सोमवार, 8 मार्च 2021

आलेख

 


स्त्री-विमर्श

वर्तमान समय में ‘विमर्श’ शब्द का प्रयोग बहुतायत से सुनाई पड़ रहा है । ‘विमर्श’ से तात्पर्य है किसी भी तथ्य अथवा विषय की गुण-दोष आदि पर आधारित विवेचना, तर्क-वितर्क पूर्वक विचार-विनिमय । किसी भी सभ्य समाज के लिए आवश्यक है कि वह अपने परिवेश के प्रति सजग रहते हुए आत्मालोचन करे । अपनी परंपराओं, जीवन-मूल्यों का समय-समय पर अवलोकन करते हुए निश्चित करे कि क्या वह अद्यतन अपने सही स्वरूप में हैं, कहीं उनमें किन्हीं विकारों ने तो जन्म नहीं ले लिया । यदि लिया है तो किस प्रकार उनका परिमार्जन एवं संशोधन किया जा सकता है । आश्वस्ति की बात है कि तमाम विरोधाभासों के बावजूद हमारे समाज में इन सभी तथ्यों पर पर्याप्त विचार किया जा रहा है । जिसका परिणाम दलित-विमर्श, कृषक-विमर्श, स्त्री-विमर्श, किन्नर- विमर्श आदि के रूप में प्राप्त होता है । समाज अंगी अर्थात शरीर है तो ये सभी उसके अंग हैं । एक के भी पीड़ित, शोषित अथवा शिथिल होने पर उसका प्रभाव सम्पूर्ण समाज पर पड़ता ही है । यही कारण है कि दलित-उत्थान, कृषि एवं कृषक के संरक्षण, संवर्धन पर पर्याप्त विचार-विमर्श दृष्टिगोचर होता है । किन्नरों के समाज में सम्मान जनक स्थान एवं समायोजन पर भी कार्य किया जा रहा है ।

इन सबमें ‘स्त्री-विमर्श’ का दायरा विस्तृत है । एक ओर जहाँ दलित वर्ग, कृषक वर्ग की स्त्रियाँ इसमें शामिल हैं, वहीं मध्यमवर्गीय, नौकरी पेशा, नितांत निम्नवर्गीय और उच्चवर्गीय महिलाओं की दशा और दिशा पर भी इसमें विचार किया जाता है । अस्तु, स्त्री-विमर्श व्यष्टि से समष्टि की यात्रा तय करते हुए वैश्विक रूप धारण करता है । यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्त्रियों से सम्बद्ध समस्याओं और उनके निराकरण पर कार्य चल रहा है ।

‘स्त्री-विमर्श’ में किन-किन तथ्यों का तात्विक विवेचन किया जाता है, कौन से प्रश्न हैं जिन्हें वरीयता पूर्वक सुलझाने का प्रयास किया जाता है इस पर विचार करें तो लिंगाधारित भेद-भाव की समाप्ति के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक रूप से समान अधिकारों की माँग करती स्त्री इसका केंद्र-बिन्दु है । समान शिक्षा एवं रोजगार, घरेलू हिंसा तथा यौनिक शोषण से मुक्ति के स्वर इसमें मुखरित होते हैं । कुछ नया करने की उत्कंठा और अपने स्वयं के अस्तित्व का समाज में प्रतिष्ठापन करती स्त्री ‘स्त्री-विमर्श’ में दिखाई देती है । कुछ ‘परिवार’ तथा ‘विवाह’ जैसी संस्थाओं का निषेध कर उनसे मुक्ति के लिए छटपटाते स्वर भी सुनाई पड़ते हैं ।

‘स्त्री-विमर्श’ पश्चिम के feminism का हिन्दी अनुवाद कहा जाता है । यद्यपि भारतीय परिप्रेक्ष्य में पश्चिमी आंदोलन अथवा स्त्री-विमर्श का स्वर नितांत भिन्न है, फिर भी कुछ परिस्थितियाँ तो वर्तमान समय में दोनों ओर समान दिखाई देती हैं । पश्चिमी विद्वान इस्टेल फ्रडमेन का वक्तव्य देखिए –

feminism is a belief that although women and men are inherently of equal worth, most ties privilege men as a group. As a result, social movements are necessary to achieve political equality between women and men, with the understanding that gender always intersects with other social hierarchies.” अर्थात “यद्यपि स्त्री एवं पुरुष का समान महत्व है, फिर भी अधिकांश समाज पुरुषों को वरीयता देते हैं । अतः स्त्री-पुरुष की समानता के लिए सामाजिक आंदोलन आवश्यक है । क्योंकि लिंगाधारित भेदभाव अन्य सामाजिक परंपराओं में भी प्रवेश करता है ।”

इसका अर्थ हुआ कि लिंगाधारित भेदभाव दोनों ओर समान रूप से हुआ और उसके विरुद्ध सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता अनुभव की गई । 1949 ई. में सीमोन द बेउवौर ने ‘the second sex’ में नारी को वस्तु रूप में प्रस्तुत करने पर तीखी टिप्पणी की । ‘Modern women’ डोरोथी पार्कर स्त्री को स्त्री रूप में देखे जाने का आग्रह करती हैं । 1960 ई.  में केटमिलेट  ने कहा –“पुरुष स्त्रियों की समस्या पर सोचना ही नहीं चाहता । स्त्रियों को अपनी खामोशी तोड़नी होगी । युगों से हो रहे अत्याचारों के विषय मे दुनिया को बताना होगा ।” सत्तर के दशक में बेट्टी फ्रिडन के द्वारा –“घरेलू औरत को परजीवी तथा अर्धमानव कि कतार में स्थित कहे जाने का उल्लेख मिलता है । कहना न होगा कि इन अर्थों में स्त्री-विमर्श में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की आवाज एक जैसी ही है ।

पश्चिम में मार्क्स ने पूंजीवादी और साम्यवादी संघर्षों में नारी का स्वागत किया । जान स्टुअर्ट मिल ने शिक्षा, रोजगार और मताधिकार सहित सभी विषयों में स्त्री-पुरुष की समानता का समर्थन किया । जहाँ ‘लिबरल फेमिनिज़्म’, ‘रेडिकल फेमिनिज़्म’, ‘मनोविश्लेषणात्मक स्त्रीवाद’ तथा ‘पोस्टमाडर्न फेमिनिज़्म’ के रूप में नारी विषयक अनेक आंदोलन हुए ।

दूसरी ओर भारतीय मूल्यों कि दृष्टि से विचारें तो दृश्य कुछ अलग ही दिखाई पड़ता   है । पूर्व में भारतीय स्त्री की दशा ऐसी न थी । ‘ज्योतिष्कृणोति सूनरी’ जैसी वैदिक उक्तियों के माध्यम से प्राचीन काल की भारतीय नारी के उदात्त व्यक्तित्त्व के दर्शन होते हैं । गृहिणी अपनी कार्य कुशलता से सारे घर को वैसे ही आनन्द के प्रकाश से भर देती है जैसे उषा दिवस को । सुन्दर, संस्कारित परिवार श्रेष्ठ समाज का निर्माण करते हैं और सजग, सुशिक्षित समाज समूचे राष्ट्र को सुखी, समृद्ध बनाता है । इस प्रकार स्त्री किसी भी राष्ट्र के विकास की धुरी है । भारतीय समाज ने इस तथ्य को समझा, स्वीकार किया । यही कारण है कि भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष को गृहस्थी रूपी रथ के दो पहिए माना गया । एक के भी पुष्ट हुए बिना इस रथ का सुचारू रूप से सञ्चालन संभव ही नहीं इस अवधारणा के साथ स्त्री को अपने सर्वांगीण विकास के पूर्ण अवसर प्रदान किए गए ।

पुत्री, पत्नी, भगिनी, माता के रूप में वह अत्यंत सम्मान की पात्र रही । ‘मातृ देवो भव’ कहकर दीक्षांत समारोह में माता को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया । प्राचीन काल से ही भारत में स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा का विशेष प्रबंध था । अथर्व वेद के अनुसार बालिकाओं को गुरुकुल में रहकर विधिवत ब्रह्मचर्य का पालन और वेदाध्ययन करना होता था । साथ ही उन्हें ललित कलाओं एवं यथारुचि अन्य विषयों की शिक्षा भी प्रदान की जाती थी । ‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्’-अर्थात ब्रह्मचर्य आश्रम के उपरान्त कन्या युवा पति को प्राप्त करती थी । उन्हें अपने पति का स्वयं वरण करने का अधिकार भी था । विवाह संस्कार में पति के साथ पत्नी की ओर से भी वचन लिए और दिए जाने की परम्परा आज भी प्रचलित है । नियोग तथा विधवा-विवाह के प्रचलन का भी उल्लेख मिलता है । उदात्त-चरित्र, नैतिक आदर्शों से परिपूर्ण, विदुषी नारियाँ भारतीय संस्कृति का गौरव रही हैं । विश्वावारात्रेयी, घोषा, यमी, वैवस्वती आदि नारियाँ वैदिक मन्त्रों की दृष्टा ऋषि हुईं । आम्भृण ऋषि की पुत्री वाक् ‘वाक्सूक्त’ की दृष्टा ऋषि हैं । गार्गी, मैत्रेयी, अपाला जैसी नारियों का नाम तो स्वर्णाक्षरों में अंकित है ही, मंडन मिश्र की पत्नी भारती का नाम भी सर्व विदित है ।

भारतीय नारी पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करने के साथ आवश्यता पड़ने पर कैकेयी सदृश पति के साथ युद्ध भूमि में भी उतर कर अपनी तेजस्विता से अभिभूत करती है । आदर्श माता, भगिनी, सहचरी, पत्नी के रूप में स्त्री के प्रति समाज द्वारा प्रदत्त सम्मान की पराकाष्ठा ‘यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते’ के रूप में हुई । स्त्रियों का सम्मान निरंतर प्रगति का तथा अवमानना कुल तथा समाज के लिए घातक कहे गए । परस्पर संतुष्ट पति-पत्नी सदैव प्रसन्नता तथा कल्याण का कारण कहे गए हैं, अन्यथा विनाश अवश्यम्भावी     है ।

शनैः-शनैः सामाजिक पतन के साथ ही ‘स्त्रीशूद्रोनाधीयताम्’ की प्रवृत्ति प्रारंभ हुई । पराधीनता और संस्कृतियों के घाल-मेल ने पूज्या को भोग्या के स्थान पर ला पटका । पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, बाल-विवाह के साथ बाल विधवाओं की दयनीय दशा पतनोन्मुख समाज की निकृष्टतम सोच का परिणाम हो गई । विद्यालयों के द्वार बालिकाओं के लिए बंद हो गए । अशिक्षा के दंश ने तत्कालीन स्त्री को अवश कर दिया, जिसके विष से उबरने में अभी और न जाने कितना समय लगे ।

चकित हूँ कि नितांत विपरीत परिस्थितयों में भी भारतीय नारी ने अपने आदर्श रचे । पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण इन देवियों ने भारतीयता की सुगंध को बनाए रखा । कृष्ण-भक्ति से भावित मीरा का चरित्र अपनी पावनता और समर्पण से अभिभूत करता है । किन्तु मीरा, रानी दुर्गावती से भी पूर्व सन 1260 ई. के प्रारम्भिक चरण में काकतीय नरेश गणपति की युवा पुत्री रुद्रमाम्बा ने अपनी सूझ-बूझ से काकतीय साम्राज्य का सुचारू रूप से संचालन किया । केलदि राज्य की रानी चेन्नम्मा ने वीर मराठा छत्रपति शिवाजी के पौत्र राजाराम को उनकी विपत्ति के समय आश्रय देकर औरंगज़ेब से वैर लेना स्वीकार किया तो कित्तूर की महारानी चेन्नम्मा ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया । 30 दिसंबर,1824 को उनका अंग्रेजों से निर्णायक युद्ध हुआ जिसमे वह वीरता से लड़ीं, किन्तु भीतरघात से पराजय का मुख देखना पड़ा । अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले सबसे पहले शासकों में उनका नाम आदर से लिया जाता है । महारानी अहल्याबाई होलकर का नाम तो भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है ही । 19 नवम्बर,1835 में बनारस में मोरोपंत ताम्बे और भागीरथी बाई के घर जन्मी मनु ने झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के रूप में अनेक कुरीतियों के साथ-साथ अंग्रेजों के भी दाँत खट्टे किए । उनके शत्रु जनरल ह्युरोज को भी कहना पड़ा – “she had iron fingers in velvet gloves –  Hugh Rose”

वहीं 3 जून,1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगाँव में जन्मी सावित्री बाई फुले ने एक समाज सेविका, शिक्षिका के रूप में सम्मान प्राप्त किया । पंजाब की बीबी हरनाम कौर ने तमाम प्रतिकूल परिस्थियों से संघर्ष करते हुए बालिकाओं की शिक्षा के लिए उत्कृष्ट कार्य किया । 1883 ई. में ही कादम्बिनी गांगुली और चंद्रमुखी बसु प्रथम महिला स्नातक बनीं । लीला ताई पाटिल, मैडम भीकाजी कामा, प्रीतिलता, दुर्गा देवी, जगरानी देवी, विद्यावती देवी, हजरत महल, और जीनत महल के नामों का उल्लेख किए बिना भी यह चर्चा अधूरी रहेगी ।

1947 ई. में मुस्लिम महिलाओं ने आजादी से कुछ समय पूर्व एकत्रित होकर मताधिकार की माँग की और आजाद भारत के संविधान में स्त्रियों को समान अधिकार दिए गए । राजनीतिक विरासत को संभालते हुए विजयलक्ष्मी पंडित, सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी जैसी महिलाओं ने अपनी विद्वता और नेतृत्व कुशलता का परिचय दिया । विजयलक्ष्मी पंडित संयुक्त प्रांत की प्रथम महिला मंत्री, सोवियत रूस में राजदूत तथा संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष बनीं । सरोजिनी नायडू सन 1947-49 तक उ.प्र. की राज्यपाल रहीं तथा सुचेता कृपलानी सन 1963-67 तक उ.प्र. की मुख्यमंत्री रहीं । 1960 ई. में शारदा आंदोलन, 1972 ई.  में स्त्री ट्रेड आंदोलन, 1973 ई. में मृणाल गोरे और अहल्या रांगणेकर के मूल्य वृद्धि के खिलाफ आंदोलन ने आकार लिया । आंध्रप्रदेश के ‘महिला संघं’ गाँव-गाँव में पत्नी-प्रताड़ना तथा भूपति-बलात्कार के खिलाफ आवाज़ें उठाने लगे । 1983 ई. में क्रिमिनल ला (सेकंड अमेंडमेंट) एक्ट लागू हुआ । एविडन्स के सेक्शन 113 ए में संशोधन किया गया । 174 में संशोधन कर विवाह के सात वर्ष में मरने वाली स्त्रियों की शव-परीक्षा अनिवार्य हुई ।1980 ई. के बाद सहेली’ ‘सखी’ आदि संगठन बने । चिपको आंदोलन मे स्त्रियों की बड़ी भूमिका रही । सती प्रथा के अंत, बाल विवाह निषेध तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहन जैसे कार्यों ने स्त्री-जीवन को सरल, सुखमय बनाने की ओर सहयोग किया । भारतीय नारी ने संपत्ति में अधिकार पाया । शाहबानों प्रकरण से लेकर तीन तलाक निषेध तक की यात्रा तय की ।

स्व. इंदिरा गांधी, मीरा कुमार, प्रतिभा पाटिल, शीला दीक्षित, सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज, स्मृति इरानी, मेनका गांधी सहित अनेक सशक्त महिलाओं ने अपने अथक परिश्रम एवं सूझ-बूझ से वैश्विक पटल पर अपनी अलग छवि का निर्माण किया ।

भारतीय आरक्षी सेवा में किरण बेदी ने महिलाओं के लिए संभावनाओं के द्वार खोले तो पद्मा बंदोपाध्याय, हरिता कौर देओल, कैप्टन सौदामिनी देशमुख, दुर्गा बनर्जी ने भारतीय सेनाओं में अपनी क्षमताओं के प्रदर्शन का मार्ग प्रशस्त कर दिया । आज प्रायः सभी सशस्त्र सेनाओं की ओर भारतीय महिलाओं के कदम तेजी से बढ़ रहे हैं । विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं का प्रदर्शन एवं प्रतिभागिता चकित करती है । मेहर मूसा अन्टार्कटिका पहुँचने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं तो कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स के नाम से भला कौन परिचित नहीं है । आज भारतीय ही नहीं विदेशी अनुसंधान केन्द्रों में भी कार्य करने वाली भारतीय महिलाओं की अच्छी संख्या है ।

प्रतिबंधों की दहलीज से बाहर निकले भारतीय नारी के कदमों ने धरा-गगन नापने में ज़रा भी कोताही नहीं की । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने परचम गाड़े न्यायमूर्ती अन्ना चांडी, चीफ इंजीनियर पी. के. गेसिया, संघ लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष श्रीमती रोज मिलियन बेथ्यू आने वाली पीढ़ियों के लिए उदाहरण बनीं । सुरेखा चौधरी ने रेल चालक का दायित्व बखूबी निभाया । आज विमान से ऑटो तक का संचालन लड़कियाँ सफलता पूर्वक कर रही हैं ।

खेलों के क्षेत्र में भारतीय महिलाओं ने अभी हाल में हुए ओलम्पिक में पदक जीतकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की है । पी.टी. उषा, हरमन प्रीत कौर, बछेंद्री पाल, संतोष यादव, मैरी कॉम,गीता देवी, आशा अग्रवाल, साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा, दीपा करमाकर, कर्णम मल्लेश्वरी, साक्षी, कमलजीत संधु, पी. वी. सिंधु, दुति चंद, मिताली राज, स्मृति मंधाना, तेजस्विनी सावंत, दीपा मलिक तथा और भी अनेक नाम ऐसे हैं जिन्होंने विश्व स्तर पर भारत को प्रतिष्ठा दिलाई ।

उद्यमिता के क्षेत्र में भी आज भारतीय नारी किसी से कम नहीं । इंदिरा नुई, सुनैना गिल, निसाबा गोदरेज, नंदिनी पीरामल, प्रिया पॉल, प्रीता रेड्डी, सुधा मूर्ति, चित्रा कृष्णन, रेणुका रामनाथ, शोभना भरतिया तथा शिखा शर्मा आदि महिलाएँ भारतीय उद्योग जगत की नामचीन हस्तियाँ हैं, वैश्विक पटल पर अपनी पहचान बनाए हैं ।

इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम में घर की देहरी से बाहर निकली महिलाओं ने अन्य महिलाओं को भी साहस दिया । 1947 ई. के बाद स्कूलों, कॉलेजों, बाजारों, दफ़तरों में नारी के कदम पड़े । घर-बाहर दोनों ओर पुरुष वर्चस्व से संघर्ष करती स्त्री ने कदम पीछे नहीं     हटाए । इन सभी घटनाओं, परिस्थितियों का असर हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा । मीरा, महादेवी, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, सुभद्रा कुमारी चौहान से जैनेन्द्र, कमलेश्वर, शिवानी, मन्नू भंडारी, कृष्ण सोबती, राजेन्द्र यादव, उषा प्रियंवदा, ममता कालिया, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, सूर्यबाला, कहाँ तक गिनाऊँ अनेक साहित्यकारों ने नारी संघर्ष को अपने साहित्य मे जीवंत किया । पंत तो ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी’ कह गए तो प्रसाद ने ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ कहा । मैत्रयी पुष्पा की पुस्तक ‘फाइटर की डायरी’ विभिन्न परिस्थितियों एवं परिवेश मे पली-बढ़ी लड़कियों के संघर्ष और सफलता को अपने शब्दों में साकार करती है । समस्याओं का अकल्पनीय संसार और उनमें रास्ता निकालती इन लड़कियों की व्यथा-कथा पढ़ना सार्थक ‘स्त्री-विमर्श’ का उदाहरण है ।

कहना न होगा कि कदम दर कदम संघर्षों पर विजय प्राप्त करती नारी उत्कर्ष की पराकाष्ठा को भी प्राप्त करेगी । दिनों-दिन बढ़ती बलात्कार, दुर्व्यवहार की घटनाओं का समाधान उसे स्वयं निकालना होगा । पारिवारिक स्तर पर माँ, बहन, पत्नी के रूप में किसी भी अनाचार का सशक्त, एकजुट विरोध और सामाजिक स्तर पर वर्ग, जातिगत राजनीति से परे संगठित स्त्री शक्ति किसी भी चुनौती का सामना करने में पूर्णतः समर्थ है । दुआ करती हूँ कि ऐसा संभव हो सके ।


डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

एच - 604, प्रमुख हिल्स,

छरवाडा रोड,

वापी – 396191

जिला- वलसाड (गुजरात)

सन्दर्भ ग्रन्थ-

1-भारतीय संस्कृति के तत्व

2- वैदिक साहित्य का इतिहास

3-Sacred offerings into the Flames Of Freedom

4-वेद चयनम

5- प्रणम्या मातृ देवताः (भाग-३)

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अप्रैल 2024, अंक 46

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