स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष-शहादत तथा मानवीय संवेदना
के संस्पर्श की एक असमिया महागाथा
प्रो. हसमुख परमार
ब्रिटिश सत्ता के शिकंजे से अपने देश को
मुक्त कराने हेतु भारतीयों के ओज-उत्साह, साहस-संघर्ष व शौर्य-शहादत से सराबोर
स्वतंत्रता संग्राम, आधुनिक भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है । इस
अध्याय में या कहिए आज़ादी के इस महासंग्राम की दीर्घावधि में, विशेषतः बीसवीं
शताब्दी में हम देखते हैं कि महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, लाला लजपत राय, गोपाल
कृष्ण गोखले, दादाभाई नौरोजी, डॉ.अबुल कलाम आजाद, भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी
सुभाषचंद्र बोस, सरदार वल्लभभाई पटेल, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ.राम मनोहर लोहिया,
सरोजिनी नायडू प्रभृति भारतमाता के सपूतों एवं अनेकों सबलाओं ने देश में आजादी की
एक तेज लहर को जन्म देकर उसे बुलंद किया, पूरे देश में प्रवाहित किया, जिसके चलते
भारत की कोटि कोटि जनता आजादी के पथ पर उतर आई । हम यह भी देखते हैं कि स्वाधीनता
आंदोलन का बडी कुशलता व साहस के साथ नेतृत्व करने वाले सभी नेताओं तथा उनके साथ
जुडे असंख्य स्वातंत्र्य सेनानियों का लक्ष्य तो एक ही था- अंग्रेजों की गुलामी से
भारत और भारतवासियों की आजादी । परंतु उनके रस्ते या कहिए आजादी की लड़ाई के हथियार
कहीं कहीं दो तरह के । मतलब- ‘ अहिंसा परमो धर्मः’ तो कहीं ‘ धर्म हिंसा
तथैव चः’, दोनों धाराएँ उस दरमियान समानांतर बह रही थीं । “ महात्मा
गाँधी ने सत्याग्रह तथा असहयोग के आंदोलन चलाए । अहिंसा उनका हथियार था । सत्य
उनकी शक्ति; तो दूसरी तरफ़ भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी देशभक्त थे जो
हिंसा द्वारा भी आजादी लाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दिए जा रहे थे । ” और इसी तरह इन उभय के मिले जुले
प्रयास से अंततः हमें आजादी मिली ।
आज़ादी
का यह ताज
बड़े
तप से भारत ने पाया है,
मत
पूछो इसके लिए
देश ने क्या कुछ नहीं गँवाया है ।
-दिनकर
स्वातंत्र्य संग्राम में
भारतीय साहित्य की भी एक बड़ी व महती भूमिका रही । दरअसल आज़ादी की इस लड़ाई के दौरान
भारतीय साहित्य, दर्पण और दीपक उभय रूपों में अपने दायित्व का बराबर निर्वाह कर
रहा था । यहाँ दर्पण इस अर्थ में कि स्वाधीनता संग्राम का यथातथ्य चित्रण और दीपक
से आशय है इस संग्राम की दिशा तथा उसके महत् उद्देश्य को अच्छी तरह से स्पष्ट करते
हुए आजादी हेतु भारतीय जनता में एक जोश-जागरण व उत्साह-ऊर्जा का संचार करते हुए
अपने देशप्रेम तथा राष्ट्रीय भावना को व्यक्त करने के संदर्भ में । और महत्त्व की
बात तो यह है कि स्वाधीनता के दौर में ही नहीं बल्कि स्वाधीनता के बाद आज तक के
साहित्य सृजन-लेखन में इस आंदोलन की उपस्थिति उतने ही ओज-उत्साह व संजिदगी से
रेखांकित होती रही है- प्रासंगिकता व उपयोगिता के संदर्भ में तो कहीं स्मरण के
संदर्भ में ।
ऊपर प्रथम पैराग्राफ में
हम यह बता चुके हैं कि पूरे भारत में,
राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहे स्वातंत्र्य संग्राम में सत्याग्रह, असहयोग और
अहिंसा के साथ साथ कहीं कहीं क्रांति और हिंसात्मक संघर्ष के जरिए भी यह लड़ाई चलती
रही । क्रांति-हिंसात्मक संघर्ष विशेषतः सुभाषचंद्र बोस के ‘ तुम मुझे खून दो मैं
तुम्हें आजादी....’ के मंत्र को अपनाते हुए, लोहिया की ‘ अहिंसा से नहीं, क्रांति
से देश आजाद होगा ’ की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए, ‘करेंगे या मरेंगे’ के संकल्प के
साथ अग्रसर रहा । इसी राह और दिशा में छापामार युद्ध, खून का बदला खून, पुल तोड़ने,
रास्ते-घाट बेकार बनाना, रेलगाडी उलटनी, अंग्रेजों को तथा उनके संसाधनों - संपत्ति व योजनाओं को
नुकशान पहुँचाना जैसी गतिविधियाँ भी खूब होती रहीं । इस आलेख में आगे हम असमिया
उपन्यासकार वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य के जिस ‘ मृत्युंजय’ उपन्यास की चर्चा कर
रहे हैं उसकी संवेदना व कथा मूलतः क्रांति व हिंसात्मक संघर्ष वाली धारा से जुड़ी
है ।
असमिया कथासाहित्य के एक शीर्षस्थ लेखक
के रूप में वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य का नाम विशेष उल्लेखनीय रहा है । इसी विषय
क्षेत्र में अपने स्तरीय लेखकीय योगदान के एवज़ में यह कथालेखक ज्ञानपीठ और साहित्य
अकादमी के पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं । वैसे कहानी और उपन्यास उनके लेखन का
प्रमुख क्षेत्र रहा है, साथ ही काव्य सृजन के प्रति भी इनकी अच्छी ख़ासी रूचि रही
है । पत्रकारिता के क्षेत्र में भी ‘रामधेनु’ जैसी पत्रिका का सम्पादन करते हुए
उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता को विकसित करने में भी अपनी महती भूमिका का बखूबी
निर्वाह किया है । आई (1960), इमारू इंगल (1960), शतध्नी
(1968), प्रतिपद (1970), मृत्युंजय (1970) जैसी औपन्यासिक रचनाओं के
कारण वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य का नाम सिर्फ असम के असमिया साहित्य में ही नहीं
अपितु भारतीय साहित्य में भी एक समर्थ बतौर कथालेखक वे बहुत ख्यात रहे हैं ।
1979-80 के ज्ञानपीठ
पुरस्कार से पुरस्कृत ‘मृत्युंजय’ (1970) उपन्यास की कथावस्तु स्वाधीनता संग्राम
के ‘भारत छोडो’ आंदोलन की असम प्रांत की एक घटना से जुड़ी है । वीरेन्द्र कुमार
भट्टाचार्य के इस असमिया उपन्यास का हिन्दी रूपांतर डॉ.कृष्णप्रसाद सिंह ‘मागध’ ने
किया है ।
प्रस्तुत उपन्यास की कथा
वैसे तो असम के एक छोटे से भूभाग, बहुत सीमित समय विस्तार, गिने चुने प्रमुख
पात्रों तथा एक मुख्य घटना को लेकर विकसित हुई है, फिर भी लेखकीय कुशलता का ही
परिणाम है कि इसमें देशभक्ति व स्वाधीनता आंदोलन, मानवीय प्रेम व संवेदना तथा असम
जीवन की विविध रंगी छवि बखूबी उजागर है । दरअसल उपन्यास में वर्णित घटना जिसके
घटित होने के लगभग ढाई-तीन दशक के बाद यह उपन्यास लिखा गया, फिर भी घटना की
जीवंतता, उसके जोश-जज्बे का बराबर बने रहना घटना विशेषता के साथ उसके प्रस्तुति
तथा आलेखन कौशल को भी दर्शाता है । उपन्यास के आमुख में लेखक लिखते हैं – “
मृत्युंजय की कथावस्तु है 1942 का विद्रोह : ‘ भारत छोडो’ आंदोलन का असम क्षेत्रीय
घटना चित्र और इसके विभिन्न अंगों के साथ जुडा-बंधा वह सब जो रचना को प्राणवत्ता
देता है ।..... कथा आधारित है वहाँ की सामान्यतम जनता के उस विद्रोह की लपटों को
अपने से लिपटा लेने पर और कैसा भी उद्गार मुँह से निकाले बिना प्राण होम कर उसे
सफल बनाने पर । घटना के 26 वर्ष बाद यह उपन्यास मैंने लिखा । उस समय की वह आग ठण्डी पड चुकी थी पर उसकी
आत्मा, उसका यथार्थ अब भी साँसें ले रहे थे । ”
जिस घटना का उपन्यास में
बहुत विस्तार व गंभीरता के साथ आलेखन हुआ है वह घटना है- 1942 के स्वातंत्र्य
संघर्ष के घटनाक्रम के अंतर्गत असम प्रांत के कामपुर क्षेत्र के एक जंगल में से
गुज़र रही रेल-पटरियों को उखाडकर अंग्रेज सरकार के सैन्य, शस्त्र व राशन को लेकर
आने वाली रेलगाडी को उलटकर अंग्रेज सरकार को नुकशान पहुँचाने की योजना । और इस
योजना को सफल बनाने के लिए कुछेक देशप्रेमियों, स्वातंत्र्य सेनानियों की अपने प्राणों
की आहुति देने की तैयारी व जज्बा । दरअसल उपन्यास की कथा मूलतः स्वातंत्र्य
संग्राम की हिंसक क्रांति की संवेदना व तत्संबंधी संदर्भों से ही जुडी है, तथापि
इसके साथ-साथ क्रांतिकारियों के अंतर्मन का द्वंद्व व संघर्ष, मानवीय
स्वभाव-संवेदना के विविध पहलू तथा नारी मन की कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति भी इस
उपन्यास को तथा इसकी कथा को मार्मिकता का संस्पर्श देती है । क्रांति, संघर्ष, द्वंद्व, साहस, शहादत तथा
मानवीय वेदना-संवेदना की यह कथा महदानंद गोसाई, धनपुर, रूपनारायण, डिमि, सुभद्रा,
गोसाइनी प्रभृति पात्रों की गतिविधियों से विकसित होते हुए अंतिम पड़ाव तक पहुँचती
है ।
किसी एक प्रांत-प्रदेश से
ही नहीं बल्कि पूरे भारत के एक बड़े मंच से एक ही आवाज उठ रही थी और गूँज रही थी- ‘
भारत छोडो’ । अहिंसा के हथियार से आजादी की लडाई लड रहे, और इस आंदोलन की अगुआई कर
रहे महात्मा गाँधी जैसे बडे नेताओं को अंग्रेज सरकार ने कारागार में बंद कर दिया ।
अब जनता की चिंता का कारण था कि उनका मार्गदर्शन कौन करें । ऐसी स्थिति में अनेकों
युवाओं का हौसला बुलंदी पर था जो सिर पर कफन बाँधे भारतमाता की मुक्ति के संग्राम
में कूद पड़े । इनके लिए अपनी व्यक्तिगत चिंताओं , निजीप्रेम व परिवार से भी ऊपर है
देश की आजादी और यह सिर्फ अहिंसा के हथियार से हासिल नहीं होगी । विवेच्य उपन्यास
में हम देखते हैं कि मायंग के महदानंद गोसाई अपने साथ धनपुर और रूपनारायण जैसे
युवाओं को साथ लेकर इसी दिशा में एक योजना बनाते हैं ।
अंग्रेजों को जितनी बाधा
पहुँचा सकते हैं, पहुँचानी चाहिए । सैनिकों को ढोकर ले जाती ट्रेन उलटना बहुत
जरूरी है । कामपुर के गोसाई ने पत्र में रेल उलटाने की जगह का विवरण दिया है । वह
जगह दो पहाड़ों के बीच का एक छोटा सा रास्ता है, यहाँ ट्रेन उलटने पर ट्रेन के
डिब्बे छिटक कर इधर-उधर लुढ़क जाएँगे । और तब बहुत दिनों तक सैनिकों को रसद की आमद
बंद हो जाएगी । फिर निर्णय हुआ कि कुल तीन दलों में विभक्त हो ये लोग कुमारकुचि
आश्रम की ओर जाएँ जहाँ ट्रेन उलटनी है । रेल लाइन पर कड़ा पहरा होगा । पहरेदारों की
बदली के वक्त ही फिसप्लेट खोलनी होगी । धनपुर यह काम करेगा । पंद्रह मिनट में यह
काम हो जाएगा । बीस-पचीस मिनट में भी काम खत्म हो सकता है । पर आधा घंटा नहीं लगना
चाहिए । अन्यथा पहरेदारों के हाथों में पड़ने का डर है । पहरेदारों के हाथों पड़ने
से सीधे फाँसी के तख्ते पर चढ़ना होगा । ( भारतीय उपन्यास: कथासार, सं. प्रभाकर
माचवे, पृ-282 से उद्धृत )
ट्रेन उलटाने की
जिम्मेदारी गोसाई, धनपुर और रूपनारायण की । इसमें भी धनपुर की एक तरह से मुख्य
भूमिका । धनपुर का डिमि और सुभद्रा नामक दो युवतियों के प्रति प्रेमाकर्षण । डिमि
के प्रति पहले से वो आकर्षित था जबकि सुभद्रा जो दस-दस नराधमों की पाशविक वासना का
शिकार हुई और इसकी इस दयनिय स्थिति को देखकर धनपुर उसे अपनाने का निर्णय करता है ।
परंतु अपने इस निजी प्रेमभाव से पहले है देशप्रेम ! अतः फिलहाल धनपुर के लिए डिमि
नहीं, सुभद्रा नहीं । सिर्फ़ देश । ‘आजादी’ का मिशन पहले । बाकी सब बादमें ।
अंग्रेज सरकार की ट्रेन
गिराने के मिशन में धनपुर के साथ
मृत्युसेना के स्वयंसेवक हैं तथा भिभिराम, माणिक बरा, आहिन कोंवर , रूपनारायण और
दैपारा वैष्णव सत्र के गोसाई हैं । अपने मिशन को पूरा करने के लिए यह टीम पहले से
ही पूरी जानकारी प्राप्त कर लेती है, ट्रेन के आने को लेकर तथा उसकी पहरेदारी आदि
को लेकर । यहाँ एक बात उल्लेखनीय यह भी है कि क्रांति और हिंसा के मार्ग पर चल पडी
इस टोली में गोसाई जैसे पात्र जिनमें अहिंसा के आदर्श को लेकर एक द्वंद्व की
स्थिति तथा इस आदर्श को लेकर चलते रहने के बाद हिंसा की ओर कैसे मुड़ गए, इसका
संकेत भी है । “ अहिंसा के पथ पर चलते-चलते हिंसा की ओर मोड ले लिया । हिंसा के
नज़दीक संपूर्ण रूप से आत्मसमर्पण कर दिया । ” और भी कई पात्रों में इस तरह के
द्वंद्व व ऊहापोह की स्थिति देखने को मिलती है । उपन्यास के आमुख में स्वयं लेखक
भी लिखते हैं कि – “ सबसे बडी समस्या उस भोले जनसमाज के आगे यह भी थी कि
गाँधीजी के अहिंसावादी मार्ग से हटकर हिंसा की नीति को कैसे अपनाएँ, और सबसे बड़ा
प्रश्न यह था कि इतनी इतनी हिंसा और रक्तपात के बाद का मानव क्या यथार्थ मानव होगा
। वह प्रश्न शायद आज भी ज्यों का त्यों जहाँ का तहाँ खड़ा है । ”
रेल की पटरी के नट-बोल्ट
और फिस-प्लेट खोलते समय धनपुर को पहरेदार की बंदूक से निकली गोली पैर में लगती है ।
गोसाई और रूपनारायण दोनों अपनी बंदूकों से पहरेदारों का सामना करते हैं । जहाँ रेल
पटरी की फिस-प्लेट खोल दी थी वहाँ ट्रेन पहुँचती है और उसके डिब्बे एक दूसरे से
टकराते हुए भयानक गति से लुढ़कने लगे । ट्रेन के डिब्बों के प्रचंड गति से नीचे
गिरने के साथ उससे भी विकट प्रचंड आदमियों की चीखें सुनाई देती हैं ।
रेलगाडी का उलटना । और
इसके साथ ही दर्दनाक चीखें, खून यानी हिंसा के मार्ग को अपनाने के बाद का यह
परिणाम । परंतु ‘अहिंसा परमो धर्म’ या मनुष्य की मनुष्यता या इतनी हिंसा के बाद का
मनुष्य का प्रश्न इस दुर्घटना के बाद, इससे जुड़े मतलब ट्रेन गिराने वालों के मन
में और ज्यादा गंभीरता से उठता-टकराता रहता है, कहीं आंतरिक संघर्ष, पछतावा तो
कहीं विवशता की वजह के बहाने । “ गोसाई के दोनों हाथों में तब भी आदमी का ताजा
खून लगा हुआ था । उस खून के दाग का स्पर्श
वे सहन नहीं कर वे बोले, बिना आदमी मारे यदि लड सकता तो कितना सुन्दर होता ।
पर वैसा उन्होंने नहीं होने दिया । महात्मा बाहर होते तो शायद ऐसी लडाई नहीं होती ।”
रूपनारायण की स्थिति भी कुछ इस तरह की है । “ इस दुर्घटना का दृश्य
देख उसका मन मुरझा गया है । हृदय मजबूत कर, रूपनारायण ने अपने आपसे कहा- यह शुरुआत
है । इसके बाद आरोहण है, अवरोहण है, समाप्ति है ।”
रेलगाडी के उलटने के बाद
की हिंसक लडाई में गोसाई तथा दो और युवाओं की मृत्यु होती है तो वहीं धनपुर भी
मरणासन्न है । इस तरह अपने देशप्रेम के निमित्त मृत्यु की परवाह किए बगैर धनपुर और
गोसाई जैसे चरित्र सही अर्थ में मृत्युंजय बनते हैं । मरने से पहले धनपुर, डिमि से
एक बार मिलना चाहता है । धनपुर की अंतिम विदाई का बडा करुण दृश्य लेखक ने अंकित
किया है ।
असल में देशप्रेम के साथ
साथ मानवप्रेम का निरुपण भी उपन्यास में है । धनपुर, डिमि, सुभद्रा, गोसाई,
गोसाइनी आदि पात्र जिनके जीवन में स्त्री-पुरूष का परस्पर प्रेमभाव और इसी
प्रेमभाव में व्यथा-वेदना का भी गाढ़ा संस्पर्श ।
“धनपुर मरते वक्त डिमि
को देखना चाहता है । एक बार डिमि का मुखडा सामने हो और वह शेष निश्वास त्याग करें,
अब बस यही एक आखिरी अभिलाषा है । दौडती हुई व्यग्र, बेहाल डिमि वहाँ आई । ‘ मेरे
धन, मेरे प्राण ’ कहते हुए उसने धनपुर का मुँह उठाकर एक बार चूम उसे आलिंगन में बाँध
लिया । ‘ और थोडी देर राह क्यों नहीं देखी मेरे प्राण ?’ काफ़ी देर बाद अचानक एक
बार धनपुर ने आँखें खोल दीं । डिमि ने बड़ी आशा से पुकारा ‘ प्राण । मेरे प्राण !’ (भारतीय उपन्यास: कथासार, सं. डॉ.प्रभाकर माचवे,
पृ-289 )
प्रो.
हसमुख परमार
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ
विद्यानगर ( गुजरात )
सुंदर विश्लेषण ।सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर, प्रभावी प्रस्तुति 👌🙏
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