सोमवार, 14 जून 2021

आलेख


श्री अरविन्द का पूर्णयोग

डॉ. परम पाठक

श्री अरविन्द (1872-1950) का योग पूर्णयोग (Integral Yog) के नाम से जाना जाता है। इस योग का परम लक्ष्य है - मनुष्य जीवन का दिव्य जीवन में रूपांतरण करना। अन्य योग में मनुष्य अपने अज्ञान से मुक्त होकर, दिव्य लोक में स्थान प्राप्त करता है। अपने उपास्य का साक्षात्कार करके परित्राण प्राप्त कर लेता है। उसे मुक्ति / मोक्ष कहा जाता है। लेकिन इस पूर्ण योग में मनुष्य की समग्र प्रकृति का रूपांतरण अपेक्षित है। यह एक महान एवं कष्ट साध्य लक्ष्य है। यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हमारी ओर से तीव्रतम अभीप्सा (Intense Aspiration) और माँ भगवती की परम करुणा (Supreme Grace) का संयोग होना अनिवार्य है। माँ भगवती की कृपा / करुणा का अवतरण (Descent) और हमारी ओर से अभीप्सा का आरोहण (Ascent) होने से हमारी मनोमय, प्राणमय एवं भौतिक चेतना का क्रमशः रूपांतरण होना आरंभ होता है।


इस योग में मनुष्य को अभीप्सा से आरंभ करना होता है। अपने परम ध्येय से विमुख करने वाली सारी अदिव्यताओं का परित्याग (Rejection) करना होता है। माँ भगवती को अपने शरीर, प्राण एवं मन का सर्वांग संपूर्ण समर्पण (Surrender) इस योग की विशेषता है। एक अर्थ में यह योग (Yoga & Surrender) समर्पण का योग भी कहलाता है। तत्वतः माँ भगवती स्वयं साधक के आधार के विविध परिमाणों (Physical, Hital, Mental) में प्रगट होकर योग करती है। लेकिन जब तक साधक में अहंभाव, अज्ञान रहता है, तब तक साधक का प्रयत्न भी अपेक्षित है। निष्क्रिय, तामसिक अकर्मण्य और माँ भगवती को किया गया संपूर्ण समर्पण दोनों में जमीन-आसमान का भेद है। इस योग में साधक को माँ भगवती के करण (Instrument) होकर कार्य करना होता है।

श्री अरविन्द हमें समझाते है कि यह दिव्य जीवन प्राप्त करने हेतु हमें संसार त्याग करके अरण्य में जाने की अनिवार्यता नहीं है। हमारा समग्र जीवन ही योग है (All Life is Yoga) इस योग में बाह्य कर्मकांड, विधि निषेध की जरूरत नहीं है । लेकिन साधक के लिए कामवासना (Sex) का त्याग, मद्यपान और तम्बाकू एवं राजनीति (Politics)  का निषेध दर्शाया गया है। ये तीन व्यवधान हैं, जो हमें अदिव्यता की ओर ले जाती है।

श्री अरविन्द कहते हैं कि कुदरत में एक विकास क्रम पाया जाता है। इसीलिए अमीबा में से वनस्पति सृष्टि, प्राणी सृष्टि, वानर और इसमें से मनुष्य का विकास हुआ है। लेकिन यह मनुष्य से उत्क्रान्ति की यह यात्रा पूर्ण नहीं हुई है। मनुष्य तो एक संक्रान्त अस्तित्व है। मनुष्य में तो दैवी और आसुरी दोनों की लाक्षणिकताएँ पाई जाती है। उत्क्रान्ति का परमोच्च शिखर यह मनुष्य नहीं हो सकता। मनुष्य का अतिमानव (Super mental) में रूपांतरण होना अनिवार्य है। यह एक रूपांतरण (Transformation) का योग है। अब जो रूपांतरण होगा यह चैतसिक भूमिका में होगा। श्री अरविन्द ने अपने सावित्री महाकाव्य में इसका सटीक आलेखन किया है। श्री अरविन्द और उनकी सहयोगिनी माताश्री ने हमारे सब के लिए इसका मार्ग प्रशस्त किया है।


डॉ. परम पाठक

आचार्य एवं अध्यक्ष

गुजराती विभाग

स.प. विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर (गुजरात)


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