योगदर्शन
में ध्यान
डॉ.
ईशान आचार्य
‘ध्यान’
बहुत प्रचलित शब्द है। हर कोई ध्यान करने को उत्सुक है, बिना यह जाने कि ध्यान
क्या है। ध्यान की अनेक पद्धतियों का विकास हुआ है, लेकिन ध्यान करने की
पद्धतियाँ ध्यान नहीं है। लोग पद्धतियों को ही ध्यान मान के ध्यान किए जा रहे
हैं।
भारतीय भाषाओं में ध्यान, प्रेम, ईश्वर, धर्म आदि
शब्दों के प्रयोग की परंपरा दीर्घ कालीन रही है। इसलिए हमारी भाषाओं में जिस अर्थ
में शब्द का प्रयोग होता रहा है अगर उसी अर्थ में उसको ग्रहण न किया जाए तो बहुत
गड़बड़ी हो जाती है। यह हमारी दयनीय हालत है कि हम ‘मेडिटेशन’ शब्द पहले सीखते हैं
और ‘ध्यान’ शब्द बाद में। ‘योगा’ पहले सीखते
हैं और ‘योग’ बाद में । भगवद गीता पढ़नी-समझनी हो तो हमें अंग्रेजी किताब
पढ़नी पड़ती है।
‘ध्यान’
शब्द का प्रयोग एक खास अर्थ में होता है। भारतीय परंपराओ में भी जैसे कि – योगमत,
वेदांतमत, भक्तिमत वगैरह में ध्यान की परिभाषा भिन्न-भिन्न है। यहाँ हम योगशास्त्र
के ध्यान की ही बात करेंगे।
योगदर्शन
में ध्यान की परिभाषा :
‘ध्यान’ अष्टांगयोग
का सातवाँ चरण है । हम उलटे से शुरू कर रहें हैं।
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।3.2।।
वहाँ
(चित्त में) प्रत्यय (विषय, वृत्ति, विचार, संस्कार) पर (लंबे समय) तक एकतान होना ध्यान
है।
यहाँ
पर तत्र और प्रत्यय का अर्थ क्या है? यह
जानने के लिए एक सूत्र पीछे जाना पड़ेगा।
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।।3.1।।
चित्त
का एक देश (सीमित स्थल या वस्तु) में बंध (स्थिर) हो जाना धारणा है।
‘धारणा’ अष्टांगयोग का छठा अंग
है । धारणा ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था है। धारणा तब होती है जब चित्त एक देश में बंध
जाता है। देश का अर्थ है जिसकी सीमा हो अर्थात् सीमा में चित्त को बाँध देना।
प्रत्यय अर्थात् चित्त
में समय के छोटे से छोटे भाग में उत्पन्न होने वाली क्रिया। आगे उसके बारे में और समझेंगे।
जब भी प्रत्यय चित्त
में उत्पन्न होता है तो वह चित्त को भर देता है अर्थात् जगह रोकता है और समय के
छोटे से छोटे भाग के लिए ही सही लेकिन चित्त में रहता है। अगर बाह्य वस्तु का
आलंबन लेकर प्रत्यय होता है तो उसको स्थूल कहेंगे और बाह्य वस्तु का आलंबन ना हो
तो सूक्ष्म कहेंगे। जैसा मैंने पहले कहा एक प्रत्यय उठा नहीं कि दूसरा उसकी जगह ले
लेता है।
धारणा-ध्यान का अर्थ होता है बहुप्रत्यय से एक प्रत्यय होने की
स्थिति। हमारा चित्त हर पल में, उससे भी छोटे से भाग में, अनेक विषय ग्रहण करता है
और छोड़ता है। चित्त में निरंतर विषय, विचार, वृत्तियाँ और संस्कार उदय होते हैं और
लीन होते हैं। इन चारों को प्रत्यय के एक नाम से पहचानेंगे। आगे यह सब के बारे में
और गहराई से समझेंगे। यह क्रियाएँ अभी तो हमारे नियंत्रण में बिल्कुल ही नहीं हैं। चित्त को बहुप्रत्यय
से एकप्रत्यय पर लाना और एक ही प्रत्यय पर लंबे समय के लिए स्थिर करना सरल नहीं है।
तो एक ही प्रत्यय को ग्रहण करो। चित्त को एक ही प्रत्यय में स्थिर
कर देने की स्थिति ध्यान है। धारणा और ध्यान की अनेक पद्धतियाँ वर्णित हैं। हमें किसी
एक को पकड़कर उसका अभ्यास करना चाहिए। विज्ञान भैरव तंत्र में 112 ध्यान की
पद्धतियों का वर्णन हैं। लेकिन सभी पद्धतियाँ निम्न लिखित विषय से किसी न किसी तरह
जुड़ी ही हुई है।
चित्त को एक ही प्रत्यय में बाँधने को कुछ इस तरह से समझा जा सकता है। जैसे
– मेरा हाथ है और मेरे सामने मेज पर तीन
चीजें रखी हैं – रुमाल, पेन और किताब। मेरा हाथ कोई भी चीज उठा सकता है,लेकिन एक बार में एक। कभी रुमाल उठाता है, कभी पेन तो
कभी किताब। हाथ के लिए ये तीन चीजें प्रत्यय हो गए। अभी समझो कि हाथ ने रुमाल
उठाया और उसको पकड़कर रखे रखा। दूसरी वस्तु नहीं उठाई। तो मेरा हाथ धारणा कर रहा
है!! ऐसे ही जब चित्त एक ही प्रत्यय को रखे, उसी से अपने आपको को भर दे तो वह
चित्त उस प्रत्यय में बंध गया। वही प्रत्यय का अविरत प्रवाह चित्त में चलता रहे।
इसी चित्त की स्थिति को महर्षि पतंजलि धारणा बोलते हैं। बार-बार एक ही प्रत्यय को पकड़ो। छूट जाए फिर से पकड़ो। वह ही उदित हो
लीन हो, फिर से उदित हो लीन हो।
स्थूल की धारणा सरल है सूक्ष्म से। त्राटक स्थूल विषय धारणा का ही
स्थूल रूप है। त्राटक हठयोग की साधना है
और निष्पलक आँखें खुली रख कर की जाती है। अंततः स्थूल को छोड़ना है यह बात हमेशा
स्मृति में रखनी है।
चित्त क्या है? चित्त को कैसे समझे?
ऊपर
चित्त शब्द का प्रयोग बहुत बार हुआ किन्तु चित्त का अर्थ क्या है, इसका खुलासा नहीं हुआ है। चित्त है विषयों या विचारों या संस्कारों या वृत्तियों का प्रवाह।
चित्त यानी खाली जगह जहाँ विषयों या विचारों या संस्कारों या वृत्तियों का आवागमन
चलता ही रहता है। जैसे घर में बैठक कक्ष होता है जहाँ सभी लोग आते जाते रहते हैं।
अगर कोई एक ही व्यक्ति वहाँ रहे और किसी को भी आने ना दिया जाए तो उसको धारणा
कहेंगे। वही व्यक्ति लंबे समय तक वहीं रहे तो उसको ध्यान कहेंगे। विषय, विचार, वृत्तियाँ और संस्कार
को एक नाम से बुलाना हो तो प्रत्यय कहेंगे।
विषय, विचार और वृत्तियाँ अगर जागरूक हो तो हमें अनुभव
में आते है। सामान्यतः संस्कार अनुभव में नहीं आते। संस्कार को जागरूकता के स्तर पर
लाने के लिए गहरा अवलोकन चाहिए।
चित्त को समझने के लिए अपने चित्त के विषयों, विचारों, संस्कारों और वृत्तियों का अवलोकन करके जानना तथा समझना आवश्यक है, किसी दूसरे का इस बारे में समझाना मदद दे सकता है लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। वह ज्यादा दूर नहीं ले जा सकता। विषय, विचार या वृत्ति उस क्षण के लिए पूरे चित्त को भर देते हैं।
विषय ,विचार,
वृत्ति और संस्कार क्या है?
इन्हें व्याख्यायित करना अत्यंत कठिन है। विचार को व्याख्यायित
करना असंभव के बराबर है। मैं आपसे यह बात मेरे विचारों के माध्यम से कर रहा हूँ, बराबर? अब देखिए, जो सबको व्याख्यायित, अभिव्यक्त करता है, उसको कैसे व्याख्यायित किया जाए!
ज्ञानेन्द्रियों
द्वारा चित्त में आई हुई बाह्य वस्तु या घटना की जानकारी को विषय कहेंगे।
विचार अर्थात् विषय, संस्कार और वृत्तियों के सिवाय की चित्तक्रिया!!! विचार की व्याख्या ऐसे
ही दी जा सकती है!!
चित्त में उदित स्वयंभू भाव अथवा बाह्य विषय से उत्पन्न भाव को
वृत्ति कहते हैं। विचार वृत्ति नहीं है, विचार के साथ-साथ उत्पन्न हुए निहित(छुपा
हुआ) या ज्ञात भाव को वृत्ति कहते है। उदाहरण के लिए – आपने गुलाब
को देखा। उसे देखकर चित्त में आने वाले विचार कई प्रकार हो सकते हैं। यह विचार
इतने जल्दी आते हैं कि एक-एक को अलग से देखना लगभग असंभव होता है। पर हम इन
विचारों को अलग से देखने का प्रयास करेंगे।
1. यह गुलाब है – इसके पीछे भाव है ‘मैं गुलाब देख रहा हूँ।’ भले ही आप ऐसा सोचे
नहीं। यह अपने आप हो ही जाता है जैसे ही कोई भी वस्तु या घटना का ज्ञानेन्द्रियों
द्वारा अनुभव हो तो यहाँ दो वृत्तियाँ(भाव) है। एक ज्ञान वृत्ति और दूसरी मैं
वृत्ति। अर्थात् “मैं गुलाब का ज्ञाता हूँ “ अब थोड़ा और सोचे और यहाँ ज्ञान गुलाब
को तो देख ही रहा है साथ-साथ ‘मैं’ वृत्ति को भी देख रहा है। ज्ञान वृत्ति सबसे ऊपर
है और हमेशा होती ही है।
2. यह गुलाब सुंदर है। जैसे ही सुन्दरता दिखी,
चित्त में प्रसन्नता का भाव आया, फिर आप बोले या न बोले इसका अर्थ
हुआ कि मैं प्रसन्न हूँ। तो सुंदरता के विचार ने एक ओर वृत्ति चित्त में उदित करी
- प्रसन्नता की अथवा ‘मैं प्रसन्न हूँ।’ ज्ञान और मैं वृत्ति (भाव) तो है ही। यह
वृत्तियाँ दो प्रकार की होती है । क्लिष्ट – जो सत्य-ज्ञान दूर ले जाए और अक्लिष्ट
– जो सत्य ज्ञान की ओर ले जाए। क्लिष्ट वृत्तियों से क्लेश का जन्म होता है।
जैसे ज्ञानेन्द्रियों द्वारा चित्त में भेजी गई संवेदनाओं से विचार
और विचार से चित्त वृत्ति का उदय होता है वैसे ही कर्मेंन्द्रियों द्वारा किये गये
कर्म से विचार और विचार से वृत्ति का उदय होता है। उदाहरण के तौर पर, आपने किसी
को अपशब्द बोले या मदद की तो चित्त में अनुक्रम से क्रोध या प्रसन्नता की वृत्ति
पैदा हुई। अब देखिए, हो सकता है किसी व्यक्ति ने गुलाब देखकर क्रोध वृत्ति का उदय हो!!! कोई
वस्तु या घटना, वस्तु या कर्म से कौनसी वृत्ति उत्पन्न हो यह
निश्चित होता है उस वस्तु या घटना या कर्म से सबंधित चित्त में पड़े संस्कारों से।
संस्कार का सरल अर्थ है दृढ़ सुश्लिष्ट ( firm conclusive) मान्यता। मान्यता पैदा होती है
स्मृति से। स्मृति का अर्थ है भूतकाल में अनुभूत विषय। एक ही विषय एक या एक से ज्यादा संस्कारोंको
प्रभावित कर सकता है। संस्कारों का उदय हमारे ध्यान में नहीं आता है जब तक हमारा
अवधान, जागरूकता सघन नहीं हो जाते। यह हो सकता है दृढ़ और
चिरकालीन अपने चित्त के प्रयत्न पूर्वक अवलोकन
के अभ्यास और साधना से ही। एक विषय से एक से ज्यादा वृत्तियों का भी उदय हो सकता
है। दृढ़ जहाँ ऐसे एक से ज्यादा वृत्तियाँ उदित होती हैं, वहाँ
क्षण के बहुत ही छोटे से अंश में होने के कारण हमें एक साथ अनुभव होता है परंतु वृत्तियाँ
तो एक के बाद एक ही उदय होती है। विचार, संस्कार और वृत्तियों
का उदय और लोप होता रहता है। सब जगमगाता रहता है शायद प्रकाश की गति से भी ज्यादा
गति से!! आवागमन का प्रवाह इतनी तेज़ गति से होता है कि जब तक हम सूक्ष्म जागरूकता
ना रखें तो इनको अलग-अलग पहचानना असंभव है। आप जब कोई चलचित्र को जल्दी से भगाते
हैं तो वस्तुओं या व्यक्तियों को अलग नहीं कर पाएँगे। सामान्यतः विषय से विचार,
विचार से संस्कार और संस्कार से वृत्ति उत्पन्न होती है। लेकिन
वृत्ति विषय के अभाव में भी संस्कार से उत्पन्न हो सकती है।
विषय, विचार,
वृत्ति और संस्कार चारों को एक नाम देना हो तो प्रत्यय कह सकते हैं।
योग यही आवागमन का ठहराव या विच्छेद है।
धारणा-ध्यान क्यों करना
हैं?
पतंजलि योगदर्शन के अनुसार ध्यान समाधि में जाने के लिए किया जाता
है। समाधि किस लिए? समाधि संसार के द्वंद्वों (सुख-दुख, राग-द्वेष, मैं-तुम) के
पार जाकर अस्तित्व के सत्य का साक्षात्कार
करवाती है। तो जिसकी इस विषय में रुचि हो वह इस मार्ग पर चल सकता है।
धारणा-ध्यान के लिए योग्यता-पात्रता :
दौड़ते, काम करते हुए आप ध्यान नहीं कर सकते। क्या आपको लगता है के
आप बैठेंगे और आप ध्यानस्थ हो जाएँगे? अगर हाँ तो करिए, बहुत अच्छे, लगे रहिए !
अगर ना, तो आइए जानते हैं कैसे आगे बढ़ा जाए। घर में प्रसंग हो तो कैसे तैयारियाँ होती हैं,
वैसे ही ध्यानस्थ होने के लिए की जाने वाली साधना के लिए भी तैयारी आवश्यक है।
प्रसंग का समय निश्चित होता है, सूची बनाई जाती है, सामग्री इकट्ठी की जाती है,
कौन क्या काम कब करेगा वह निश्चित होता है वगैरह। ध्यान से पहले भी यह करना आवश्यक
है।
ध्यान के लिए उचित समय :
ध्यान कब करना चाहिए? उसका जवाब है कि ब्रह्म मुहूर्त सबसे अच्छा
समय है और अगर इस समय नहीं हो सकता तो कोई
भी समय जिस में न्यूनतम अड़चन हो। सब व्यावहारिक काम खत्म हो चुके हो और कहीं जाने
की जल्दी नहीं हो।
ध्यान की पात्रता :
हम ध्यान करने के पात्र हैं कि नहीं मतलब हमारी पात्रता/योग्यता है कि नहीं ? हम तैयार है कि नहीं? हम तो मान के ही चलते हैं कि हम तो धारणा-ध्यान के पात्र है ही ! पर यह हमारा या तो अज्ञान है या तो अहंकार है। तो पात्रता कब आती है उस पर विचार करना पड़ेगा।
1)इच्छा
/ संकल्प
2)कर्म में रस
3) कर्म की समझ और पूर्व तैयारी
1.
इच्छा
/ संकल्प
ध्यान की हृदय के अंतरतम से प्रबल इच्छा
होनी चाहिए। तभी तो वह संकल्प शक्ति ध्यान में परिवर्तित होगी। इच्छा बहुत बड़ी
शक्ति है। पूरा संसार इच्छा शक्ति से ही चलता है और आप जानते हैं कि शक्ति का
रूपांतरण किया जा सकता है। अगर यह रूपांतरण सही दिशा में किया जाए तो बड़े परिणाम
मिल सकते हैं। मात्र इच्छा होने से पात्रता नहीं आती। छोटे बच्चे को पूछ लिया कि
क्या बनना चाहता है, उसने कहा – डॉक्टर। लेकिन वह अभी डॉक्टर के लिए पात्र नहीं
बना। उसकी बुद्धि इतनी परिपक्व नहीं है। किसी बेरिस्टर को ध्यान बताने लगे पर उसकी
कोई इच्छा नहीं ध्यान में। सामान्यत: हमारी इच्छाएँ कुछ खास प्रबल नहीं होती है। अब यह प्रश्न उठता है कि
इच्छा को प्रबल कैसे किया जाए?
2.
कर्म में
रस
इच्छा को प्रबल करने के लिए कर्म की
समझ अति आवश्यक है। कर्म को करने में कर्म में महत्व-बुद्धि होनी चाहिये। महत्व
बुद्धि का अर्थ है उस कर्म में आपको रस होना चाहिए। रस होगा तो कर्म प्रेमपूर्ण बनेगा।
चित्त स्वाभाविक रूप से उसकी ओर प्रवाहित होगा। कर्म के ध्येय पर और करने से मिलने
वाले फल पर श्रद्धा हो। फल की अपेक्षा करना दूसरी बात है और कर्म फल पर श्रद्धा
रखना दूसरी! कहीं ध्यान हम देखा देखि में तो नहीं कर रहें हैं ना? हमारा मित्र सीख
के आया है तो चलो हम भी सीख लें। बाजार में जोर-शोर से प्रचार हो रहा हैं योग
ध्यान का, चलो खरीद लेते हैं थोड़ा बहुत। इस तरह से ध्यान नहीं लगता है। धारणा-ध्यान
के बारे में ऊपर जो कहा गया वह आपकी समझ में आया; साधक को शुरूआत में ऐसे प्रत्यय
को लाना चाहिए जिस के लिए हृदय में रस, प्रेम, और आदर का भाव हो। ऐसे प्रत्यय में
चित्त स्थिर रहने की संभावना बढ़ जाती है। वह प्रत्यय आपके चित्त में आते अन्य
प्रत्ययों को सरलता से रोक कर रखेगा। उदाहरण के लिए, गुरु के चरण या इष्टदेव की
प्रतिमा पर अपने चित्त को स्थिर किया। कुछ क्षणों के बाद चित्त वहाँ से हटकर कोई
विचार पर गया। मान लो दफ्तर में किसी के साथ कोई अड़चन का विचार आया अथवा कोई वस्तु
को भोगने का विचार आया। तो तुरंत वह चरण या प्रतिमा आपको याद आएगी क्योंकि उसके
लिए आपके चित्त में रस है ,आदर है। आप सोचोगे, अरे ! यह मैं क्या कर रहा हूँ? गुरु
चरण या इष्टदेव पर ध्यान करते यह मैं क्या सोच रहा हूँ? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए।
यह तो अपराध हो गया। तो वह प्रत्यय ने आपको रोक लिया। अगर उस प्रत्यय में आपकी रस
या प्रेम बुद्धि नहीं होती तो ऐसे भाव नहीं आते और चित्त फिर से उस और प्रवाहित
नहीं होता है। अगर कोई कल्पना को भी आप
प्रत्यय बनाते हैं तो वह वासना को शिथिल करने वाली होनी चाहिए, बढ़ाने वाली नहीं।
मैं मेरी नई कार को मेरा प्रत्यय बनाऊँगा क्योंकि उस में मेरा रस है तो यह तो वासना
बढ़ाएगी। आपको विचार आएगा की पड़ोसी के पास तो और भी अच्छी कार है। अब मैं ऐसी कार
लाऊँगा। तो इसने आपकी वासना को विस्तृत कर दिया।
3.
कर्म
की समझ और पूर्व तैयारी
कर्म से पहले की पूर्व तैयारी
नितांत आवश्यक है। पूर्व तैयारी से ही चित्त शुद्धि होती है। चित्त शुद्धि के बिना
ध्यान असंभव है। जरूरी सामग्री सूक्ष्मता से जाननी चाहिए और योग्य तरीके से, उचित
सामग्री धैर्य के साथ इकट्ठी करनी चाहिए। यह नहीं के पूजा करने बैठे और जल भूल
गए। जल लाए तब कंकु और चंदन भूल गए। वह
लाए तो दीया भूल गए। अगरबत्ती है पर ठीक नहीं है । यह पूजा तो विक्षेपों से भर गई।
ध्यान के लिए क्या और कैसी सामग्री चाहिये ?
धारणा-ध्यान के लिए
क्या सामग्री चाहिए?
१. चित्त
२. शरीर
कैसे चित्त और शरीर चाहिए ?
१. आरोग्यपूर्ण और स्थिर शरीर
२. प्रसन्न, अंतर्मुख और स्थिर चित्त
आरोग्यपूर्ण शरीर में ही स्थिरता आ सकती है। आरोग्यपूर्ण और स्थिर
शरीर में ही चित्त प्रसन्न, अंतर्मुख और स्थिर रहता है। शरीर में कहीं पर दर्द हो,
रोग हो तो ध्यान नहीं लगता। बार-बार हमारा चित्त शरीर के साथ जुड़ जाएगा। स्थिर बैठने का अभ्यास भी चाहिए। ध्यानस्थ होने
के लिए शरीर की विस्मृति आवश्यक होती है। शरीर और चित्त को स्वस्थ रखने के उपायों
को अलग करना मुश्किल है। चित्त शरीर पर और शरीर चित्त पर प्रभाव डालते हैं। दोनों
एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा हो सकता है कि कोई एक उपाय किसी एक पर ज्यादा
प्रभाव डाले।
उभय में विकृति या विक्षेप उत्पन्न होने के कुछ कारणों में से एक
है – हमारी बाह्य घटनाओं पर अनियंत्रित प्रतिक्रियाएँ जिसको योग की परिभाषा में वृत्तियाँ कही जाती हैं
जिसे हमने विस्तार से ऊपर देखा। यह वृत्तियाँ स्वचालित रूप से जन्म लेती है,
अनगिनत संस्कारों और स्मृतियों से। एक भावनात्मक , दूसरी क्रियात्मक। यह वृत्तियाँ
कई बार सकारात्मक भावनाओं को या मानसिक अथवा शारीरिक क्रियाओं तो कई बार नकारात्मक
भावनाओं या मानसिक या शारीरिक क्रियाओं को जन्म देती है। नकारात्मक विक्षेप का मुख्य कारण होती है। जैसे हमने किसी
को चोरी करते देखा तो हमारे चित्त में द्वेष की भावना उत्पन्न हुई। उसके साथ-साथ
उसको मारने की मानसिक क्रिया भी पैदा हुई और क्रोध में मार भी दिया। फिर बाद में
पछतावा होता है कि हाथ नहीं उठाना चाहिए था। फेसबुक पर हमने किसी मित्र के घूमने
के फोटो देखे और हमारे चित्त में इर्ष्या का भाव उद्भव हुआ। रास्ते पर एक कुत्ते
को दु:खी देखा तो हम दु:खी हो गए । दैनिक जीवन में घर में भी ऐसे ही कई उदाहरण ढूँढ
सकते हैं। ऐसी कई घटनाओं के प्रति आपको सभान बनना है और उसके प्रति प्रतिक्रिया
नहीं बल्कि सोचा-समझा प्रत्युत्तर देना है। महर्षि पतंजलि ने हमें व्यवहार का
सामान्य मार्गदर्शन दिया है प्रत्युत्तर के लिए जो हमें संतुलित और प्रसन्न चित्त बनाए
रखने में मदद करेंगे। दो प्रकार की पद्धतियाँ हैं। एक है – तत्क्षण लागू करने वाली
जिसकी असर जैसे ही लागू किया जाए वैसे तुरंत आ सकती है और दूसरी है – लंबे समय के
अभ्यास से आमूल परिवर्तन हो सकता है। इसको ऐसे समझे कि कोई भी कारण से आपको क्रोध आ गया तो
तुरंत-तत्क्षण आप क्या करेंगे और फिर भविष्य में क्रोध ना आए उसके लिए क्या
करेंगे। प्रथम प्रकार की पद्धति की सूची छोटी है, वह पद्धति चित्त पर ज्यादा काम
करती है। दूसरी प्रकार की पद्धति की सूची बहुत लंबी है, वे दोनों पर काम करती हैं।
दूसरी प्रकार की सूची में पूरा का पूरा योगशास्त्र ही है – इसमें तत्क्षण काम करने
वाली पद्धतियों की आदत भी सम्मिलित है।
उपायों को जाने उसके पहले थोड़ी बाते
समझना जरूरी है। आरोग्यपूर्ण और स्थिर शरीर प्रसन्न , अंतर्मुख और स्थिर चित्त
प्राप्त होते हैं – उत्कृष्ट जीवनशैली से। ऊर्जा को जीवन शैली दिशा देती है। ऊर्जा
के व्यय को रोकती है। जीवन शैली कैसी हो वह एक विस्तृत विषय है। जीवन शैली खास कर
शरीर को सीधे प्रभावित करती है। चित्त को प्रसन्न कैसे रखा जाय? चित्त में विक्षेप
हो तो धारणा या ध्यान असंभव है। चित्त को प्रसन्न रखने के लिए व्यवहार शुद्ध करना
चाहिए और नियमित सत्संग करना चाहिए। व्यवहार शुद्धि का सरल उपाय क्या है?
अच्छी जीवन शैली के कुछ आधारभूत मुद्दें हैं – विवेकपूर्ण व्यायाम,
खुराक, नींद और अर्थोपार्जन का समय, शुद्ध आचरण, अध्यात्म अभ्यास और सत्संग। यह
मुद्दों का रूप ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम में
भिन्न होगा।
उत्कृष्ट जीवनशैली के लिए महर्षि पतंजलि ने कुछ उपाय बताए हैं।
साधनपाद में बताए गए अष्टांगयोग के पहले 5 अंग – यम , नियम, आसन, प्राणायाम और
प्रत्याहार जीवन शैली को उत्कृष्ट बनाने का ही भाग है। यह पाँच अंगों का अनुसरण
करने से शुद्ध आचरण, अध्यात्म अभ्यास और सत्संग होता है और हमारे चित्त की शुद्धि
होती है।
यम
सत्य - अपने और दूसरों के साथ सत्य। जो अपने साथ सत्य बोल सकता है
वही दूसरों के साथ भी सत्य बोलेगा
अहिंसा - मन, वाणी या कर्म से जीव और प्रकृति को दुःख न देना
अथवा हत्या न करना
अस्तेय – किसी और की वस्तु को अपनी
ना बताना
अपरिग्रह – जरूरत से ज्यादा संग्रह
ना करना और मालिकी भाव ना लाना
ब्रह्मचर्य – जीवन की ऊर्जा का व्यय
ना करना
नियम
शौच – शरीर और चित्त को शुद्ध
रखना
संतोष – मेहनत और प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त वस्तुओं
का सहज स्वीकार
तप – प्रारब्ध अनुसार प्राप्त शरीर और चित्त की
प्रतिकूल परिस्थितियों की सहिष्णुता
स्वाध्याय – अंतर्मुखता (चित्त के
प्रति हर क्षण सभानता) के लिए अभ्यास करते रहना
ईश्वरप्रणिधान – एक ईश्वर तत्व का
अभ्यास / कर्तापन-अहंकार को समर्पित करना
तत्क्षण उपाय कौन से हैं ?
तत्क्षण उपायों की जरूरत चित्त में क्लिष्ट वृत्तियाँ आने पर होती
है। वे उपाय चित्त में से उसी क्षण क्लिष्ट वृत्तियों को दूर करने की क्षमता रखते
हैं।
महर्षि पतंजलि तत्क्षण उपाय की दो पद्धतियाँ बताते हैं।
1. प्रतिपक्ष भावना
वितर्कबाधने
प्रतिपक्षभावनम्।।2.33।।
चित्त में उत्पन्न यम और नियम से विपरीत वृत्तियों को वितर्क कहते
हैं। यह तीव्रता में कम ज्यादा होते हैं। यह वितर्क जब भी आपके मन में आए, उदाहरण
के तौर पर आप क्रोध करने जा रहे हो (अथवा
आप किसी से क्रोध करवाने जा रहे हो अथवा क्रोध का अनुमोदन कर रहे हो), कोई
भी हो, आपको प्रतिपक्ष भावना तत्क्षण करनी चाहिए । क्रोध हिंसा का ही छोटा रूप है।
क्रोध आए तो अहिंसा अथवा प्रेम की भावना करनी चाहिए। अगर आलस्य (स्थल, काल के योग्य कर्म जानते हुए भी प्रवृत न होना)
अथवा प्रमाद (स्थल, काल के योग्य कर्म ही न जानना) उत्पन्न
होते हैं तो स्वाध्याय को याद करना चाहिए। इसके साथ-साथ यह भी सोचना चाहिए कि यह
वितर्क दु:ख और अज्ञान के अंधकार में ले
जाने वाले हैं।
असत्य
-----------------------सत्य
हिंसा/क्रोध
-----------------अहिंसा/प्रेम
स्तेय
-------------------------अस्तेय
परिग्रह
----------------------अपरिग्रह
व्यभिचार
-------------------ब्रह्मचर्य
अशौच
----------------------शौच
लोभ
-------------------------संतोष
असहिष्णुता
-----------------तप
आलस्य/प्रमाद --------------स्वाध्याय
नास्तिकता/अहंकार
---------ईश्वरप्रणिधान
2. चित्त प्रसाद
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम्।।1.33।।
जब हम हमारे आस पास के कोई व्यक्ति को देखते हैं तो वह या तो सुखी
होता है, या दुखी, या अच्छा या बुरा काम कर रहा होता है। अब यह देखकर हमारे चित्त
में भी वृत्ति उत्पन्न हुए बगैर रहती नहीं है।
आपने आपके पड़ोसी को नई कार, वह भी वॉल्वो, चलाते देखा तो आपके मन में क्या वृत्ति हुई? ज़्यादातर
तो तुरंत इर्ष्या की वृत्ति होती है। मेरे पास ऐसी कार नहीं। बाहर से आप भले ही
खुशी बताए लेकिन अंदर से थोड़े क्षणों के लिए सही, जलन होती है। और फिर आप मन में
बोलेंगे की बहुत दो नंबर का पैसा है। बहुत पैसों के पीछे पड़ा है। पतंजलि कहतें हैं
कि अगर आप सुखी व्यक्ति को देखते हो तो आप ईर्ष्या नहीं बल्कि उसके साथ सुखी हो
लो, मैत्री कर लो। अगर आप कोई दुखी व्यक्ति को मिलते हैं तो सहानुभूति मत जताओ,
उसके साथ दुखी मत हो, उसके
साथ करुणामय हो जाओ। करुणामय हो जाना अर्थात् दुख निवृत्ति के लिए आगे आना, उपाय
करना। क्या करेंगे अगर किसी को दान करते हुए देखा? संध्या करते देखा? यह रोज करता
है दिखा ने के लिए, ढोंग करता है। जब ऐसा सोचोगे तो आपका चित्त एकाग्र होगा? शांत
होगा? कभी नहीं । पतंजलि कहते हैं कि अगर कोई पुण्य का काम कर रहा है तो मुदित हो
जाओ। आनंदपूर्ण हो जाओ। अब किसी को पाप करते देखा तो क्या करें? पतंजलि कहते
उपेक्षा करो। उपेक्षा अर्थात् मुँह फेर लो। अपने चित्त को वहाँ मत ले जाओ। यह
मानने में थोड़ा अनुचित लगेगा लेकिन
बिल्कुल सही है। पापी को सजा देने के लिए पुलिस है। तुम अपना काम करो। दुनिया को सुधारने
का ठेका लेके मत घूमो। बेमतलब अपने अधिकार से बाहर निरीक्षण, परीक्षण और चर्चा
नहीं करनी चाहिए।
यह सब करने से क्या होगा? इस से चित्त प्रसाद – प्रसन्न होगा, चित्त
का परिसंस्कार होगा और धारणा, ध्यान और समाधि लगाने में बड़ी भारी मदद मिलेगी।
इच्छा / संकल्प, कर्म में रस और कर्म को समझकर साथ-साथ पूर्व
तैयारी, ये तीनों जब आप में होंगे तब आप पात्र बनोगे धारणा और ध्यान के लिए। ध्यान
समाधि उन्मुख होगा। देखा-देखी वाला ध्यान नहीं ! यह साधना में जो निहित भाव अत्यंत
आवश्यक है वह है धैर्य।
इन वृत्तियों को जानने की उपादेयता क्या है?
आत्यंतिक उपादेयता है कि यह समझ ध्यानस्थ होने की पूर्व तैयारी है।
जैसे देखा, वृत्तियाँ तो अनगिनत हो सकती है।
धारणा
की पद्धतियाँ
स्थूल – धारणा के कुछ प्रत्यय और पद्धति निम्न लिखित है
–
गुरु के चरण, गुरु का मुख, इष्टदेव की मूर्ति, नासाग्र, भूमध्य,
नाभि, श्वास-प्रश्वास या कोई भी वस्तु जो स्थूल है और उसकी कल्पना की जाए। उसकी
जितनी सीमा है उसी में चित्त को बाँध देना, चित जरा भी हिल नहीं पाए उस सीमा से।
दूसरा प्रत्यय नहीं आना चाहिए.
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी।।1.35।।
किसी भी ज्ञानेन्द्रिय पर एकाग्र हो जाओ और उसके दिव्य गुण का अनुभव
करो। बस वह ज्ञानेन्द्रिय और उसका गुण चित्त में रहे।
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।।1.34।।
प्रश्वास पूरा बाहर निकल कर और श्वास शुरू होने से पहले जहाँ ठहरता
है उस बिन्दु पर अपने चित्त को स्थिर करो।
श्वास शरीर में अंदर जा कर और प्रश्वास शुरू होने से पहले जहाँ क्षण के लिए ठहरती उस बिन्दु पर चित्त को
स्थिर करो।
अपनी आँखों की पुतलियों को स्थिर कर दो, जरा भी हिलने न दो और
चित्त को वहाँ बंद कर दो।
जिह्वा को मुँह में स्थिर कर दो और चित्त को वहाँ बंद करो.
सूक्ष्म – सूक्ष्म प्रत्यय का सीधा धारणा-ध्यान कठिन है।
कोई कहे कि हम तो सीधे सूक्ष्म का ध्यान करेंगे तो वह नहीं हो सकता। महर्षि पतंजलि
चित्त के गणितज्ञ है। उनके बताए गए कदम का उल्लंघन पात्रता के बिना हो ही नहीं
सकता। आपकी पात्रता होगी तो और आप शायद एक दो कदम कूद भी जाए, परंतु अगर बारिकी से
अवलोकन करेंगे तो पाएँगे की उनके बताए मार्ग से ही आगे बढ़े हैं।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी।।1.35।।
पाँच तन्मात्राएँ अर्थात्
शब्द, रूप, स्पर्श, रस और गंध। उदाहरण के
लिए चित्त को मात्र और मात्र ॐ ध्वनि (कोई भी ध्वनि) से अथवा तेज से या स्पर्श से
या रस से या गंध से भर देना। ॐ को देखना नहीं, रस या गंध के साथ वह गुण वाली कोई
स्थूल वस्तु की कल्पना नहीं करनी है। अगर आप कोई खास रस या गंध को विषय बनाते हैं
तो चित्त में वस्तु आएगी ही। खट्टे या तीखे रस अथवा गुलाब की सुगंध की कल्पना वह
वस्तु को भी साथ में ले आती है। वह तो फिर
स्थूल धारणा हो गई। तन्मात्रा का अर्थ है मूल सूक्ष्म तत्व। चित्त के कोने-कोने में
एक ही तन्मात्रा को भर देना है। दूसरी आ ही ना पाए। हर एक तन्मात्रा के भेद है।
जैसे अनेक प्रकार की ध्वनियाँ, अनेक प्रकार के रूप, रस, गंध, स्पर्श वगैरह। लेकिन
वह भेद में जो अनुभव मात्र है वह हर तन्मात्रा का एक है। जैसे खट्टे का अनुभव पहले
है या रस का ? आकार का अनुभव पहले या
प्रकाश का? उस मूलभूत अनुभव को संविद कहते हैं। सोना पहले है या आभूषण ? सूक्ष्म
धारणा में, यही संविद मात्र से चित्त को
भर देना है। आप शुरुआत भले ही गुलाब की
सुगंध से करें, लेकिन धीरे से गुलाब को और फिर गुलाब की गंध को हटा देना
है। सभी गंध के पीछे जो गंध है उससे चित्त को भरना है। यह सूक्ष्म भाग ऊपर स्थूल
में कही गई पद्धति का।
विशोका वा ज्योतिष्मति।।1.36।।
सूक्ष्म प्रत्यय है आपके अपने चित्त की स्थिति। आपने चित्त की
प्रसन्नता या शांति या सघन चेतना का अनुभव तो किया होगा। अब आप याद करें कि उस समय
चित्त की स्थिति क्या थी। उदाहरण के लिए आप कहीं बाहर घूमने गए और वहाँ प्रकृति को
देख कर आप का चित्त प्रसन्न हुआ, शांत हुआ। तो पहले वह दृश्य को चित्त में लाइए और
फिर अपनी चित्त स्थिति को। ठीक उसी की कल्पना कर के अपने चित्त को भर दीजिए। फिर
से भरिये, अगर छूट जाए तो बार-बार भरते रहिए। दृश्य मात्र चित्त की स्थिति को लाने
में सहायता करेगा। दृश्य की
स्मृतियों में खो नहीं जाना।
वीतरागविषयं वा चित्तम्।।1.37।।
अच्छा आपके चित्त की कोई ऐसी स्थिति याद नहीं आ रही है, तो अब ऐसा
महापुरुष तो आपके जीवन में जानते ही होंगे जैसे बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम या अभी
कोई जीवित हो। उनके जीवन के कोई प्रसंग में उनका चित्त कैसा होगा, यह स्मृति में
ले आए और उससे चित्त को भर दे। उन के चित्त की स्थिति को लाना है, वह व्यक्ति को
नहीं यह ध्यान में रखें।
स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा।।1.38।
ऐसा
भी आप से नहीं हो रहा है, तो आपके चित्त की वह स्थिति को याद करें जब आपने कोइ
अच्छा स्वप्न देखा हो। ध्यान रखें स्वप्न की घटना को नहीं , घटना में चित्त की
स्थिति से वर्तमान के चित्त को भरना हैं। स्वप्न याद करके तुरंत चित्त स्थिति पर आ
जाना है। स्वप्न से चित्त को नहीं भरना है अथवा तो सुषुप्ति अवस्था के चित्त धारणा
कीजिए। सुषुप्ति अवस्था में सब वृत्तियाँ थम जाती है। कोई प्रत्यय को जानने वाला “मैं”
नहीं होता । ऐसी ही अवस्था में चित्त को बाँध दीजिए। सुषुप्ति अवस्था में ना ही “हूँ” वृत्ति होती है ना
ही “नहीं हूँ” वृत्ति होती है।
यथाभिमतध्यानाद्वा।।1.39।।
यह भी नहीं हो रहा है! तो ऐसा
कीजिए कि जिस में भी आपका रस हो, जो भी प्रत्यय में या जो भी
कर्म में आपके चित्त की जो स्थिति होती है उसी को वर्तमान चित्त में ले आइए
और चित्त को एकाग्र बना दीजिए। उदाहरण के लिए – आपका रस संगीत में है तो अपने
संगीत को सुनिए, अब सूक्ष्म तल पर जाइए और स्वर को सुने और गहरे उतरे, स्वर की
कंपन – जहाँ से स्वर पैदा हो रहे हैं – को सुनिए। और डूबकी लगाए, सुनिए उस मौन को जहाँ
से स्वर पैदा हो रहा है और उसी मौन में विलय हो रहे हैं। उसी मौन से बार-बार चित्त को भर दे। अंततः मात्र संविद रह
जाए। यह प्रक्रिया किसी भी स्थूल विषय के साथ की जा सकती है। आपकी पत्नी या पुत्र
को रखकर उनके चित्त के सूक्ष्मतम तल को
अपने चित्त में भर लें। स्थूल छूट जाएगा, आप सूक्ष्मतम में पहुँच जाएँगे। यहाँ
खतरा यही है कि स्थूल नहीं छूटेगा तो आपकी गति आगे नहीं होगी। यह स्मरण रहे कि स्थूल
को छोड़ना ही है। यह महर्षि पतंजलि की
पराकाष्ठा है।
एक और अति सूक्ष्म प्रत्यय है – “हूँ”। इसको अस्मिता भी कहते हैं। यहाँ “हूँ” का
अर्थ मैं इंजीनियर या डॉक्टर या शिक्षक वगैरह हूँ, मैं पुरुष, पिता, पुत्र, पति,
भ्राता वगैरह हूँ शरीर हूँ, मैं ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय हूँ – ऐसा कोइ
भी नहीं। यह सारे विशिष्ट ज्ञान है और सापेक्ष है, बदलते रहते हैं। यह सब विशिष्ट
ज्ञान छोड़कर जो “हूँ” है उसी मात्र “हूँ” पर चित्त को बाँध दो और कोई वृत्ति आने न
पाए।
अब ध्यान – यह धारणा एक ही प्रत्यय में जब लंबे समय तक होती है तो वह ध्यान में
परिवर्तित होती है और ध्यान जब लंबे समय तक होता है तो वह समाधि में परिवर्तित
होता है। अर्थात् एक ही प्रत्यय का चित्त
में लंबे समय तक रहना ध्यान है। कितना समय?, उसकी व्याख्या महर्षि पतंजलि ने नहीं
की है। जरूरी नहीं आज हम पंद्रह मिनट ध्यान करेंगे ऐसा कहकर ध्यान में नहीं बैठा
जाता। ध्यान की कोई समय मर्यादा नहीं होती। आँखें बंद करके बैठे हैं परंतु चित्त
तो घड़ी की टिक- टिक को सुन रहा है। यह तो खुद को उल्लू बनाने वाली बात है। आप भले
ही उसको ध्यान कहो लेकिन पतंजलि नहीं कहते। लंबे समय का अर्थ है जहाँ समय गायब
होने लगा, समय ना रहा। कहीं से भी धारणा अथवा ध्यान को शुरू करें, आप स्थूल आलंबन
से ही सूक्ष्म आलंबन और सूक्ष्म से अस्मिता आलंबन पर पहुँच सकते हैं।
अस्तु !
डॉ.
ईशान आचार्य
ओक्युलोप्लास्टिक
सर्जन
(Oculoplastic
Surgeon)
एवं
योग
शिक्षक (योग निकेतन)
वड़ोदरा
बहुत अच्छा विशलेषण किया है। उदाहरण दैनिक क्रियाओं से लिए गयें हैं इस से उनसे जुडने में आसानी होती है और भावों को समझने में भी।
जवाब देंहटाएंआभार।
अशोक कूमट
धन्यवाद!
हटाएंBhut hi achhi jankari prapt hui..in detail and easily can understand with interest...thank you.. well done..
जवाब देंहटाएंपतंजलि योगसूत्र की संक्षेप में बहुत सहज और प्रभावी व्याख्या,हर साधक के लिये उपयोगी आलेख।डॉ. ईशान आचार्य जी को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंVery Detailed Information.. Thank You For Sharing 🙏🏼
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर व्याख्या।
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