बुधवार, 31 जुलाई 2024

इण्टरव्यू

 

पं. बनारसीदास चतुर्वेदी का पत्र-इण्टरव्यू

 

पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने 21 मई, 1930 को कलकत्ता से पत्र लिखते हुए प्रेमचन्द को सात प्रश्न भेजे थे, जिनका उत्तर प्रेमचन्द ने 3 जून, 1930 को लिखे पत्र में दिया था। यह पत्र-इण्टरव्यू यहाँ प्रस्तुत है।

चतुर्वेदी : आपने गल्प लिखना कब प्रारम्भ किया ?

प्रेमचन्द : मैंने 1907 में गल्प लिखना शुरू किया। सबसे पहले 1908 में मेरा सोज़े-वतन’, जो पाँच कहानियों का संग्रह था, ज़माना प्रेस से निकला था, पर उसे हमीरपुर के कलेक्टर ने मुझसे जलवा डाला था। उनके ख़याल में वह विद्रोहात्मक था, हालाँकि तब से उसका अनुवाद कई संग्रहों और पत्रिकाओं में निकल चुका है।

चतुर्वेदी : अपनी कौन-कौन-सी गल्प आपको सर्वोत्तम लगती हैं?

प्रेमचन्द : इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। दो सौ से ऊपर गल्पों में कहाँ तक चुनूँ, लेकिन स्मृति से काम लेकर लिखता हूँ- (1) बड़े घर की बेटी, (2) रानी सारन्धा, (७) नमक का दारोगा, (4) सौत, (5) आभूषण, (6) प्रायश्चित्त, (7) कामना-तरु, (8) मन्दिर और मस्जिद, (9) घासवाली, (10) महातीर्थ, (11) सत्याग्रह, (12) लांछन, (13) सती, (14) लैला, (15) मन्त्र।

मंज़िले-मनसूदनामक उर्दू कहानी बहुत सुन्दर है। कितने ही मुसलमान मित्रों ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है, पर अभी तक उसका अनुवाद नहीं हो सका। अनुवाद में भाषा-सारल्य ग़ायब हो जायेगा।

चतुर्वेदी : आपकी लेखन-शैली पर देशी या विदेशी किन-किन गल्प-लेखकों की रचना का प्रभाव पड़ा है?

प्रेमचन्द : मेरे ऊपर किसी विशेष लेखक की शैली का प्रभाव नहीं पड़ा। बहुत कुछ प. रतननाय दर लखनवी और कुछ डॉ. रवीन्द्रनाथ ठाकुर का असर पड़ा है।

चतुर्वेदी : आपको अपने ग्रन्थों से, रचनाओं से क्या मासिक आय हो जाती है?

प्रेमचन्द : आय की कुछ न पूछिए। पहले की सब किताबों का अधिकार प्रकाशकों को दे दिया। प्रेम-पचीसी’, ‘सेवा-सदन’, ‘सप्त-सरोज’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘संग्रामआदि के लिए एकमुश्त तीन हज़ार रुपये हिन्दी पुस्तक एजेन्सी ने दिया। नव-निधिके लिए शायद अब तक दो सौ रुपये मिले हैं। रंगभूमिके लिए अठारह सौ रुपये दुलारेलाल ने दिये। और संग्रहों के लिए सौ-दो सौ मिल गये। कायाकल्प’, ‘आज़ाद-कथा’, ‘प्रेमतीर्थ’, ‘प्रेम-प्रतिमा’, ‘प्रतिज्ञामैंने खुद छापा, पर अभी तक मुश्किल से 600 रुपये वसूल हुए हैं, और प्रतियाँ पड़ी हुई हैं। फुटकर आमदनी लेखों से शायद 25 रुपये माहवार हो जाती है, मगर इतनी भी नहीं होती। मैं अब हंसऔर माधुरीके सिवा कहीं लिखता ही नहीं। कभी-कभी विशाल भारतऔर सरस्वतीमें लिखता हूँ, बस: हाँ, अनुवादों से भी अब तक शायद दो हजार से अधिक न मिला होगा। आठ सौ रुपये में रंगभूमि और प्रेमाश्रमदोनों का अनुवाद दे दिया था। कोई छापने वाला ही न मिलता था।

चतुर्वेदी : हिन्दी गल्प-साहित्य की वर्तमान प्रगति विषय में आपके क्या विचार हैं?

प्रेमचन्द : हिन्दी में गल्प-साहित्य अभी अत्यन्त प्रारम्भिक दशा में है। कहानी लिखने वालों में सुदर्शन, कौशिक, जैनेन्द्रकुमार, ‘उग्र’, प्रसाद, राजेश्वरी यही नज़र आते हैं। मुझे जैनेन्द्र जौर उग्र’ में मौलिकता और बाहुल्य के चिह्न मिलते हैं। प्रसाद जी की कहानियाँ भावात्मक होती हैं, realistic नहीं; राजेश्वरी अच्छा लिखते हैं, मगर बहुत कम। सुदर्शन जी की रचनाएँ सुन्दर होती हैं, पर गहराई नहीं होती और कौशिक जी अग्रसर बात को बेज़रूरत बढ़ा देते हैं। किसी ने अभी तक समाज के किसी विशेष अंग का विशेष रूप से अध्ययन नहीं किया। उग्रने किया, मगर बहक गये। मैंने कृषक समाज को लिया, मगर अभी कितने ही ऐसे समाज पड़े हैं जिन पर रोशनी डालने की जरूरत है। साधुओं के समाज को किसी ने स्पर्श तक नहीं किया। हमारे यहाँ कल्पना की प्रधानता है, अनुभूत की नहीं। बात यह है कि अभी तक साहित्य को हम व्यवसाय के रूप में नहीं ग्रहण कर सके। मेरा जीवन तो आर्थिक दृष्टि से असफल है और रहेगा। हंसनिकाल कर मैंने किताबों की बचत का भी वारा-न्यारा कर दिया। यों शायद इस साल चार-छः सौ मिल जाते, पर अब आशा नहीं।

चतुर्वेदी : आपकी रचनाओं का अनुवाद किन-किन भाषाओं में हुआ है?

प्रेमचन्द : मेरी रचनाओं का अनुवाद मराठी, गुजराती, उर्दू, तमिल भाषाओं में हुआ है। सब का नहीं। सबसे ज़्यादा उर्दू में, उसके बाद मराठी में। तमिल और तेलगु के कई सज्जनों ने मुझसे आज्ञा माँगी जो मैंने दे दी। अनुवाद हुआ या नहीं, मैं नहीं कह सकता। जापानी में तीन-चार कहानियों का अनुवाद हुआ है, जिसके महाशय सब्बरवाल ने मुझे अभी कई दिन हुए 50 रुपये भेजे हैं। मैं उनका आभारी हूँ। दो-तीन कहानियों का अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ है, बस।

चतुर्वेदी : आपकी आकांक्षाएँ क्या-क्या हैं?

प्रेमचन्द : मेरी आकांक्षाएँ कुछ नहीं हैं। इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य-संग्राम में विजयी हों। धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही। खाने-भर को मिल ही जाता है। मोटर और बंगले की मुझे हविस नहीं। हाँ, यह जरूर चाहता हूँ कि दो-चार उच्च कोटि की पुस्तकें लिखें, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य-विजय ही हो। मुझे अपने दोनों लड़कों के विषय में कोई बड़ी लालसा नहीं है। यही चाहता हूँ कि वे ईमानदार, सच्चे और पक्के इरादे के हों। विलासी, घनी, खुशामदी सन्तान से मुझे घृणा है। मैं शान्ति से बैठना भी नहीं चाहता। साहित्य और स्वदेश के लिए कुछ-न-कुछ करते रहना चाहता हूँ। हाँ, रोटी-दाल और तोला-भर घी और मामूली कपड़े मयस्सर होते रहें।

 

(प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य-1,सं. कमल किशोर गोयनका, पृ. 392-394 से साभार )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सितंबर 2024, अंक 51

शब्द-सृष्टि सितंबर 202 4, अंक 51 संपादकीय – डॉ. पूर्वा शर्मा भाषा  शब्द संज्ञान – ‘अति आवश्यक’ तथा ‘अत्यावश्यक’ – डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र ...