प्राणायाम के मूल में निहित वैज्ञानिक
सिद्धान्त एवं आधार
डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’
कोविड- १९ के इस विकट दौर में प्राणायाम का अभ्यास आवश्यक है; इसलिए इस आलेख में प्राणायाम को साररूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।
योग
के आठ अंगों/अभ्यासों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं
समाधि) में से एक अभ्यास प्राणायाम के वैज्ञानिक आधार गहन श्वसन की प्रक्रिया के
धरातल पर स्थित है। प्राणायाम शब्द प्राण एवं आयाम पदों से व्युत्पन्न है; जिसका
अर्थ है - प्राणों को नियन्त्रित करके शरीर के भीतर विस्तृत करना।
प्राण की सामान्य एवं योगशास्त्रीय अवधारणा
प्राण
का अर्थ है- जीवनीशक्ति या जीवन का मूलतत्त्व। यह वह जीवनी शक्ति है जो मात्र मानव
को ही नहीं; अपितु
समस्त सृष्टि को संचालित करती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि सृष्टि में प्रकाश,
ऊष्मा,
ध्वनि,
चुम्बकत्व,
गुरुत्व,
विद्युत
शक्ति, बल,
जीवन
और जीवनी शक्ति के रूप में जो कुछ भी प्रकट और ध्वनित हो रहा है;
वह
सब प्राण ही है। इसे एक संयुक्त बहुआयामी ऊर्जा के रूप में परिभाषित किया जा सकता
है। यह वही शक्ति है जिसके शरीर से निकल जाने पर शरीर मृत हो जाता है। तब इसे ना
तो प्राणवायु या ऑक्सीजन द्वारा जीवित किया सकता है;
ना
ही इसे ग्लूकोज से ऊर्जान्वित किया जा सकता है। अतः स्पष्ट रूप से प्राण जीवनी
शक्ति है; यह
पर्यावरण से ग्रहण की गयी शुद्धवायु है के द्वारा ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को शरीर के
भीतर पहुँचाकर व्यक्ति को जीवन प्रदान करती है।
विज्ञान
मानता है कि जैविक क्रियाओं के संचालन हेतु शरीर ऑक्सीजन को ग्रहण करता है तथा
उसके द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका के भीतर उपस्थित माइटोकॉण्ड्रिया एक पावर
हाउस के रूप में ऊर्जा का निर्माण करता है। यही ऊर्जा व्यक्ति को जीवित बनाये रखती
है और समस्त क्रियाओं का संचालन करती है। यह प्राण की सामान्य व्याख्या थी;
प्राण
की विशेष योगशास्त्रीय व्याख्या भी है। योगशास्त्र कार्यों की विभाजन की दृष्टि से
प्राण नामक जीवनी शक्ति को पाँच मुख्य एवं पाँच उप विभागों में विभाजित करता है;
इन्हें
इस प्रकार समझा जा सकता है।
योगशास्त्र
के अनुसार शरीर में उपस्थित पाँच प्रकार के प्राण-
1. प्राण
2. अपान
3. उदान
4. समान
5. व्यान।
योगशास्त्र
के अनुसार शरीर में उपस्थित पाँच प्रकार के उपप्राण-
1. नाग
2. देवदत्त
3. धनंजय
4. कूर्म
5. कृंकल
या कृंकरक
ऑक्सीजन
को ग्रहण करने और कार्बन डाई ऑक्साइड के निष्कासन हेतु ही व्यक्ति सांस लेता है।
फेफड़े में पहुँची शिराओं का शिरागत रक्त जब कार्बन डाई ऑक्साइड को छोड़ता है;
एवं
ऑक्सीजन को ग्रहण करता है; तो
इसे धमनीभूत रक्त कहते हैं। प्राणायाम के द्वारा व्यक्ति अधिकतम ऑक्सीजन को ग्रहण
एवं अवशोषित करता है तथा उससे भी अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर छोड़ता है। ऐसा
होने से रक्त अधिक शुद्ध होता है; जिससे
व्यक्ति स्वस्थता एवं प्रसन्नता प्राप्त करता है।
इसके मुख्य आधार निम्नांकित हैं-
1. श्वास
की गति को कम करना जिससे दीर्घ श्वसन हो सके। वास्तविक प्राणायाम का एक फेरा कम से
कम एक मिनट का होना चाहिए। स्वाभाविक श्वसन में सामान्य रूप से व्यक्ति एक बार में
7000 मिली के लगभग वायु
भीतर खींचता है। वही व्यक्ति प्राणायाम में करते समय एक मिनट में अधिक से अधिक 3700
मिली वायु ही खींचता है। इस प्रकार ग्रहण की गयी वायु का आयतन घट जाता है;
इसका
अर्थ यह है कि वायु का अवषोषण भी कम होता है। इसलिए यह अवधारणा गलत है कि प्राणायाम
द्वारा ऑक्सीजन का अवषोषण आधिक मात्रा में होता है। वास्तविकता यह है कि यद्यपि
ऑक्सीजन का अवशोषण कम होता है; किन्तु
प्राणायाम के द्वारा श्वसन तन्त्र सामान्य स्थिति के लिए इतना प्रशिक्षित हो जाता
है कि यह सामान्य स्थिति में दिन-रात अधिकतम ऑक्सीजन अवषोषित करता है।
2. प्राणायाम
में प्रश्वास में अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकलने से रक्त की अशुद्धियाँ दूर
होते हैं।
3. पूर्णरूप
से श्वास ग्रहण करना और ऑक्सीजन के द्वारा रक्त शुद्धिकरण।
4. श्वासों
को बिना श्रम के रोककर रखना और ऑक्सीजन को भीतर अधिक से अधिक कोशिकाओं तक पहुँचाना।
5. श्वासों
को लयबद्ध एवं संतुलित करना; जिससे
चयापचय भी संतुलित एवं नियमित हो जाता है।
6. श्वासों
के द्वारा अधिक जागरूकता उत्पन्न करना जिससे शारीरिक एवं मानसिक प्रबलता प्राप्त
होती है।
7. संवेदी
एवं परासंवेदी तन्त्रिका तन्त्र में संतुलन स्थापित करना;
जिससे
भावनाओं का नियमन व संयमन होता है तथा व्यक्ति अवसाद से मुक्ति पाता है।
8. हाइपोथेलैमस
के विशेष स्राव द्वारा अन्य हॉर्मोन्स का नियमन एवं संतुलन होने से समस्त
मनोशारीरिक गतिविधियों का नियमन होता है।
9. प्राणवायु
हकारात्मक एवं ठकारात्मक भी है; क्योंकि
हकार ध्वनि से यह वायु अन्दर जाती है तथा ठकार ध्वनि से वायु बाहर आती है। इस
प्रकार शरीर के तापमान को निममित करने का कार्य भी इन नाड़ियों के द्वारा किया जाता
है। ह या सूर्य नाड़ी शरीर में उष्णता का संचालन करती है;
एवं
ठ नाड़ी शरीर में शीतलता का संचालन करती है। इन नाड़ियों के द्वारा शरीर की
आवश्यकतानुसार उष्णता एवं शीतलता का प्रसार होता रहता है। इस प्रकार ये नाड़ियाँ
प्राण धारण करने के साथ ही तापमान का नियमन भी करती हैं।
10. जब
प्राणायाम आदि के द्वारा इन नाड़ियों का शुद्धिकरण किया जाता है;
तो
नाड़ी गुच्छकों या चक्रों (सोलर प्लेक्सेज) की क्रियाओं में सकारात्मक परिवर्तन
होता है। वस्तुतः चक्र तंत्रिका तन्त्र एवं अन्तःस्रावी तन्त्र के बीच एक संवाद
स्थापित करके व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक,
भावनात्मक
एवं व्यावहारिक क्रियाओं को संतुलित करने हेतु उत्तरदायी होते हैं। इसीलिए स्वस्थता की दृष्टि से प्राणायाम द्वारा
इनकी क्रियाशीलता में वृद्धि अत्यंत महत्त्वपूर्ण है;
इससे
व्यक्ति की क्षमताओं में वृद्धि होती है।
11. साररूप
में प्राणायाम द्वारा नाड़ियों का शुद्धिकरण,
प्राण
का विस्तारण एवं यथोचित ऊर्जा का संचालन आदि कार्य सुनियोजित हो जाते हैं।
प्राणायाम
के अनेक शारीरिक एवं मानसिक प्रभाव हैं; इनको
जानने हेतु प्राणायाम की उपयोगिता को शरीर
तन्त्रों के अनुसार को समझना आवश्यक है। इसलिए अब प्राणायाम के प्रभावों को शरीर
तन्त्रों के अनुसार विवेचित करेंगे।
शारीरिक उपयोगिता
शरीर-तन्त्रीय उपयोगिताएँ
श्वसन तन्त्र को लाभ-
प्राणायाम के अभ्यास द्वारा फेफड़ों का लचीलापन,
श्वसन
पेशियों का पुष्टिकरण, गैसों
का आदान-प्रदान, श्वसन
गति का धीमा होना एवं श्वसन का सहजीकरण जैसे लाभ होते हैं। साथ ही साँसों से
सम्बन्धी रोग अस्थमा या ब्रोंकायटिस आदि की चिकित्सा भी होती है।
पाचन तन्त्र को लाभ-
अभ्यास करते हुए प्राणायाम से डायफ्राम आदि उदरीय पेशियों की मालिश होने से पाचन
तन्त्र स्वस्थ होता है; जिससे
समस्त तन्त्रों को भी लाभ होता है; क्योंकि
पाचन तन्त्र की स्वस्थता पर समस्त अन्य तन्त्रों की स्वस्थता भी निर्भर करती है।
इसके साथ ही कब्ज, गैस,
अग्निमांद्य,
अपच
एवं अम्लता आदि रोगों की चिकित्सा भी होती है।
उत्सर्जन तन्त्र को लाभ-
प्राणायाम का अभ्यास करते हुए चयापचय सुचारु होता है;
अतः
उत्सर्जन भी सुचारु होता है। प्राणायाम के समय पसीना छूटने से शारीरिक अशुद्धियाँ
दूर होती हैं।
तन्त्रिका
तन्त्र को लाभ- प्राणायाम के अभ्यास से सी एन एस के बड़े कार्यों जैसे- चिंतन,
योजना,
सीखना
एवं स्मृति आदि क्रिया-कलापों में गुणात्मक परिवर्तन होते हैं। स्पाइनल
तन्त्रिकाओं में परिवहन के उन्नत होने से पी एन एस को भी विशेष लाभ प्राप्त होता
है। क्रोधाधिक्य, तनाव,
सिरदर्द,
अवसाद,
निराशा,
अनिद्रा
आदि समस्त मानसिक समस्याओं तथा गम्भीर मानसिक रोगांे में भी लाभ प्राप्त होता है।
रक्त परिसंचरण तन्त्र को लाभ-
प्राणायाम अभ्यास के समय डायफ्राम की गति से हृद्य पेशियों की मालिश होती है;
जिससे
इसकी कार्य क्षमता बढती है एवं धड़कनों की गति भी कम हो जाती है। ऐसा होने रक्त
परिसंचरण के सुचारु होने से उच्च एवं निम्न रक्त चाप दोनों ही सामान्य हो जाते
हैं।
अन्तःस्रावी तन्त्र-
उच्चस्तरीय तन्त्रिका केन्द्रों के सुचारु क्रियान्वयन एवं नियमन के परिणामस्वरूप
सभी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की कार्यक्षमता बढती है। ऐसा होने से अधिक या कम स्राव
से उपजने वाले अनेक रोगों का भी निदान होता है। पेशी तन्त्र को लाभ- डायफ्राम एवं
उदरीय पेशियाँ स्वस्थ हो जाती हैं।
प्रजनन तन्त्र को लाभ-
हॉर्मोन्स का संतुलन होने से प्रजनन तन्त्र को भी विशेष लाभ होते हैं। हाइपो एवं
हाइपर थॉयरॉयड आदि में विशेष लाभ होने से मासिक धर्म की अनियमितता,
प्रदर
तथा बांझपन आदि अनेक स्त्री-रोग भी ठीक होते हैं। पुरुषों की पौरुष क्षमता
सम्बन्धी अनेक रोगों में भी लाभ प्राप्त होता है।
मानसिक उपयोगिता
मानसिक
स्थिरता, प्रसन्नता
तथा दीर्घकालीन सुख प्राप्त होते हैं; जिससे
समस्त मानसिक रोग; यथा-
अवसाद, चिंता
तथा निराशा आदि ठीक हो जाते हैं। प्राणायाम अभ्यास के मूल में शरीर के भीतर प्राण
के विस्तारीकरण का वैज्ञानिक सिद्धान्त है। सामान्य शब्दों में यह ऐसा सिद्धान्त
है जो स्वास्थ्य जैसी प्राथमिक आवश्यकता के साथ ही मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर भी
व्यक्ति को लाभ प्रदान करता है।
निष्कर्षात्मक
रूप से यह कहा जा सकता है कि समग्र शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण एवं
संवर्धन हेतु प्राणायाम के वैज्ञानिक आधारों को समझते हुए इसका अभ्यास करना
चाहिए।
दर्शनशास्त्र - योग विशेषज्ञ
हे. न. ब. गढ़वाल (केन्द्रीय)
विश्वविद्यालय
श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखण्ड
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जवाब देंहटाएं'प्राणायाम के मूल में निहित वैज्ञानिक सिद्धान्त एवं आधार' प्रभूत सारगर्भित वैज्ञानिक और व्यावहारिक जानकारी समेटे हुए है।डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’ ने अपने विशद अनुभव से लेख को उपयोगी बना दिया है। -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
जवाब देंहटाएंप्राणायाम के वैज्ञानिक आधार एवं उससे नष्ट होने वाली विविध शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों के विषय का ज्ञान करता सुंदर एवं उपयोगी आलेख।इस महत्त्वपूर्ण आलेख हेतु डॉ. कविता भट्ट'शैलपुत्री जी को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंउपयोगी लेख। बधाई।
जवाब देंहटाएंउपयोगी जानकारी देता आलेख। बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख लिखा है प्रिय कविता जी।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई स्वीकारें।