स्त्री-पुरुष संबंध की पहेलियों को पढ़ने-समझने की जरूरत है
आधुनिक काल के पहले हमारी परिवार व्यवस्था प्रधानतः पुरुषप्रधान थी और अभी भी
परिवारों में उसके कुछ संस्कार शेष हैं। पुरुषप्रधान व्यवस्था ने औरत के अस्तित्व
का निषेध तो नहीं किया, लेकिन उसे अपने से कमतर एवं अधीन बनाये रखने के लिए तरह-तरह की पहेलियों की
रचना की। यहाँ तक कि पितृसतात्मक व्यवस्था के अधीन रहते हुए स्त्रियों ने पुरुषों
के बारे में भी तरह-तरह की पहेलियों की रचना की है। कुछ पहेलियों का संबंध स्त्री
को महिमा मंडित करने से है। मनुस्मृति का यह कथन कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते
तत्र देवता’ स्त्री महिमामंडन की पहेली है। ‘जननी
जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयशी’, ‘मातृदेवो
भव’ सुभाषितों
की रचना इसी आशय से की गयी है। महिमामंडन में स्त्री की हैसियत देवी जैसी है और वह
कहीं अधीन या हीन नहीं लगती है। इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री को अपने
अधीन रखने के लिए दूसरे तरह की पहेलियों की रचना की कि स्त्री को कभी स्वतंत्रता
नहीं देनी चाहिए। बचपन में वह पिता के अधीन, जवानी मे पति के अधीन और
बुढ़ापे में पुत्र के अनुशासन में रहे। (पिता रक्षति कौमारे, भर्ता
रक्षति यौवने, रक्षति स्थविरे पुत्रा, न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति-मनुस्मृति) कालिदास ने कहा है कि कन्या तो पराया
धन है (अर्थो हि कन्या परकीय एव)। इसी पुरुष प्रधान व्यवस्था ने एक तीसरी पहेली
स्त्री के चरित्र को लक्ष्य करके रची है। इसे पुरुष समाज ने ‘तिरिया’ चरित्तर’ नाम
दिया है। यानी जितने दोष हैं वे औरतों में होते हैं। झूठी, मायावी, साहसी, डरपोक
(अबला), मायावी, इर्ष्यालु, चंचल, लोभी, गुणहीन, पवित्र, मुर्खता आदि सारे दोष औरत में स्वभावतः होते हैं। (असत्यं साहसं माया
मात्सर्यं चाति लुब्धता। निर्गुणत्वं शौचत्वं स्त्री दोषाः स्वभावजा- मनुस्मृति)
महभारतकार तक ने कहा कि ‘त्रिया चरित्रं’ पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतः मनुष्यः’ यानि औरत के चरित्र का रहस्य कोई
नहीं जान सकता। पालि की थेरी गाथाएँ इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की
पहेलियों का पर्दाफाश करती हैं।
हमारा मध्यकालीन भक्तिसाहित्य सामान्यतः पुरुषप्रधान संस्कारों से ग्रस्त है।
लेकिन उसके पहले मैं अमीर खुसरो की एक पहेली की चर्चा करना चाहता हूँ। उन्होंने एक
मौजूं पहेली लिखी है कि ‘हँसी की हँसी ठिठोली की ठिठोली, मरद की
गाँठ औरत ने खोली।’ इस पहेली का उत्तर तो ताला और चाबी है, लेकिन
यह पुरुष प्रधान समाज के भीतरी यथार्थ को भी प्रकट करती है। परिवार के भीतर ‘बिन
घरनी घर भूत का डेरा’ तो
होता है और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जो गुत्थी पुरुष से नहीं सुलझती है, उसे
उसकी स्त्री सुलझा देती है। इसलिए स्त्री की लोक छवि पुरुषप्रधान समाज में सिर्फ
मुर्ख, मतिमंद स्त्री की नही है, बल्कि कभी-कभी तो समझदारी में पुरुष से बढ़ चढ़ कर है।
हमारी मध्ययुगीन भक्ति कविता पुरुष प्रधान संस्कारों से काफी प्रभावित है।
कितनी रोचक पहेली यह है कि जो कबीर नारी का समान्यीकरण करते हुए उसे ‘काली
नागिन’, ‘जोरू
जूठन जगत का भले बुरे का बीज’, ‘नरक का
कुंड’, ‘सुंदरि
से सूली भली’ कहते
हैं वही कबीर औरत बनकर राम से मिलना चाहते हैं। कभी वे उसकी कल्पना ‘माँ’ (हरिजननी मां बलक तेरा) के रूप में करते हैं। वेश्या को भी बहुत भलाबुरा कहते
हैं, जबकि वेश्यावृत्ति भी पुरुषप्रधान व्यवस्था की विकृतियों की देन है। सूर की
स्त्री संबंधी उन्मुक्त दृष्टि की बहुत दाद दी जाती है। सूर की गोपियाँ उन्मुक्त
होते हुए भी पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था के संस्कारों से पूरी तरह मुक्त नहीं है।
स्त्री-पुरुष के सामाजिक भेद का उन्हें अच्छी तरह ज्ञान है। जब मथुरा जाकर कृष्ण
ने कुब्जा का आतिथ्य स्वीकार किया तो गोपियों की टिप्पणी कृष्ण-कुब्जा संबंध को
लेकर पितृसत्तात्मक है। कृष्ण तो पुरुष हैं वे कुछ भी कर सकते हैं, बेशर्म
हो सकते है; लेकिन कुब्जा तो औरत है उसे आँखों की शर्म करनी
चाहिए। (देखो कुबरी के काज।.....पुरुष कौ री सबै सोहै, कूबरी
किहि काज। सूर प्रभु को कहा कहिए, बेचि खाई लाज।)
जायसी के ‘पद्ममावत’ का
आधार लोक प्रचलित गाथा है। उसमें रत्नसेन, बादल, दासियां
तक पुरुष प्रधान समाज की पहेलियों से ग्रस्त हैं। एक ओर नागमती अपने पति रत्नसेन
के असली चरित्र-पितृसत्तात्मक संस्कारग्रस्त व्यक्तित्व को जान गई है कि ‘का रानी
का चेरी होई। जा पर मया करहुं भल सोई।’ दूसरी ओर रत्नसेन है पहली पत्नी (नागमती)
को मतिहीन कहता है। (तुम तिरया मतिहीन तुम्हारी, मुरुष सो जो मतै घर नारी) और
दूसरी तरफ दूसरी स्त्री (पद्मावती) को पाने के लिए सिर पर पाँव रखकर भागता है।
रत्नसेन की धाय (दासी) तक पुरुषप्रधान संस्कारों की बोली बोलती है कि ‘जो
तिरिया के काज न जाना। परै धोख, पाछे पछताना। जो ना कंत के आपसु माही। कौन भरोस नारि कै वाही।’ यानि दासी की
नजर में यदि नागमती हर बात मे रत्नसेन की हाँ में हाँ मिलाती तो वह तभी विश्वास का
पात्र होती। मध्यकालीन भक्ति कविता में पुरुष के अनुकूलन में ही स्त्री विश्वास
योग्य समझी जाती है। पुरुष की अनुकूलता का मतलब था पुरुषप्रधान संस्कारों की स्वीकृति
या अनुशासन जन्य अनुकूलता। मीरा को इसी कारण इतना विरोध सहना पड़ा था।
तुलसीदास ने ‘रामचरित
मानस’ में
औरत की अनेक स्थितियों का चित्रण किया है। पुरुषप्रधान व्यवस्था में नारी की
पराधीनता का बोध वे पार्वती की माँ को करा देते हैं। लेकिन तुलसी जिस रामकथा का
आलेखन करते हैं वह उनके पक्ष के पात्र हों या विपक्ष के, सब
पुरुषप्रधान संस्कारों से अनुशासित हैं। ‘तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा’ कहनेवाले
उनके आराध्य राम में भी विशेष हालत में यह संस्कार प्रकट हो ही जाता है। लंकाकांड
में लक्ष्मण के शक्ति लगने के बाद वे जो कहते है- ‘जइहौ अवध कवन मुख लाई। नारि
हेतु प्रिय बंधु गवाँईं’ के साथ यह भी कहते है कि ‘नारि
हानि विसेष छति नाहीं’। राम बिचलन की मनः स्थिति में पुरुषप्रधान संस्कार में बोलते है कि भाई
(पुरुष) के मुकाबले पत्नी की हैसियत कम है। दशरथ और कैकेयी के बीच यह पहेली और
जटिल है। सामान्यतः पुरुष और साधक, स्त्री को मायाबी और प्रपंची
कहते रहे हैं। कैकेयी तो राजा दशरथ से अपने मन के मुताबिक दो वरदान पाने के लिए इस
पहेली को ‘उलटबाँसी’ के तौर
पर इस्तेमाल करती है कि ‘इहां न
लागहिं राउरि माया।’, ‘मोहिं
न बहुत प्रपंच सोहाही’। और दूसरी ओर दशरथ अपने मनमाफिक कैकेयी का आचरण न पाकर जो टिप्पणी करते हैं
वह उनके पितृसत्तात्मक संस्कारों वाली पहेली है। कि ‘कवने अवसर का भयऊ, गयऊ
नारि विश्वास।’ इस पर बाबा की टिप्पणी दशरथ के पक्ष में है, ‘तिरिया
चरित्तर’ केन्द्रित है कि ‘नारि
चरित जलनिधि अवगाहू’ यानि कैकेयी के समुद्र जैसे
नारी चरित्र की थाह दशरथ नही पा सकते हैं। रावण तो मंदोदरी के बहाने औरतों को अवगुण की खान कहता
है। पुरुषप्रधान नकारात्मक संस्कार उसके सिर पर चढ़ कर बोलते हैं। नारी ने उसे
पैदा किया है एक नारी को हर लाया है और उसे अपनी पटरानी बनाना चाहता है पर उसकी आँखों पर पुरुषप्रधान संस्कारों की पहेली का ऐसा पर्दा
पड़ गया है कि वह अपनी पत्नी के सामने कहता है कि ‘नारि स्वभाव सत्य कवि कहहीं, अवगुण
आठ सदा उर रहहीं। साहस अनृत चपलता माया, भय, अविवेक
असौच अदाया।’
स्त्री-पुरुष संबंध की पितृसत्तात्मक पहेलियों के संस्कारों के साथ हम आधुनिक
काल में प्रवेश करते हैं। आधुनिक काल में प्रचलित हिन्दी की बोलियों में ज्यादातर
गालियाँ स्त्री और दलित केन्द्रित हैं और इनका प्रधान कारण है वर्णसत्तात्मक और
पितृसत्तात्मक समाज में औरत और दलितों की दोयम स्थिति। स्त्रियों के लिए पुरुष
समाज की ओर से बहुत-सी कहावतें पहेलियों के रूप में प्रचलित है तो कुछ स्त्रियों
की ओर से पुरुषों के बारे में प्रचलित हैं। स्त्री की बुद्धि तलवे में होती है, स्त्री
पैर की जूती है, बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम, पुरुष प्रचारित कहावतें हैं तो स्त्री प्रचारित कहावतों में ‘मेहरी के आगे
धनुष उठावइ देखु मनसुइया मोर’, ‘मुँह में दाँत नाही गांड़ी में खंभा’, खुसी भयेन त पाटी देखाइ ‘दीहिन’ आदि है। इसके अलावा कुछ तो स्त्री-पुरुष दोनो
में स्वीकृत होती है, जैसे –हर सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है और इसी के साथ हर सफल
स्त्री के पीछे एक पुरुष का हाथ होता है। इस प्रकार की जो पहेलियाँ कहावतों
के रूप में पुरुष-स्त्री प्रचारित है वे एकांगी हैं, क्यों कि समाज की वास्तविकता
अधिक जटिल और व्यापक है। ऐसा हो सकता है जो व्यक्ति अपनी औरत को अपने से हीन, तुच्छ
मानता है वही मंदिर मे जाकर देवी भगवती, लक्ष्मी की पूजा करता हो और यदि
कोई दूसरा उसकी पत्नी, बहन या बेटी को बुरी नजर से देख रहा हो तो वह उसे मरने-मारने पर उतारू भी हो
जाता है। इधर जब से हिन्दी मे स्त्री-विमर्श की हवा जोरों पर है तो पुरुषों की ओर
से यह पहेली प्रचारित की गई है कि ‘‘स्त्रियों के शत्रु पुरुष नहीं, स्त्रियाँ-
सास, ननद, भाभी होती हैं’ और अनेक महिला चिन्तकों की ओर से यह प्रचारित किया गया है कि
‘महिला का दर्द सिर्फ महिला ही बेहतर जान सकती है।’ इस पहेली को अगर उलट दें तो हम
पितृसत्तात्मक संस्कारों की मध्यकालीन जमीन पर पहुँच जाते है कि पुरुष को पुरुष
बेहतर समझ सकता है। इस तर्क की परणति क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में इस बिंदु पर
होती है कि महिला महिला के लिए विश्वासनीय है, पुरुष के लिए नहीं और पुरुष
पुरुष के लिए अधिक विश्वसनीय हैं, महिला के लिए नहीं। स्त्री के हर प्रश्न का सामान्यीकरण एकदम गलत है। स्त्री
के प्रति लिंगभेद का प्रश्न पूरी स्त्री जाति का प्रश्न है। स्त्री के कुछ प्रश्न
पूरी स्त्री जाति के नहीं, समुदाय विशेष की स्त्री के हैं, जैसे-दहेज प्रथा, कन्या
विक्रय प्रथा, डायन प्रथा आदि। स्त्री के कुछ सवाल व्यक्तिगत हैं और अमानवीय भी। हर स्त्री
बाँझ नहीं होती, हर स्त्री का बलात्कार असंभव है। यह प्रश्न स्त्री विशेष का है और इस अमानवीय
कृत्य का प्रतिरोध भी जायज है। इस प्रकार स्त्री विमर्शकारों द्वारा इस पहेली को
हवा देना कि स्त्री ही स्त्री को ठीक से समझ सकती है एक सामान्यी कृत पहेली है।
संतान वाली औरत बाँझ का दर्द कैसे जानेगी? निमर्ला
पुतुल संथाली की प्रसिद्ध कवयित्री हैं । वे पुरुष के फैलाए जाल (पहेली) से तो
मुक्त होना चाहती है, लेकिन इसके साथ स्त्री जाति की सामान्यीकृत पहेली से भी मुक्त होना चाहती है।
कारण कि निर्मला पुतुल स्त्री जाति की हैं लेकिन एक व्यक्तिविशेष के तौर पर उनकी
अपनी पहचान है और जाति की पहेली में वे इस खोना नहीं चाहती हैं। वे लिखती हैं कि
‘‘यह कैसी विडम्बना है कि हम सहज अभ्यस्त हैं / एक मानक पुरुष द्ष्टि / से देखने
स्वयं की दुनिया / मैं स्वयं को स्वयं देखते मुक्त होना चाहती हूँ। अपनी जाति
से....।’’
स्त्री-पुरुष संबंध की जो पहेलियाँ पुरुषप्रधान समाज की देन है और
जो नई पहेलियाँ स्त्रीवाद और नारी विमर्श के नाम पर रची जा रही है दोनों
को ठीक से पढ़ने समझने के बाद हम स्त्री-पुरुष के बीच अधिक मानवीय, संतुलित
समझदारी साझेदारी, साथेदारी वाले सम्बधों को विकसित कर सकते हैं। घर-परिवार, विवाह
की सत्ता शायद आगे न भी रहे, लेकिन स्त्री-पुरुष रहेंगे और उनके बीच अधिक स्वस्थ और बेहतर मानवीय संबंध
जरूर बने रहेंगे।
डॉ. दयाशंकर त्रिपाठी
प्रो. एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ विद्यानगर (गुजरात)
महिला दिवस पर केन्द्रित सुंदर मनमोहक अंक। महिला दिवस की हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंHappy women's day
जवाब देंहटाएंVery good effort
Keep it up 👍👍