शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

गीतिका


 

सखी बसंत आ गया

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बुराँस की नई कली

किवाड़ खोलकर चली

सखी बसंत आ गया, दिशा-दिगंत छा गया


पहाड़ियों का यह नगर

प्रेम गीत गुनगुना रहा

मुक्त भाव नदी-निर्झर

सुर-संगीत झनझना रहा

पर्वतों के कंठ में सुवास-

सुरा घोल कर चली

सखी बसंत आ गया,

धवल हिमवंत भा गया


ये डाल-डाल झूमेगा

नव पात-पात घूमेगा

मन में आस है भरी

शाख सब होंगी हरी

एक किरण छू गई नन्ही-सी डोल कर चली

सखी बसंत आ गयाअम्बर-पर्यंत छा गया


किवाड़ गाँव के विकल

झूमकर खुलेंगे कल

अब रंग जाएँगे बदल

पहाड़ सब जाएँगे सँवर

कानों में प्रेम के मीठे बोलबोलकर चली

सखी बसंत आ गयाशकुंतला-हिय दुष्यंत छा गया 

डॉ. कविता भट्ट
गढ़वाल (श्रीनगर)

5 टिप्‍पणियां:

  1. यहाँ स्थान देने हेतु हार्दिक आभार पूर्वा जी। इस सुन्दर अंक हेतु हार्दिक बधाई।

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  2. बहुत मधुर गीत। वसन्त में बुराँस की नई कली
    किवाड़ खोलक्ट चली
    पंक्तियों में मानवीकरण की मोहक प्रस्तुति सराहनीय है

    जवाब देंहटाएं
  3. कविता जी आपका वसंत गीत पढकर एक वासंती हो गया | मधुरता और सौम्यता से भरा हुआ हर शब्द आपकी अनमोल कल्पना की प्रशंसा का पात्र है |
    श्याम हिन्दी चेतना

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  4. बहुत मधुर ,कोमल एवं सरस भावों की अभिव्यक्ति करता सुंदर गीत।

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  5. सुन्दर, सरस और मनभावन गीत कविता जी।
    हार्दिक बधाई आपको!

    जवाब देंहटाएं

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