योग का विज्ञान
डॉ. रूपल वसंत
योग का सर्वव्यापी अर्थ है – जोड़ना।
वैज्ञानिक परिभाषा की दृष्टि से देखा जाए तो यह सिर्फ एक शारीरिक व्यायाम ही नहीं
है बल्कि उससे भी कहीं बढ़कर है। वास्तव में योगाभ्यास शारीरिक,
मानसिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाने वाला, परम
चैतन्य की प्राप्ति की ओर हमारा मार्ग प्रशस्त करने वाला गहन विज्ञान है।
योगाभ्यास दिन के कुछ समय या क्षण
के लिए की जाने वाली मात्र क्रिया नहीं है परंतु इससे भी कहीं ज्यादा इसका महत्त्व
है। मनुष्य द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कर्म में योग अपनी अहम भूमिका निभाता
है। जैसे – छोटे बच्चों से लेकर वृद्ध, प्रत्येक के भीतर शारीरिक एवं मानसिक
संतुलन,
एकाग्रता एवं समत्व की भावनाओं को स्थापित करने का कार्य
योग का है।
श्रीमद् भगवदगीता में भी योग का संदर्भ कई बार आया है।
योग: कर्मशु कौशलम्।
चित्त वृत्ति निरोध:।
दु:ख सुख समयोग-वियोगम्।
वस्तुत: हम योग को समझने का
प्रयास करें तो यह आंतरिक शुद्धि की प्रक्रिया है, अहंकार एवं रोगों से मुक्ति का अनोखा मार्ग है,
परम चैतन्य की प्राप्ति की साधना है। स्वामी शिवानंदजी
महाराज कहते थे कि “हजारों पन्नों की किताबें पढ़ने से बेहतर होगा कुछ पल ही सही
प्रायोगिक रूप से योग का अनुभव करें।”
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें
तो योग का क्षेत्र काफ़ी विस्तृत है। जैसे – गाणितिक रूप से देखें तो योग का अर्थ
है - दो विभिन्न वस्तुओं को जोड़ना। पारिस्थितिविद्या या प्रकृति के प्रारूप की
दृष्टि से देखें तो मेरूदंडविहिन और मेरूदंडधारी विभिन्न प्रकार की जीव सृष्टि,
वनस्पति सृष्टि एवं वर्तमान समय में आतंक मचाये हुए कोरोना
जैसी सूक्ष्मजीव सृष्टि एक सातत्यपूर्ण रूप से इसमें समन्वित है। चिकित्साशास्त्र
की दृष्टि से योग का प्राचीन भारत में अत्यंत महत्त्व रह चुका है, जिसे अब आधुनिक
विज्ञान स्वीकृत करने की राह पर है। यह भारतवर्ष के लिए गौरवान्वित करनेवाली बात
है।
आज बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएँ
अविरत रूप से विविध रोगों के निवारण हेतु
प्रयास कर रही हैं। निरंतर शोध कार्य हो रहे हैं, नई-नई दवाईओं का आविष्कार भी हो रहा है, किंतु फिर भी रोगनिवृत्त समाज का निर्माण करना
असंभव प्रयास जैसा लग रहा है; क्योंकि ज़्यादातर लोग मूर्खता,
जड़ता और अज्ञानता का शिकार है। आयुर्वेद के अनुसार दिनचर्या,
ऋतुचर्या और सद्वृत्त का पालन न करने से रोगों की जटिल समस्या
निरंतर रूप से जा़री रहती है।
जीवनशैली में भी प्राथमिक रूप
से श्वासोच्छ्वास के प्रति जागरूकता के अभाव के कारण शरीर में मौजूद विभिन्न पाँच
प्रकार के वायुओं के दूषित होने की संभावनाएँ बढ़ती रहती हैं। यदि श्वासोच्छ्वास के
प्रति अर्धजागरूकता हो तो योगाभ्यास केवल व्यायाम बनकर रह जाता है। आजकल जिस तरह से
योगमय बनने और बनाने की कवायतें जारी हैं, उसमें यह ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक होगा
कि श्वास का पूर्ण रूप से जागरूकता से अभ्यास किया जाएँ। योगाभ्यास और प्राणों की
सचेत एवं नियंत्रित रूप से गति का अवलोकन तथा जागरूकता होना ज़रूरी है, क्योंकि कोई
भी आसन,
प्राणायाम या मुद्राएँ बनाते समय स्नायुओं में जो तनाव और
प्रसरण की परिस्थिति बनती है, उसमें ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा आवश्यक होती है।
ऑक्सीजन के अभाव की स्थिति में यदि स्नायुओं के विस्तरण की
क्रियाएँ की जाएँ तो लाभ के बजाए नुकसान होने की संभावना बढ़ जाती है। हम प्राण की
अभिज्ञता के साथ जब अभ्यास करते हैं तब मानसिक स्थिरता,
संतुलन, सकारात्मकता एवं सुचारू रूप से रक्तसंचार होता है। वर्तमान Covid
की महीमारी में प्राण - ऑक्सीजन की मारामारी चल रही हैं, तब प्राणों की जागरूकता
से ही प्राण बचाया जाए ऐसी स्थिति है। श्वसनतंत्र के साथ निरंतर योगाभ्यास करने से
शरीर के पाचनतंत्र, रूधिराभिसरणतंत्र, मूत्रवाहकतंत्र, तंत्रिका तंत्र आदि की देहधार्मिक प्रक्रियाओं में
सकारात्मक बदलाव आता है ।
आयुष मंत्रालय सूचित सामान्य
योग प्रोटोकोल अनुसार 45 मिनिट के न्यूनतम अभ्यास से भी यदि शुरूआत की जाए तो भी
हितकारी है।
योग लाएगा समानता और मानवता।
योग से बढे़गी जन-जन में जागरूकता।
योग से ही पूर्ण स्वस्थता की ओर प्रयाण।
योग से ही होगा सबका कल्याण।
योग से बढे़गा ज्ञान-विज्ञान।
योग ही है भारत की पहचान।
डॉ. रूपल वसंत
असिस्टेंट प्रोफेसर
बायोसायन्सीस
विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर
अच्छा आलेख
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