मंगलवार, 30 सितंबर 2025

कविता

गीतिका छंद

माँ

(पित्रपक्ष विशेष)

डॉ. अनिल कुमार बाजपेयी काव्यांश

 

माँ तुम्हारे श्रीचरण जब,

इस धरा पर रुक गए ।

आदमी क्या देवता के,

शीश सम्मुख झुक गए ।।

वर्ष भर की क्यों प्रतीक्षा,

नित्य ही आया करो ।

नींद  अब  वैसी कहाँ माँ,

लोरियाँ गाया करो ।।

 

जो गईं माँ तुम यहाँ से,

चैन सुख सब छूटते ।

सेतु  जो  तुमने  बनाये,

क्षीण होकर  टूटते ।।

रौनकें घर में कभी थीं,

आज फीकी पड़ गईं ।

नेह की कलियाँ ह्रदय में,

सूख के ही झड़ गईं ।।

 

बैठना  वो  संग पिता के,

माँ तुम्हारा द्वार पर ।

मुस्कुराहट का खजाना,

फिर लुटाना द्वार पर ।।

सौम्य  शीतलता  लिए तुम,

देवियों का रूप थीं ।

कष्ट दुःख के ताप में माँ,

शीत ऋतु की धूप थीं ।।


 

डॉ. अनिल कुमार बाजपेयी काव्यांश

जबलपुर

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