गीतिका छंद
माँ
(पित्रपक्ष विशेष)
डॉ.
अनिल कुमार बाजपेयी काव्यांश
माँ
तुम्हारे श्रीचरण जब,
इस
धरा पर रुक गए ।
आदमी
क्या देवता के,
शीश
सम्मुख झुक गए ।।
वर्ष
भर की क्यों प्रतीक्षा,
नित्य
ही आया करो ।
नींद अब
वैसी कहाँ माँ,
लोरियाँ
गाया करो ।।
जो
गईं माँ तुम यहाँ से,
चैन
सुख सब छूटते ।
सेतु जो
तुमने बनाये,
क्षीण
होकर टूटते ।।
रौनकें
घर में कभी थीं,
आज
फीकी पड़ गईं ।
नेह
की कलियाँ ह्रदय में,
सूख
के ही झड़ गईं ।।
बैठना वो संग
पिता के,
माँ
तुम्हारा द्वार पर ।
मुस्कुराहट
का खजाना,
फिर
लुटाना द्वार पर ।।
सौम्य शीतलता
लिए तुम,
देवियों
का रूप थीं ।
कष्ट
दुःख के ताप में माँ,
शीत
ऋतु की धूप थीं ।।
डॉ.
अनिल कुमार बाजपेयी काव्यांश
जबलपुर
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