जीवन में योग का व्यावहारिक महत्त्व
डॉ. आशा पथिक
सम्पूर्ण वसुधा को एक सूत्र में पिरोने स्वरूप की
संकल्पना को लेकर प्रतिवर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मानाने का शुभारंभ किया गया। हमारे
माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी द्वारा इस का प्रस्ताव सभी देशों के
सामने यह कहते रखा गया था कि आपसी भाईचारे से ही पूर्ण
प्रगति सभी देश कर सकते हैं। अतः हमें मानसिक स्वास्थ्य के साथ शारीरिक स्वास्थ्य
हेतु सजग होना होगा। वैसे भारत ने ही “वसुधैव
कुटुम्बकम्” का नारा सदा से बुलन्द किया है।
“आत्मवत् सर्व भूतेषु” को मान्यता देती हमारी शास्त्रीय मौलिक शिक्षा कहती है कि जीव मात्र पर
दया और अपनी आत्मा की तरह ही सम्पूर्ण जीवों को देखने (दृष्टा भाव) का भाव ही जगत
कल्याण कर सकता है और भी योग में अंतर्निहित व्यावहारिक अर्थ-एक दूसरे से जुड़ना, हम एक-दूसरे से जुड़कर ही सभी का अर्थात् स्वयं और परिवार इकाई से लेकर
विश्वभर को एक प्रेम के सूत्र में बाँध सकते हैं और एक-दूसरे के गुणों का
पारस्परिक विनिमयन से सीधा लाभ ले सकते हैं।
आज “योग” की महती आवश्यकता है जबकि परिवार का
समूह-एकल इकाई में सिमटता जा रहा है। योग की अवधारणा आर्युवेद और दर्शनशास्त्र से
आई है। वस्तुतः आयुर्वेद संपूर्ण आयु की जानकारी देने वाला शास्त्र है।
जीवन से लेकर सामयिक (स्वाभाविक) मृत्यु तक हमें कैसा
सरल जीवन जीना चाहिए ताकि
हम स्वस्थ तन-मन रख बिना बीमारी के जीवन धारणा कर सके। इसमें आहार-विहार और
आहार-विहार से मन-चित्त’ जिसे कहा गया उस पर क्या
संस्कार अंकित होते हैं यह बताया गया है, यथा हम
सात्विक भोजन करते हैं तो मन सात्विकी वृत्तियाँ वाला बनता हैं, वहीं तामसिक खान-पान यथा माँस-मछली वाला हो तो, मन और विचार भी तामसिकी यथा हिंसक हो जाते हैं ऐसा अनेक शोधों से ज्ञात हुआ
है। यथार्थ में भी ऐसे उदाहरण समाज में देखने पर भी आपको मिल जाएँगे।
सात्विक मन सदाचरण पालन करने से विचारशील होने से
हित-अहित जीवन के लिए क्या है, विचार कर सही-गलत का निर्णय आसानी से ले सकता है। वहीं तामसिक व्यक्ति को
तमस से क्रोध आने के कारण वह अन्य वैकारिक मानसिक वृत्तियों से घिर जाता है। वह
भलाई की आदतों को छोड़, लोभ, मोह
से निर्णय लेने लगता हैं। जो उसके, परिवार-समाज के
स्वस्थ जीवन हेतु अभिशाप बन जाता है और वैकारिक भ्रष्टता का जाल व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र
ओर वैश्विक पतन को आमंत्रित करता ही हैं। अब विचारणीय है कि हम सरल सहज “राजयोग” अर्थात् सरल तरीके से चित्त को एकाग्र
कर मन पर निगाह रखे, दृष्टा बन उसे देखते रहे, निरंतर उसे लक्ष्य पर टिकाएँ रखे। सरल तरीके से आत्मिक दृष्ट्या जब हम
ईश्वर से युक्त हो सांसारिक निर्वहन करते है, तो
ईश्वरीय सभी गुण हमारे अज्ञान के जालों को हटा देते है ओर जीवन में सरलता का
प्रकाश कर देते हैं।
आज एक व्यक्ति जो परिवार की इकाई है, वह टूट गया है, तो विश्व तक जुड़ाव कैसे संभव होगा? इसका सरल
तरीका “योग” है। हम खुद पर
खुद की निगाह रखे। जुड़े, ईश्वर से और फिर अपना और समाज
का कार्य व्यवहार करे तो अच्छा समाज ,राष्ट्र, विश्व बन सकता है। तभी हम आंतरिक और-बाह्य दुखों से अपने को बचा सकते हैं।
हम स्वयं अपने ही कर्मों से स्वर्ग जैसा सुख निर्माण करने में सफल हो सकते हैं।
कहा है –
“सुख संज्ञकमारोग्यं, विकारो दुःख
मेव चः।”
महर्षि चरक ने, आरोग्य ही सुख है ऐसा कहा, विकार ही दुख है।
अतः इससे सिद्ध हैं हम स्वंय ही सुख-दुःख का निर्माण अपने मानसिक, वाचिक, कायिक रूप से किए कर्मों द्वारा करते
हैं इन्हीं कर्मों को तटस्थ आत्मा के पास बैठकर मन को देखते रहने से हम सब ठीक-ठीक
कर सकते हैं। और नव निर्माण परिवार, देश और विश्व का कर
सकते हैं। मन ईश्वर से योग युक्त होगा तो जननी भी अपने बच्चो में सहजता के संस्कार
भर पायेगी। आक्रोश या अन्य जंजालों का जाल भी हम योग से ठीक कर सही निर्वयात्मक
बुद्धि से परख कर पाएँगे। यही निर्माण ब्रह्मा रूपी ईश्वर के कार्य में सहयोग देना
सिद्ध होगा।
यह अति सुगम मार्ग है, लोगों ने इसे दुर्गम बना रखा है। “मन का तत्परता, तन्मयता से कार्य में लगना” ही सरल भाषा में योग है। योग का शाब्दिक एक अर्थ जोड़ भी है – एक वस्तु का
दूसरे से जुड़ना।
योग
शब्द का प्रयोग सात अर्थों में हुआ हैं –
1. भगवत प्राप्ति रूप योग-(अ.6/23)
2. ध्यान योग (अ.6/19)
3. निष्काम कर्म योग (अ.2/48)
4. भगवत शक्तिस्वरूप योग (अ.9/5)
5. भक्ति योग (अ.14/26)
6. अष्टांग योग (अ. 8/12)
7. सांख्य योग (अ.13/24)
योग शिक्षा का महत्त्व – योग एक मानसशास्त्र है
जिस में मन को संयत कर, पाश्विक वृत्तियों से खींचना
सिखाया जाता है। जीवन की सफलता किसी भी क्षेत्र में संयत मन पर ही निर्भर है अतः
योग के सम्पूर्ण ज्ञान से मन पर नियंत्रण किया जा सकता है। पतंजलि योग सूत्रों में
जिस विषय का मुख्यतयाः प्रतिपादन किया गया है। वह है “चित्तवृतिनिरोधः” अर्थात् अन्य विषयों से खींचकर मन को एक विषय मे एकाग्र करना। चित्त
वृत्तियों का यह निरोध किसी भी धर्म संप्रदाय की शिक्षा के प्रतिकूल नहीं है।
‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता है’ यह सिद्धान्त सर्व मान्य है। लौकिक, अलौकिक
दोनों प्रकारों के प्रयासों की सफलता के लिए स्वस्थ शरीर आवश्यक है अतः योग शिक्षा
आवश्यक है।
· योग शिक्षा में-‘युक्ताहार विहार’ के नियमों की पालना अत्यंत आवश्यक है। बिना युक्ताहार विहार के जीवन में
कोई सफलता नहीं मिलती।
· योग सूत्रों के दो भाग- (1) हठ योग (2) राज योग
हठ योग में आसनों की शिक्षा है-आसनों से आरोग्य और बल
प्राप्त होता है। आसनों की रचना ऐसी है की जिससे शरीर के अंग-प्रत्यंग का व्यायाम
हो जाए। जैसे-मयूरासन-इस आसन में सब अंतड़ियों का व्यायाम हो जाता है जिससे अपच तथा
वायु की शिकायत शरीर में नहीं रहती। ‘प्राणायाम’ से प्राणवायु मिलती है और अशुद्ध
वायु निकल जाती है। श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित अन्य योगों के साथ हठ योग में भी
मिर्च, मसाला, मानसिक, राजसिक भोजन की मनाही है। मसालेदार, तामसिक, राजसिक भोजन, स्वभाव को क्रोधी, लालची, कामी, आलसी, दीर्घसूत्री और प्रमादी बना देता है।
हठ योग में सात्विक आहार से सद्गुणों की वृद्धि होती
है और आरोग्य तथा बल बढ़ता हैं। योग की यह शिक्षा सिर्फ ‘योगियो’ के लिए है, सभी के लिए नहीं। योगी शब्द से
अत्यंत व्यापक अर्थ किया जाता है जो कोई संसार में सदाचार से रहकर जीवन सफल करना
चाहता है वही योगी हैं। आधुनिक सभ्यता की सभी बुराईयों की जड़ आहार-विहार की
मर्यादा का ना होना, विषय भोग और अधार्मिकता ही हैं।
सदाचार की सच्चाई मनुष्य को संसार में किसी न किसी धर्म को मानकर चलने में कोई
दिक्कत नहीं देती। सदाचार धर्म की रक्षा करता हैं। धर्म, सदाचार की। ‘सदाचार और धर्म ’साथ -साथ रहते हैं। विज्ञान भी सदाचार और धर्म का विरोधी नहीं हैं। यौगिक
जीवन का अर्थ संक्षेप में शरीर का युक्त व्यायाम, सदा
सात्विक आहार और सदविद्या का अध्ययन हैं। कोई भी वैज्ञानिक इस प्रकार के जीवन को
बुरा नहीं कह सकता हैं। योग वाशिष्ठ में अष्टांग योग वर्णित हैं। ‘यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान-समाधि योअष्टावगांनी।
(यो.वा.सू. 02/29)
इस सूत्र से यम, नियम, आसन आदि आठ साधन प्रतिपादित किये गये हैं। प्राथमिक साधनों को सम्पादित कर साधक ‘उत्तम योगी’ हो सकता है।
1. यम – पाँच प्रकार के हैं “अहिंसा सत्येमस्तेय
ब्रह्मचर्यापरिग्रह यथाः(यो 02/30)। (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) ये पाँच यम हैं।
(1) अहिंसा – मनसा, वाचा कर्मणा कभी
किसी प्राणी के साथ द्रोह न करना अहिंसा हैं यह यम नियम आदि साधनों की आधारशीला
है। अहिंसा की यथविधि परिपालना ही अगले साधनों की सिद्धी कर पाती है अन्यथा नहीं।
(2) सत्य – अपनी देख-सुनी या जानी हुई बात दूसरे को जानने के
लिए ऐसे वाक्यों का प्रयोग करना कि जिसमें किसी की किसी प्रकार की वंचना, भ्रान्तिजन्यता और निरर्थकता न हो यहीं सत्य हैं।
(3) अस्तेय – चोरी न करना, दूसरे का धन, मन और कर्म से न लेना ही “अचौर्य” हैं।
(4) ब्रह्मचर्य – आठ प्रकार के कथनो का सर्वदा
त्याग ही ब्रह्मचर्य हैं।
“स्मरणं कीर्तन केलिः प्रेक्षणम गुह्यभाषणम्।
संकल्पोअध्यवसायाष्च
क्रिया निर्वृत्तिरेव च।।
एतनमेथुनमष्टांगं
प्रवदन्ति भणीषिणः।।’’(दक्षसंहिता)
1.स्मरण 2. कीर्तन 3. हंसी-मजाक 4. रागपूर्वक दर्शन 5. एकान्त में वार्तालाप 6. संकल्प 7. मैथुन करने का प्रयत्न 8. स्वरूपतः मैथुन
ये अष्ट मैथुन सर्वथा अब्रह्मचर्य हैं।
(5) अपरिग्रह – विषयों में अर्जन, रक्षण, क्षय संग हिंसा आदि दोष देख सर्वथा उनको
छोड़ देना अपरिग्रह हैं (विषयों का सर्वथा त्याग अपरिग्रह हैं)।
2. नियम – 1.शौच 2. संतोष 3. तपस् 4. स्वाध्याय 5. ईश्वर-प्रणिधान ।
3. आसन – जिस तरीके से साधक (सुखपूर्वक स्थिरता से बैठ सके, उसका नाम आसन हैं। अनेक प्रकार के आसन है, संक्षेपतः
संसार में जितने जीव हैं, उनके बैठने के जितने प्रकार
हैं उतने ही आसन हो सकते हैं। यथा – पद्मासन, वीरासन, स्वस्तिकासन, भद्रासन, दण्डासन, मयुरासन आदि यह सभी स्वतंत्र लेखन के
विषय हैं।
4. प्राणायाम – शास्त्रोवत विधि से स्वभाविक
श्वास-प्रश्वासों को रोक लेना प्राणायाम हैं। आहर के वायु का नासिका के द्वारा जो
अन्तः प्रवेश होता हैं, उसे श्वास कहते हैं और भीतर का
वायु जो बाहर निकलता हैं उसे प्रश्वास कहते है। इन श्वास-प्रश्वास की गति का
शास्त्र विधि से अवरोध ही प्राणायाम हैं यह तीन प्रकार का हैं – 1. पूरक 2. कुम्भक 3. रेचक ।
प्राणायाम
के अभ्यास से संसार को स्थायी बनाने वाला रागरूप महामोह शनैः शनैः दुर्बल होने लग
जाता है और मन धारणा में निविष्ट होने के लिए सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। अतः
मनुसंहिता में कहा गया है।
“दहयन्ते ध्यायमानां घातूनां हि यथा मलाः। तथेन्द्रियाणां दहयन्ते दोषाः प्राणख्य संक्षयात्।।”
जिस
प्रकार सुवर्ण आदि धातुओं को अग्नि में तपाने से उनका मैल दूर हो जाता है। उसी तरह
प्राणों को रोकने से (प्राणायाम से) इन्द्रियों के दोष भी दग्घ हो जाते है।
“तपो न परं प्राणायामात्ततो विषुद्धिर्मलानां दीप्तिष्च ज्ञानस्येति।” प्राणायाम के बराबर दूसरा कोई तप नहीं है। इससे दोषों की शुद्धि और ज्ञान
की दीप्ति होती है। प्राणायाम बड़ा ही उत्तम साधन है।
5. प्रत्याहार – जब इन्द्रियाँ विषयों से संबद्ध नहीं रहती, उस समय उनका चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना-यानी
चित्त की सी तरह रहना, सब कामों में चित्त की राह देखना
प्रत्याहार हैं अर्थात् इन्द्रिया-भिनिग्रह इससे व्यक्ति जितेन्द्रिय बन जाता हैं
और जितेन्द्रियता की कमी के कारण ‘‘योग भ्रष्टता’’ हो जाती हैं इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता में कहा हैं- “तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत सत्परः।
वषे
हि यस्येन्द्रियानि तस्य प्रज्ञः प्रतिष्ठिताः।।(अ.02/61)
सब इन्द्रियों को वश में करके एकाग्र चित्त हो मेरे
पारायण हो जाओ जिसके इन्द्रियाँ वश में है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित हैं उसे लोग ‘स्थित
प्रज्ञ’ कहते हैं।
6. धारणा – जो स्थान ध्येय का आश्रयभूत है उस स्थान पर चित्त को एकाग्र करके लगा
लेना धारणा है। ‘‘देशबंधु चित्तस्य
धारणा।’’(यो. 03/1) चित्तवृतियों
का निषेध कर ध्येय पर ध्यान का लगाना ही धारणा है। ये दस प्रकार की है –
प्राड़्नाभ्यां
हृदयेचाथ तृतीये च तथोरसि।
कण्ठे
मुखे नासिकाग्रे नेत्र भ्रूमध्यमूर्धसु।।
किचिंततस्मात्परस्त्रिष्च
धारणा दष कीर्तिताः।(गरूणपुराण)
ध्येय
से संबंधरहित होने की शृंखलाबद्ध प्रक्रिया - प्रथम नाभि से प्रारंभ होती है, फिर हृदय, वक्षस्थल, कण्ठ, मुख, नासिकाग्र, नेत्र, भ्रूमध्य, मूर्धस्थान आदि हैं।
7. ध्यान – विषयक ज्ञान की एकतानता का नाम ध्यान है।
“तत्र प्रत्येयकतानता ध्यानम्।“ (यो.वा. 3/2)
8. समाधि – ध्यान ही जब ध्येयाकर रूप से साक्षी में निर्भासित
होने लगता है चित्त के ध्येय स्वरूपाष्टि हो जाने के कारण ‘अहमिंदं चिन्तयामिे’ यह ज्ञान शून्य हो जाए वही
समाधि है। ध्यान ही जब ध्येय रूप प्रतीत होने लग जाए और ज्ञानाकर रूप से उसका अलग
निर्भास न हो तब ध्यान ही समाधि हो जाता है। समाधि की साधना में परिपक्वता आने पर
सम्प्रज्ञात समाधि और तदन्तर असम्प्रज्ञात समाधि द्वारा योगी ज्ञान प्राप्त करके
अन्त से मुक्त हो जाता हैं।
“योगेन योगी ज्ञातव्यों योगी योगात् प्रतर्वते।
योअप्रमस्तु
योगेन स योगे रमते चिरम्।।”
योग से योग जाना जाता है। योग से योग की प्रवृत्ति
होती है। योग से अप्रभत्त है वही योग में सदा रमता हैं वही “रमता योगी है।”
योग भारतवर्ष की अमूल्य सम्पत्ति हैं। दर्शनशास्त्र
महर्षियों की योग विद्या का चमत्कार हैं स्मृति, पुराण, अन्यान्य
चिकित्सा-ज्योतिषादि शास्त्र, समस्त विद्याएँ योगाभ्यास
जन्य ऋतम्भरा प्रज्ञा के ही मधुर एवं मनोहर फल का नाम ‘योग’ हैं। धर्मों का साधन योग ही है।
योग शब्द व्यवहार में, शास्त्रानुसार, अनेक
विद्वानों द्वारा अनेक शब्दार्थों में प्रयुक्त हैं। महर्षि पंतजलि योग भाष्य नामक
पुस्तक में है। यमादि योग के आठ अंगो मे से 5 योग
के बाह्य अंग हैं। बाकी 3 अंतरंग(योग भाष्य 3/1) ये 3 धारणा, ध्यान, समाधि ये तीन प्रधान हैं । कारण यह है कि ये ही तीन प्रक्रियाएँ है जिनका
उपयोग सब कार्यों में होता हैं। तब तक ज्ञेय पदार्थ पर मन एकाग्र रूपेण नहीं लगाया
जाता तब तक उसका ज्ञान असंभव हैं। इसीलिए प्रथम सीढ़ी हुई, यही ‘एकाग्रता’ जिसे
धारणा कहते हैं। (सू. 3/2)और जब मन इस ध्यान में इस तरह
मग्न हो गया कि उसका ध्येय पदार्थ में लय हो गया तो यही हुई ‘समाधि’ (सूत्र 3/3) हुई।
किसी कार्य के संपन्न होने में इन तीनों की आवश्यकता होती है। यह केवल आध्यात्मिक
अभ्यास या ज्ञान के लिए आवश्यक नहीं है, कार्य मात्र के
लिए आवश्यक है। कोई भी कार्य हो जब तक उसमें मन नहीं लगाया जाता कार्य सिद्ध नहीं
होता, इसी मन लगाने को “धारणा-ध्यान-समाधि” कहते हैं। ये तीनों एक ही प्रक्रिया के अंग है। इसी से इन तीनों का साधारण
नाम ‘संयम’ कहा गया है।
(सूत्र 3/4)इसी संयम (धारणा-ध्यान-समाधि)से ज्ञान की
शुद्धि होती हैं। इन योग सूत्रोवत उपदेशों को जब हम मामूली कामों में लगाते हैं और
इनके द्वारा सफलता प्राप्त करते हैं तब हमको मानना पड़ता है कि ‘योग’ का सबसे उत्कृष्ट और उपयोगी लक्षण जो
भगवान ने कहा है वही परिभाषित होता है।
“योग कर्मसु कौशलम्।”
अर्थात् कोई कर्तव्य आ जाए तो उसमें संयम पूर्वक लग
जाना ही ‘योग’ है। इसमें यदि कोई भी स्वार्थ-कामना हुई तो ‘योग’ अधम श्रेणी का हुआ और यदि निष्काम है तो
कर्तव्य-बुद्धि से किया गया है और फल जो कुछ हो सो ईश्वर को अर्पित है तो यही ‘योग’ उच्चकोटि का हुआ। जब अपने सभी काम इसी
रीति से किए जाते हैं तो वही आदमी ‘जीवन-मुक्त’ कहलाता है। इस प्रकार दैनिक जीवन के कार्य व्यवहार में योग की धारणा अति
आवश्यक है। मन से किए गए सभी श्रेष्ठ कार्य स्वयं के हित एवं राष्ट्र हित में
सहयोगी सिद्ध होते हैं जबकि अन्य मनस्कता में किए गए कार्य सिद्धीप्रद नहीं हो
पाते ना ही जीवन के लिए लाभकर सिद्ध होते हैं।
डॉ. आशा पथिक
आयुर्वेदिक चिकित्सक
जयपुर (राजस्थान)
अपने शीर्षक के अनुरूप जीवन मे योग के व्यावहारिक महत्त्व को बतलाते हुए योग के तन और मन पर महत्त्व
जवाब देंहटाएंका सुंदर विवेचन।डॉ. आशा पथिक जी को बधाई।
Achhi jankari
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