कुछ
सतरंगी-सी चाहत
यूँ
आज मचल रही है
जैसे
इस फागुन होली
अनकही
भी कह रही है
मेरी
हसरतों को यूँ निखार देना तुम
ले
सूरज की धूप सुनहरी
मेरी
गालों पर लगा देना तुम
सजा
देना माँग मेरी
पलाश
के सूर्ख लाली से
जो
चूनर ओढ़ लूँ मैं धानी
रंग
बासंती भी मिला देना तुम
गुलाबों
की पंखुड़ियों को
गर लगा लूँ
अपने ओठों पर
मेहँदी-सा
रंग मुहब्बत का
मेरे
हाथों में सजा देना तुम
रातों
से काजल ले अपनी
आँखों
में जो भर लूँ मैं
शाम
सुनहरी मेरे पलकों पर धर देना तुम
जब
महकने लगूँ मैं बन
चम्पा
और जूही-सी
मेरे
कत्थई जूड़े में
बेली
की लड़ियों को लगा देना तुम
गेंदे
के रंग पीले भर लूँ अगर आँचल में
लाल
- लाल महावर से मेरे पैरों को
खिला
देना तुम
इस
बार होली को
इस
तरह बना देना
छूट
न पाये रंग जो प्रीत का
उस रंग भींगा देना तुम
हाँ
,
इस बार होली में
मुझे
अपने ही रंग, रँग लेना तुम।
राँची
(झारखण्ड)
सुन्दर, सरस रचना!
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