क्यों
करती हो तुम शृंगार प्रिये
लक्ष्मी
नितिन डबराल
क्यों
करती हो तुम शृंगार प्रिये।
क्यों
करती हो तुम शृंगार प्रिये।।
नयनों
में तेरे काजल है घुला,
अधरों
पर है स्मित रेखाएँ ।
केशों
में उलझी रात ढली,
क्यों
सजाती हो ये अलकाएँ ।।
तुम
एक झलक जो देखो तो,
हो
जाए उर तार-तार प्रिये ।
क्यों
करती हो तुम शृंगार प्रिये ।।
है
सौम्य छवि नैना मृग से,
है
गज गामिनी सी चाल प्रिये।
हैं
होंठ रसीले नारंगी,
करते
हैं बुरा मेरा हाल प्रिये ।।
याचक
ये विकल तेरे द्वार पड़ा,
दे
दो बाँहों का हार प्रिये ।
क्यों
करती हो तुम शृंगार प्रिये।।
है
सादगी ही पहचान तेरी,
आत्मा
का निर्मल गान है तू ।
बिना
शृंगार भी अनुपम है,
ममता
करुणा का मान है तू।।
सच्चा
शृंगार यही, हे रति!
तुममें
न कोई भी विकार प्रिये।
क्यों
करती हो तुम शृंगार प्रिये ।।
तुम
हो अनुपम कृति ईश्वर की,
सौंदर्य
में न इसे बाँधों तुम ।
कैसे
परिभाषित करूँ तुम्हें,
शब्द
सभी हो जाते हैं गुम ।।
तुम
अवर्णनीय,
अलौकिक हो,
तुम
शब्दों के भी पार प्रिये।
क्यों
करती हो तुम शृंगार प्रिये।।
लक्ष्मी
नितिन डबराल
मुजफ्फरनगर
अच्छी रचना
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