अंक
के बहाने....... अंक के बारे में....
प्रो. हसमुख
परमार
भाव, विचार,
कथा-प्रसंग, शैली, शिल्प
चाहे जो भी हो, जैसा भी हो; मूलतः और अंततः
साहित्य का सरोकार है मनुष्य से तथा मूल उद्देश्य है उसका मानव-मात्र का हित साधन
। अतः
साहित्य का सान्निध्य हमारे लिए जितना आनन्दकर है उतना ही कल्याणकारी । “साहित्य
माता के समान हमारा पालन, पिता के समान हमारी
रक्षा, गुरु के समान हमारा मार्गदर्शन करता है, और सुहृद बन्धु के समान हमारी सहायता करता हुआ, प्रिया
की-सी मधुर, सुन्दर, आकर्षफ मूर्ति
धारण कर हमारे जीवन में प्रेम-रस का संचार करता है । ”
विविध प्रकाशनों से प्रकाशित पुस्तकों एवं
मौखिक-मंचीय साहित्यिक परंपरा के साथ-साथ पत्रकारिता के माध्यम से भी साहित्य का
प्रचार-प्रसार बड़े व्यापक रूप से हुआ है, हो रहा
है । भाषा, साहित्य व साहित्य संबंधी शोध-समीक्षा-शास्त्र
संदर्भत्रयी को लेकर विकसित होने वाली साहित्यिक पत्रकारिता ने सैकडों
साहित्यप्रतिभाओं को खोजने व खिलने हेतु एक विशाल और मजबूत मंच तैयार कर एक विशाल
पाठक वर्ग तक उन्हें पहुँचने का एक सुनहरा अवसर प्रदान किया ।
दरअसल साहित्य या साहित्यिक पत्रकारिता,
साहित्यकारों की गाढ़ी संवेदनाओं, ऊँची-उदात्त
कल्पनाओं, सौंदर्यपरक दृष्टि, गूढ़-गंभीर
विचारों तथा मुखरतम आवाज
की प्रस्तुति व अभिव्यक्ति है । वैसे तो
ज्ञान,
विशेषतः साहित्येतर विषयों से संबंधी, जो कि
साहित्य से एक अलग अनुशासन है, परंतु साहित्य की भी ये एक
बड़ी ख़ासियत रही है कि इसका कलेवर इतर विषयों के ज्ञान से भी संस्पर्शित रहा है ।
कहने का आशय है कि साहित्य के अपने एक मूल व विशेष स्वभाव, शैली
व शिल्प-ढाँचे में कई बार सर्जक ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों-शास्त्रों के
विविध संदर्भ भी प्रस्तुत करता है । हाँ, यह प्रस्तुति होती
है काव्यात्मक-साहित्यिक। समाज, संस्कृति, धर्म-अध्यात्म, दर्शन, इतिहास,
मनोविज्ञान, भूगोल, खगोल,
प्रकृति-पर्यावरण, योग, ज्योतिष
प्रभृति विषयों संबंधी जानकारीपूर्ण कतिपय तथ्य व संदर्भ, जिसे
हम साहित्य कहते हैं यानी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, रेखाचित्र आदि रूपों में भी मिलते ही हैं, लेकिन दूसरी ओर इन विधाओं से
बाहर स्वतंत्ररूप से ज्ञान साहित्य लेखन हुआ जो स्वतंत्र पुस्तकों के, तत्संबंधी पत्रिकाओं के साथ साथ साहित्यिक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होता
रहा है ।
हिन्दी की अपने आरंभ से लेकर अब तक की साहित्यिक
पत्रकारिता में भी हम ऐसी अनेक पत्र-पत्रिकाओं को उदाहरणातया देख सकते हैं जिसमें
साहित्य के साथ साथ साहित्येतर कई विषयों को लेकर लिखी सामग्री को भी बराबर स्थान
मिलता रहा है । कहीं पत्र-पत्रिकाओं के विविध स्तंभों के अंतर्गत तो कहीं विशेष
तिथि-दिवस के निमित्त तो कहीं इन विषयों के प्रति विशेष रूचि रखने वाले लेखकों का साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रति विशेष
लगाव के चलते । इस संदर्भ में हिन्दी की दो महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं- “ ‘सरस्वती’ और ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’
का नाम लेना चाहेंगे । ‘ सरस्वती’ पत्रिका की भूमिका को जब हम याद करते हैं तो
ज्ञान-विज्ञान के लेखन-प्रकाशन की एक मज़बूत व्यवस्था उपलब्ध कराई । इस तरह ज्ञान-साहित्य
के लेखन, प्रकाशन व प्रचार-प्रसार की दृष्टि से
इन दोनों पत्रिकाओं का विशेष योगदान रहा है । इन दोनों पत्रिकाओं ने साहित्य और
हिन्दी भाषा के साथ साथ खगोल, ज्योतिषशास्त्र, दर्शन, धर्म, इतिहास, कला, राजनीति, विज्ञान जैसे
विषयों पर लिखने का मार्ग प्रशस्त किया ।”
इन विषयों पर निबंध-लेख लिखवाये और पत्रिका में प्रकाशित करवाएँ । “ विषयों के
चुनाव की दृष्टि से ‘सरस्वती’ ने जो व्यापक दृष्टिकोण अपनाया वह व्यावहारिक
और सामाजिक था । ‘सरस्वती’ के अंको में
प्राय: संस्कृत या हिन्दी के किसी प्राचीन
कवि की परिचर्चा और हिन्दीतर भाषा के किसी सामयिक कवि-लेखक का परिचय,
इतिहास-पुरातत्त्व के किसी उन्नत काल का विवरण, यात्रा, भूगोल, स्थान वर्णन,
उद्योगपति, समाजसुधारक की जीवनी, चित्र-परिचय देशोन्नति से संबद्ध समस्याओं पर लेख, राजनीतिक,
आर्थिक प्रश्नों के संबंध में सरकार से निवेदन, बालक, वनितोपयोगी सामग्री- टिप्पणियाँ, सामयिक हलचलों का उल्लेख, कहानियाँ, कविताएँ, पुस्तक-समीक्षा आदि को देखा जा सकता है । ”
(आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास : बच्चन सिंह) आगे भी हिन्दी की अनेकों
साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह का विषय वैविध्य यानी साहित्य के साथ-साथ
साहित्येतर अनुशासनों संबंधी लेखन को भी स्थान मिलता रहा है ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी पत्रिका पर
लगी आर.एन.आई., आई.एस.एस.एन., पियर
रिव्यू, यू.जी.सी. एप्रूव्ड, यू.जी.सी कैयर लिस्ट जैसी किसी
मुहर उस पत्रिका के स्तर-गुणवत्ता की ऊँचाई को प्रमाणित करती है । किंतु हम यह भी
देखते हैं कि बगैर इस तरह की किसी मुहर के भी कुछ पत्र-पत्रिकाएँ स्तर-गुणवत्ता के
मामले में महत्वपूर्ण कही जा सकती हैं । वैसे भी अपनी प्रकाशन अवधि की नियमितता,
विषय-सामग्री की उपयोगिता-प्रासंगिकता, भाषिक स्तर तथा विषय-वस्तु
व विधागत वैविध्यता ही किसी पत्रिका के स्तर का मुख्य मापदंड कहा जा सकता है ।
वैसे तो ‘शब्दसृष्टि’ कोई बहुत प्रसिद्ध,
लम्बे समय से प्रकाशित तथा रजिस्टर्ड किसी खास कैटेगरी की पत्रिकाओं
की पंक्ति की पत्रिका नहीं है, बल्कि यह तो एक साधारण ई पत्रिका या कहिए एक
ब्लॉग-वेब पेज है, किंतु इसका कलेवर बड़ा ही आकर्षक और इसमें
प्रकाशित विषय सामग्री भी
बड़ी
ही स्तरीय और वैविध्यपूर्ण । यह इसलिए कह रहा हूँ कि मैंने अबतक शब्दसृष्टि के नियमित रूप से प्रकाशित ‘पचास
अंक मात्र देखे ही नहीं बल्कि अच्छी तरह से पढे भी हैं । और संपादिका की ओर से कुछ
पूछने पर बतौर परामर्शक सलाह-सूझाव भी देता रहा हूँ । दरअसल किसी पत्रिका का
महत्त्व उसके दीर्घजीवी होने से ज्यादा उसका पठनीय, विचारणीय
व प्रासंगिक बने रहने और पाठकों की जरूरी अपेक्षाओं पर उसका खरा उतरने को लेकर
ज्यादा होता है ।
ई पत्रिका या वेब पेज-ब्लॉग के नाते ‘शब्दसृष्टि’
की बाहरी बढ़िया साज़-सजावट स्वाभाविक है और इससे पाठक का प्रभावित होना भी उतना ही स्वाभाविक ।
लेकिन इससे आगे अपनी विषय वस्तु से भी पाठक को अपनी ओर आकर्षित करना जो
‘शब्दसृष्टि’ के मायने व महत्त्व को दर्शाता है । • गद्य-पद्य की विभिन्न
विधाओं-शिल्प-शैलियों से जुड़ी रचनाएँ • सृजन-कर्म के
साथ-साथ शोध-समीक्षा दृष्टि • साहित्य के समानांतर भाषा व व्याकरण विमर्श •
साहित्य के अतिरिक्त साहित्येतर क्षेत्रों से संबद्ध विशेष प्रतिभाओं का ख़ास
परिचय • कविता-कहानी-निबंध आदि के ढाँचे
में या इनसे इतर रूप-स्वरूपगत लेखन में साहित्य के साथ-साथ साहित्येतर विषयों की
भी प्रस्तुति • अनुवाद के सैद्धांतिक व व्यावहारिक पक्ष •हिन्दी के साहित्य तक ही मर्यादित नहीं बल्कि
हिन्दी के साथ साथ हिन्दीतर भाषाओं के साहित्य का भी समावेश • हिन्दी या भारतीय
साहित्य की मुख्य व प्रचलित विधाओं के साथ हिन्दी या भारतीय साहित्य में विकसित
कतिपय विदेशी विधाओं, मसलन-हाइकु, हाइबन,
माहिया, ताँका, चोका आदि के सृजन व समीक्षा
उभय पक्ष की मौजूदगी • पुस्तक-चर्चा • ‘दिन
कुछ ख़ास है’ के अंतर्गत विशेष दिवसों-तिथियों की कहानी व महत्व का आलेखन • हिंदी
के समकालीन साहित्यसेवियों में पुराने-नवोदित के साथ प्राचीन-प्रसिद्ध सर्जकों को
भी उचित-अपेक्षित स्थान आदि....आदि... विषयबिंदुओं से ‘शब्दसृष्टि’ का वस्तुपक्ष
या कथ्य गूँथा- गढ़ा जाता रहा है ।
एक ही अंक में अलग अलग प्रकार के लगभग
पंद्रह-बीस अलग-अलग कन्टेन्ट पर लिखना-लिखवाना और प्रकाशित करना और अंक प्रकाशन भी
मासिक, जो उतना आसान नहीं है । और लगभग तीन-चार सामान्य अंकों के बाद वाला अंक
विशेषांक । यदि पत्रिका की प्रकाशन अवधि त्रैमासिक, अर्धवार्षिक,
वार्षिक है तब तो ज्यादा मुश्किल नहीं होगा, परंतु
मासिक प्रकाशन। महीने इतनी ज्यादा और वैविध्यपूर्ण सामग्री
एकत्र करना भी काफ़ी श्रम वाला काम है, ऊपर से
उसे संशोधित कर साज
- सजावट के साथ लगाना । बावजूद ‘शब्दसृष्टि’ ने अपनी विषयवस्तु की गरिष्ठता,
उसकी विविधता तथा प्रकाशन संबंधी नियमितता को बराबर बनाए रखा है ।
पचास अंक इसका प्रमाण है ।
इस गुरुतर कार्य के संभव व सफल होने की वज़ह संपादिका डॉ.पूर्वा शर्मा की
सूझ-बूझ, मेहनत व साहित्य के प्रति उनका विशेष लगाव है । ‘ शब्दसृष्टि’
के प्रति इनके विशेष लगाव व प्रतिबद्धता की चरम स्थिति तो मैंने पिछले अंक के
संपादन- प्रकाशन के समय देखी । जुलाई माह का अंक मतलब प्रेमचंद विशेष । पर्याप्त
सामग्री आ गई थी । थोडा बहुत संशोधन, स्तंभ के मुताबिक
वर्गीकरण, विषयानुरूप पिक्चर आदि काम संपादिका कर रही थी
जिससे कि उनकी योजनानुसार ठीक प्रेमचंद जयंति के एक दिन पहले या उसी दिन वो अंक को
लगा सकें । अब हुआ यूँ कि इन्हीं दिनों यानी जुलाई के आखिरी दो-तीन दिनों तबीयत
उनकी बहुत ही अस्वस्थ हो गई । 104 डिग्री बुख़ार की शिकार ।
हालत बड़ी खराब, बड़ी गंभीर । मेरी बात हुई पर ठीक तरह से
बात करने की स्थिति में भी वो नहीं थी । 30 जुलाई को पुनः जब मेरी बात हुई तब मैंने
उन्हें साफ़ और सख्त शब्दों में कहा कि इस समय तुम ‘शब्द-सृष्टि’ की, प्रेमचंद विशेषांक की चिंता छोडकर अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखो । साथ ही
यह भी बताया कि पूरी तरह से स्वस्थ होने के बाद अगस्त महीने का अंक सयुंक्तांक (
जुलाई- अगस्त ) कर लेना । परंतु सामने से उनकी दबी आवाज- ‘नहीं सर, मेरी पत्रिका के
नियमित प्रकाशन का क्रम टूटेगा नहीं । दवाई लेने के बाद थोड़ी राहत मिलते ही मैं इस
अंक को, और यह कोई सामान्य अंक नहीं, प्रेमचंद केन्द्रित सो मैं 30 की रात में या 31
जुलाई की सुबह में लगाऊँगी ही । मेरी और उनके परिवार की ओर से मना करने के बाद
भी अंततः 31 जुलाई सबेरे प्रेमचंद विशेषांक तैयार कर प्रकाशित किया । अब इस बारे
में मैं और क्या कहूँ !! ?? बड़े कर्मठ तथा समर्पित-प्रतिबद्ध
साहित्यसेवी तो अनेकों देखें, किन्तु
इनमें से विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी कड़ी कर्मठता तथा गाढ़ी प्रतिबद्धता को पूरी
तरह से बनाये रखते हुए साहित्य पथ पर अग्रसर होने वाले साहित्यसेवी बहुत कम ही देखे
हैं ।
अंत में, मैं
‘शब्द-सृष्टि’ के पचासवें अंक के प्रकाशन अवसर पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए
संपादिका पूर्वा शर्मा को हार्दिक बधाइयाँ देते हुए अपनी गुणवत्ता में और ज्यादा वृद्धि करते हुए ‘शब्द-सृष्टि’ के विकास की कामना करता हूँ ।
प्रो.
हसमुख परमार
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय
वल्लभ
विद्यानगर ( गुजरात )
शब्द सृष्टि पत्रिका का हर अंक बेहद सारगर्भित होता है पिछले जुलाई माह का अंक प्रेमचंद जयंती पर प्रेमचंद को समर्पित बहुत सुंदर था इसके लिए प्रधान संपादक प्रोफेसर हसमुख परमार सर एवं संपादिका डॉ पूर्वा शर्मा जी बहुत बहुत धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंमुकेश चौधरी, शोधार्थी हिंदी
आप सबके सहयोग और प्रयास से शब्द श्रष्टि इतनी सुंदर और निरन्तर पठनीय है । पूरी टीम को साधुवाद ।
जवाब देंहटाएंशब्द-सृष्टि के पचासवें अंक के लिए प्रधान सम्पादक हसमुख परमार जी एवं सम्पादक पूर्वा शर्मा जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ । पहले से पचासवें अंक तक निरन्तर निखार देखने को मिला है। पत्रिका का प्रत्येक अंक स्तरीय विविध रचनाओं से सुसज्जित था , पठनीय था। इसका श्रेय सम्पादक मंडल के जाता है । पुनः बधाई एवं अशेष शुभकामनाएँ ।सुदर्शन रत्नाकर
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