बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

संपादकीय

महाकुंभ

डॉ. पूर्वा शर्मा

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।

फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥

संत कबीर की इन पंक्तियों में ‘कुंभ’ का अर्थ प्रयागराज में हो रहे ‘महाकुंभ पर्व’ के कुंभ के अर्थ से थोड़ा भिन्न है। ‘महाकुंभ’ शब्द सुनते ही गंगा में डुबकी लगाते तथा गंगा तट पर योग-साधना व भक्ति में डूबे लाखों-हजारों साधु-संतों एवं योगियों-संन्यासियों तथा सैकड़ों भक्तों श्रद्धालुओं का दृश्य आँखों के समक्ष आ जाता है। और साथ ही ये पंक्तियाँ कानों में गूँजने  लगती है –

v  प्रथम यज्ञ भूखंड धरा पर आर्य का आगाज है,

है पावन संगम की धरती ये प्रयागराज है....

***

v रामचन्द्र शंकर का भजन कर / शिव के भजन कर पार्वती....

अगड़ बम्म बम्म बम बम / बम्म बम्म बम बम / अगड़ बम बम्म बम्म बमलहरी....

हुम देखते हैं कि इस समय पूरे देश में और हमारे देश के बाहर भी प्रयागराज में मनाये जा रहे ‘महाकुंभ’ की चर्चा खूब हो रही है, और क्यों न हो! 144 वर्षों में होने वाला दिव्य महाकुंभ बीसवीं-इक्कीसवीं सदी का एक बहुत बड़ा पर्व जो है!

पूर्णकुंभ का आयोजन बारह वर्षों में होता है और बारह वर्षों तक लगातार कुम्भ लगने के बाद एक महाकुंभ लगता है, यानी 144 वर्षों के पश्चात महाकुंभ का आयोजन होता है। यही कारण है कि वर्ष 2025 में प्रयागराज में होने वाले इस महाकुंभ का विशेष महत्त्व है।

क्या है महाकुंभ? दरअसल यह भारतीय जनमानस की धार्मिक-आध्यात्मिक आस्था और संवेदना का परिचायक है। कुम्भ अथवा महाकुंभ हमारी भारतीय संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक-आध्यात्मिक पर्व-उत्सव है, जिसमें भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं, अपितु विदेशों से आए लाखों-करोड़ों श्रद्धालु-भक्तगण कुम्भ-क्षेत्र में एकत्रित होते हैं। भारतीय जनमानस की आस्था, उसके विश्वास-सौहार्द एवं भारतीय संस्कृति  के संगम का पर्व है – कुंभ। वैसे भी यह पर्व हमारी धार्मिक परम्परा के रूप में प्रचलित है, शायद यही कारण है कि इसका आरंभ इतिहास निर्माण की दृष्टि से नहीं हुआ। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि भारतीय परम्पराओं का आधार आस्था एवं विश्वास है, न कि इतिहास। हम यह कह सकते हैं कि आस्था-विश्वास पर टिके इस कुम्भ पर्व का आयोजन मेला संस्कृति को बढ़ावा देने और संस्कृति को एक सूत्र में पिरोने के लिए किया जाता आ रहा है। इतना ही नहीं कुम्भ ज्ञान एवं चेतना का एक ऐसा मंथन है जो गत कई वर्षों से हिंदुओं की चेतना को जगाने का कार्य कर रहा है और श्रद्धालु इस पर्व में शामिल होने के लिए बिना किसी औपचारिक आमंत्रण के ही खींचे चले आते हैं। हाँ , यह बात अवश्य है कि अनौपचारिक आमंत्रण तो उन्हें मिलता ही है – उनको स्वयं के भीतर से मिला आमंत्रण जो उन्हें इन विशिष्ट तिथियों पर आत्मशुद्धि एवं स्वयं की खोज हेतु विशेष रूप से प्रेरित-प्रोत्साहित करता है।  

 यूँ तो ‘कुंभ’ शब्द का प्रयोग वेदों में भी हुआ है जहाँ इसका अर्थ शरीर, ब्रह्मांड अथवा पृथ्वी से जुड़ा है। वैसे इसका शाब्दिक अर्थ ‘पवित्र कलश’ है, जिसे कुंभ मेले के संदर्भ में समुद्र मंथन की पौराणिक कथा में प्राप्त ‘अमृत कलश’ से जोड़कर देखा जाता है, जिसके बारे में हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। लेकिन इस शब्द को यदि कुंभ मेले अथवा पर्व के संदर्भ में प्रतीकात्मक रूप में देखा जाए तो यह शब्द उस मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है जिसके भीतर एक दिव्य अमृत है जो प्रत्येक व्यक्ति के आध्यात्मिक सार का प्रतीक है। यह आत्म मंथन का प्रतीक है। समुद्र मन का प्रतीक है, अहं का प्रतीक है। यानी अमृत प्राप्ति के लिए आत्ममंथन जरूरी है। इस प्रकार से यदि देखा जाए तो कुंभ यात्रा एक भौतिक यात्रा से अधिक ऊपर उठकर आत्मा की खोज की एक यात्रा है। महाकुंभ क्षेत्र - प्रयागराज को गंगा-यमुना-सरस्वती नदियों के संगम का एक पवित्र स्थान माना गया है जिसमें स्नान करने का अत्यधिक महत्त्व है। मान्यता अनुसार इससे मोक्ष प्राप्ति होती है। इस संगम को भी प्रतीकात्मक रूप में देखें तो गंगा-यमुना को तन-मन और सरस्वती जो कि अदृश्य है उसे हमारी चेतना के रूप में देखा गया है। चेतना को हम देख नहीं सकते अर्थात यही चेतना उस सरस्वती का प्रतिनिधित्व करती है। इतना ही नहीं योगियों ने इसे आंतरिक कुंभ माना है। योगियों के अनुसार यह संगम इड़ा-पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी का प्रतीक है। यहाँ सुषुम्ना को सरस्वती माना गया है। मनुष्य शरीर में 72 हजार नाड़ियाँ हैं जिसमें सुषुम्ना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। हम जानते हैं कि कुंभ बारह वर्षों में होता है, इस संदर्भ में यहाँ 12 वर्ष मनुष्य शरीर के भीतर के बारह चक्रों का प्रतीक है। आज शरीर के सात चक्रों की ही बात की जाती है लेकिन विज्ञान भैरव तंत्र एवं अन्य ग्रंथों के अनुसार कुछ योगियों ने बारह चक्रों को महत्त्व दिया गया है। इस तरह से कुंभ के प्रतीकात्मक रूप को समझा जा सकता है।


कुंभ और इसके इतिहास को लेकर कई भ्रांतियाँ है, इसके ऐतिहासिक संदर्भ को लेकर कुछ ज्यादा स्पष्टता तो नहीं मिलती लेकिन फिर भी ऐसा माना जाता है कि इसका इतिहास लगभग 850 वर्ष प्राचीन है और इसके आरंभ का श्रेय आदि शंकराचार्य को जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसका आरंभ गुप्त काल से हुआ। कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार राजा हर्षवर्धन के काल में इसके आरंभ के प्रमाण मिलते हैं। ऐसी मान्यता है कि इसके बाद संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर शाही स्नान की व्यवस्था शंकराचार्य और उनके शिष्यों द्वारा की गई थी। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के भारत यात्रा वर्णन में कुंभ मेले के आयोजन का उल्लेख मिलता है।

वैसे तो कुंभ के बारे में किसी भी प्रकार का कोई वर्णन अथवा जनाकारी न तो वेदों में है और न ही पुराणों में है। लेकिन कुंभ मेले से जुड़ी अलग-अलग कहानियों का आधार पुराण माने जाते हैं। पुराणों में प्रचलित ‘समुद्र मंथन’ की कथा के अलग-अलग संस्करण मिलते हैं। एक संस्करण के अनुसार जब चौहदवें रत्न के रूप में अमृत कलश प्राप्त हुआ तो देवता एवं राक्षसों में इसे पाने के लिए युद्ध हुआ इसके फलस्वरूप अमृत की कुछ बूँदें चार स्थानों पर – प्रयाग, उज्जैन , हरिद्वार और नासिक में गिर जाती हैं। और इसलिए ही इन स्थानों पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है। लोक में ऐसी मान्यता भी प्रचलित है कि अमृत की बूँदें ही नहीं अपितु कलश ही गिर जाता है। दूसरे संस्करण के अनुसार भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ को यह आदेश मिला था कि वह अमृत कलश को विष्णु जी के पास लेकर जाए। गरुड़ रास्ते में इन चार स्थानों पर विश्राम करता है और इन्हीं स्थानों पर कुम्भ मेले का आयोजन होता है। तीसरी कथा भी गरुड़ से संबधित है, ऐसा माना जाता है गरुड़ जी की माता विनता को नागों की माँ कद्रू ने नागलोक में दासी बना लिया गया था तो अपनी माँ को नागलोक से छुड़ाने के लिए नागलोक से अमृत को लेकर आते हैं तभी मार्ग में इन्द्र उन पर प्रहार करते हैं और इसी दौरान अमृत की बूँदें चार स्थानों पर गिर जाती है। स्कन्द पुराण के अनुसार –

चन्द्रः प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ।

दैत्येभ्यश्र गुरु रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।

सूर्येन्दुगुरुसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे।

सुधाकुम्भप्लवे भूमे कुम्भो भवति नान्यथा।।

जैसा कि हुम कह चुके हैं कि देवता एवं राक्षसों ने अमृत प्राप्ति के लिए जो युद्ध हुआ था वह 12 दिनों और 12 रातों तक चलता रहा। माना जाता है कि देवताओं का एक दिन पृथ्वी के एक वर्ष के बराबर है यही कारण है कि कुंभ का मेला इन चारों पावन स्थानों पर बारह वर्षों के अंतराल में लगता है।

समुद्र मंथन की कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि चंद्रमा ने अमृत कलश को असुरों से बचाने का कार्य किया और गुरु बृहस्पति देव ने कलश को छुपा लिया था  तथा सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया था। इसके बाद शनिदेव ने देवराज इन्द्र के कोप से रक्षा की इसलिए जब इन ग्रहों का संयोग एक राशि में होता तब महाकुंभ का आयोजन किया जाता है।

खगोलीय विज्ञान एवं ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जब बृहस्पति कुम्भ राशि में तथा सूर्य मेष राशि में प्रविष्ट होता है तब हरिद्वार में गंगा-तट पर, बृहस्पति के मेष राशि चक्र और चन्द्र के मकर राशि में आने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में, बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में प्रविष्ट होने पर नासिक में गोदावरी तट पर, बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन में शिप्रा तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है।

कुंभ मेले का आयोजन 3-3 वर्ष में चार स्थानों (प्रयाग, उज्जैन , हरिद्वार, नासिक) में से एक स्थान पर होता है। अर्धकुंभ 6-6 वर्ष में (प्रयाग, एवं हरिद्वार) होता है। पूर्णकुंभ 12 वर्षों में एक बार एवं महाकुंभ 12 पूर्णकुंभ यानी 144 वर्षों में आयोजित होता है। जबकि सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर उज्जैन में कुंभ का आयोजन तथा सिंह राशि में बृहस्पति-सूर्य का प्रवेश होने पर नासिक में होने वाले कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है। यहाँ सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है।

शास्त्रों के अनुसार पावन गंगा के तट पर गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर ब्रह्मा जी ने दशाश्वमेघ घाट पर अश्वमेघ यज्ञ किया था और सृष्टि का सृजन किया था। यही कारण है कि कुंभ के संदर्भ में चार स्थानों (प्रयाग, उज्जैन, हरिद्वार और नासिक) में से प्रयागराज का महत्त्व अत्यधिक है।

वैसे तो कुंभ मेले के अनेक आकर्षण हैं, उनमें से एक आकर्षण है – ‘अखाड़ा’। परंपरा के अनुसार शैव, वैष्णव एवं उदासीन पंथ के संन्यासियों के कुल 13 अखाड़े हैं जो कुंभ में शामिल होते हैं। किन्नर अखाड़े को आधिकारिक रूप से इन आखाड़ों में शामिल करने के पश्चात इन अखाड़ों की कुल संख्या चौदह (14) हो गई है। ‘अखाड़ा’ शब्द ‘अखंड’ का अपभ्रंश शब्द है जिसका अर्थ है विभाजित न होने वाला। आदिगुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा हेतु विभिन्न साधुओं को एकजुट करने के लिए एवं अपनी धार्मिक परंपराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए अखाड़ों की स्थापना की थी।  इन आखाड़ों के अनेक साधुओं में ‘नागा’ साधु हमेशा से ही कुंभ के आकर्षण के केंद्र बने रहते हैं। अधिकांश लोग ‘नागा’  शब्द का अर्थ नग्न के रूप में लेते हैं लेकिन ‘नागा’ शब्द संस्कृत के ‘नग’ से बना है। ‘नग’ मतलब पहाड़ यानी पहाड़ों या गुफाओं में रहने वाले नागा कहलाते हैं। 9वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने दशनामी संप्रदाय की शुरुआत की। ज्यादातर नागा संन्यासी इसी संप्रदाय से आते हैं। इन संन्यासियों को दीक्षा देते वक्त दस नामों से जोड़ा जाता है। ये दस नाम हैं- गिरी, पुरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम और सरस्वती। इसलिए नागा साधुओं को दशनामी भी कहा जाता है। नागा संन्यासी दो तरह के होते हैं- एक शास्त्रधारी और दूसरा शस्त्रधारी। दरअसल, मुगलों के आक्रमण के बाद सैनिक शाखा शुरू करने की योजना बनी। शुरुआत में कुछ नागा साधुओं ने इसका यह कहते हुए विरोध किया कि वे आध्यात्मिक हैं, उन्हें शस्त्र की जरूरत नहीं। बाद में शृंगेरी मठ ने शस्त्र-अस्त्र वाले नागा साधुओं की फौज तैयार की। पहले इसमें सिर्फ क्षत्रिय शामिल होते थे। बाद में जातियों का बंधन हटा दिया गया। कुछ नागा साधुओं के नामकरण इस प्रकार है – उज्जैन में खूनी नागा,  हरिद्वार में बर्फ़ानी नागा, नासिक में खिचड़िया नागा, प्रयाग में नागा। महिला नागा साध्वियों को अवधूतनी, माई या नागिन कहा जाता है।  


कुंभ में शामिल होने में अनेक साधु-संन्यासी एवं साधक ‘कल्पवास’ का पालन करते नजर आते हैं। कल्पवास भी संस्कृत का शब्द है, ‘कल्प’ अर्थात ब्रह्मांडीय युग एवं ‘वास’ का अर्थ है प्रवास या वास। इस प्रकार कल्पवास एक पवित्र प्रवास है, यह एक गहन आध्यात्मिक अनुशासन और उच्च चेतना की खोज में समर्पित प्रवास का प्रतीक है। यह अपने दैनिक जीवन की सामान्य दिनचर्या के साथ ईश्वर के साथ गहरे संबंध स्थापित करने पर जोर देता है। कल्पवास को अपनाने वाले साधक कड़ी साधना करते हुए सांसारिक सुख-सुविधाओं और विलासिता का त्याग करते हुए अपनी आंतरिक यात्रा पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करते हैं। कल्पवासी दैनिक अनुष्ठान-प्रथाएँ, वैदिक यज्ञ-होम, शास्त्रों का अध्ययन और सत्संग करते हुए अपने तन-मन और आत्मा का शुद्धिकरण करते हुए ईश्वर के और निकट आने का प्रयास करते हैं।

महकुंभ के विषय में थोड़ी-बहुत जानकारी प्राप्त करने और इसके आंतरिक अर्थ को देखने पर इतना स्पष्ट है कि यह सिर्फ लोगों का जमावड़ा ही नहीं बल्कि एक आंतरिक यात्रा-आत्मा की खोज-आत्मा की शुद्धि और मानवता का पर्व है। अंत में हम इतना कह सकते हैं कि कुंभ सभी संस्कृतियों का संगम होने के साथ-साथ आध्यात्मिक चेतना भी है। यह सिर्फ नदियों-वनों-ऋषि संस्कृति ही नहीं बल्कि मानवता का भी प्रवाह है। इसे हम प्रकृति एवं मानव जीवन के समन्वय के रूप में देख सकते हैं। इतना ही नहीं कुंभ जीवन की गतिशीलता है, यह ऊर्जा का स्त्रोत एवं आत्मप्रकाश का मार्ग है। महाकुंभ मेला हमारी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान तो है ही, इसके साथ ही हमारी राष्ट्रीय एकता व अखंडिता के प्रतीक रूप में भी इसका एक अपना महत्त्व है।  




डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा


2 टिप्‍पणियां:

  1. भारतीय संस्कृति को दर्शाता, ज्ञानवर्धक सम्पादकीय । हार्दिक बधाई । सुदर्शन रत्नाकर ।

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  2. रवि कुमार शर्मा, इंदौर26 फ़रवरी 2025 को 6:05 pm बजे

    कुम्भ पर्व के संबंध में विस्तार से जानकारी प्राप्त हुई । डॉ.पूर्वा का यह लेख महत्वपूर्ण होकर, हमें अनेक अनसुनी कथाओं से अवगत कराता है । साधुवाद । आशीर्वाद पूर्वा ।

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