हिन्दी व्यंग्य के प्रमुख हस्ताक्षर
डॉ. भावना ठक्कर
समसामयिक परिस्थिति और जीवन के साथ व्यंग्य का घनिष्ठ है। व्यंग्य के जरिए
लेखक समकालीन जीवन व जगत की वास्तविकताओं को प्रस्थापित करता है। हिंदी साहित्य
में व्यंग्य का अपना अलग रचना संसार है। हिंदी की विविध विधाओं में यह सर्वाधिक
प्रभावी एवं लोकप्रिय विधा है। हिंदी साहित्य में एक स्वतंत्र विधा के रूप में इसे
स्वतंत्रता के बाद स्थान प्राप्त हुआ, इससे पूर्व यह अन्य विधाओं में अंगीभूत था। व्यंग्य
मुख्य रूप से संस्कृत भाषा का शब्द है। अंग्रेजी में इसके लिए ‘सटायर’, गुजराती में ‘कटाक्ष’, मराठी में ‘उपरोध’, सिंधी में ‘तंजु’ तथा बंगला में ‘उपहास’ एवं ‘प्रहसन’ आदि
शब्दों का प्रयोग किया गया है।
यहाँ एक बात उल्लेखित करना आवश्यक है कि हास्य और व्यंग्य एक दूसरे से
जुड़े अवश्य हैं किन्तु फिर भी दोनों एक नहीं है। जहाँ हास्य मनोविनोद व मनोरंजन
का परिचायक है, वहीं व्यंग्य समाज की विकृतियों का दर्शन कराता है। व्यंग्य की उत्पत्ति को लेकर डॉ. शेरजंग गर्ग बताते हैं कि “जीवन के
भिन्न-भिन्न क्षेत्रों अथवा दायरों में व्याप्त विसंगतियाँ रचनाकार की चेतना को
झकझोरती है, उस पर आघात करती हैं तथा उसे चिंतन, लेखनी अथवा तूलिका के माध्यमों द्वारा स्वयं को व्यक्त करने के लिए, अपनी वास्तविक तथा यथार्थ प्रतिक्रियाओं को कारगर रूप से स्पष्ट करने के
लिए व्यंग्य कथनों का इस्तेमाल करने, व्यंग्य द्वारा
प्रहार की मुद्रा अपनाने या व्यंग्य चित्रों के जरिए विसंगतियों को मूर्त रूप देने
की दिशा में प्रेरित करती है।”1
वैसे देखा जाए तो व्यंग्य की यह परंपरा संस्कृत काल से चली आ रही है। वहाँ
व्यंजना शब्द शक्ति एवं वक्रोक्ति के जरिए काव्य में व्यंग्य को स्थान दिया गया
है। पश्चिम में स्विफ्ट से लेकर जॉर्ज बर्नार्ड शॉ और जॉर्ज ऑरवेल तक व्यंग्य की
एक समृद्ध परंपरा पाई गई है। व्यंग्य की ऐसी मुखापेक्षी झलक कबीर के जरिए भी
प्राप्त होती है। कबीर ने सामाजिक तथा धार्मिक विडंबनाओं एवं खोखले कर्मकांड को
लेकर समाज में व्याप्त नैतिक मान्यताओं पर करारा व्यंग्य कसा है। बाद में सूरदास, तुलसीदास, रहीम, रसखान, घनानंद
आदि के साहित्य में भी व्यंग्य की झलक पायी गई है और भारतेंदु हरिश्चंद्र तक
आते-आते यह व्यंग्य अपना मार्ग प्रशस्त कर लेता है। भारतेंदुयुगीन साहित्यकारों ने
हास्य और फूहड़ता के दायरे से बाहर निकलकर सामाजिक कुरीतियों, रूढ़िगत संस्कारों, धर्माडंबरों, आपसी कलह, राजनैतिक निरंकुशता आदि विषयों पर
तीखे व्यंग्य कसे हैं। उनके समक्ष एक तरफ प्रसुप्त जनता की दीन-हीन अवस्था से
जागृति का प्रश्न था तो दूसरी ओर दासता रूपी दानव के शिकंजे से मुक्ति की
परिकल्पना। भारतेंदु जी की ‘अंधेर नगरी’ इस क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुई। इस युग के प्रमुख व्यंग्यकारों
में भारतेंदु हरिश्चंद्र के अतिरिक्त बालकृष्ण भट्ट, बद्रीनारायण
चौधरी ‘प्रेमघन’, प्रताप
नारायण मिश्र, राधा कृष्ण गोस्वामी, बालमुकुंद गुप्त आदि का समावेश होता है। इन सभी के व्यंग्यों को लेकर डॉ
इंद्रनाथ मदान बताते हैं कि “इन सभी के व्यंग्य में न कहीं दुराव है और न कहीं
छिपाव तथा चोट सीधे की गई है। यह चोट भी सुनार की न होकर लोहार के हथौड़े की है।”2
द्विवेदी युग व्यंग्य की दृष्टि से विशेष समृद्ध नहीं था। यह काल मुख्य रूप
से गद्य काल था, फिर भी तत्कालीन
परिवेश का आकलन करते हुए बहुत सारी आक्रोश युक्त व्यंग्य पूर्ण रचनाएँ महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाबू गुलाब राय, गुलेरी जी आदि के साहित्य द्वारा प्राप्त हुई हैं। द्विवेदी युग के बाद
यदि शुक्ल युग की बात करें तो स्वयं रामचंद्र शुक्ल ने नपे-तुले शब्द व वाक्य के
जरिए चिंतनात्मक साहित्यिक सर्जन किया है। शुक्लजी के साथ-साथ इस युग में माखनलाल
चतुर्वेदी, श्री वियोगी हरि, सियारामशरण गुप्त, श्री जी. पी. श्रीवास्तव, हरिशंकर शर्मा आदि ने भी व्यंग्य शैली को अपना आधार बनाया है। प्रेमचंद और
प्रेमचंदोत्तर युग में भी यह व्यंग्य परंपरा प्रेमचंद, निराला
और अन्य साहित्यकारों के जरिए विकसित रही है।
हिंदी व्यंग्य का सुव्यवस्थित विकास स्वातंत्र्योत्तर काल की महत्वपूर्ण
देन है। स्वातंत्र्योत्तर कालीन हिंदी व्यंग्य समकालीन भारत का प्रामाणिक दस्तावेज
है। यह आजाद भारत की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करता है आजादी के बाद मोह-भंग की
पीड़ा और उसकी चुभन ने साहित्यकार को इतना प्रभावित किया कि राजनीति हो या प्रशासन, धर्मक्षेत्र हो या सामाजिक
विडंबनाओं का स्तर, या फिर व्यक्तिगत जीवन की कमजोरियाँ
प्रत्येक का लेखा-जोखा साहित्यकार ने अपने व्यंग्य के जरिए प्रस्तुत किया। इस युग
के व्यंग्यकारों का दृष्टिफलक अति व्यापक है। स्वातंत्र्योत्तर कालीन हिंदी
व्यंग्यकारों को भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है - प्रथम वर्ग वह
प्रतिष्ठित साहित्यकारों का है जिनके लेखन में व्यंग्य प्रवृत्तियाँ विशेष पायी गई
है; दूसरा वर्ग वह है जो संपूर्ण रूप से व्यंग्य को
समर्पित होकर साहित्य का निर्माण कर रहा है। दोनों वर्ग के व्यंग्य साहित्य से
अवगत होते हुए उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
प्रतिष्ठित साहित्यकारों के लेखन में व्यंग्य
हास्य व्यंग्य को अपनी रचना का आधार बनाने वाले प्रतिष्ठित साहित्यकारों
में से एक है अमृतलाल नागर। इन्होंने व्यंग्य के जरिए सामाजिक विषमताओं को बखूबी उभारा है। इनकी
प्रमुख व्यंग्य रचनाएँ – देखें तो नवाबी मसनद (1939), भारत
पुत्र नौरंगीलाल (1971), कालदंड की चोरी (1972), कृपया दाएँ चलिए (1973), चकल्लस (1986), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1986) आदि
महत्वपूर्ण है।
प्रेमचंद की गौरवमयी परंपरा के वाहक व उनके छोटे पुत्र अमृतराय जो मूल रूप
से कहानीकार एवं उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध थे, इन्होंने व्यंग्य के क्षेत्र में भी अपनी लेखनी चलाई
है। इन्होंने मुख्य रूप से जाति, धर्म, प्रांत आदि के प्रति लोगों की भेद नीति को लेकर व्यंग्य कसे है। साहित्य, शिक्षा, राजनीति आदि को अपना विषय बनाते हुए
तथा आशावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कुछ प्रमुख व्यंग्य रचनाओं का निर्माण किया है, जो इस प्रकार है - रम्या (1969), बतरस (1973), आनन्दम (1977), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1977) विजिट इंडिया (1984)।
कहानी, काव्य एवं आलोचना
के साथ-साथ व्यंग्य के क्षेत्र में भी श्री प्रभाकर माचवे का योगदान महत्वपूर्ण
है। तेल की पकौड़ियाँ, एक कुत्ते की डायरी एवं बैरंग
उनकी महत्वपूर्ण व्यंग्य रचनाएँ हैं।
हिंदी साहित्य के क्षेत्र में समीक्षा को नया आयाम प्रदान करने वाले डॉ.
इंद्रनाथ मदान का व्यंग्य लेखन में भी अभूतपूर्व योगदान रहा है। अनुभव की समृद्ध
पूंजी के जरिए व्यंग्य के माध्यम से इन्होंने सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार
किया है। इनकी प्रमुख हास्य व्यंग्य प्रधान रचनाओं में सुगम और शास्त्रीय संगीत (1967), कुछ उथले कुछ गहरे (1960), रानी और कानी (1974), बहाने बाजी (1978), भानुमती का पिटारा (1982) महत्वपूर्ण है।
हिंदी साहित्य में ‘घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी’ नाम से प्रसिद्ध श्री राधाकृष्णदास का भी हास्य व्यंग्य के क्षेत्र में
महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन्होंने 500 से अधिक
हास्य तथा 100 से अधिक व्यंग्य रचनाओं का लेखन
किया है।
संपूर्ण रुप से व्यंग्य को समर्पित साहित्यकार
इस श्रेणी में हम उन रचनाकारों और साहित्यकारों को समाविष्ट करते हैं, जिनका व्यंग्य के क्षेत्र में
विशेष योगदान रहा है तथा यह संपूर्ण रूप से व्यंग्य को समर्पित रहे हैं। यहाँ यह
तथ्य भी ध्यान में रखें की इसका तात्पर्य यह कभी नहीं कि इन रचनाकारों ने व्यंग्य
के अतिरिक्त अन्य कुछ सर्जन नहीं किया। कुछ साहित्यकारों ने व्यंग्य के साथ-साथ
अन्य विधा में भी अपना योगदान दिया है। इस श्रेणी के प्रमुख व्यंग्यकार इस प्रकार
है –
1. हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई स्वातंत्र्योत्तर काल के प्रमुख व्यंग्यकार है। स्वाधीन भारत
का समूचा दृश्य इनकी रचनाओं में साकार होता है। परसाई जी ने राजनीति, शिक्षा, समाज, धर्म, साहित्य, कला, संस्कृति आदि विभिन्न विषयों को लेकर
व्यंग्य का निर्माण किया है। सिर्फ विषय ही नहीं साहित्य की विभिन्न विधाओं पर
पकड़ रखते हुए इन्होंने व्यंग्य के क्षेत्र में नवीन प्रयोग किए हैं। समाज जीवन की
वास्तविकता, छल-प्रपंच, पाखंड, झूठ, अंतर्विरोध आदि को इन्होंने बहुत ही निकट
से जाना परखा एवं भोगा है, इसलिए व्यंग्य के जरिए उसकी
मूर्तिमंत छबि प्रस्तुत होना यह परसाई की कलम का चमत्कार नहीं बल्कि जीवन का भोगा
हुआ सत्य है। वे स्वयं बताते हैं कि “मैं व्यंग्य के द्वारा जीवन में व्याप्त
वैषम्य को उघाडता चलता हूँ और उसकी आलोचना करता हूँ।” परसाईजी ने जबलपुर के ‘प्रहरी’ नामक पत्र में ‘उदार’ नाम से अपने लेखन की शुरुआत की थी। बाद
में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनके व्यंग्यात्मक लेख प्रस्तुत होने लगे, जिसमें ‘और अंत में’ (कल्पना
पत्रिका), ‘सुनो भाई साधो’ (नई दुनिया),
‘कबिरा खड़ा बाजार में’ (सारिका), पाँचवा कालम (नई कहानियाँ), ‘मैं कहता आँखिन की देखी’
(माया), ‘माटी कहे कुम्हार से’ (हिंदी करंट) पत्रिका में लिखे गए उनके महत्वपूर्ण व्यंग्य लेख है, जिसमें इन्होंने सामान्य मनुष्य की पीड़ा को वाचा प्रदान की थी।
हरिशंकर परसाई की प्रमुख व्यंग्य रचनाएँ देखें तो – हँसते हैं रोते हैं (1956), तब की बात और थी (1956), जैसे उनके दिन फिरे (1963), बेईमानी की परत (1965), सुनो भाई साधो (1965), सदाचार का ताबीज (1967), उल्टी-सीधी (1968), ठिठुरता हुआ गणतंत्र (1970),तिरछी रेखाएँ (1972), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1977), पाखंड का अध्यात्म (1982), प्रतिनिधि व्यंग्य (1983), तुलसीदास चंदन घिसें (1986), कहत कबीर (1988), हम इस उम्र से वाकिफ है- आत्मचरित्र (1987) आदि महत्वपूर्ण है। इन सभी रचनाओं में परसाई जी ने हर तरह के विषय को आवृत्त करते हुए, हर प्रकार के व्यंग्य कसे हैं। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ रचना के अंतर्गत वे देश की जनता को क्रांतिकारी रूप से जागृत करते दिखाई दे रहे हैं। वहीं ‘भोलाराम का जीव’ रचना के अंतर्गत हमारे प्रशासन जगत के अंतर्गत व्याप्त भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया है। कुल मिलाकर घर से लेकर शहर तक का तथा शहर से लेकर विदेश तक के सभी विषयों को अपने व्यंग्य का आधार बनाते हुए चले थे। इनके लिए श्री श्याम कश्यप बताते हैं कि “आजादी से पहले का हिंदुस्तान जानने के लिए सिर्फ प्रेमचंद को पढ़ना काफी है; उसी प्रकार आजादी के बाद के भारत का पूरा दस्तावेज परसाई जी की रचनाओं में सुरक्षित है।”3
2. शरद जोशी
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य जगत में व्यंग्य को स्वतंत्र विधा के रूप
में स्थापित करने वाले प्रमुख व्यंग्यकारों में शरद जोशी का स्थान महत्वपूर्ण है।
परसाईजी के बाद हिंदी साहित्य के क्षेत्र में यहीं वह बड़ी हस्ती है, जिन्होंने समाज जीवन की
वास्तविकताओं एवं विसंगतियों को अपने व्यंग्यात्मक स्वर में बखूबी उभारा है।
इन्होंने व्यंग्य लेख, व्यंग्य उपन्यास एवं व्यंग्य
नाटकों का भी निर्माण किया है। परिक्रमा (1958), किसी
बहाने (1971), जीप पर सवार इल्लियाँ (1971), रहा किनारे बैठ (1972), तिलस्म (1973) दूसरी सतह (1987), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1985) यथा-संभव (1985), हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे (1987) आदि उनकी
महत्वपूर्ण व्यंग्य रचनाएँ है।
शरद जोशीजी ने फिल्मों के लिए पटकथा (क्षितिज, छोटी-सी बात, उत्सव, साँच को आँच नहीं) तथा टेलीविजन के लिए
धारावाहिक (विक्रम बेताल, वाह जनाब, देवी जी, ये जो है ज़िंदगी, लापतागंज) भी हास्य-व्यंग्य पूर्ण शैली में लिखे हैं। जोशीजी का व्यंग्य
रचना संसार काफी विस्तृत फलक तक फैला हुआ है। समाज, प्रशासन, साहित्य एवं संस्कृति हर क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों पर इन्होंने अपने
व्यंग्य बाण से प्रहार किया है। साथ ही मनुष्य की आलसी और पाश्वी वृत्ति जो समाज
को खोखला बनाती है उस पर भी अपनी रचनाएँ ‘आवाज की
दुनिया’, ‘तुम कब जाओगे अतिथि’, ‘आए ना
बालम वादा करके’ आदि में प्रकाश डाला है। इतना ही नहीं
विक्षापित मैं, मेघदूत की पुस्तक समीक्षा, कहहूँ लिखी कागद कोरे आदि रचनाओं के जरिए साहित्य को धंधा एवं साहित्यकार
को नौकर मानने वाले प्रकाशक वर्ग एवं आलोचक वर्ग पर भी करारा व्यंग्य किया है। कुल
मिलाकर अपने समय तथा समाज के प्रति वे काफी जागरूक थे। डॉ. इंद्रनाथ मदान के शब्दों में कह सकते हैं कि “शरद जोशी सामाजिक, राजनीतिक, असंगतियों, विकृतियों पर सीधी-तिरछी चोट करते हैं। इनके व्यंग्य का स्वरूप मंझा हुआ
है।”4
3. रविंद्र नाथ त्यागी
हिंदी व्यंग्य साहित्य की सशक्त परंपरा में व्यंग्यत्रयी के अंतर्गत
हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और
रविंद्र नाथ त्यागी प्रमुख हस्ताक्षर हैं। हरिशंकर परसाई और शरद जोशी जहाँ एक ही
जमीन पर खड़े रह व्यंग्य करते हैं वही रविंद्र नाथ त्यागी के विचार में वैविध्य
है। वह हास्य और व्यंग्य दोनों की उपलब्धि को समान रूप से स्वीकृत करते हैं। जीवन
के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी पैनी दृष्टि पहुँची हुई थी।उन्होंने व्यक्ति, परिवार, समाज, राजनेता, लोकतंत्र, धर्माडंबर, कानून, शिक्षा, अस्पताल, निर्धन और धनी, साहित्यकार, कीड़े-पशु-पक्षी आदि प्रत्येक विषय पर हास्य-व्यंग्य पूर्ण बाणों से लोगों
की संवेदना को जागृत करने का कार्य किया था। डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी बताते हैं
कि “रविंद्र नाथ त्यागी की व्यंग्य रचनाओं में कहीं से
रोचकता का संबल नहीं छोड़ा गया है। संभवतः यह उनकी व्यंग्य रचना की विशेषता भी है
और खामी भी।”5 श्री त्यागी जी की प्रमुख
व्यंग्य रचनाएँ देखें तो - खुली धूप में नांव (1963), भित्ति चित्र (1966), मल्लिनाथ की परंपरा (1971), देवदार के पेड़ (1973), अतिथि कक्ष (1977), फूलों वाले कैक्टस (1978), भद्र पुरुष (1980), देश-देश के लोग (1982), पद यात्रा (1985), पराजित पीढ़ी के नाम (1988), रविंद्रनाथ त्यागी
- प्रतिनिधि व्यंग्य (1989) आदि महत्वपूर्ण है। कुल
मिलाकर कह सकते हैं कि त्यागीजी ने व्यंग्य को एक नई आत्मा एवं शब्द रूपी शरीर
प्रदान करते हुए एक विराट सामाजिक भाव बोध रूपी बौद्धिक विश्व का निर्माण किया है।
4. श्री लाल शुक्ल
हिंदी व्यंग्य जगत के अंतर्गत श्रीलाल शुक्ल का योगदान भी महत्वपूर्ण है। ‘राग दरबारी’ जैसी सशक्त रचना के जरिए प्रमुख व्यंग्यकारों में अपना स्थान स्थापित करने
वाले श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्य को एक सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान की थी। इनके
व्यंग्य की धार इतनी तेज है कि वह पाठक पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। 1963 में प्रकाशित उनकी रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों पर प्रकाश डालती है। इसी का
विस्तार इन्होंने अपने व्यंग्य संग्रह ‘अंगद का पाँव’
(1959) और उपन्यास ‘राग दरबारी’
(1970) में किया है। इतना ही नहीं इन्होंने हमारी शिक्षा
व्यवस्था पर तथा समसामयिक परिस्थितियों पर भी अपने व्यंग्य बाण चलाये हैं। इनकी
प्रमुख व्यंग्य रचनाओं में यहाँ से वहीं (1969), मेरी
श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1978), उमराव नगर में एक दिन (1987) आदि महत्वपूर्ण है। श्री लाल शुक्ल प्रेमचंद और अज्ञेय के काफी नजदीक है
क्योंकि वह भी उन्हीं की तरह टूटे सामाजिक
मूल्यों की स्थापना के लिए अविरत प्रयासरत रहते हैं, इसकी
वजह से इनका व्यंग्य प्रहारात्मक तो है किन्तु मारक नहीं है। विसंगतियों की परख और
उनकी प्रस्तुति यही उनका मुख्य उद्देश्य है।
5. श्री लतीफ घोंघी
आधुनिक हिंदी व्यंग्य विधा को शक्ति प्रदान करने वाले लतीफ घोंघी का
व्यंग्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान रहा है। इनके व्यंग्यों में श्रीलाल
शुक्ल की भांति आक्रमकता नहीं बल्कि सरसता एवं सरलता पाई जाती है। वे स्वयं इस
संदर्भ में बताते हैं कि “मेरी व्यंग्य रचनाओं में आक्रामकता नहीं है, तिलमिलाहट पैदा करने वाली
स्थितियाँ नहीं है। वास्तव में आक्रामकता को में व्यंग्य के लिए गैर जरूरी मानता
हूँ। जो रचना आपके मुँह का स्वाद बिगाड़ दे उसे मैं सफल रचना मानने को तैयार नहीं
हूँ। मेरी रचनाएँ आपको आलपिन की चुभन सा मीठा-मीठा
दर्द दें और एक गुदगुदी आपके अंदर पैदा करे तो मैं समझूँगा कि मेरा व्यंग्य लेखन
सफल हुआ है।”6 श्री लतीफ घोंघी की प्रमुख
व्यंग्य रचनाएँ देखें तो उड़ते उल्लू के पंख (1972), मृतक से क्षमा याचना सहित (1974), बीमार न होने
का दुख (1977), संकट लाल जिंदाबाद (1978), बब्बू मियां कब्रिस्तान में (1979), तीसरे
बंदर की कथा (1979), किस्सा दाढ़ी का (1980), खबरदार व्यंग्य (1982), जूते का दर्द (1984), मुर्दानामा (1984), बुद्धिजीवी की चप्पलें (1985), लाटरी का टिकिट (1986), खड़े हुए दाँत (1987), ज्ञान की दुकान (1988), मेरा मुख्य अतिथि हो
जाना (1989) आदि महत्वपूर्ण है। साथ ही विषय वैविध्य भी
इनकी व्यंग्य रचनाओं में पाया जाता है। इन्होंने धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक आदि विभिन्न विषयों को आधार बनाते हुए अपनी व्यंग्य रचना के
जरिए देश और देश की जनता की सच्ची तस्वीर हमारे सामने रखी है। साथ ही इनके व्यंग्य
में नकारात्मक शैली का वर्णन भी पाया जाता है, जो उनकी
अनूठी विशेषता है क्योंकि वे स्वयं बताते हैं कि ‘नेगेटिव
प्रोसेस पर व्यंग्य लिखना मेरी अपनी पसंद है।’
हिंदी
व्यंग्य की इस परंपरा में सुदर्शन मजीठिया का योगदान भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने व्यंग्य में हास्य को भी उतना ही
महत्वपूर्ण माना है। किन्तु उनके हास्य मिश्रित व्यंग्य में आक्रोश भी स्पष्ट रूप
से झलकता है। इनकी प्रमुख व्यंग्य रचनाओं में इंडिकेट बनाम सिंडीकेट (1971), मुख्यमंत्री का डंडा (1974), कुछ इधर की कुछ
उधर की (1976), टेलीफोन की घंटी से (1983), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1985),
21वीं सदी (1988), छींटे (1989), पब्लिक सेक्टर का सांड (1989) आदि महत्वपूर्ण
है।
हिंदी व्यंग्य विधा को स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठा दिलानेवाले व्यंग्यकारों
में नरेंद्र कोहली का नाम भी अग्रगण्य है। वे सिर्फ व्यंग्यकार ही नहीं व्यंग्य समीक्षक भी
थे। डॉ. कोहली की प्रमुख व्यंग्य रचनाओं में एक और लाल तिकोन (1970), पाँच एब्सर्ड उपन्यास (1972), जगाने का अपराध (1973), शम्बूक की हत्या (1974), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य
रचनाएँ (1979), आधुनिक
लड़की की पीड़ा (1979), परेशानियाँ (1986) आदि महत्वपूर्ण है। उनके व्यंग्य की विशेषताओं को उन्हीं के शब्दों में
देखें तो “मैंने हल्की परिस्थितियों में इन रचनाओं की सर्जना नहीं की है। वर्तमान
विसंगतियों को जिस रूप में मैंने देखा अधिकतर मैंने अनुभव किया उनके प्रति मेरे मन
में आक्रोश जागा। उस आक्रोश को अभिव्यक्ति देकर अपने को संतुलित रखने के लिए मैंने
व्यंग्य रचनाएँ की है।”7
उपर्युक्त व्यंग्यकारों के अतिरिक्त कुछ और भी प्रमुख व्यंग्यकार है
जिन्होंने हिंदी व्यंग्य विधा को स्वतंत्र रूप से विकसित कराने में अपना अभूतपूर्व
योगदान दिया है, जिनका यहाँ सिर्फ
उल्लेख कर रही हूँ। इन प्रमुख व्यंग्यकारों में डॉ. बरसाने लाल चतुर्वेदी, श्री केशव चंद्र वर्मा, डॉ. बालेन्दु शेखर
तिवारी, डॉ. शंकर पुणतांबेकर, श्री के. पी. सक्सेना, श्री मनोहर श्याम जोशी, कुबेर नाथ राय, प्रेम जनमजेय, अजातशत्रु आदि महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त और भी शताधिक व्यंग्यकारोंने
अपनी रचनाधर्मिता के जरिए व्यंग्य की लोकप्रियता और उसकी शक्ति को बढ़ाने का
प्रयास किया है।
हिंदी व्यंग्य साहित्य की इस परंपरा में महिला लेखिकाओं का अत्यल्प किन्तु
योगदान अवश्य रहा है। हिंदी व्यंग्य महिला लेखिकाओं में डॉ. सरोजिनी प्रीतम का नाम
महत्वपूर्ण है। ‘हांसिकाएं’,
‘आखिरी स्वयंवर’, ‘बीके हुए लोग’, ‘सनकी बाई शंकरी’ आदि इनकी प्रमुख व्यंग्य
रचनाएँ हैं। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए विमल
लूथरा का ‘पचपन का फेर’, सूर्यबाला
का ‘अजगर करे न चाकरी’, स्नेहलता
पाठक का ‘द्रोपदी का सफरनामा’, ‘एकलव्य
का अंगूठा’, ‘तिरस्कार पार्वती का’, अलका पाठक का ‘किराए के लिए खाली है’, कुसुम गुप्ता का ‘तहलका’ आदि महत्वपूर्ण है। इस प्रकार हिंदी व्यंग्य परंपरा में पुरुष लेखन के
साथ-साथ महिला लेखन भी हो रहा है।
इस प्रकार कह सकते हैं कि व्यंग्य रूपी बीज धीरे-धीरे पौधे में से आज एक
विराट वटवृक्ष बन गया है और इसकी तेज धार न सिर्फ चुभन करती है बल्कि व्यक्ति के
भीतर गहरा घाव भी करती है।
संदर्भ सूची
1. डॉ. शेरजंग गर्ग, व्यंग्य के मूलभूत प्रश्न, पृष्ठ 16-17
2. डॉ. इंद्रनाथ मदान, हिंदी की हास्य व्यंग्य विधा का स्वरूप और विकास, पृष्ठ 4
3. परसाई रचनावली भाग 2, कमला प्रसाद, पृष्ठ-2
4. डॉ. इंद्रनाथ मदान, हिंदी की हास्य व्यंग्य विधा का स्वरूप और विकास, पृष्ठ- 42
5. डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी, हिंदी का स्वातंत्र्योत्तर
हास्य और व्यंग्य, पृष्ठ-210
6. श्री लतीफ घोंघी, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ , पृष्ठ-ग
7. डॉ. नरेंद्र कोहली, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ , भूमिका, पृष्ठ-7
डॉ. भावना ठक्कर
आसिस्टेंट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
एन.एस. पटेल आर्ट्स कॉलेज
आणंद
हिंदी व्यंग्य परम्परा पर विस्तार से प्रकाश डालता शोधपूर्ण आलेख।इस विद्वत्तापूर्ण आलेख हेतु डॉ.भावना ठक्कर जी को बहुत बहुत बधाई,एक छोटे से आलेख में पूरी व्यंग्य परम्परा का उल्लेख करना निश्चित ही कठिन है पर उसे लेखिका ने बहुत सुंदर ढंग से किया,हाँ,मेरी पसन्द के एक और व्यंग्यकार डॉ.ज्ञान चतुर्वेदी जी है वे पद्मश्री से भी सम्मानित है,भविष्य में किसी आलेख में भावना जी उन्हें भी सम्मिलित करें तो प्रसन्नता होगी।
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