शनिवार, 27 मार्च 2021

उपन्यास का अंश

 


गोदान

:21:

देहात में साल के छह महीने किसी-न-किसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता रहता है। होली के एक महीना पहले से एक महीना बाद तक फाग उड़ती है आषाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में करजलियाँ होती हैं। कर्जलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है। सेमरी भी अपवाद नहीं है। महाजन की धमकियाँ और कारिन्दे की बोलियाँ इस समारोह में बाधा नहीं डाल सकती। घर में अनाज नहीं है, देह पर कपड़े नहीं हैं, गाँठ में पैसे नहीं हैं, कोई परवाह नहीं। जीवन की आनन्दवृत्ति तो दबाई नहीं जा सकती, हँसे बिना तो जिया नहीं जा सकता।

यों होली में गाने-बजाने का मुख्य स्थान नोखेराम की चौपाल थी। वहीं भंग बनती थी, वहीं रंग उड़ता था, वहीं नाच होता था। इस उत्सव में कारिन्दा साहब के दस-पाँच रुपये खर्च हो जाते थे, और किसमें यह सामर्थ्य थी कि अपने द्वार पर जलसा कराता?

लेकिन अबकी गोबर ने गाँव के सारे नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच लिया है और नोखेराम की चौपाल खाली पड़ी हुई है। गोबर के द्वार पर भंग घुट रही है, पान के बीड़े लग रहे हैं, रंग घोला जा रहा है, फ़र्श बिछा हुआ है, गाना हो रहा है और चौपाल में सन्नाटा छाया हुआ है। भंग रखी हुई है, पीसे कौन ? ढोल-मजीरा सब मौजूद है, पर गाये कौन? जिसे देखो, गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा रहा है। यहाँ में गुलाबजल और केसर और बादाम की बहार है। हाँ-हाँ, सेर-भर बादाम गोबर ख़ुद लाया। पीते ही चोला तर हो जाता है, आँखें खुल जाती हैं। ख़मीरा तमाखू लाया है, ख़ास बिसवां की? रंग में भी केवड़ा छोड़ा है। रुपये कमाना भी जानता है और खरच करना भी जानता है। गाड़कर रख लो, तो कौन देखता है? धन की यही सोभा है। और केवल भंग ही नहीं है, जितने गाने वाले हैं, सबका नेवता भी है, और गाँव में न नचानेवालों की कमी है, न गानेवालों की, न अभिनय करने वालों की । सोभा ही लंगड़ं की ऐसी नकल करता है कि क्या कोई करेगा और बोली की नकल करने में तो उसका सानी नहीं है। जिसकी बोली कहो, उसकी बोले-आदमी की भी, जानवर की भी। गिरधर नकल करने में बेजोड़ है। वकील की नकल वह करे, पटवारी की नकल वह करे, थानेदार की, चपरासी की, सेठ की-सभी की नकल कर सकता है। हाँ, बेचारे के पास वैसा सामान नहीं है, मगर अबकी गोबर ने उसके लिए सभी सामान मंगा दिया है, उसकी नकलें देखने जोग होंगी।

प्रेमचंद

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