(1)राजा भरथरी
लोकगाथा
की संक्षिप्त कथा –
प्रस्तुत
लोकगाथा में दो कथा वर्णित है। प्रथम, राजा
भरथरी का वैराग्य लेकर चलना और रानी सामदेई का रोकना तथा पिगला द्वारा रानी सामदेई
के पूर्व जन्म की कथा कहना। दूसरी कथा है, राजा भरथरी का बन
में मृग का शिकार करने जाना और वैराग्य भाव का उदय होना तथा गोरख नाथ का शिष्यत्व
ग्रहण करना।
राजा
भरथरी जब योगी का वेष धारण कर चलने लगे तो रानी सामदेई ने उनका उत्तरीय पकड़ लिया
और कहने लगी कि है राजा उस दिन का तो तुम ध्यान करो जिस दिन तुम मौर चढ़ाकर आये थे
और मैंने तुम्हारे गले में जब माला डाली थी और तुमने मेरी माँग में अमर सुहाग भरा
था। अभी तक गवने की पहनी हुई पीली धोती का दाग तक नहीं छूटा है,
क्या इसी दिन के लिए तुम मुझे ब्याह लाये थे ?’ इस पर राजा भरथरी ने जन्म कुंडली में लिखित वैराग्य का उल्लेख किया। रानी
सामदेई को तब भी संतोष नहीं हुआ। इस पर भरथरी ने रानी से प्रश्न किया कि, ‘हे रानी यह बतलाओ कि जिस दिन तुम्हें गवना कराकर के लाया था, उसी दिन रात्रि में तुम्हारे पलंग पर चढ़ते ही पलंग की पाटी क्यों टूट गई ?
‘रानी सामदेई ने उत्तर दिया कि ‘पलंग टूटने का
भेद मैं तो नहीं जानती, परन्तु मेरी छोटी बहिन पिंगला जानती
हैं।’ पिंगला का विवाह दिल्लीगढ़ में हुया था। राजा भरथरी ने पत्र भेज कर पिंगला
को बुलवाया पीर उससे पलंग टूटने का भेद पूछा पिंगला ने कहा कि, ‘हे राजा! रानी सामदेई पिछले जन्म में तुम्हारी माता थीं, इसी कारण पलंग की पाटी टूट गई, अब तुम्हें भोग करना
हो तो भोग करो अथवा जोग करना हो तो जोग करो।’ यह सुन कर राजा उदास हो गया।
राजा
भरथरी ने रानी सामदेई से शिकार खेलने का पोशाक माँगा। पोशाक पहनकर तथा घोड़े पर
चढ़कर राजा भरथरी सिंहल द्वीप में शिकार खेलने चला गया। वह उस बन में पहुँचा जहाँ
एक काला मृग रहता था, जो कि सत्तर सौ
मृगिणियों का पति था। राजा का खेमा गढ़ते हुए जब मृगिणियों ने देखा तो वे दौड़ती
हुई राजा के पास पहुँचीं और पूछने लगी कि, ‘हे राजा ! तुम
यहाँ क्यों आए हो। अपने दिल का भेद बताओ।’ इसपर डपटकर राजा
भर थरी वोला कि, ‘मैं यहाँ शिकार खेलने आया हूँ तथा काला मृग
को मारकर उसके खून का पान करूँगा। इसपर मृगिणियाँ बोली कि, ‘हे
राजा ! यदि तुम्हें शिकार खेलने और खून पीने का शौक है तो हम में से दो चार का
शिकार कर लो।’ राजा भरथरी ने उत्तर दिया कि, ‘मैं तिरिया के ऊपर हाथ नहीं छोड़ता हूँ, यह तो कलंक
की बात होगी।’ यह सुनकर सत्तर सौ मृगिणियों में से आधी तो वहाँ
राजा से बहस करने के लिए रूक गई और आधी
काले मृग को वन में ढूँढ़ने चली गई। काला मृग बीच जंगल में घूम रहा था। मृगिणियों
ने वहाँ पहुँचकर कहा कि, ‘हे स्वामी ! आज के दिन जंगल छोड़
दीजिए, आज राजा भरथरी आप का शिकार खेलने आए हैं।’ इसपर काले ने मृग उत्तर दिया कि, ‘हे मृगिणियों
सुनों, तुम लोग स्त्री जाति की हो इसलिए बात-बात में डर जाती
हो। भला राजा मझे क्यों मारेगा, उसका मैंने क्या बिगाड़ा है ?’
यह सुनकर मृगिणियाँ रोने लगी और कहने लगीं कि ‘हे स्वामी ! आज जंगल छोड़ दो नहीं तो हम सभी रांड़ हो जाएँगी।’
काले
मृग को प्रब कुछ परिस्थिति गंभीर प्रतीत हुई। वह उड़कर आकाश में गया,
परन्तु वहाँ उसका ठिकाना न लगा। वहाँ से उड़कर वह नेपाल के राजा के
यहाँ गया, पर वहाँ भी उसका ठिकाना न लगा। मृग हताश होकर राजा
भरथरी के सम्मुख पहुँचा और झुककर सलाम किया। राजा ने मृग को देखते ही धनुष पर तीर
चढ़ाकर मारा। पहले तीर से तो कालामृग को ईश्वर ने बचा लिया। दूसरे तीर से गंगा जी
ने बचा लिया। तीसरे तीर से वनसप्ती देवी ने बचाया, चौथा और पाँचवा
गुरू गोखनाथ ने, छठा तीर मृग ने अपने सींग पर रोक लिया,
परन्तु सातवें तीर से मृग घायल होकर गिर पड़ा।
मरते
समय अत्यन्त करुण स्वर से काला मृग बोला कि, ‘हे
राजा ! मुझे तो आपने मार दिया, मैं तो सीधे सुरधाम जाऊँगा।
मेरी आँख को निकाल कर रानी को देना जिससे वह शृंगार करेगी, सींघ
निकाल कर किसी राजा को देना जो अपने दरवाजे की शोभा बढ़ायेगा। खाल खिंचवाकर किसी साधु
को देना जिस पर वह आसन लगावेगा। शेष मेरा माँस तुम तल कर खा जाना।’ यह कह कर मृग ने राजा को श्राप दिया कि, “जिस प्रकार
मेरी सत्तर सौ मृगिणियाँ कलपेंगी, इसी प्रकार तुम्हारी
रानियाँ भी तुम्हारे बिना विलाप करेंगी।” राजा भरथरी ने जब यह सुना तो उसके हृदय
पर चोट लगी। राजा विचार करने लगा कि आज यदि मृग को नहीं जिलाया जायगा तो सत्तर सौ मृगिणियों
का कलपना लगेगा। यह सोचकर उसने काले मृग को घोड़े पर लाद लिया और बावा गोरखनाथ के
पास पहुँचा । गोरखनाथ, देखते ही बोले कि, ‘बच्चा तुमने बहुत बड़ा पाप किया है।” भरथरी ने गोरखनाथ से कहा कि बाबा
काला मृग को जीवित कर दीजिए अन्यथा मैं धूनी में कूद कर स्वयं को भस्म कर दूँगा।’
बाबा गोरखनाथ ने मृग को जीवित कर दिया । काला मृग वहाँ से उड़ कर मृगिणियों
के बीच पहुँचा । मृगिणियों ने कहा कि एक तो पापी राजा भरथरी है जिन्होंने सत्तर सौ
मृगिणियों को रांड कर दिया था, और एक बाबा गोरखनाथ हैं
जिन्होंने सबके अहिवात (सौभाग्य) को बचा लिया ।
इस
घटना से राजा भरथरी को अपनी असमर्थता का ज्ञान हथा। वे विरक्त हो गए। उन्होंने
गोरखनाथ से शिष्य बनाने की विनती की । गोरखनाथ ने कहा कि तुम राजा हो,
तुम जोगी का जीवन नहीं व्यतीत कर पाओगे, तुम
कुशा के आसन पर नहीं शयन कर पाओगे, तुम नीच घरों में भिक्षा
नहीं माँग पाओगे । किसी गरभी (घमंडी) में कुछ बोल दिया तो तुमसे सहा नहीं जायेगा,
किसी के घर में सुन्दर स्त्री देख लोगे तो उस पर आसक्त हो जाओगे और
इस प्रकार योग विद्या नष्ट कर दोगे।’ यह वचन सुनकर भरथरी ने
उत्तर दिया कि, ‘नीच के द्वार पर भिक्षा माँगने जाऊँगा तो
बहरा बन जाऊँगा, काँटा कुश पर सोऊँगा, और
यदि सुन्दर स्त्री देखूँगा तो सूर बन जाऊँगा।” अन्त में गोरखनाथ उन्हें शिष्य
बनाने के लिए तैयार हो गए, परन्तु उन्होंने एक शर्त लगाई।
गोरखनाथ ने कहा कि, ‘यदि तुम अपनी रानी को ‘माँ’ कह कर भिक्षा माँग लाओ तो तुम्हें शिष्य बना लूँगा।’
भरथरी योग वस्त्र धारण कर सारंगी लेकर अपने नगर की ओर चल दिये । महल
के सम्मुख पहुँच कर उन्होंने भिक्षा की पुकार लगाई। रानी सामदेई जब महल से बाहर
निकली, तो राजा ने कहा कि ‘माँ भिक्षा
दे।’ इस पर रानी सामदेई बोली कि, “हे
राजा तुम कौन-सा रूप लेकर शिकार खेलने गए थे और कौन सा रूप लेकर आये हो, मैं आपको जोगी कहा कि नहीं बनने दूँगी, अरे ! तीन पन
में एक पन भी नहीं बीता, अभी तो वंश को कायम रखने के लिए एक
पुत्र भी नहीं हुआ।” यह सुनकर राजा भरथरी बोले कि, ‘हे रानी!
बेटे की लालसा तुझे है तो मेरे भाँजे गोपीचन्द को बुलाले, दुख
में वही तेरे काम आएगा।’ इस पर रानी ने कहा कि ‘जो सुख तुम्हारे साथ है वह अन्य किसी से नहीं मिल सकता।’ इस पर राजा ने उसे अपनी माता के घर चले जाने के लिए कहा। परन्तु रानी ने
यह बात भी अनसुनी कर दी । रानी ने बड़े आग्रह से कहा, ‘मुझे
भोग विलास से कुछ मतलब नहीं, तुम घर में ही रह कर योग साधन
करो, मैं तुम्हारी केवल सेवा करती रहूँगी।’ राजा ने कहा कि, स्त्री जाति से और योग से बर है,
में यहाँ नहीं रहूँगा।’ इस पर रानी भी योगिनी
बनने के लिये कहने लगी परन्तु राजा ने कहा कि, फिर तो योग
विद्या बदनाम हो जायगी, लोग हमें ठग कहेंगे, गुरु हम शाप दे देंगे ।’
इसके
पश्चात् रानी ने राज्य में ही रहकर योग करने की प्रार्थना राजा से की ओर सब प्रकार
का प्रबन्ध कर देने का बचन दिया। इस पर भरथरी ने कहा कि ‘जब तुम इतना प्रबन्ध कर सकती हो तो गंगाजी भी क्यों नहीं यहीं बुलवा लेती ?”
रानी ने अपने सत् के द्वारा गंगा को भी वहाँ उपस्थित कर दिया। इसपर
राजा ने कहा “द्वार-द्वार पर गंगा को गंगा नहीं कहा जाएगा, यह
गड़ही और पोखरे के नाम से ही पुकारी जायगी । तुम तो अन्य लोगों के तीर्थ पुण्य
करने का भी धर्म छीन रही हो।” अब रानी बहुत घबड़ाई। अन्त में उसने चौपड़ की बाजी
खेलने को कहा और कहा कि ‘जो जीतेगा उसी का मान रहेगा।’
चौपड़ की बाजी में पहले तो रानी जीतने लगी, परन्तु
गुरु की कृपा से भरथरी ने रानी को हरा दिया। रानी मुरझा गई । राजा अपने गुरु के
पास बले भाये और शिष्यत्व ग्रहण कर लिया ।
लोकगाथा
की संक्षिप्त कथा
राजसी
पीताम्बर को फाड़कर, उसकी गुदड़ी बनाकर
राजा गोपीचन्द ने पहन लिया और इस प्रकार योगी का रूप धारण कर चलने को तैयार हुए ।
उसी समय माता गुदड़ी पकड़ कर खड़ी हो गई और विलाप करने लगी। गोपीचन्द ने माता से
कहा, “का करबी माई बरम्हा लिखें जोगी” । इस पर माता ने कहा
कि ‘तुमको अपना दूध पिलाकर बड़ा किया है, उस दूध का दाम देते जाओ तब पीछे जोगी बनना ।” गोपीचन्द ने दूध से पोखरा
भराने को कहा परन्तु माता को संतोष न हुआ। अंत में गोपीचंद ने कहा ‘हे माता चाहे मैं अपना कलेजा काटकर भी तेरे सामने रख दूं, परन्तु तिसपर भी मैं तेरे दूध से उत्तीर्ण नहीं हो सकता।’
इस
प्रकार राजा गोपीचन्द बावन किले की बादशाही, छप्पन
कोस का राज तथा तिरपन करोड़ की तहसील छोड़कर चलने लगा। प्रजा, दरबारी, तथा रनिवास के सभी लोग विलाप करने लगे।
लचिया (पानवाली) बरई ने गोपीचंद के सम्मुख प्राकर कहा कि ‘मैंने
पाँच बिगहा पान का खेत तुम्हारे लिए लगाया था, उसका मूल्य
देते जाओ।’ गोपीचंद ने तुरन्त लचिया के नाम पाँच गाँव लिख
दिया और कहा कि, ‘मेरी माता को पान बराबर खिलाती रहना।’
सबको रोता छोड़कर गोपीचन्द चल दिए।
चलते
चलते गोपीचन्द ने विचार किया कि बिना बहिन से भेंट किये बन जाना उचित नहीं,
अतएव वे बहिन के घर की ओर चल दिये । चलते-चलते वे केदली बन में
पहुंचे। केदलीवन सदा अंधकार से ढका रहता था और उसमें पशुओं का निवास था । मैया
बनसप्ती ने गोपीचन्द के सुन्दर रूप को देखकर सोचने लगीं कि इन्हें तो बन में बड़ा
कष्ट होगा। वे गोपीचन्द के सम्मुख प्रगट हो गई । गोपीचन्द ने कहा कि मुझे शीघ्र ही
बहिन के घर पहुँचा दो अन्यथा शाप दे दूँगा। बनसप्ती ने ले चलना स्वीकार कर लिया।
उसने हंस का रूप बना लिया और गोपीचन्द को तोता बनाकर, अपने पंख
पर बिठा लिया । बनसप्ती ने छः महीने के मार्ग को छः पहर में समाप्त कर दिया।
गोपीचन्द ने नगर में बहिन के घर को ढूँढ़ना प्रारम्भ किया पर न मिला। अंत में
उन्होंने देखा कि बहिन बीरम चन्दन के मुरझाये पेड़ को पकड़ कर रो रही है । बहिन के
द्वार पर पहुँचकर राजा गोपीचन्द ने सारंगी बजा दिया । बहिन ने सारंगी की ध्वनि सुन
कर मुंगिया दासी को द्वार पर भिक्षा देकर भेजा। गोपीचन्द ने कहा कि, ‘मैं तेरे हाथ से भिक्षा नहीं लूँगा क्योंकि तू जूठन से पली है।’ मुगिया ने ध्यान से गोपीचन्द को देखा और उसे कुछ संदेह हुआ। वह दौड़कर महल
में गई और बहिन से कहा, ‘गोपीचन्द की सूरत का एक योगी द्वार
पर खड़ा हैं’। बीरम भी देखने के लिए आई परन्तु वह भाई को
पहचान न सकी । गोपीचन्द को इससे बहुत दुख हुआ। गोपीचन्द कहने लगे कि, ‘तुझे कौन सा शाप दूँ जिससे तेरा घमंड चूर हो जाय।’ बीरम
ने कहा कि, ‘यदि ऐसी बात करोगे तो मृत्युदंड मिलेगा।’
गोपीचन्द तब भी विचलित न हुये । इस पर बीरम ने गोपीचन्द की परीक्षा
ली। उसने अपने तिलक, बारात, तथा विवाह
इत्यादि बारे में पूछा । गोपीचन्द ने सबका ब्योरा सुना दिया। बीरम को इससे भी
सन्तोष नहीं हुआ। उसने गोपीचन्द की परीक्षा लेने के लिए पिता के घर से मिले हुये बीड़हिया
हाथी को छोड़ा। गोपीचन्द की आँखों से आँसू निकलने लगा। हाथी उसे देखते ही पहचान
लिया और अपने मस्तक पर बठा लिया । बीरम ने पुनः अपने कुत्ते को गोपीचन्द पर
ललकारा। कुत्ता भी गोपीचन्द को पहचान गया और उनके शरीर पर लोटने लगा। बीरम को फिर
भी संतोष न हुआ। उसने बंकापुर माता के पास पत्र लिखा। पत्र का उत्तर तोता उड़कर
लाया। बीरम ने अपने भाई गोपीचन्द को अब पहचाना। उसका योगी रूप देखते ही वह भाई के
शरीर पर गिर पड़ी और रोते-रो प्राण त्याग दिया। गोपीचन्द को इससे बड़ा दुख हुआ। वे
दौड़े हुए गुरू मछिन्द्रनाथ के पास पहुँचे और बहिन को जीवित करने का उपाय पूछा ।
गुरू ने कहा कि ‘अपनी कानी अंगुली चीर कर दो बूँद खून पिला
दो।’ गोपीचन्द ने वैसा ही किया और बीरम जीवित हो उठी ।
गोपीचन्द ने बहिन से भोजन बनाने के लिए कहा। बहिन बीरम भोजन बनाने के लिए बैठी।
गोपीचन्द इधर पोखरे में स्नान करने के लिए सिपाहियों के साथ गए। गोपीचन्द ने एक
बुड़की लगाई जिसे सबने देखा। दूसरी बड़की लगाई तब भी सबने देखा। परन्तु तीसरी
बड़की लगाते ही वे अंतर्ध्यान हो गये, फिर किसी ने नहीं
देखा। गोपीचन्द भँवरे का रूप धर गुरू मछिन्द्रनाथ के पास चले गए। बहिन ने पोखरे
में जाल डलवाया पर कुछ पता नहीं चला। रोते कलपते बहिन महल में पहुँची और प्रजाजन
उसे सांत्वना देने लगे।
(भोजपुरी
लोकगाथा, लेखक -सत्यव्रत सिन्हा, पृ. 180-183, 192-194 से साभार)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें