, हमारी वाणी के लिए, हमारे मन के लिए अर्थात् तीनों
के लिए एक शास्त्र दे दिया। इन्होंने शरीर की शुद्धि के लिए ‘आयुर्वेद’ प्रदान किया; वाणी
की शुद्धि के लिए ‘व्याकरण शास्त्र’ प्रदान
किया और चित्त की शुद्धि के लिए ‘योगशास्त्र’ प्रदान किया। इसीलिए हम उनका ध्यान करते समय ऐसा कहते हैं –
“योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलम शरीरस्यचवैद्यकेन्।
योपाकरो
त्वम् प्रवनाम मुनिनाम् पतंजलिप्राजंलि रास्नोमि।।”
इस समग्र शास्त्र को पतंजलि मुनि ने चार
विभाग – समाधि पाद, साधन पाद, विभूति पाद और कैवल्य पाद में विभाजित किया है। ‘योगदर्शन’
में पतंजलि मुनि ने इसी योग
रहस्य को समझाया है । यहाँ योग का अर्थ सिर्फ
शरीर को रोग मुक्त करने तक ही सीमित नहीं
है बल्कि यह शरीर रूपी साधन को मजबूत, सशक्त, निरोगी रखकर आत्म-तत्त्व में लीन होने की यात्रा है। इसलिए वैश्विक दर्शन
में कहा गया है कि “आत्मस्ये मनसि शरीरस्थ दु:खाभाव: स योग ।” अर्थात्
आत्मा में मन की स्थिरता से शरीर के दु:खो का अभाव होना योग है। यहाँ योग यात्रा का आरंभ शरीर से होता है । अत:
हमें प्रश्न होता है कि यह शरीर किससे बना है? आज का मेडिकल
सायन्स इसके बारे में भिन्न-भिन्न मत दे रहा है परंतु हमारी वैदिक परंपरानुसार यह
शरीर पंचमहाभूत से बना है। हमारे शरीर की अस्थि पृथ्वी तत्त्व का प्रतिनिधित्व
करती है। रक्त्त जल तत्त्व का, श्र्वसनतंत्र प्राण का, वायु तत्त्व जठराग्नि का, सप्तधातु अग्नि तत्त्व का
और शब्द आकाश तत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है।
शास्त्र के अनुसार मानव शरीर में पाँच
मुख्य और पाँच गौण प्राण रहते है। इसी प्राण की साधना द्वारा ही शरीर में
स्थित सप्त ऊर्जा केन्द्र जिसे योगशास्त्र
मे सप्त चक्र कहा है, वह जागृत होता है। इस
द्रष्टि से हमारा शरीर ही धर्म-साधन है। यदि हम सिर्फ पतंजलि मुनि के ‘योगदर्शन’ के समाधि पाद के आरंभ के तीन सूत्रों को
ठीक से जान लेंगे तो आगे योग का मार्ग हमारे लिए खुद ही प्रशस्त हो जाता है।
“अथ योगाअनुशासनम्”।
“योगश्र्चितवृतिनिरोध:”।
“तदाद्रष्टुस्वरूपे अवस्थानम्”।
यह
योग की यात्रा शरीर, प्राण, मन और आनंद की यात्रा है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘पंचकोश’ अर्थात् यह अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय
कोश और आनंदमय कोश की यात्रा है। यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह यात्रा कौन
कर सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में श्री पतंजलि मुनि स्पष्ट
रूप से बताते है कि सिर्फ अपनी इच्छा होनी चाहिए, जिसे अपने
कल्याण की इच्छा है वह इस शास्त्र का अधिकारी है। यदि किसी भी व्यक्ति ने श्रद्धा, समर्पण और अभीप्सा के साथ योगाभ्यास निरंतर शुरु कर दिया तो उसे सारे
ब्रह्मांड का रहस्य अपने पिंड में ही दृष्टिगोचर होने लगेगा। इसलिए कहा गया है कि “पिंडे़
सौ ब्रह्मांडे” अर्थात् सारे ब्रह्मांड का रहस्य इस पिंड में छिपा हुआ है।
अत: सभी को योग का अध्ययन करना चाहिए तथा
इस योग के अध्ययन के लिए सभी को अधिकारी माना गया है। योग कौन करेगा?
योगाभ्यास किसे करना चाहिए? श्री पतंजलि मुनि
की दृष्टि से और हमारी परंपरा की दृष्टि से योग का अधिकारी हर व्यक्ति हो सकता है।
यहाँ पर स्त्री-पुरुष, वर्ण-जाति, समाज आदि का भेद नहीं है, हर व्यक्ति जो अपना कल्याण चाहता है; वह इस योग का
अधिकारी हो सकता है तथा अपने जीवन में योग का अनुष्ठान कर सकता है। विश्व के
कल्याण के लिए श्री पतंजलि मुनि द्वारा
दिया गया यह एक अमूल्य उपहार है।
तो
चलो एक साथ संगठित होकर,
कदम
से कदम मिलाकर,
तन
को प्राण की डोरी से बांध कर,
मन
को अपनी मुठ्ठी में लेकर,
‘शबद’ ब्रह्म के संग
आतम
गुरू के रंग..
आत्मखोज
की ओर बढ़ें...
चलो
....बढे़ चलो...बढे़ चलो।
डॉ. जयना
पाठक
योग
कोच (गुजरात योग बोर्ड)
वल्लभ
विद्यानगर
जिला
: आणंद
(गुजरात) भारत
योग के स्वरूप एवं महत्ता को परिभाषित करता महत्वपूर्ण आलेख।डॉ. जयना पाठक जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंयोग से जुड़ी इस महत्वपूर्ण जानकारी से हमें जान - पहचान कराने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया...Ma'am.
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण जानकारी देता उपयोगी आलेख। बधाई
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