बुधवार, 31 जुलाई 2024

पत्र

 


हजारीप्रसाद द्विवेदी का पत्र प्रेमचंद के नाम 

 

शान्तिनिकेतन

२६ मार्च, १६५३


भंजन्मोहमहान्धकार वति सद्वृत्तमुच्चैर्भजन्

वैदग्ध्यं प्रथयन् सुसज्जनमनोवारांनिधि ह् लादयन् ।

ध्वान्तोद्घाभ्रान्तजनान् दिशन्ननुदिशं ध्वान्तप्रियान् स्वोभयन्

चन्द्रः कोऽपि चकास्त्यसावभिनवः श्री प्रेमचन्द्रः सुधीः ॥

प्रेमचन्द्रश्च चन्द्रश्च न कदापि समावुमौ ।

एकः पूर्णकलो नित्यमपरस्तु यदा कदा ।।

    मान्यवर, उस दिन पं० बनारसीदास जी के साथ गुरुदेव (कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर) से मिलने गया था। बातों ही बातों वर्तमान हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध में चर्चा चली । ऐसे अवसरों पर आपका नाम सबसे पहले आता है। उस दिन भी आपकें रचित साहित्य की चर्चा बड़ी देर तक चलती रही। हम लोगों की इच्छा थी कि नव वर्ष के अवसर पर आप जैसे आदरणीय साहित्यिकों को निमंत्रित करें और गुरुदेव से परिचय करावें । गुरुदेव ने हम लोगों के विचार का उत्साह के साथ स्वागत किया । इसलिए हम लोगों ने निश्चित किया कि स्थानीय हिन्दी समाज का वार्षिकोत्सव नव वर्ष (१४ अप्रैल १६३५) को मनाया जाय । उस दिन गुरुदेव का प्रवचन होता है। उसके पहले दिन भी, जिस दिन वर्ष समाप्त होता है, उनका व्याख्यान होता है। कुछ और भी समारोह रहता है। गुरुदेव और आश्रम की ओर से निमंत्रण तो यथासमय जायगा ही, इसके पहले ही हम हिन्दी समाज की ओर से आपको निमंत्रित करते हैं । इस बार आप जरूर पधारें। हमारे आग्रहपूर्वक निमंत्रण को भाप अस्वीकार न करें। आपको गुरुदेव से मिलाकर हम गर्व अनुभव करेंगे ।

    आपके साहित्य ने हिन्दी को समृद्ध किया है और हिन्दीभाषियों को दुनिया में मुँह दिखाने लायक । इसीलिए आपके यश को हम लोग निर्विचार बाँट लिया करते हैं। जब हम रंगभूमि या कर्मभूमि को दूसरों को दिखाते हैं तो मन ही मन गर्वपूर्वक पूछा करते हैं-है तुम्हारे पास कोई ऐसी चीज ! और इस प्रकार का गर्व करते समय हमें प्रेमचंद नामक किसी अज्ञात अपरिचित व्यक्ति की याद भी नहीं रहती - मानो सब कुछ हमारी ही कृति है ! आज उस व्यक्ति को पत्र लिखते समय, उसकी अनुमति के बिना उसके सम्पूर्ण यश को स्वायत्त कर लेने के अप- राघ के लिए जो हम क्षमा नहीं माँगते, वह भी गर्व का ही एक दूसरा रूप है।

    आत्मीयता का इससे बड़ा प्रमाण हम क्या दे सकते हैं ?

    आप हमारा आदर और अभिनन्दन ग्रहण कीजिए ।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी

(साभार – प्रेमचंद : चिट्ठी-पत्री, सं. अमृतराय /मदनगोपाल)

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