शनिवार, 31 अगस्त 2024

आलेख

कौन-सी कविता होती है पूरी.... में वर्णित विभिन्न विमर्श

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

प्रोफेसर निर्मला एस. मौर्य को 30 वर्ष के शोध निर्देशन का अनुभव है। 60 से अधिक सम्मेलनों, सेमिनारों, कार्यशालाओं और यू.जी.सी. द्वारा आयोजित रिफ्रेशर प्रोग्रामों में विषय विशेषज्ञ के रूप में इन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कारवाई है। विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से  वे पुरस्कृत हुई हैं। जब वे कविता लिखने के लिए कवयित्री के पद पर आसीन होती हैं तब कविता लिखने के साथ ही साथ वे मानव जीवन के ऊपर शोध कार्य भी करने लग जाती हैं। उन्हें पता है, ‘मनुष्य का कार्यक्षेत्र बड़ी तेजी से बदल रहा है और कविता अपनी चारदीवारी से बाहर निकल कर विश्व के विशाल प्रांगण में कमर कस कर खड़ी हुई है। बदलती हुई संस्कृति में कविता लेखन की संस्कृति में भी तेजी से परिवर्तन हुआ है (1) उनके द्वारा लिखित कविता संग्रह कौन-सी कविता होती है पूरी’….में 51 कविताएँ हैं। मनुष्य जीवन की सम्पूर्ण भावनाओं को लेकर चलने वाले प्रस्तुत कविता संग्रह में कवयित्री पर्यावरण, मनुष्य जीवन, स्त्री विमर्श, राजनीति आदि सभी विषयों को लेकर सचेत हैं। इसी कारण से उनके प्रस्तुत कविता संग्रह में निम्न विमर्शों को देख सकते हैं-

1.      पर्यावरण विमर्श- पर्यावरण विमर्श वर्तमान समय का महत्वपूर्ण विषय है। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, पृथ्वी अपनी उत्पादन क्षमता खो रही है, धरती तो छोड़िए विशेषज्ञों की मानें तो आसमान के ओज़ोन लेयर का भी छिद्र बढ़ रहा है। ऐसे में साहित्यकार का दायित्व तो बनता ही है कि अब वह केवल प्रकृति के सुकोमल रूप पर बात न करें बल्कि यह भी लिखें कि-

खोजा झरोखा, छोटा सा आँगन

दोनों थे गायब, हुई आनमनी-सी

किरणें समेटी, बढ़ी और आगे

दीवारें खड़ी थीं, इमारतें थीं ऊँची

नहीं खोलते थे अब लोग खिड़की

हवा, पानी और धूप मिले एक दिन

हवा सरसराई धीरे से फुसफुसाई

पानी को हिलाया लहरें उठाई(2)

हवा, पानी, धूप तो आज कंक्रीट के जंगल में बने हुए मकानों के कमरों तक पहुँच ही नहीं पाते हैं। मनुष्य तो यही सोचकर आनंदित है कि वह अपने घर के कमरे में सुरक्षित है लेकिन वास्तव में तो वह सुरक्षा के नाम पर कंक्रीट की जेल में बंद है। वातानुकूलित यंत्रों के कृत्रिम ठंडक से विषपान कर रहा है। 2024 की गर्मी में दिल्ली, नोएडा आदि शहरों में  वातानुकूलित यंत्रों में विस्फोट होना कवयित्री की कविता की पंक्तियों को प्रासंगिक वातावरण के साथ जोड़ देता है। 11.6.2024 कोलकाता के पार्क स्ट्रीट का अग्निकांड भी तो ऐसा ही एक उदाहरण है। पेड़ों को काटकर, नदियों के मार्ग को बदलकर मनुष्य स्वयं ही अपने को प्रलय का स्वागत करने के लिए तैयार कर रहा है। मनुष्य तो इस सत्य को समझने के लिए तैयार ही नहीं है। पर साहित्यकार कैसे अपने दायित्व से विमुख हो सकता है? तभी तो कवयित्री ने मनुष्य को सचेत करने के लिए लिखा है-

एक सपना बन जाएगी.. सपना बन जाएगी!

झरोखों से खेलती आँगन से उतरती

अठखेलियाँ करती सोने-सी धूप

कहाँ खो गई है?

शहरों की अट्टालिकाएँ खा जाएँगी

धूप को

निगल जाएँगी ऊष्मा(3)

प्रकृति तभी बदहवास होती है जब मनुष्य अपनी सीमा का उल्लंघन करता है। दुख की बात यह है कि न तो मनुष्य सचेत है और न ही उसे अपनी गलतियों पर कोई पछतावा है। पर्यावरण विमर्श के अंतर्गत कवयित्री ने मनुष्य की बदहवासी को निम्न रूप में विश्लेषित किया है-

मानव मन क्या कभी समझ पाएगा

कि सागर की लहरें कभी गीत गाती हैं

सीना तान लहरों ने मचाई तबाही

और

तोड़े तटबंध हैं

बह गए नगर गाँव छोटी छोटी बस्तियाँ

कहर ढाती सुनामी प्रलय बन आई है

मानव क्या कभी समझ पाएगा(4)

सुनामी ने यह सिद्ध कर दिया है कि अगर मनुष्य अपनी सीमा भूल जाए तो प्रकृति माँ बनकर संरक्षण प्रदान करती है तो प्रलय लाकर तांडव भी कर सकती है। इसलिए अब मनुष्य को सचेत होकर अपनी सुरक्षा के लिए प्रकृति का दोहन रोकना होगा।

पर्यावरण विमर्श के अंतर्गत यमुना नामक कविता में यमुना की सुंदरता को व्यंग्यात्मक शैली में विश्लेषित किया है-

पक्षियों को जगाती यमुना बहती चली जाती है।

मन में संतप्त, तन से अकेली यमुना

लीलती सन्नाटा, भीड़ में अकेली

बहती चली जाती है बहती चली जाती है

मंद-मंद बहती यमुना की वेगवती धारा

अपने धवल वस्त्रों में मलिन -सी दिखती है॥ (5)

2.स्त्री विमर्श- स्त्री विमर्श और साहित्य दोनों साथ-साथ चलनेवाले विषय हैं। गद्य साहित्य में स्त्री विमर्श के अंतर्गत मुख्यतया आर्थिक असमर्थता, लिंग भेद, हिंसा इन विषयों पर चर्चा की जाती है। पद्य साहित्य में भी इन विषयों को लयात्मक शैली में प्रस्तुत किया जाता है लेकिन चूँकि गद्य की तुलना में पद्य कोमलकान्त पदावली को साथ में लेकर चलता है तो यहाँ स्त्री के सौंदर्य को मुख्य विषय के रूप में अपनाया जाता रहा है। कवयित्री ने भी स्त्री विमर्श के अंतर्गत स्त्री के माँ, बेटी आदि रूपों को रेखांकित किया हैं लेकिन उनकी उपमाएँ ध्यानाकर्षित करनेवाली है। जैसे-

पीपल और औदुंबर, पलाश, बरगद प्रतीक हैं चेतना के

बिटिया भी होती है ऐसी ही,

वह

दादी के बूढ़े हाथों को थाम बिखेरती है दाने

रखती है संस्कारों की नींव(6)

बिटिया के बचपन को दर्शाते समय कवयित्री में सुभद्राकुमारी चौहान के समान ही अपने बचपन को फिर से जी लेने की खुशी छलक रही है। बेटी का जन्म घर-घर में हो इस कामना के साथ वे लिखती हैं-

तुम्हारी उटंगी फ्राक डगमगाते कदम

मुझे अंदर तक आनंदित कर जाते हैं

ऐ! मेरी नन्हीं परी ऐ!! एंजेल

मुस्कुराकर दरवाजे के पीछे छुप जाना

कभी ठुमकना कभी रूठ जाना

मेरी आत्मा को छू जाते हैं

बिटिया की किलकारी हो हर घर में बिटिया की

किलकारी हो(7)

स्त्री विमर्श के अंतर्गत जब कवयित्री स्त्री के माँ रूप का विश्लेषण करती है तब माँ की तुलना उन्होंने धरती के साथ करते हुए लिखा है-

माँ धरती माँ जननी होती है।

वह जगाती है बालक में संवेदनाएँ,

जगाती है निद्रा से..........

दूर करती है दुख और कष्टों को

माँ धरती होती है जननी होती है

इच्छाएँ जगाती है खुशियाँ खिलाती है

घाव पर मरहम लगा बेचैनी भगाती है

माँ(8)

माँ के बिना संतान अकेली है निम्न पंक्तियाँ इस विचार को व्यक्त करने में सक्षम है-

हमें जीवन की धूप छाँव से बचाती है

जीवन नैया की खेवैया बन

अनजान संसार-सागर से तारती है

माँ

इंद्रधनुषी छटा है

माँ(9)

3.मानव अस्तित्व विमर्श- आज के वैज्ञानिक युग में मनुष्य ने भले ही महाकाश में अपने पैरों को जमा लिया है लेकिन धरती पर अपनों के बीच वह बहुत अकेला है। जीवन की आपाधापी में वह अपनी भावनाओं से भी विमुख है, सचेत कवयित्री अपने आसपास के वातावरण से अनभिज्ञ नहीं है। इसी कारण से उन्होंने लिखा है-

पूनम की रात एक बार फिर आई है।

प्रेम का संदेशा लाई है

उड़ते अभिलाषाओं के रंग, फूलों की खुशबू

अब अजीब से लगते हैं

पूनम की मनभावन प्यारी-सी सुंदर-सी चाँदनी में

नहायी रात काली हो जाती है

रोती है, काली हो जाती है,’(10)

मनुष्य इतना अकेला क्यों है? इस प्रश्न के अनेकों उत्तर है। उनमें से एक उत्तर यह भी है कि आज का मनुष्य अपनी संस्कृति से विमुख है, अपने गाँव, खेत, खलिहान से विमुख है। अपनी जड़ों से विमुख होकर वह केवल भाग रहा है अंतहीन इच्छाओं के पीछे कुछ इस प्रकार से-

तालाब में उठने वाली भँवरों की तरह

मन में अनेक प्रश्न

हथेलियों पर उग आते हैं कुकुरमुत्ते- से

कब ध्यान में धर्म आ जाता है, कौन जान पाता है?

उसे भोगना ही नियति जाती है, नियति बन जाती है।

गोबर और गेरू से लिपे-पुते

छोटे से घर के आँगन में

जब नीम सर-सराती है

झूमती है तो मानो बिखर जाते हैं संस्कारों के रंग(11)

संस्कारविहीन मनुष्य जीवन का क्या कोई अस्तित्व हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर हमेशा नहीं। कवयित्री का भी यही विचार है कि जीवन का लक्ष्य केवल साधन, संपत्ति, शक्ति कमा लेना नहीं होना चाहिए। इन सबको प्राप्त कर लेने के बाद भी अगर व्यक्ति सुखी नहीं है, स्वस्थ नहीं है तो उसका जीवन कदापि सफल नहीं कहला सकता। तभी तो वे लिखती हैं,

यदि हमें मिल जाए थोड़ी सी चंचलता

क्या हो यदि हमें मिल जाए बारिश की मधुरिमा

तब

इच्छाएँ झरना बन भिगों दें

सबका तन-मन

क्या हो यदि?

सपनों के पंख लग जाएँ(12)

इन छोटी-छोटी आशाओं, सपनों का रहना आवश्यक है। नहीं तो, मनुष्य और यंत्र के बीच का अंतर ही समाप्त हो जाएगा। दुखद बात यही है कि ऐसा ही हो रहा है इसी कारण से मनुष्य, मानवताविहीन है। यह मानव सभ्यता के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। इस घातक अंधकार से मनुष्य को एक ऐसे सबेरे की तरफ आना होगा-

जब हंसती हो सुबह

खिलखिलाता हो उजाला, तभी जानो आ जाएगा नया सवेरा

नदियों की धारा

झरनों का गाना, बारिश की रिमझिम,

जब आए समझ लेना तभी आ जाएगा नया सवेरा

सब अपने हैं, पूरे सपने हैं(13)

एक सार्थक, सुंदर जीवन का रूप-रंग ऐसा ही तो होना चाहिए।

4. राजनीतिक विमर्श- मानव अस्तित्व हो और राजनीति न हो ऐसा तो संभव नहीं है। जैसे मनुष्य साहित्य के केन्द्रबिन्दु में हमेशा से रहा है वैसे ही मनुष्य जीवन की घटनाओं को लेकर चलनेवाली राजनीति भी अब साहित्य का महत्वपूर्ण अंग बन गई है। राजनीति का प्रधान उद्देश्य तो किसी समय देश सेवा, समाज सेवा आदि था। लेकिन अब राजनीति केवल देश सेवा, समाज सेवा आदि तक सीमित नहीं है। अब यह भ्रष्टाचार, धोखा, प्रताड़ना का भी माध्यम बन चुकी है। कवयित्री साहित्यकार के कर्तव्य से परिचित हैं तभी तो झूठी आशा कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने के स्थान पर निम्न कटु सत्य को दर्शाना उन्होंने उचित समझा है-

! लड़की

जरा ठहर ------

चुनाव आ गए हैं जरा ठहरो चुनाव आ गए हैं,

तुझे भी बनाएँगे मुद्दा

कहीं सियासी दांव खेले जाएँगे

कहीं

नीति की धज्जियाँ उड़ाई जाएँगी

! लड़की

जरा ठहर ------

चुनाव आ गए हैं(14)

आज की राजनीति की छवि कैसी है? इस प्रश्न का उत्तर पाना है तो निम्न पंक्तियों को तो पढ़ना ही पड़ेगा-

पॉलिटिक्स का खेल बड़ा निराला है

कोई यहाँ आधा तो कोई पूरा नंगा है।

कोई भर-भर के अपनी जेबें पूरी तरह चंगा है

पॉलिटिक्स का ढंग बड़ा गंदा है

कोई खोजता कठौती में गंगा है

पॉलिटिक्स का ढंग बड़ा गंदा है(15)

राजनीति के भ्रष्ट रूप का दंश देश को ही झेलना पड़ता है। देश की एकता, स्वाभिमान, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, सभ्यता आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है और सबसे अधिक प्रभावित होता है जनता का जीवनजनता को यह समझ ही नहीं आता है कि क्यों वह अपने ही देश में असुरक्षित अनुभव कर रहा है? कवयित्री ने इन समस्याओं का नग्न चित्र अपनी कविता के द्वारा प्रस्तुत किया है-

टेढ़े-मेढ़े घुमावदार रास्तों पर चलती

बड़ी तर्कहीन हो गई है

राजनीति

लिपटी पारदर्शी परत में

लोकतान्त्रिक बन मुस्कुराती है

राजनीति

अपने को समाजवादी कह

संगठन बना व्यंग्य से मुस्कुराती है

राजनीति(16)

कहना ही पड़ेगा कि कवयित्री केवल शिक्षाविद ही नहीं वरन देश की सजग नागरिक भी हैं। उन्हें इस बात का ज्ञान है कि लोकतन्त्र में लोक को अन्याय के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए। तभी तो कवयित्री आक्रोशित स्वर में प्रश्न पूछती हैं-

हम अभी तक क्यों पड़े हैं नींद में?

आओ उचारें मंत्र अब जनतंत्र के

हिज्जे

गलत होने लगे अब मंच के

हादसे पलने लगे अब वतन में

आज रोटी की लड़ाई हो रही

अतृप्त आत्मा भटक रही बेचैन हो, हिज्जे गलत होने लगे

अब मंच के.....(17)

जब एक सचेत नागरिक, एक शिक्षाविद, एक कवयित्री निरपेक्ष रूप में इतने सामयिक विषयों को लेकर मंथन करते हुए लेखनी को हाथ में लेती है तब तो यह प्रश्न सार्थक हो ही जाता है कि कौन सी कविता होती है पूरी..... नहीं ऐसी प्रासंगिक कविताएँ कभी पूरी नहीं होती यही उनकी सुंदरता और सार्थकता का रहस्य है। आशा है निकट भविष्य में कवयित्री के विचारों के मंथन से और प्रासंगिक कविताओं का जन्म होगा।  

संदर्भ सूची

1.      कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- V

2.      कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 27

3.      कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 8-9

4.      कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 83-84

5.      कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 49

6.      कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 32

7.      कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 28

8.      कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 36

9.      कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 104

10.               कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 93-94

11.               कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 95-96

12.               कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 85-86

13.               कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 87

14.               कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 64

15.               कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 34

16.               कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 50

17.               कौन – सी कविता होती है पूरी.... पृष्ठ संख्या- 82

 

संदर्भ पुस्तक

 कौन -सी कविता होती है पूरी......., प्रो. निर्मला एस. मौर्य, प्रथम संस्करण- 2023, ISBN – 978-81-959281-2-5

 

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

हैदराबाद

 

                                                                                      

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

   

   

 

 

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