शनिवार, 27 मार्च 2021

लघुकथा

 


रं 


होली का दिन है। ज्यों-ज्यों दिन चढ़ता जाता है, इस कस्बे में होली खेलने की उमंग बढ़ती जा रही है।

श्रीनिवास घर बैठे अखबार पढ़ रहे हैं । उनकी पत्नी आकर कहती हैं सुनो, बारह बज गए हैं। कुछ सब्जी ले आओ। कोई रंग डाल भी दे तो पुराने कपड़े हैं, फर्क नहीं पड़ेगा।

श्रीनिवास उठते हुए कहते हैं- "नहीं, रंग-वंग कोई क्यों डालेगा मुझ  पर ।" कस्बे में श्रीनिवास का रौब-दाब है। आज वे स्कूटर के बजाय साइकिल से बाजार को निकले हैं। वे देखते हैं कि चारों तरफ होली का रंग अपने निखार पर है। कहीं लाल-पीला रंग लगाया जा रहा है, तो कहीं लोग आपस में गले मिल रहे हैं और कहीं ढोलक के साथ नाच रहे हैं....किसी को छोड़ा नहीं जा रहा। लेकिन श्रीनिवास को देखकर रंग डालना तो दूर, किसी में उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं होती। बड़े अफसर हैं बुरा न मान जाए । और श्रीनिवास के चेहरे पर भी जैसे एक अहम् है कि देखो, मुझ पर कोई रंग नहीं डाल सकता।

यही होता है। वे वैसे के वैसे लौट आते हैं। पत्नी सामान थामते हुए कहती है, “वाह ! किसी ने रंग नहीं लगाया !' श्रीनिवास एक खिसियानी हँसी हँसते हुए कमरे में आ जाते हैं। रास्ते के रंग-भरे दृश्य एक-एक कर उनकी आँखों के आगे आने लगते हैं। अचानक उन्हें लगता है कि वे कस्बे में सबसे अलग-थलग पड़ गए हैं। वे उठते हैं और मेज पर रखे लिफाफे में से गुलाल निकालकर अपने मुँह पर लगा लेते हैं।

(‘निर्वाचित लघुकथाएँ’ लघुकथा संग्रह से साभार)


अशोक भाटिया 

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