शुक्रवार, 28 मई 2021

लोककथा

 


मेहंदी

अनिता मण्डा

बहुत समय पहले की बात है। राजा-महाराजाओं का राज हुआ करता था। प्रजा में अमन-चैन था। आम लोग बहुत धनवान नहीं तो गरीब भी नहीं थे। परिश्रम से जीवन व्यतीत करते थे। उस समय यातायात के बहुत साधन नहीं थे। एक नवयुवक पैदल ही अपनी ससुराल जा रहा था। गाँव के समीप आते-आते संध्या होने लगी। गोधूलि बेला में नाम का उजाला रह गया था। तभी उसे एक खुराफ़ात सूझी। गाँव के पास दो गधे घास चर रहे थे। उसने गधों के पाँव रस्सी से बाँधे और एक मिट्टी के खंदक (जहाँ की मिट्टी बर्तन बनाने के लिए निकाल ली जाती है व गहरा गढ्ढा बन जाता है) में डाल दिया। गाँव के बाहर ही उस नवयुवक की ससुराल वाला घर था। घर क्या था बस एक झोंपड़ा था। युवक को फिर शरारत सूझी वह घर के भीतर नहीं गया। झोंपड़े की आड़ में छिपकर अपनी पत्नी व सास की बातें सुनने लगा।

उनके परिवार में वो दो माँ-बेटी ही थी। माँ ने कहा “आज तो ज्यादा भूख नहीं है, मेरी तो आधी रोटी ही बना लेना।” बेटी ने कहा “ठीक है माँ मैं मेरी और आपकी मिलाकर तीन रोटी और एक मंडक्यो (छोटी रोटी) बना लेती हूँ।”

रोटी बनने तक वह दामाद झोंपड़े के पीछे छिपा रहा। जैसे ही वे खाना खाने बैठी, बाहर निकल कर बोला “मुझे पता है आज आप लोगों ने तीन रोटी और एक मंडक्यो बनाया है।” वो दोनों माँ-बेटी हैरान रह गई कि दामाद जी को कैसे पता लगा कि हमने इतनी रोटी बनाई है। वे आपस में हाल-चाल पूछ ही रहे थे कि पड़ोसन कुम्हारी घर आकर बोली “आज तो रात ही पड़ गई गधे अब तक घर नहीं आये, पता नहीं चरते-चरते दूसरे गाँव चले गए या कोई चोरी कर ले गया।”

युवक की सास ने कहा हमारे दामाद जी से पूछ लो, उन्हें शगुन आता है और बता देते हैं। अभी यह भी बता दिया था कि आज हमने कितनी रोटी बनाई हैं। यह सुनकर कुम्हारिन की जान में जान आई।  दामाद जी से पूछा गया। दामाद जी ने सोचा यहाँ अपना सिक्का जम जाएगा। थोड़ी देर ध्यान लगाने का अभिनय करते हुए कहा “माता जी आपके गधे उत्तर दिशा की तरफ वाले खंदक में देखिए।”

कुम्हारिन ने कुम्हार को उस दिशा में भेजा। गधे तो मिलने ही थे। क्योंकि वही तो डालकर आया था। गधे मिल गए तो पड़ोसन धन्यवाद देने आई। दामाद जी की बहुत प्रशंसा भी की। सुविधा के लिए दामाद जी का एक नाम रख लेते हैं “सुगना राम”। क्योंकि ससुराल में उनके शगुन आने का चर्चा फैल रहा था।

कुम्हारिन को जो भी मिलता उसे वह शगुनी दामाद के बारे में बताती। सूरज निकलने तक  तो शगुनी दामाद पूरे गाँव में प्रसिद्ध हो गए।

संयोग ऐसा हुआ कि अगले दिन सवेरे-सवेरे राजा के लोग गाँव में आये। ढोलची ढोल पीट-पीट कर पूरे गाँव में कहते घूम रहे थे कि “राजा की रानी का हार खो गया है, यदि कोई ढूँढ़ दे तो उसे राजा उचित इनाम दिया जाएगा।”

यह बात कुम्हारिन के कानों तक पहुँची। बस फिर किस बात की देर थी, उसने सबको सुगना राम के बारे में बता दिया। राजा के लोग उन्हें बुलाने आये।  अब सुगना राम के पेट में गुड़-गुड़ होने लगी। सोचा बुरा फँसे! इसे कहते हैं, अपने पैरों पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मारना।

राजा के लोग सुगनाराम को महल में ले गए। अच्छी आव-भगत की। भाँति-भाँति के पकवान, मिठाइयाँ, फल-मेवे परोसे। कई प्रकार के शरबत लाकर दास-दासियों ने पिलाये। परन्तु सुगनाराम के तो पसीने छूट रहे थे। रानी के हारका पता उन्हें कैसे मिलेगा? अगले सवेरे तक बला टालने की गरज से सुगनाराम ने कहा कि रात को उनको शगुन आएगा कि हार कहाँ मिलेगा; तब सवेरे बताएँगे।

सुगनाराम के आराम व निंद्रा में किसी तरह का कोई व्यवधान उपस्थित न हो इसके लिए एकांत में उनका बिस्तर लगा दिया गया। एकदम नरम गद्दे- रजाई में वह लेट गये। कोई उनकी नींद में बाधा न पहुँचाये इसके लिए दो दासियों का पहरा देना तय हुआ। इस सब ताम-झाम के बावजूद नींद का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं। करवटों पर करवटें रखते आधी रात होने को आई। सुगनाराम मन ही मन दोहराने लगे। “निंद्रा आवे तो चित्रा नहीं आवे, चित्रा आये तो निंद्रा नहीं आये।”  अर्थात नींद आती है तो चिंतन नहीं किया जाता, चिंतन करते हैं तो नींद उड़ जाती है। न जाने कब वह यह पंक्तियाँ जोर- जोर से बोलने लगे। दोनों दासियों ने जब सुगनाराम के बड़बड़ाने की आवाज सुनी तो दोनों के तोते उड़ गए। हृदय की धड़कन मृदंग की भाँति बजने लगी। दरअसल उन दोनों का नाम निंद्रा और चित्रा था व उन दोनों ने ही रानी का हार चुराया था। उनको लगा उनका समय पूरा हुआ। उनकी चोरी पकड़ी गई। अब प्राणों का संकट उन्हें सताने लगा। सज़ा से डरकर दोनों ने आँखों ही आँखों में मौन सहमति बनाई और हार लाकर सुगनाराम को दे दिया। निवेदन किया कि यह राज़ न खुले। हार देखकर सुगनाराम की जान में जान आई। राज़ को राज़ रखने का वचन देते हुए कहा कि इसे घोड़ों के ठाँण (चारा डालने का पात्र) में डाल दो।

रात को देर तक नींद न आने से सगुनाराम को सवेरे उठने में देर हो गई। सब उनके जगने की राह देख रहे थे। जगते ही सब उनके मुँह का भूगोल पढ़ने की कोशिश करने लगे। उनको तो पता ही था हार कहाँ है। आवाज़ में रुतबा बढ़ाकर बोले “घोड़ों के ठाँण में देख लो, मिल जाएगा।”

हार तो मिलना ही था। सुगनाराम का रुतबा एकाएक बढ़ गया। अचानक से वो सितारों के बीच चंद्रमा की भाँति महत्वपूर्ण हो गए।

दरबार में उनके इनाम को लेकर चर्चा, अनुमान हो रहे थे कि इतने में राजा को दूत से एक आवश्यक सूचना मिली कि पड़ोसी रियासत का राजा अपने दल-बल सहित राजधानी पर हमला करने आ रहा है।

राजा ने इनाम की योजना स्थगित कर सीमा पर जाने की तैयारी शुरू कर दी। सुगनाराम को भी प्रस्ताव दिया कि वो युद्ध के मैदान पर भी अपने हुनर दिखाना चाहें तो उनके साथ चल लें।

अब सुगनाराम की हालत पतली होने लगी। उसने कभी तलवार तो क्या छुरी भी नहीं उठाई थी। लेकिन अपनी नई नवेली प्रतिष्ठा की अभी तो उसने ठीक से मुँह-दिखाई भी नहीं की थी। उसे वह हाथ से कैसे जाने देता। वह भी युद्ध में जाने के लिए तैयार हो गया।

राजा ने सुगनाराम को अपना मनपसंद घोड़ा छाँट लेने को कहा। एक घोड़ी तीन टाँगों पर खड़ी थी। सुगनाराम ने सोचा यह ज़रूर लंगड़ी है। ज्यादा दूर क्या भाग पाएगी। यही रख लेता हूँ। घोड़ी के चुनाव से राजा का चौंकना स्वभाविक था। घुड़साल की सबसे तेज़ भागने वाली घोड़ी का चुनाव करना किसी पारखी नज़र का ही काम हो सकता है। राजा ने सोचा यह हीरा कहाँ छुपा हुआ था। लड़ाई से लौटकर राज दरबार में सुगनाराम को कोई अच्छा सा पद देने का राजा के मन में विचार आया।

सुगनाराम ने कभी घुड़सवारी नहीं की थी इसलिए उसने सैनिकों से कहा कि मुझे घोड़ी के ऊपर अच्छे से बाँध दो। बात अटपटी थी पर किसी से कुछ कहते न बना। सबने सोचा इतना गुणवान व्यक्ति कह रहा है जो ज़रूर कोई न कोई बात होगी। दल-बदल सहित राजा ने युद्ध के लिए कूच किया। चारण भाट उत्साह बढ़ाने विरूदालियाँ गाने लगे। तुर्रीयों का गगनभेदी स्वर उठने लगा। जोश से भरे रणबाँकुरे सीना ताने तलवारें थामे एक दूसरे से आगे जाने की होड़ लगाने लगे। परन्तु इन सबसे कोई आगे था तो वह था नया नवेला घुड़सवार सुगनाराम। उसकी घोड़ी हवा से बातें कर रही थी। पवन की गति को पछाड़ती घोड़ी ने उसे तलवार निकालने का भी अवसर नहीं दिया। सुगनाराम ने सोचा भला हुआ कि उसने स्वयं को घोड़ी पर बंधवा लिया था। नहीं तो उसकी मिट्टी बिखर कर घोड़ों की टापों से अब तक आसमान तक पहुँच चुकी होती। ज्यों-ज्यों घोड़ी शत्रु सेना के नजदीक पहुँचने लगी सुगनाराम का कलेजा बिल्ली के मुँह में फँसे कबूतर की तरह फड़फड़ाने लगा। राम-राम-राम-राम का उच्चारण करते उन्होंने रास्ते में आई खेजड़ी (एक पेड़)  की मोटी सी डाल पकड़ ली ताकि वो वहीं रुक जाएँ। कुछ तो घोड़ी की गति तीव्र थी, कुछ डाल कमजोर थी। सुगनाराम के सितारे इतने तेज़ थे कि वो खेजड़ी कि डाल टूट गई।

  सामने वाली सेना ने जब यह दृश्य देखा तो सदमें में आ गई। सैनिकों में खलबली मच गई कि कोई वीर अकेला ही तूफ़ान की गति से आ रहा है रस्ते में आ रहे पेड़ वो उखाड़ता हुआ आ रहा है। सैनिक फुसफुसाने लगे। यह कोई इंसान नहीं है ज़रूर जिन्न होगा, कोई भूत-प्रेत का मामला लग रहा। शत्रु सेना तितर-बितर होने लगी। सैनिकों की मनोस्थिति देखकर शत्रु राजा ने भी वापस जाने का निर्णय ले लिया।

सुगनाराम पर बदहवासी छा गई। उसने जब आँखें खोली पानी का लोटा लिए राजा उसके मुँह पानी के छींटे डाल रहे थे। शत्रु सेना बिना मुकाबला किये वापस चली गई। सुगनाराम के नाम के जयकारों से गगन गूँजने लगा।

अगले दिन दरबार लगा। सारे महत्वपूर्ण मंत्री-संतरी उपस्थित हुए। दरबार में सुगनाराम की वीरता की सबने भूरी-भूरी प्रशंषा की तथा मुँहमाँगा इनाम माँगने को कहा। सुगनाराम सोच पड़ गया कि क्या माँगे? उसने इधर-उधर देखा और सकुचाते हुए कहा। “अन्नदाता मैंने देखा है कि आपकी रानियों के हाथों की मेहंदी बहुत राचनी है। थोड़ी ऐसी मेहंदी मिल जाती...”

एकाएक दरबार में ख़ामोशी छा गई। किसी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। राजा अचरज में पड़ गए। उन्होंने सोचा एक और अवसर देते हैं “सुगनाराम क्या तुम्हें सच में मेहंदी ही चाहिए?”

“हाँ अन्नदाता, मेरी घरवाली को मेहंदी का बड़ा चाव है”

राजा समझ गया। उसने घोड़ों पर मेहंदी के साथ कुछ और भेंटें रखी और सुगनाराम को उसके घर भिजवाने की व्यवस्था कर दी।

 


अनिता मण्डा

दिल्ली 

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर कथा 🌹🌹👌

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  2. लोककथा के वाहकों की प्रकृति जो भी हो, इसकी विषयवस्तु का निरंतर अस्तित्व स्मृति पर निर्भर करता है। हस्तांतरण के साथ ही यह परिवर्धन या प्रतिस्थापन से होने वाले परिवर्तनों से ग्रस्त हो जाती है।
    अतः कुछ ही आप जैसे कहानीकार अपनी विलक्षण स्मृति के बदौलत इसे आगे पूर्ववत रूप में सम्प्रेषित करने का कार्य बखूबी कर पाते हैं। साधुवाद, इस सुंदर रचना के लिए।

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  3. बचपन में ये कहानी मारवाड़ी में सुनते थे. हंसा हंसा कर लोट पोट कर देती थी. आपने कहानी को हुबहू उसी अंदाज में हिंदी में लिखा है...बहुत मजा आया पढ़ कर...बधाई!

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  4. लोक कथा को रोचक ढंग से प्रस्तुत करने हेतु अनिता मण्डा जी को बहुत बहुत बधाई।नई पीढ़ी को इन लोक कथाओं से परिचित कराने की आवश्यकता है।

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  5. बहुत ही सुन्दर कथा.. प्रिय अनिता को दिल से बधाई।

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