सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

निबंध

 

(निबंध से चयनित अंश)

(1) आत्मदान का सन्देशवाहक : वसन्त

संसार भर में बसंत का मौसम उल्लास का काल माना जाता है। हमारे इस प्राचीन देश में तो वसंत ऋतु के साथ अनेकानेक स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं ! एक तो यह काल यों ही जड़-चेतन सबके अन्तरतर में आनन्द का शतदल प्रस्फुटित कर देता है, उस पर मनुष्य के मदिर चित्त से निकली हुई कल्पनाओं और मानसपटल पर अंकित स्मृतियों के कारण यह और भी उन्मादक बन जाता है। वसन्त-पंचमी के दिन प्रथम वसन्ताबतार का उत्सव मनाया जाता है। पुराने साहित्य में इस दिन का बड़ा ही मोहक चित्र मिलता है। उन दिनों ग्रामतरुणों में आनन्द उद्वेलित हो उठता और ग्रामतरुणियाँ नवीन आम्र-मंजरी का कर्णाभरण धारण करके गाँव को जगमग कर देती थी। प्राकृत कवि ने ऐसी ही किसी कर्ण-कृत-आम्र-मंजरी बालिका की शोभा से उस्लासित होकर गाया था – ‘कण्णकअ चूअमंजरी, पुत्ति तुए मंडिओ गाओ !’ फिर फागुन के महीने में यह उल्लास और भी उद्दाम, और भी मोहक रूप धारण करता था।

उत्सवों का काल

सारी बसन्त-ऋतु मादक उत्सवों का काल है । कभी अशोक-दोहद के रूप में, कभी मदन देवता की पूजा के रूप में, कभी कामदेवायन-यात्रा के रूप में, कभी आम्रतरु और माधवीलता के विवाह के रूप में, कभी होली के हुड़दंग के रूप में, कभी होलाका (होला), अभ्यूष-खादनिका (भुने हुए कच्चे गेहूँ की पिकनिक), कभी नवाम्र खादनिका, (नये आम के टिकोरों की पिकनिक) आदि के रूप में समूचा वसन्तकाल नाच, गान और काव्यालाप से मुखर हो उठता था। पुराने साहित्य में इन उत्सवों का भूरिश: उल्लेख है । आज भी ये उत्सव किसी-न-किसी रूप में जी रहे हैं। आज सबसे अधिक आकर्षक उत्सव होली का है । मध्यकाल में इसने सचमुच सीमा अतिक्रम करनेवाला रूप धारण किया था । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तक ने उल्लासातिरेक में ‘एहि पाखें पतिव्रत ताखें धरों’ की सलाह दी थी। इसकी भूमिका महाराजा श्रीहर्षदेव की ‘रत्नावली' में ही दिखायी देने लगी थी । जो हो, मध्यकाल में होलिकोत्सव का रंग ज्यादा गाढ़ा हो गया था और हम उस विरासत को अभी तक ढोये लिये जा रहे हैं ।

आत्मदान में सार्थकता

आज जब संसार की भयंकर प्रतिहिंसा की बात सोचता हूँ तो मन बैठ जाता है। कहाँ उल्लासमयी मादक वेदना का काल वसन्त और कहाँ ‘युद्ध देहि’ का विकट विराव। परन्तु यह स्थायी भाव नहीं है। जानता हूँ, मूल स्वर प्रेम का है, आत्मदान का है, दलित द्राक्षा के समान अपने-आपको निचोड़कर महा-अज्ञात की तृप्ति साधना का है। सारी धरित्री इसका सबूत है, चराचर में व्याप्त व्याकुल मनोवेदना इसका समर्थन करती है । संचारी भावों से व्याकुल होने की जरूरत नहीं है प्रत्येक कटु-तिक्त रस मधुर रस को अन्तत: सहायता ही पहुँचाता है। वसन्त का काल समस्त चराचर को उन्मथित करके समूची धरती को पुष्पाभरणा बनाके और मनुष्य के चित्त में कोमल वृत्तियों को जागरित करके यही सन्देश ले आता है कि सार्थकता आत्मदान में है। यह सृष्टि का इतना व्यापक आयोजन व्यर्थ नहीं है। अपने-आपको निछावर कर देने के आनन्द से ही यह आरम्भ होता है, उसी में इसकी चरितार्थता है। ये युद्ध और प्रतिहिंसा के भाव क्षणिक हैं – स्थायी है अपने को उत्सर्ग करके महाकाल की लीला में सहायक होने की मानसोल्लासिनी वेदना । वसन्त इसी की याद दिलाने आता है। सनातन से वसन्त उसी आत्मदान की उल्लासदायिनी वेदना का चित्र माना जाता है। धन्य हो ऋतुराज, धन्य हो महाकाल के महान् रंगित, धन्य हो भगवती त्रिपुर-सुन्दरी के स्मितविलास !

हजारी प्रसाद द्विवेदी


(2) वसंत मेरे द्वार

यह मन चिन्ता नहीं करता कि हमें फल का रस मिलेगा या नहीं। वह फूल के रस का चाहक है। बाउल गीतों में मिलता है कि फल का रस लेकर हम क्या करेंगे। हमें मुक्ति नहीं चाहिए। हमें रसिकता चाहिए। रस दूसरों के लिए होता है न। हमें वह पराया अपना चाहिए। अपने का अपना होना क्यों होना है पराए का अपना होना होना है। पराया भी कैसा जो परायों का भी पराया है, परात्पर है। उसका अपना होने के लिए सब निजत्व लुटा देना है, सब गन्ध रूप रस गान लुटा न्यौछावर कर देना है।

बसन्त आता है तो अनचाहे यह सब स्मरण आ जाता है और एक बार और बसन्त को कोसता हूँ। बन्धु तुम क्यों आए अब तो मुझे चैन से रहने दो घरूपन, अब क्यों अपनी तरह बनजारा बनाने के लिए आ जाते हो। अब मधुबन जाकर क्या करूँगा। मधुवन है ही कहाँ? क्यों रेतीले ढूहों में भटकने के लिए उन्मन करते हो? मैं क्या इतना अभिशप्त हूँ कि वसन्त मेरे दरवाजे पर दस्तक दे देता है। मुझे उसकी प्रतीक्षा भी तो नहीं, यह सोचता हूँ तो लगता है यह मेरे उन संस्कारों का अभिशाप है, जो विनाशलीला के बीच अँधियारे सागर में बिना सूर्य के निकले सृष्टि का एक कमल नाल उकसा देता है। उसमें से स्रष्टा निकल पड़ते हैं। वसन्त स्वयं भी संहार में सृष्टि है। निहंगपन में समृद्धि का आगमन है, अनमनेपन में राग का अंकुरण है, जड़ता में ऊष्मा का संचार है। इसी से उसके दो रूप हैं-मधु और माधव। फागुन मधु है, मधु तो क्या, मधु के आस्वाद की लालसा है और माधव लालसाओं का उतार है।


विद्या निवास मिश्र


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