आज
प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियाँ अपनी पहचान बना चुकी है । चाँद पर कदम रखकर वह
अपनी प्रतिभा शक्ति को प्रमाणित कर चुकी है । साहित्य की विविध विधाओं को संपन्न
बनाने वाली महिला सर्जकों की कलम से आत्मकथा विधा भी अछूती नहीं रही है। अपने स्वयं के ही जीवन को निरूपित करने वाली
लेखिकाओं की ये आत्मकथाएँ इनके जीवन का दर्पण तो है ही साथ ही इनके समय, स्थितियाँ
एवं इनके समाज को भी विस्तार से यथार्थ रूप में प्रस्तुत करती है । अतः स्त्री
आत्मकथाओं को स्त्री जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी । स्त्रियों
द्वारा लिखी गई ये आत्मकथाएँ सिर्फ
लेखिकाओं की ही जीवन गाथा नहीं है अपितु स्त्री
समाज की जीवन गाथा भी है । हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास जैसी विधाओं में स्त्री
लेखन की अपेक्षा आत्मकथा के क्षेत्र में स्त्री लेखन की शुरूआत काफी बाद में होती है
इसमें भी हिंदी की प्रथम महिला आत्मकथा के प्रकाशन के लगभग तीन दशक के बाद स्त्री आत्मकथा
परंपरा का सुव्यवस्थित विकास होता है ।
“आत्मकथा
लेखन में स्त्रियों का प्रवेश बहुत बाद में हुआ । 1956 में आई जानकी देवी बजाज की ‘मेरी जीवन यात्रा’ पहली महिला आत्मकथा है ।
शताब्दियों तक मौन रहने के बाद महिला रचनाकारों ने आत्मकथा के माध्यम से खुद को
पहचानने का प्रयास किया । जानकी देवी के बाद वर्षों तक कोई स्त्री आत्मकथा नहीं आई
।” (नई सदी का साहित्य - चिंतन और चुनौतियाँ, सं. डॉ. नवीन नंदवाना, पृ. 150) 1956 के बाद लंबे अरसे तक स्त्री आत्मकथा लेखन मौन
रहा और यह सूनापन दूर होता है सन् 1985 में प्रकाशित दिनेश नंदिनी
डालमिया की आत्मकथा ‘मुझे माफ करना’ के साथ । तत्पश्चात यह यात्रा अबाध रूप से आगे
बढ़ती रही । पिछले 30-35 वर्षों में अनेकों महिला लेखिकाओं ने आत्मकथा विधा पर
अपनी कलम चलाई है, जिसके चलते हिंदी स्त्री आत्मकथा की एक सशक्त परंपरा ने आधुनिक
हिंदी साहित्य में अपनी एक विशेष पहचान बनाई ।
दिनेश
नंदिनी डालमिया, प्रतिभा अग्रवाल, प्रकाशवती पाल, कुसुम अंसल, अजीत कौर, कौशल्या बैसंत्री,
पद्मा सचदेव, मैत्रीय पुष्पा, बेबी हालदार, रमणिका गुप्ता, प्रभा खेतान, मन्नू
भंडारी, चन्द्र किरण सौनरेक्सा, कृष्णा अग्निहोत्री, सुशीला टाकभौरे, डॉ. सुधा
गुप्ता आदि लेखिकाओं ने अपने आत्मवृत्तों में अपने व्यक्तित्व एवं सामाजिक जीवन को
बखूबी निरूपित किया है । स्त्री जीवन की सच्चाई को प्रस्तुत करने वाली यह आत्मकथाएँ
वाकई स्त्री जीवन का एक प्रामाणिक दस्तावेज बनी हुई है । “पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था
द्वारा नारी पर ढाए जाने वाले अत्याचार, विवाह संस्था की असंगतियों, पतियों की खलनायकी
भूमिका, आत्म विकास में बाधक तत्वों से संघर्ष करती आर्थिक आत्मनिर्भरता की
प्राप्ति हेतु प्रयास करती नारी आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो सीधे नारी विमर्श से जुड़ते
हैं । ऐसी आत्मकथाएँ लेखिकाओं के व्यक्तित्व को ही अभिव्यक्ति नहीं देती अपने
समकालीन जीवन की हलचलों को भी शब्दबद्ध करती है । इन आत्मकथाओं की सबसे बड़ी समस्या यह है कि लेखिका बन जाने पर भी वे नारी शोषण की चक्की के पाटों से
मुक्त नहीं हो पाती है ।” (हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथाएँ, डॉ सरजू प्रसाद मिश्र, पृ.
30)
अलग-अलग
वर्ग से संबद्ध स्त्रियों की जिंदगी, इस जिंदगी के अनेकों अनुत्तरित प्रश्न, इस
जिंदगी के विविध आयामों-पक्षों से हम पाठक इन आत्मकथाओं के जरिए अच्छी तरह से
परिचित होते हैं क्योंकि ये लेखिकाएँ अलग-अलग वर्गों से है, अलग-अलग समाज से है । “आलोच्य
लेखिकाओं की आत्मकथाएँ आधुनिक महिलाओं के जीवन की सच्चाई को समाज के सामने प्रस्तुत
करती हैं । सर्वप्रथम हमें इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि आधुनिक युग में भले ही
महिलाओं की प्रगति के रास्ते खुले है फिर भी समस्याएँ ज्यों की त्यों ही बनी हुई
है । इन महिला आत्मकथाकारों में सभी वर्गों की महिलाएँ मौजूद है । सुशीला
टाकभौरे, बेबी हालदार, कौशल्या बैसंत्री निम्न वर्ग से, मैत्रेयी पुष्पा, मन्नू भंडारी,
पद्मा सचदेव, कृष्णा अग्निहोत्री एवं चन्द्र
किरण सौनरेक्सा मध्यम वर्ग से और रमणिका गुप्ता, कुसुम अंसल, दिनेश नंदिनी डालमिया व प्रभा खेतान उच्च वर्ग से संबंध रखती है । पारिवारिक और सामाजिक स्तरों पर जहाँ-जहाँ
इन्हें तकलीफें उठानी पड़ी हैं और जहाँ-जहाँ इनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हुआ है, इन
आत्मकथाओं में उसे बखूबी उकेरा है ।” (हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथाओं में चित्रित नारी
जीवन, डॉ. सुवर्णा कंचुमूर्ती , पृ. संख्या 36)
दिनेश
नंदिनी डालमिया ने ‘मुझे माफ करना’ (1985) आत्मकथा में अपनी पूरी जिंदगी को
रेखांकित किया है । एक आदर्श बेटी, पत्नी तथा माँ जैसे नारी के प्रमुख रूपों को
अच्छी तरह से निभाने हेतु प्रयासरत होने पर भी पूरी तरह से सफल न होना, बावजूद साहस
के साथ परिस्थितियों से लड़ते हुए साहित्य सृजन के प्रति प्रतिबद्धता और समर्पण को
इस आत्मकथा के माध्यम से देखा जा सकता है । डॉ. प्रतिभा अग्रवाल की आत्मकथा दो
खंडों में प्रकाशित हुई प्रथम खंड ‘दस्तक ज़िंदगी की’ (1990) और दूसरा खंड ‘मोड़
जिंदगी का’ (1996) नाम से सामने आए । प्रथम खंड के ठीक छह साल बाद इस आत्मकथा का
दूसरा खंड प्रकाशित हुआ । इस संदर्भ में स्वयं लेखिका का कहना है कि - पुस्तक लिखी
तो गई थी एक साथ पर नाना कारणों से उस समय एक साथ प्रकाशन नहीं हो पाया । इस
कारण संभव है कि पुस्तक में कहीं-कहीं काल दोष रह गया हो, सुधी पाठक उसके लिए क्षमा
करेंगें । 1996 में ‘जो कहा नहीं गया’ नाम से कुसुम अंसल की आत्मकथा पाठक के
सामने आती है । लेखिका की जीवन यात्रा, इनकी लेखन यात्रा, जीवन में अकेलापन आदि से
संबंधित कुछ उद्धरण यहाँ दृष्टव्य है ।
“कुसुम
अंसल ने आमुख में लिखा है मेरा यह लेखन मेरी वह यात्रा है जिसमें प्रवाहित होकर मैं
लेखिका बनी थी । मेरे उन अनुभवों का कच्चा चिट्ठा जिनको अपने प्रति सचेत होकर
मैंने रचनात्मक क्षणों में जिया था ......उन्हें शिकायत है कि भाई-बहन, नाते-रिश्तेदारों,
स्वयं के बच्चों से भी उन्हें लेखन में किसी प्रकार की मदद नहीं मिली । जीवन को यूँ
ही नहीं जी डालना है इसलिए उन्होंने लेखन को अपनाया - भयानक अकेलापन मेरी साधना में
मेरे साथ था – अकेली चली मैं उस राह पर .....कोई भी कला साधना एकांत साधना ही होती
है और प्रतिकूल परिस्थितियों में कलाकार अपनी कला का विकास कर लेता है ।” (हिंदी
लेखिकाओं की आत्मकथाएँ, डॉ सरजू प्रसाद मिश्र, पृ. 48)
हिंदी
कथा साहित्य के प्रमुख महिला हस्ताक्षरों में मन्नू भंडारी का नाम अग्रिम पंक्ति में आता
है । कहानी एवं उपन्यास में अपने
विशिष्ट योगदान से पहचानी जाने वाली इस लेखिका ने बहुत गंभीरता से आत्मकथा विधा को
भी अपने लेखन का क्षेत्र बनाया है । ‘एक कहानी यह भी’ (2007) मन्नू जी की आत्मकथा
है । लेखिका ने इसमें मुख्यतः अपनी साहित्य सृजन संबंधी बातें विस्तार से बताई है ।
इसी विशेष पक्ष पर केन्द्रित होने की वजह से लेखिका इसे आत्मकथा की अपेक्षा कहानी
ज्यादा मानती है । “यह मेरी आत्मकथा कतई नहीं है इसलिए मैंने इसका शीर्षक एक कहानी
यह भी ही रखा । जिस तरह कहानी ज़िंदगी का एक अंश मात्र ही होती है, एक पक्ष, एक
पहलू, उसी तरह यह भी मेरी ज़िंदगी का एक टुकड़ा मात्र ही है, जो मुख्यतः मेरे लेखकीय
व्यक्तित्व और मेरी लेखन यात्रा पर केन्द्रित है ।” (एक कहानी यह भी, मन्नू
भंडारी, पृ. 8) अपने लेखकीय जीवन के साथ-साथ मन्नू जी ने अपनी इस रचना में अपने
वैवाहिक जीवन को भी निरूपित किया है । प्रस्तुत आत्मकथा में एक लेखिका की सृजन
यात्रा के विविध पक्षों के साथ इनके दाम्पत्य जीवन का अंकन हुआ है ।
बीसवीं
सदी के अंतिम दशक और इक्कीसवीं सदी की कथा लेखिकाओं में मैत्रेयी पुष्पा का स्थान
भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा है । इनकी आत्मकथा का प्रथम खंड ‘कस्तूरी कुंडल बसै’
(2002), दूसरा खंड ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ (2008) शीर्षक से प्रकाशित हुआ । प्रथम खंड में स्त्री
जीवन के संघर्ष, शोषण, पारिवारिक रिश्तों में वैचारिक मतभेद की विविध स्थितियों को
लेखिका ने शब्दबद्ध किया है । “इस आत्मकथा में नारी के जीवन संग्राम, शोषण एवं संघर्ष
की गाथा प्रस्तुत हुई है । रूढ़ियों और
परंपरा से जूझती और अपनी अस्मिता की तलाश करती भारतीय नारी का चित्रण इस आत्मकथा
में किया है ।”(हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथा में चित्रित नारी जीवन, डॉ. सुवर्णा
कंचुमूर्ती , पृ. संख्या 48) ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ आत्मकथा के इस खंड में विशेषतः पारिवारिक
जीवन एवं लेखन कर्म से जुड़ी दास्तान को प्रस्तुत किया है ।
प्रभा
खेतान कृत ‘अन्या से अनन्या’ नामक बहुचर्चित आत्मकथा 2007 में प्रकाशित हुई । इसके पहले यह रचना हंस पत्रिका में क्रमशः
छपी थी । रचना की कथा को रोचक एवं कलात्मक बनाने हेतु लेखिका ने इसमें औपन्यासिक
कथा शैली का पुट दिया है । अस्तित्ववाद के सन्दर्भ के साथ नारीवाद और नारी मुक्ति
के दृष्टिकोण को लेकर चलने वाली यह आत्मकथा अपने समय एवं विविध स्थितियों को भी अपने
कलेवर में समेटे हुए हैं । “इसकी रचना नारीवादी दृष्टिकोण से हुई, इसमें प्रभा जी
ने अपने बचपन से लेकर समृद्ध महिला बनने तक की कथा का उल्लेख किया है । इसमें हम
स्त्री के उस स्वरूप को देख सकते हैं जो उसे साधारणतया से विशिष्टता की ओर ले जाता
है ।” (नई सदी का साहित्य - चिंतन और चुनौतियाँ, सं. डॉ. नवीन नंदवाना, पृ. 156)
एक
स्तरीय आत्मकथा लिखना सरल काम नहीं है और वैसे भी इसमें सिर्फ सत्य ही कहना है, इसके
लिए साहस चाहिए – सरल कार्य कैसे हो सकता है ? आत्मकथा की मूल शर्त कहिए या
आत्मकथा की मूल पहचान कहिए यही है कि इसमें
आत्मकथाकार के जीवन का सत्य ब्यौरा आए । वर्ष 2008 में प्रकाशित कृष्णा
अग्निहोत्री की आत्मकथा ‘लगता नहीं दिल मेरा’ में इसी सत्य कहने की बात पर ज़ोर देते
हुए लेखिका कहती है - “मैं कृष्णा अग्निहोत्री वल्द रामचंद्र तिवारी गीता की कसम
खाकर कहती हूँ कि जो कहूँगी सच कहूँगी । कचहरी में तो व्यक्ति कटघरे में खड़ा कसम खाकर
झूठ बोल जाता है परन्तु आत्मा का कटघरा बड़ा तीखा है । यहाँ व्यक्ति अपरिवर्तित
रहता है और मैं भी दिन-रात कभी-कभी मुखौटे लगाने के बावजूद अपनी आत्मा के तरफ
निर्वस्त्र रहूँगी ।” (लगता नहीं है दिल मेरा, कृष्णा अग्निहोत्री, पृ. 9) नारी की
यातना को बहुत विस्तार से निरूपित करने वाली इस आत्मकथा में अवैध संबंधों की बातों
को भी ज्यादा मात्रा में लिया गया है ।
स्त्री
जीवन के दर्द की दास्तान बड़ी संजीदगी से बयान हुई है चन्द्र किरण सौनरेक्सा की
आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ (2008) में । स्त्री विमर्श की एक सशक्त लेखिका चन्द्र
किरण सौनरेक्सा की आत्मकथा का यह ‘पिंजरे की मैना’ शीर्षक ही समाज में स्त्री की
स्थिति की ओर संकेत करता है । यहाँ पिंजरा
समाज है और मैना स्वयं लेखिका यानी स्त्री । “एक ओर यह शीर्षक आधुनिक स्त्री की
सामान्य स्थिति को उजागर करता है तो दूसरी ओर यह संवेदनशील व्यक्ति का प्रतीक भी
है जो निःसहायता के बावजूद अपनी बात कहने के लिए विवश है ।” (हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथाएँ,
डॉ सरजू प्रसाद मिश्र, पृ. 59)
आर्थिक
कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने परिवार का पालन पोषण करते हुए स्त्री जीवन के संघर्ष
की महागाथा के साथ साहित्य सृजन के प्रति समर्पण और प्रतिबद्धता को कवयित्री डॉ.
सुधा गुप्ता की आत्मकथा ‘एक पाती : सूरज के नाम’ (2012) में देखा जा सकता है । प्रस्तुत
आत्मकथा में लेखिका के कुछ विचार देखिए – “सब स्त्रियाँ अमृता प्रीतम ‘बोल्ड’,
हिम्मतबाज़ और ‘डेयरिंग’ नहीं हो सकती कि प्रारब्ध को चकमा देकर उसके
बाज़ार से मनपसंद चीज़ पर झपट्टा मारकर उठा लें.... बहुत कम प्रतिशत उन स्त्रियों का
है जो मन्नू भण्डारी की तरह अपने नरक से बाहर आने की कोशिश कर, चुपचाप अपनी ज़िन्दगी को जीती चली जाती हैं.....अपनी शालीनता और शाइस्तगी
को बरकरार रखते हुए .....ज्यादातर तो औरतों का हाल यह है कि शक्ति, सामर्थ्य, बुद्धि, आर्थिक
आत्मनिर्भरता के बावजूद वे एक बार अगर अंधे कुएँ में गिर पड़ीं तो बस गिर पड़ीं
.....ज़िन्दगी के आखिरी लम्हे तक उस अकेले भयावह अंधेरे में पड़े रहना ही उनकी नियति है.....क्यों ?
क्यों ?? इस ‘क्यों’ के हर जीवन में अलग-अलग
हज़ार कारण हो सकते हैं, होते हैं ।” (एक पाती : सूरज के नाम,
डॉ. सुधा गुप्ता, पृ. 85)
दलित
लेखिकाओं द्वारा लिखित आत्मकथाओं की संवेदना एवं स्थिति थोड़ी अलग है । अलग इसलिए
के एक तो स्त्री और ऊपर से दलित स्त्री । अतः इनकी दास्तान थोड़ी अलग तरह की ही
होगी । इस श्रेणी की आत्मकथाओं में अन्याय शोषण का शिकार एवं बुनियादी आधिकारों से
वंचित स्त्री की व्यथा कथा, इनकी संघर्ष कथा ज्यादा गंभीर है तो दूसरी ओर इसमें
पुरुष प्रधान समाज में अपना महत्त्व, पहचान बनाने हेतु तथा जातिगत अभिशाप से मुक्त
होने के स्वर भी सुनाई देते हैं । स्त्री दलित आत्मकथाओं में कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा
अभिशाप’ (1999) तथा सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ (2011) विशेष उल्लेखनीय है । “इन आत्मवृत्तों में दलित नारी के दोहरे-तिहरे
ही नहीं अनगिनत शारीरिक-मानसिक यौन शोषण, लिंग भेद के चलते पुरुष मानसिकता के आगे
कदम-कदम पर झेलनी पड़ती उपेक्षाएँ, अवहेलनाएँ साथ-साथ घरेलु हिंसा के कसते जाते
शिकंजों की सूक्ष्म उधेड़बुन इन आत्मवृत्तों की विशिष्ट पहचान बनी हुई है । इससे भी
ऊपर उठकर इन लेखिकाओं ने दलित नारियों को जुझारू एवं आत्मनिर्भर बतायी है, बावजूद इसके चाहे अपढ़ हो या पढ़ी-लिखी नौकरी पेशा नारी सबको पुरुष वर्चस्व के आगे अनिच्छा से भी
याचक बने रहना पड़ता है । नारी अंतर्मन का यह दर्द इन आत्मवृत्तों के पन्ने-पन्ने
पर उभरता नज़र आता है ।” (इक्कीसवीं सदी का गद्य साहित्य, सं. डॉ. दिलीप मेहरा, डॉ.
हसमुख परमार, पृ. 370)
दोहरा
अभिशाप की गणना हिन्दी की प्रथम दलित स्त्री आत्मकथा के रूप में होती है । यहाँ
दोहरा अभिशाप का मतलब लेखिका के कथनों के आधार पर – दलित होना तो एक शाप है ही परन्तु दलित वर्गों में एक स्त्री यानी दलित स्त्री का जीवन इसकी स्थिति तो एक तरह
से दोहरा अभिशाप है क्योंकि दलित समाज में पुरुष की अपेक्षा स्त्री की स्थिति ज्यादा
दयनीय है । इसे पुरुष से ज्यादा अभिशाप झेलना पड़ता है । “कौशल्या बैसंत्री की
आत्मकथा बताती है कि दलित स्त्री दूसरी स्त्रियों की तरह केवल स्त्री नहीं होती स्त्री
होने के साथ-साथ वह दलित होने का दंश भी झेलती है । समाज में दलित और परिवार में
स्त्री दोनों ही रूपों में वह उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार है, उसका दर्द दोहरा है
।” (हिन्दी दलित आत्मकथा, डॉ. संजय नवले, पृ. 46) शिकंजे का दर्द आत्मकथा की विषय
वस्तु भी दलित समाज की यथा स्थिति तथा नारी जीवन की व्यथा है ।
हिन्दू
समाज हो या मुस्लिम समाज दोनों में स्त्री की स्थिति को लेकर कोई खास अंतर नहीं है
। स्त्री की स्वतंत्रता, इनके ऊपर लादे गए विविध बंधन, पुरुष की अपेक्षा इन्हें कम
आँकना जैसे सन्दर्भों में स्त्री की दशा एवं दिशा का हिन्दू समाज से संबद्ध आत्मकथा लेखिकाओं की तरह मुस्लिम
लेखिकाओं ने भी बहुत गंभीरता से वर्णन किया है । तहमीना दुर्रानी ‘मेरे आका’,
तसलीमा नसरीन की ‘मेरे बचपन के दिन’ इस्मत चुग़ताई की ‘कागज़ी है पैरहन’ जैसी
रचनाएँ हमें मुस्लिम समाज में स्त्री की वास्तविक स्थिति से अवगत कराती है । पुत्र
के जन्म से जितनी ख़ुशी परिवार में होती है उतनी ख़ुशी पुत्री जन्म से नहीं होती यह
सिर्फ हिन्दू समाज का ही नहीं बल्कि मुस्लिम समाज का भी सत्य है । इस वस्तु स्थिति
के चलते संतान को जन्म देने वाली माँ की भी इस तरह की मानसिकता होती है कि उसे भी अपनी
कोख से पुत्र जन्म से जितनी प्रसन्नता होती है वैसी और उतनी प्रसन्नता पुत्री जन्म
से नहीं होती । मुस्लिम महिला लेखिकाओं ने भी इस बात को अपनी आत्मकथाओं में बताया है । ‘मेरे आका’ आत्मकथा की लेखिका तहमीना
दुर्रानी यह बताती है कि “जब उसकी माँ गर्भवती थी तब उसकी देखभाल करने वाली ननों
ने उसे बताया कि ऐसा विश्वास किया जाता है कि नवाब के खानदानों में पैदा होने वाली
लड़कियों को पैदा होते ही मार दिया जाता है ।” ( नई सदी हा साहित्य चिंतन और
चुनौतियाँ, सं. डॉ. नवीन नंदवाना, पृ. 142)
बच्चों
के विविध खेल खेलने में भी लड़कियों पर पाबंदी, कतिपय कार्य करने में भी अंधविश्वास
के कारण लड़कियों को रोकना, लड़कियों को रिश्तेदारों से गले मिलने से रोकना, लड़कियों
को बुर्का पहनने की अनिवार्यता और न पहनने पर विविध प्रकार के दुःख की बात बताना जैसे
कई मुद्दों को तसलीमा नसरीन ने ‘मेरे बचपन के दिन’ रचना में रेखांकित किया है । मुस्लिम
समाज में भी स्त्री शिक्षा को पूरी तरह से स्वीकार न करना तथा तलाक शुदा औरत की
दयनीय दशा को भी इस्मत चुग़ताई और तसलीमा नसरीन की रचनाओं में हम देख सकते हैं । स्त्री
जीवन की व्यथा-कथा कहती उपर्युक्त सभी आत्मकथाएँ हमारे परिवेश, समाज एवं समकालीन परिस्थिति
का जीवंत चित्रण करती नज़र आती है ।
वड़ोदरा
आत्मकथा लिखना बेहद साहसपूर्ण कार्य है और यह सभी से मुमकिन भी नहीं. जिन लेखिकाओं ने लिखा उन्हें साधुवाद. अमृता प्रीतम ने जिस साहस और निर्भीकता से अपनी आत्मकथा लिखी है, मैं अचंभित होती हूँ. बहुत अच्छा आलेख लिखा आपने, बधाई.
जवाब देंहटाएंशोधपरक , बढ़िया आलेख पूर्वा जी , हार्दिक बधाई।
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