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वैदिक ज्ञान साहित्य
भारतीय ज्ञान की सुव्यवस्थित रूप से प्राप्त परंपरा का
प्रारंभ वैदिक ज्ञान-साहित्य से होता है । उपलब्ध इस ज्ञान परंपरा का प्रारंभिक
चरण ज्ञान के स्तर, वैविध्य व परिमाण की दृष्टि से बेजोड़ रहा है। वैदिक ज्ञान
साहित्य में ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद, ये चार वेद तथा ब्राह्मणग्रंथ,
आरण्यक ग्रंथ तथा उपनिषद ।
‘वेद’ मतलव – ज्ञान। ‘विद्यते ज्ञायतेऽनेनेति वेदः।’
कहते हैं कि प्राचीन काल में और आज भी,
समाज हो या राजनीति, भूगोल हो या फिर कोई अन्य क्षेत्र,
सभी के संबंध में गंभीर व गहन ज्ञान प्राप्त करने का एक
महत्वपूर्ण स्रोत यानी वेद । “वेद विश्वसाहित्य की सबसे प्राचीन रचना है। यह
प्राचीनतम मनुष्य के धार्मिक और दार्शनिक विचारों का मानवभाषा में सर्वप्रथम परिचय
प्रदान करता है। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है – वेद मानव मन से प्रादुर्भूत ऐसे नितांत
आदिकालीन ग्रंथ हैं जिन्हें हम अपनी निधि समझते हैं। विल्सन की ये पंक्तियाँ – वेदों
में हम उन सबके विषय में जो प्राचीनता के बारे में विचार करने पर अत्यन्त रोचक
प्रतीत होता है, पर्याप्त जानकारी मिलती है। ... इसलिए वेद को अमूल्य निधि के रूप में माना गया
है।..... वेदों को परम सत्य माना गया है। उनमें लौकिक-अलौकिक सभी विषयों का ज्ञान
भरा पड़ा है।” (भारतीय दर्शन की रूपरेखा, प्रो. हरेन्द्रप्रसाद सिंहा, पृ. 32)
वेदों के और भी कई गंभीर अध्येताओं ने अपने अध्ययन में ऐसे
विषयों की लंबी सूची दी है, जिन विषयों से संबंध गंभीर व विस्तृत ज्ञान इनमें निहित है।
यथा ब्रह्म, ब्रह्मांड, देवता, प्रकृति, इतिहास, गणित,
ज्योतिष, खगोल, भूगोल, आचार-विचार, रीति-रिवाज, धर्म आदि आदि। इस तरह भारतीय साहित्य व संस्कृति के इस
प्राचीन ग्रंथों में बहुआयामी ज्ञान का वर्णन है।
शिक्षा, छन्द, ज्योतिष, निरूक्त, कल्प और व्याकरण, ये छह वेद के अंग अर्थात् वेदांग,
जो वेद को समझने-समझाने, उसके सही अर्थ बताने में एक तरह से एक शिक्षक की ही भूमिका
का निर्वाह करते हैं। “शिक्षा, छन्द, निरुक्त और व्याकरण असल में यही चार वेदांग हैं जिनका संबंध
वेद के भाषा विषयक विज्ञान से है। किन्तु दो और विद्याओं को मिलाकर वेदांग छह कहे
जाते हैं।”(संस्कृति की चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, पृ. 93)
वेद के इन छह अंगों को, उनके महत्व की दृष्टि से इस तरह से भी बताया गया है
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते।
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते॥
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्।
तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महियते॥
अर्थात् छन्द, कल्प, ज्योतिष, निरुक्त, शिक्षा तथा व्याकरण क्रमश: वेदों के पाद,
हाथ, नेत्र, कान, नाक और मुख कहा गया।
विशेषतः आत्मज्ञान, दर्शन के साथ-साथ धर्म, पर्यावरण, साहित्य जैसे विषयों की विस्तृत चर्चा की दृष्टि से वेदों
के पश्चात उपनिषदों को देखा जाता है। उपनिषदों तथा उपनिषद काल की महत्ता तथा आगे
अन्य दर्शनों पर इसके प्रभाव को लेकर लेकर डॉ. रामधारीसिंह दिनकर अपनी ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पुस्तक में लिखते हैं – “उपनिषद
हिन्दुत्व के आधारभूत ग्रंथ हैं और उन्हें समझे बिना हिन्दुत्व को समझना असम्भव
माना जाता रहा है। उपनिषदों के काल में खासकर यज्ञ का स्थान ज्ञान ले लेता है। और
प्रजापति का स्थान ब्रहम। इसी युग में आकर कर्म का अर्थ विस्तृत हो जाता है। अब
कर्म का अभिप्राय केवल यज्ञ न रहकर उन सारे कृत्यों से हो जाना है,
जिनके कारण मनुष्य को पुनर्जन्म लेना पड़ता है। जन्मान्तरवाद
और कर्मफलवाद इस युग में पूर्ण रूप से स्थापित हो गए और तब से वे केवल हिन्दुत्व
के ही नहीं: बौद्धमत और जैनमत के भी आधार रहे हैं। उपनिषदों ने मोक्ष को संसार का
समाधान बतलाया और यह कहा कि मोक्ष का मार्ग ज्ञान है। यह सिद्धांत भी बौद्ध और
जैनों ने ज्यों का त्यों ग्रहण कर किया । ज्ञान की इस युग में इतनी महिमा बढ़ी कि
वर्णाश्रम और यज्ञवाद, दोनों बहुत पीछे छूट गए।” (संस्कृति की चार अध्याय, रामधारी
सिंह दिनकर, पृ. 100-101)
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