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‘रामायण’ और ‘महाभारत’ : एक विरासत
भारतीय ज्ञान के अमर कोष समान ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ दोनों भारतीय मनीषा के वे ग्रंथ हैं जिसने विगत ढाई-तीन
हजार वर्षों से हमारे सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक जीवन को गढ़ा है।
डॉ. निधि सिन्हा के शब्दों में – “रामकथा भारतीय संस्कृति
में लोकमंगलकारी आदर्शों को प्रस्तुत करती है।.... अमर गाथा रामकथा हमारी अक्षुण्ण
भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। महर्षि वाल्मीकि से लेकर आज तक अनेक विद्वानों
ने इस कथा का गान किया है। भारत में ही नहीं, विदेशों में भी रामकथा पूर्णत: व्याप्त है,
श्रद्धेय है। रामकथा हमारे लोक जीवन से ओतप्रोत अमरकथा है,
जिसमें लोकजीवन अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ मूर्त हुआ है।
इसमें लोकसंग्रह की भावना की प्रमुखता है। इस कथा में कर्म के उज्ज्वलतम रूप की
प्रतिष्ठा हुई है जो मनुष्य के हृदय को सहज ही प्रभावित करती है।” [लोक मानस में
राम संस्कृति भाग-दो, वाणी प्रकाशन, पृ.630]
भारतीय साहित्य का ‘रामायण’ रूपी यह आदि आर्ष काव्य ज्ञान,
भक्ति, दर्शन, समाज-संस्कृति के आदर्श व मूल्यों की अमूल्य निधि है। इस
काव्य की कथा तथा इसके पात्र विश्व समाज के समक्ष ज्ञान-दर्शन तथा मनुष्य जीवन के संस्कार-कर्म-आचार-व्यवहार
के महान उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक व राजनीतिक विषयों से संदर्भित ‘महाभारत’ विश्व का सबसे बृहद् काव्य है। विषय-वस्तु के वैविध्य व
उसके विस्तार के लिहाज़ से सर्वाधिक समृद्ध इस काव्य के बारे में कहा गया है कि ‘यन्न
भारते तन्न भारते’
अर्थात् जो यहाँ (महाभारत) निरूपित-चित्रित है वह कहीं न
कहीं अवश्य मिल जाएगा और जो यहाँ नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगा। “धर्मे
चार्थे च कामे च मोक्षेच भरतर्षम् चरिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित ।”
महाभारत को पंचम वेद कहा गया है। इसे भारत के सांस्कृतिक विषयों का विराट कोश तथा
आचार की संहिता के रूप में देखा गया है। विषय वस्तु की विशालता और वैविध्य को लेकर
डॉ. जे. आर. बोरसे का मत देखिए – “महाभारत संस्कृत साहित्य का एक बृहद् विश्वकोश
है। वेदव्यास जी ने स्वयं अपनी संहिता के विषयों का निरूपण ब्रहमा जी से किया था,
जो इस प्रकार है – इसमें वैदिक और लौकिक सभी विषय हैं।
इसमें वेदान्त सहित उपनिषद, वेदों का क्रिया विस्तार, इतिहास, पुराण, भूत,
भविष्य और वर्तमान के वृतांत, बुढ़ापा, मृत्यु, भय, व्याधि आदि के भाव-अभाव का निर्णय,
आश्रम और वर्णों का, धर्मपुराणों का सार, तपस्या,
ब्रह्मचर्य, पृथ्वी चंद्र, सूर्य, नक्षत्र और युगों का वर्णन, ऋग्वेद,
यजुर्वेद, अथर्ववेद, अध्यात्म, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान, देवता और मनुष्यों
की उत्पति, पवित्र तीर्थ, पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन, पूर्व कल्प, दिव्य नगर, युद्ध कौशल, विविध भाषा, विविध जाति, लोक व्यवहार और सबमें व्याप्त परमात्मा का भी
वर्णन है।... इसके अध्ययन से केवल तात्कालीक, सामाजिक,
पारिवारिक, वैयक्तिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, शैक्षिक, भौगोलिक परिस्थितियों का परिचय ही नहीं होता; अपितु धार्मिक,
सामाजिक, राजनीतिक तत्वों का सांगोपांग ज्ञान भी प्राप्त
होता है।” [स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी काव्य में महाभारत के पात्र,
डॉ. जे. आर. बोरसे पृ. 68]
असल में भारतीय मनीषा, भारतीय जीवन दर्शन, भारतीय ज्ञान आदि को जानने-समझने के बहुत बड़े आधार है ये
दोनों ग्रंथ । इनके अध्ययन, दोहन-मंथन से हमें ज्ञान विज्ञान का नवनीत प्राप्त होता है।
महाभारत की ही कोख से जन्मी ‘भगवद्गीता’ भी विश्व की महान रचना, जो ज्ञान का
नवनीत है। युगों-युगों से यह गीता-ज्ञान मनुष्य जीवन को हर विषय में मार्गदर्शित
करता रहा है। ‘गीता’ हिन्दू धर्म का सर्वमान्य ग्रंथ है। गीता की रचना के बाद
हिन्दू धर्म के जो भी व्याख्याता और सुधारक भारत में जनमें,
उन्होंने अपनी पक्षसिद्धि के लिए गीता की व्याख्या अवश्य
लिखी है। वेदों और उपनिवदों की विचारधारा स्फटिक के समान उज्ज्वल होकर गीता में
प्रकट हुई।”
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