सामाजिक
सरोकार, प्रेमचंद
और उनकी कहानियाँ
डॉ.
माया प्रकाश पाण्डेय
बड़े
शौक से सुन रहा था जमाना।
तुम्हीं
सो गये दास्तां कहते कहते।।
प्रेमचंद
समाज के थे और समाज प्रेमचंद का था। समाजोन्नति के लिए प्रेमचंदजी समाज को बहुत
कुछ दे रहे थे, समाज
के लोगों से बतिया रहे थे, लोग
प्रेमचंदजी से प्रभावित थे, उनके
संदेश को गौर से सुन रहे थे और मान भी रहे थे,
किन्तु एक दिन निर्दयी मौत ने उनका मुँह सदा के लिए
बन्द कर दिया। प्रेमचंद के समय में समाज की जो दयनीय स्थिति थी उसे देखकर उनका
संवेदनशील हृदय काँप उठा था। वे समाज के शोषित,
पीड़ित, बहिष्कृत,
तिरस्कृत वर्ग को न्याय दिलाना चाहते थे। मैं प्रेमचंद
की सामाजिक मूल्यों संबंधी कहानियों की चर्चा करूँ उससे पूर्व शिवरानी देवी के
प्रेमचंद संबंधी संस्मरण को उद्धृत करना चाहूँगा। 25
जून की ढाई बजे रात की बात है प्रेमचंद जी बीमार रहते हैं,
शिवरानी देवी बेटे से कहती हैं- ‘‘बेटा घुन्नू! जरा
पंखा खोल दो, बड़ी
गरमी हो रही है’- ये उनके शब्द थे, उसके
थोड़ी देर बाद छोटा लड़का बन्नू दौड़ता हुआ मेरे कमरे में आया और बोला,-
अम्मा, बाबूजी
को कै हुई है, आशंका,
भय और दुःख के मारे मैं चौंक पड़ी- झपट कर जब वहाँ
पहुँची और खून की कै देखी तो मैं सिहर उठी। -मानो किसी ने मेरे देह में बिजली
छुवाकर घाव कर दिया हो! थोड़ी देर पश्चात् वह अस्फुट शब्दों में कह गये- रानी! अब
मैं चला। आती हुई दुःख की आँधी से सम्हल, धैर्य
और साहस को बटोर, मैंने
अपने स्वाभाविक शासन-स्वर में कहा- चुप रहो,
आप मुझे छोड़कर नहीं जा सकते। तब खून की तरफ इशारा करके
बोले- जिसके मुँह से इतना खून निकले, क्या
उससे भी तुम आशा रखती हो कि वह जीये? मैंने
कहा- आशा क्यों न करूँ? मैंने
किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा है। उन्होंने मुँह फेर लिया और मैंने घुन्नू को दौड़ाकर
डॉक्टर को बुलवाया, डॉक्टर
ने आकर ढाढ़स दिया और कहा, केवल
पित्त की खराबी है। उसने ऐसे दो चार मरीजों को ठीक किया है। मेरे चित्त को
सान्त्वना मिली और मुझे विश्वास हो गया कि वे चंगे हो जायेंगे।
उस
दिन के बाद, आपको
अच्छी तरह नींद नहीं आई। रात को आप रोशनी करके लिखते-पढ़ते थे,
इस महान् पीड़ा-काल में भी वे बराबर लिखते रहे और इसी
दशा में उन्होंने ‘मंगलसूत्र’ के बीसों सफे लिखे हैं। तबीयत अधिक खराब हो जायगी इस
भय के मारे मैंने कई बार उनको लिखने से रोका,
वे मान गये, परन्तु
फिर अधिक बार मैं उनको न रोक सकी। कभी-कभी रात भर उनको नींद नहीं आती थी और इस
प्रकार पढ़ने लिखने में उनका दिल बहलेगा यह सोच कर मैं उनको पुस्तक दे देती थी। मैं
रात दिन उनके खाट के आसपास चक्कर काटती रहती थी और उनका सिर सहलाया करती थी। उनके
सामने मैं सदैव खुश रहने की चेष्टा करती थी।
एक
रात को- मेरे स्वामी के पेट में बहुत दर्द था,
मैं उनके सिरहाने बैठी हुई थी,
जब दर्द कुछ कम हुआ तो वे बोले- रानी,
मुझे तुम्हारी और बन्नू की बड़ी चिन्ता है। घुन्नू तो
हाथ पैरवाला है, बेटी
की शादी हो गई है- वह सुखी है परन्तु तुम्हारी और बन्नू की क्या दशा होगी?
उस समय मेरे संयम,
धैर्य और विश्वास के बाँध टूट गये,
जीवन में मैं पहली बार रो पड़ी। परन्तु मैंने अपने
आँसुओं को छिपा लिया। उन्होंने मेरे हृदय को देख लिया परन्तु आँसुओं को न देख सके,
क्योंकि मैं जानती थी कि वे सब दुःख देख सकते थे,
परन्तु मेरे आँसू उनके लिए असहनीय थे। इस प्रकार वे
बोलते रहे- रानी, मैं
भी तुम्हें छोड़कर जाना नहीं चाहता। यहाँ मैं सब कष्ट सहने को तैयार हूँ- परन्तु
इसके आगे मेरा बस ही क्या है? इसके बाद...। फिर वे कहने लगे- रानी,
तुम अगले जन्म में मेरी माँ थीं और इस जन्म में देवी
हो। मैंने उनका मुंह बन्द कर दिया, फिर
भी वे कहने लगे- रानी, तुम्हीं
मेरी आदि-शक्ति हो, तुम
घबराना मत, फिर
तुम्हीं कौन यहाँ बैठी रहोगी? इस
प्रकार उस रात को बजाय मेरे वे मुझे ही सात्वना देने लगे। मैं चुपचाप बैठी हुई
उनका आशीर्वाद ले रही थी। मेरी आँखें झुकी हुई थीं और उनका महान् हाथ मेरे मस्तक
पर था।’’1
जनवादी
होना और जनवाद को जीना दोनों में बहुत अन्तर है। प्रेमचंद न सिर्फ जनवादी रचनाकार
थे, अपितु अपने जीवन में भी
वे जनवाद को जी रहे थे। शिवरानी देवी का यह संस्मरण देखिए-‘‘प्रेस’ खुल गया था और
आप स्वयं वहाँ काम करते थे, जाड़े
के दिन थे। मुझे उनके सूती पुराने कपड़े भद्दे जँचे और गरम कपड़े बनाने के लिए
अनुरोधपूर्वक दो बार चालीस-चालीस रूपये दिये,
परन्तु उन्होंने दोनों बार वे रूपये मजदूरों को दे
दिये। घर पर जब मैंने पूछा- कपड़े कहाँ हैं?
तब आप हँस कर बाले- कैसे कपड़े?
वे रूपये तो मैंने मजदूरों को दे दिये,
शायद उन लोगों ने कपड़ा खरीद लिया होगा। इस पर मैं
नाराज हो गई तब वे अपने सहज स्वर में
बोले- रानी, जो
दिन भर तुम्हारे प्रेस में मेहनत करे वह भूखा मरे और मैं गरम सूट पहनूँ,
यह तो शोभा नहीं देता। उनकी इस दलील पर मैं खीझ उठी और
बोली- मैंने कोई तुम्हारे प्रेस का ठेका नहीं लिया है। तब आप खिलखिला कर हँस पड़े
और बोले- जब तुमने मेरा ठेका ले लिया है, तब
मेरा रहा ही क्या? सब
कुछ तुम्हारा ही तो है। फिर हम तुम दोनों एक नाव के यात्री हैं,
हमारा तुम्हारा कर्तव्य जुदा नहीं हो सकता। जो मेरा है
वह भी तुम्हारा है क्योंकि मैंने अपने आपको तुम्हारे हाथों में सौंप दिया है। मैं
निरुत्तर हो गई और बोली- मैं तो ऐसा सोचना नहीं चाहती। तब उन्होंने असीम प्यार के
साथ कहा- तुम पगली हो।
जब
मैंने देखा कि इस तरह वे जाड़े के कपड़े नहीं बनवाते हैं तब मैंने उनके भाई साहब को
रूपये दिये और कहा कि इनके लिए आप कपड़े बनवा दें। तब बड़ी मुश्किल से आपने कपड़ा
खरीदा। जब सूट बनकर आया तब आप पहिन कर मेरे पास आये और बोले- मैं सलाम करता हूँ,
मैंने तुम्हारा हुक्म बजा लिया है। मैंने भी हॅंस कर
आशीर्वाद दिया और बोली- ‘ईश्वर तुम्हें सुखी रखे,
और हर साल नये नये कपड़े पहिनो।’ फिर मैंने कहा- सलाम तो
बड़ो को किया जाता है, मैं
तो न उमर में बड़ी हूँ, न
रिश्ते में, न
पदवी में, फिर
आप मुझे सलाम क्यों करते हैं? तब
उन्होंने उत्तर दिया- उम्र, रिश्ता,
या पदवी कोई चीज नहीं है,
मैं तो हृदय देखता हूँ और तुम्हारा हृदय माँ का हृदय है,
जिस प्रकार माता अपने बच्चों को खिला पिलाकर खुश होती
है, उसी
प्रकार तुम भी मुझे देखकर प्रसन्न होती हो
और इसलिए अब मैं हमेशा तुम्हें सलाम किया करूँगा। हा ! परसाल मई के महीने में
उन्होंने स्नान करके नई बनियान पहनी थी और मुझे सलाम किया था- यही उनका अन्तिम
सलाम था।’’2
यह था प्रेमचंद का जीवन और उनके विचार। वे जो सिद्धान्त में कहते थे वही व्यवहार
में जीते थे। उन्हीं की तरह यदि आज के पूंजीपति वर्ग सोचने लगें तो गरीबों,
मजदूरों को उनकी मेहनत का पैसा मिलने लगे,
उनकी गरीबी दूर हो जाए और वे भी सामान्य जिन्दगी बसर कर
सकेंगे, किन्तु
ऐसा संभव नहीं होगा, क्योंकि
सभी प्रेमचंद नहीं हो सकते।
हिन्दी
कथासाहित्य के चमकते सितारे को सिर्फ अपने घर-परिवार की चिन्ता नहीं थी,
अपितु संपूर्ण भारत के लोगों के जीवन का भार प्रेमचंद
अपने कधों पर लेकर चल रहे थे। प्रेमचंद गरीबों के सदैव पक्षधर रहे हैं,
उनका पक्ष लेते हुए वे कहते हैं- ‘‘किसी ब्राह्मण महाजन
के पास उसी का भाई ब्राह्मण आसामी कर्ज मांगने जाता है,
ब्राह्मण महाजन एक पाई भी नहीं देता,
उस पर उसका विश्वास नहीं है। उसी ब्राह्मण महाजन के पास
एक अछूत आसामी जाता है और बिना किसी लिखा-पढ़ी के रूपये ले आता है। ब्राह्मण को उस
पर विश्वास है। वह जानता है, यह
बेईमानी नहीं करेगा। ऐसे सत्यवादी, सरल
हृदय, भक्ति-परायण
लोगों को हम अछूत कहते हैं, उनसे
घृणा करते हैं, मगर
हमारा विश्वास है, हिन्दू
समाज की चेतना जागृत हो गयी है, अब
वह ऐसे अन्यायों को सहन न करेगा, राष्ट्रों
के जीवन का रहस्य उसकी समझ में आ गया है, वह
ऐसी नीति का साथ न देगा, जो
उसके जीवन की जड़ काट रही है।’’3
मनुष्य
आज पैसे के पीछे पागल होकर भाग रहा है। ‘पैसा गुरू और सब चेला’ वाली कहावत सार्थक
हो रही है। यहाँ तक कि गलत रास्ते अपना कर भी लोग रातोरात अमीर बनना चाहते हैं।
इसी पैसे के कारण कितने लोग आज भी तिहाड़ जेल की हवा खा रहे हैं और कितने सुखी जीवन
बिता रहे हैं जब तक कि वे पकड़े नहीं जाते। रातोरात अमीरी के चक्कर में कितनी औरतें
व्यभिचार के दलदल में फंसती जा रही हैं। मनुष्य और पैसों के संबंध को लेकर
प्रेमचंदजी सुदर्शन जी से बात-चीत करते हुए कहते हैं- ‘‘भाईजान! सिर्फ़ रुपया
कमाना ही आदमी का उद्देश्य नहीं है। मनुष्यत्व को ऊपर उठाना और मनुष्य के मन में
ऊँचा विचार पैदा करना भी उसका कर्तव्य है। अगर यह नहीं है तो आदमी और पशु दोनों
बराबर हैं। और जिसके हाथ में भगवान ने कलम और कलम में तासीर दी है उसका कर्तव्य तो
और भी बढ़ जाता है।’’4 ‘नमक
का दारोगा’ का नायक अपने पिता की महत्वाकांक्षा पर पानी फेर देता है। घर की आर्थिक
स्थिति अच्छी न होने के बावजूद घूस लेने से मना कर देता है और दोषी को सजा दिलाने
का प्रयास करता है। हालाँकि दोषी की आर्थिक संपन्नता के कारण सजा नहीं हो पाती,
क्योंकि सभी लोग बिक चुके होते हैं,
किन्तु नायक अपने कर्त्तव्यपथ से डिगता नहीं हैं और उसी
का परिणाम है कि उसे पुनः इज्जत की नौकरी मिलती है। उसकी कर्त्तव्यनिष्ठा,
ईमानदारी की तारीफ होती है। उसके पिता जो उसे कोसते थे
वे ही उसे इज्जत देते हैं। प्रेमचंद यही संदेश देना चाहते हैं कि आदमी को सत्य की
पक्षधरता करनी चाहिए और मानवमूल्यों की रक्षा करनी चाहिए।
प्रेमचन्द
हिन्दी कथा-साहित्य के मेरुदण्ड हैं जिसे स्पर्श किये बिना समुद्र रूपी
कथा-साहित्य को लाँघ पाना असम्भव है। इतना ही नहीं उनका कथा-साहित्य समुद्र की तरह
विशाल है जिसका थाह लगाना भी नामुमकिन है। प्रेमचंद एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने
समाज के हर पहलू पर, हर
तबके के लोगों की समस्याओं पर दृष्टिपात किया है। प्रेमचंद की दृष्टि अतिसूक्ष्म
होने के नाते उनकी लेखनी समाज के कोने-कोने तक जाकर समाज की अच्छाईयों और बुराईयों
को स्पर्श करती है और बुराईयों से निजात पाने का मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। उनकी
प्रमुख कहानियों में ‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न,
सांसारिक प्रेम और देश प्रेम,
शोक का पुरस्कार,
पाप का अग्निकुण्ड,
बड़े घर की बेटी,
शिकार, आखिरी
मंजिल, गरीब
की हाय, राजा
हरदौल, ममता,
राजहठ, नसीहतों
का दफ्तर, अंधेर,
अमावस की रात, तिरिया-चरित्तर,
धर्मसंकट, बांका
जमींदार, मिलाप,
सिर्फ एक आवाज,
अनाथ लड़की, अपनी
करनी, अमृत,
कर्मों का फल, खून
सफेद, नमक
का दारोगा, नेकी,
पछतावा, शिकारी
राजकुमार, शतरंज
के खिलाड़ी, सवासेर
गेहूँ, डिग्री
के रूपये, सभ्यता
का रहस्य, कजाकी,
हिंसा परमो धर्म,
दंड, सुजान
भगत, मंदिर,
मोटेराम शास्त्री,
पिसनहारी का कुआँ,
विद्रोही, आगा-पीछा,
कानूनी कुमार, अलग्योझा,
पूस की रात, पत्नी
से पति, समरयात्रा,
मैंकू, शराब
की दुकान, दूसरी
शादी, स्वामिनी,
दो बैलों की कथा,
ठाकुर का कुआँ,
बेटों वाली विधवा,
ईदगाह, नशा,
दूध का दाम, पंडित
मोटेराम की डायरी, बड़े
भाईसाहब, कफन,
आदि लगभग तीन सौ से अधिक कहानियाँ हैं।
प्रेमचंद
जनवादी विचारधारा के रचनाकार होने के नाते जाति-पांति,
छुआ-छूत के भेदभाव को नहीं मानते थे,
जिसके कारण सवर्ण उन्हें अपना विरोधी मानते थे। ‘पंडित
मोटेराम शास्त्री’ कहानी के कारण उन पर मुकदमा भी चलाया गया था। जातिवादिता के
संदर्भ में प्रेमचंद लिखते हैं- ‘‘लेखक की दृष्टि में ब्राह्मण कोई समुदाय नहीं,
एक महान पद है जिस पर आदमी बहुत त्याग,
सेवा और सदाचरण से पहुँचता है। हरेक टकेपंथी पुजारी को
ब्राह्मण कहकर मैं इस पद का अपमान नहीं कर सकता।’’5
किसी समय में जब कर्म की प्रधानता थी तब ‘ब्रह्मजानाति इति ब्राह्मणः’ जो ब्रह्म
का ज्ञान रखता हो उसे ब्राह्ण कहते हैं, की
अवधारणा थी, किन्तु
आज सिर्फ ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से वह ब्राह्मण कहलाता है उसमें
ब्राह्मण के गुण हों या न हों। इसीलिए प्रेमचंदजी इन ढोंगी पंडितों,
पुजारियों व तथाकथित ब्राह्मणों की कुत्शित-गोपनीयता को
अपनी कहानियों के माध्यम से उजागर करते हैं।
प्रेमचंद
के सामाजिक सरोकार की कहानियों के अन्तर्गत यदि सिर्फ सामाजिक न्याय संबंधी
कहानियों को लें तो- गरीब की हाय, पाप
का अग्निकुंड, नेकी,
पछतावा, कर्मों
का फल, पंच
परमेश्वर, मनुष्य
का परमधर्म, सज्जनता
का दंड, सवा
सेर गेहूँ, मोटेराम
शास्त्री, सुजान
भगत आदि कहानियों को समाहित करते हैं। किन्तु क्या हम उनकी नारी विषयक,
दलित विषयक, धर्म
विषयक कहानियों को सामाजिक सरोकार से परे रख सकते हैं?
अर्थात् नहीं, क्योंकि
ये सभी हमारे समाज के ही प्रमुख अंग हैं।
‘सद्गति’
कहानी हमारे समाज के एक ऐसे वर्ग की समस्या को उजागर करती है जो हमारे बींच रहता
है, जिसके बिना समाज अधूरा है
और उसके प्रति उच्चवर्ग का जो दृष्टिकोण है उसी का उल्लेख प्रेमचंद ‘सद्गति’ कहानी
में करते हैं। यहॉं पर वही पाखण्डी खलनायक ब्राह्मण है,
जिसके अत्याचार ने प्रेमचंदजी को कहानी लिखने पर विवश
किया है। दुखी अंधविश्वास का शिकार होता है। प्रेमचंद कहानी का प्रारंभ यहॉं से
करते हैं- दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया घर को गोबर से
लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके तो चमारिन ने कहा- तो जाके
पंडित बाबा से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जायें। बात अब यह है कि दुखी की बेटी
शादी के योग्य हो गई है, उसकी
सगाई के लिए शाइत बिचरवाने के लिए दुखी पंडित जी के पास जाता है। जाने से पूर्व
पंडित जी जब घर आएंगे उसकी सारी व्यवस्था झुरिया को सौंपता है,
सीधा कहॉं से लाना, खटिया की व्यवस्था
कैसे होगी, दक्षिणा
क्या देना है आदि। पंडितजी को क्रोध बहुत जल्दी आता है इसका ध्यान रखना।
दुखी
घास का एक पूरा लेकर पंडित घासीराम के यहॉं जाता है। नजराने के लिए कुछ तो चाहिए
खाली हाथ कैसे जा सकता है? अगर
वह खाली हाथ जाता तो बाबा उसे दूर से ही दुत्कार देते। पंडित घासीराम ईश्वर के परम
भक्त थे। सुबह पूजापाठ करके जैसे बाबाजी बाहर निकले तो दुखी को पूरा लिए हाथ जोड़े
खड़ा देखकर बोले- आज कैसे चला रे दुखिया?
दुखी-
बिटिया की सगाई कर रहा हूँ महाराज। कुछ साइत-सगुन विचारना है। कब मर्जी होगी?
घासीराम-
आज मुझे छुट्टी नहीं। हाँ, सांझ
तक आ जाऊँगा।
दुखी-
नहीं महाराज जल्दी मरजी हो जाय। सब सामान ठीक कर आया हूँ। यह घास कहाँ रख दूँ।
पंडितजी
कहते हैं कि गाय के सामने घास डाल दे, उसके
बाद उन्होंने पूरे दिनभर का काम दुखी को बता दिया- झाडू से द्वार साफ कर दो,
बैठक को गोबर से लीप दो,
तब तक मैं खाना खाकर जरा आराम कर लूँ। हाँ,
यह लकड़ी भी फाड दो,
खलिहान से भूसा भी ला दो। दुखी तुरंत काम में लग गया,
क्योंकि जब तक वह यह सारा काम पूरा नहीं करेगा तब तक
पंडित जी उसकी साईत बिचारने नहीं जाएंगे। पंडितजी खाकर आराम कर रहे हैं और दुखी
काम में लगा है, पंडित
के डर से वह कहीं खाने भी नहीं जा रहा है,
भूख लगी है, लेकिन
उसे दबाकर काम में लगा है। जब वह काम करते-करते थक जाता है तब तमाखू पीने का मन
कहता है तब वह गौण महाराज के यहॉं जाता है तमाखू और चिलम लेता है किंतु आग नहीं
मिलती, आकर
पंडिताइन से आग मांगता है गुस्से में पंडिताइन आग का टुकड़ा जो से फेंकती हैं जो
दुखी के सिर पर पड़ता है फिर भी बेचारा कुछ बोले बिना आग लेकर चला आता हैं दुखी
चिलम पीकर लकड़ी फाड़ने में जुट जाता है। पंडिताइन ने दुखी के ऊपर आग फेंकी और जब आग
उसके सिर पर पड़ी तो उन्हें दया आ गई। घर आकर पंडित से बोली- इस चमरवा को भी कुछ
खाने को दे दो, बेचारा
कब से काम कर रहा हैं भूखा होगा।
पंडित
ने पूछा- रोटियाँ
हैं?
पंडितानी
ने कहा- दो-चार बच जाएँगी।
पंडित-
दो-चार रोटियों से क्या होगा? चमार
है कम से कम सेर भर चढ़ा जाएगा।
पंडिताइन-
अरे बाप रे! तो फिर रहने दो।
पंडित
ने कहा- कुछ भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो लिट्टी ठोंक दो। साले का पेट भर
जाएगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता।
पंडिताइन
ने कहा- अब जाने भी दो धूप में कौन मरे।
दुखी
चिलम पीकर कुल्हाडी संभाली। कोई आधा घंटे तक लगातार कुल्हाडी चलाई किन्तु कोई फर्क
न पड़ा। इतने में गौड़जी आ गए और कहा- नाहक परेशान होते हो। तुमसे पहले कईयों ने हाथ
आजमाया है। गोड़ कहते हैं- कुछ खाने को मिला,
नहीं, तो
मांगते क्यों नहीं? दुखी
कहता है- बाह्मन की रोटी हमको नहीं पचेगी। तब गोड जिसका नाम चिखुरी था कहता है-
पचने को तो पच जाएगी, पहले
मिले तो। जमींदार भी कुछ खाने को देता है,
हाकिम भी बेगार लेता है तो थोड़ी-बहुत मंजूरी दे देता
है। यह उनसे भी बढ़ गए हैं उस पर धर्मात्मा बनते हैं। दुखी कहता है- भाई धीरे बोलो
कहीं सुन लेंगे तो आफत आ जाएगी। चिखुरी ने भी लकड़ी पर दो हाथ आजमाया और फिर चला
गया। जाते-जाते कह गया- तुम्हारे फाडे़ यह न फटेगी,
जान भले निकल जाय।
दुखी
फिर कुल्हाड़ी उठाई- भूख से पेट-पीठ एक हो गई है,
सबेरे से पानी भी नहीं पिया है। उठा-बैठा भी नहीं जा
रहा है। पंडित हैं, कहीं
साइत ठीक न विचारें तो फिर सत्यानाश ही हो जाय। जभी तो संसार में इतना मान है।
साइत का ही तो सब खेल है। जिसे चाहें बिगाड़ दें,
और फिर दुखी जी-जान लगाकर लकड़ी चीरने लगा। दुखी की शरीर
लहस गई थी वह अपने होश में न था, थोड़ी
देर बाद लकड़ी बींच से फटी और दुखी के हाथ से कुल्हाडी छूट गई,
वह गिर पड़ा और दम तोड़ दिया। उसके बाद तो चमरौने के लोग
दुखी की लाश को ले जाने से मना कर देते हैं,
गोड कहता है कि अब पुलिस तहकीकात करेगी। अन्त में दूसरे
दिन पंडित ने बड़ी-सी रस्सी लेकर फंदा बनाकर पैर में डाला और अकेले घसीटकर कुछ दूर
ले गये। आकर स्नान किया, चारों
ओर गंगाजल छिड़का, दुर्गापाठ
पढ़ा। उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़, गिद्ध,
कुत्ते और कौए नोंच रहे थे। प्रेमचंद लिखते हैं- यही
जीवनपर्यंत की भक्ति, सेवा
और निष्ठा का पुरस्कार था। इसमें प्रेमचंद ने समाज के पिछड़े हुए,
निम्नवर्ग, अछूत
वर्ग की समस्याओं को उठाया है, जो
जीवनपर्यन्त संघर्ष करते रहते हैं। यह समस्या आज भी विद्यमान है किन्तु उस शोषण का
रूप अलग है।
समाजव्यवस्था
में निम्नवर्ग व पिछड़े हुए लोगों के लिए रचे गये जिस नरक की चर्चा ‘सद्गति’ में की
गई है, उस
नरक को रचने वाले वे पुरोहित हों, ठाकुर
हों या साहूकार कोई भी हो उनका इससे क्रूर और भयावह चेहरा शायद ही कहीं और,
इतने समुचित रूप से,
इतनी पशुता के साथ उजागर हुआ होगा जितना इस कहानी में
हुआ है।
प्रेमचन्द
ने समाज के बींच रहकर सामाजिक समस्याओं का निदान अपनी कहानियों के माध्यम से करने
का प्रयास किया है। उन्होंने लोगों को नेक राह पर चलने के लिए प्रेरित किया है।
‘नेकी’ कहानी में तखतसिंह ऐसा ही एक महान नायक है जो परोपकारी है,
ईमानदार है और सद्मार्ग पर चलने वाला है। उसके जीवन में
अनेकों मुशीबतें आती हैं किन्तु कभी उन्हें अपने पर हावी नहीं होने देता और न ही
अपने वसूलों से कभी समझौता करता है। यहॉं तक कि जिस ‘रेवती’ के बच्चे की जान तालाब
में कूद कर उसे डूबने से बचाई थी उसी का पति हीरामणि उसे परास्त करता है ‘नेकी’ का
बदला ‘बदी’ से देता है, फिर
भी तखतसिंह मृत्यु को स्वीकार कर लेता है किन्तु हीरामणि के सामने सिर नहीं
झुकाता। प्रेमचंद नेकी के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते हैं। हम जानते हैं कि इस
रास्ते पर चलना इतना आसान नहीं है, किन्तु
यहॉं आत्मगौरव है, स्वाभिमान
है, मनुष्य जिन्दगी भर सिर
उठाकर चल सकता है, ईश्वर
का दिया हुआ संपूर्ण जीवन जी सकता है। किन्तु ज बवह इस नेकी के रास्ते को छोड़ता है
तो ऐसे नर्क-कुण्ड में गिरता है कि जिसमें से सारी जिंदगी निकल नहीं सकता। इसीजिए
कहा गया है कि आदमी को अपने चरित्र की रक्षा करनी चाहिए,
स्वाभिमान को बचाकर रखना चाहिए। अंग्रेजी में कहा गया
है-
Money
is gone, nothing is gone.
Health
is gone, something is gone.
Character
is gone, everything is gone.
शायद
यही कारण है कि प्रेमचंद सारी जिंदगी संघर्ष करते रहे,
किन्तु कभी भी उन्होंने अपने स्वाभिमान पर,
अपने चरित्र पर आंच नहीं आने दी। वे सदा मानव-मूल्यों
और मानव-अस्मिता की रक्षा करते रहे। वे भी चाहते तो औरों की तरह बहुत पैसा कमा
सकते थे, किन्तु
उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने न तो घुटने टेके और न ही उनसे हाथ मिलाया।
‘सोजे वतन’ कहानी संग्रह को नष्ट होते हुए देखते रहे,
उस दुख को (रचनाकार के लिए एक ग्रन्थ का निर्माण उतना
ही आनंद देता है जितना घर बेटे के जन्म पर होता है। यहॉ तो प्रेमचंद का ग्रन्थ
जलाया जा रहा था और वे देख रहे किन्तु बेबस थे) सहन कर लिया,
किन्तु अंग्रेजों के सामने झुके नहीं।
सूदखोरी
का व्यापार वर्षों से चला आ रहा है, इसका
सीधा संबंध सामाजिक सरोकार से है। आज वही ‘सूद’ का शुद्ध,
परिनिष्ठित रूप ‘व्याज’ के नाम से अपनी सत्ता जमाये हुए
है। यह काम पहले सेठ, साहूकार,
कुछ गिने-चुने धनपशु ही किया करते थे,
किन्तु आज तमाम बैंकें,
कोऑपरेटिव सोसायिटियाँ,
व्यक्तिगत तौर पर कुछ पैसेवाले लोग आज भी सूद के जरिये
गरीबों का खून चूस रहे हैं, उनकी
गरीबी का फायदा उठा रहे हैं। यही समस्या प्रेमचंद ने ‘सवा सेर गेहूँ’ में उठाई है।
उस समय गाँव के महाजन, अनपढ़
गरीबों मजदूरों का किस तरह से फायदा उठा रहे थे,
धर्म का भय दिखाकर उन्हें ठग रहे थे,
उनका आर्थिक शोषण कर रहे थे उसी का चित्रण इस कहानी में
किया गया है। शंकर कुर्मी महात्मा को भोजन कराने के लिए पंडित जी के पास से सवा
सेर गेहूँ ले आता है और महात्मा को भोजन कराकर उन्हें संतुष्ट करता है। किन्तु उस
‘सवा सेर गेहूँ’ को अदा करने के लिए उसकी दो पुश्त भी कम पड़ जाती है। उस गेहूँ के
एवज में शंकर ने ब्राह्मण देवता को काफी अनाज दिया,
नेग दिया, किन्तु
ब्राह्मण देवता उसे दान के खाते में डालते रहे और ‘सवा सेर गेहूँ’ शंकर के खाते
में उधार बोलता रहा। सात साल बाद ब्राह्मण ने शंकर को बुलाकर उस ‘सवा सेर गेहूँ’
का हिसाब किया तो वह साढ़े पाँच मन हो गया था। ब्राह्मण देवता गेहूँ का दाम 60
रूपये लगाकर उससे दस्तावेज लिखवा लेते हैं। शंकर साल भर कड़ी मेहनत करके साठ रूपये
कमा लेता है और जब उन्हें देने जाता है तब तक पन्द्रह रूपये उस 60
रूपये का सूद हो जाता है। 15
रूपये के लिए शंकर गाँव भर में चक्कर काटता है लेकिन पंडितजी के डर से उसे कोई
रूपया नहीं देता। शंकर निराश हो जाता है और गांजे,
चरस आदि के व्यसन में डूब जाता है। तीन साल बाद पंडितजी
ने शंकर को बुलाकर कहा कि तुम्हारे 15
रूपये का अब 120
रूपया हो गया है। अब उन रूपयों के बदले में शंकर पंडित के यहाँ काम करने लगता है।
अब वह पंडित का बंधुवा मजदूर बन कर रह जाता है।
शंकर
कहता है- महाराज मैं तुम्हारा कर्ज यहीं चुकता करूँगा,
किन्तु आप उस समय तगादा करते तो कब का अदा कर दिया होता,
यह नौबत ही न आती। मैं तो तुम्हारा कर्ज चुका दूंगा
किन्तु भगवान तुम्हें माफ नहीं करेंगे। पंडित जी बड़े गर्व से कहते हैं- ‘‘वहाँ का
डर तुम्हें होगा, मुझे
क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बंधु हैं। ऋषि-मुनि,
सब तो ब्राह्मण ही हैं,
देवता ब्राह्मण हैं,
जो कुछ बने बिगड़ेगी संभाल लेंगे।’’6
दुखी मृत्युपर्यन्त नरक में जाने के भय से पंडित की बातें मान रहा था। शंकर को
अंधविश्वास के चलते इतने कष्ट सहने पड़े। ये प्रेमचंद के समय के वे ब्राह्मण हैं जो
लोगों में धर्म का भय दिखाकर उनका आर्थिक शोषण कर रहे थे और अपने आपको भगवान के
बराबर मानते थे। इसीलिए तो उन्हें ब्राह्मण देवता कहा जाता है।
हमारे
समाज में बेगार की समस्या आज भी जड़ जमाये हुए है। बिना मूल्य चुकाये यदि नौकर मिल
जाये तो पैसा देने को कौन तैयार होगा। मंगल जो ‘दूध का दाम’ कहानी का नायक है,
उसकी माँ भूंगी महेशनाथ जमींदार के यहाँ दाई का काम
करती थी। जमींदार की पत्नी थी तो मोटी-ताजी किन्तु उसे दूध नहीं आता था इसलिए
भूंगी जमींदार के बच्चे को अपना दूध पिलाती थी। जमींदार प्रसन्न होकर पाँच बीघा
जमीन माफी देने का वादा भी किया था। जमींदार के यहाँ भूंगी का खूब आदर होता था।
संयोगवसात् भूंगी के पति गूदड़ का प्लेग की बीमारी के कारण मृत्यु हो गयी और
मोटेराम शास्त्री धर्म की आड़ लेकर जमींदार के यहाँ से भूंगी को निकलवा देते हैं।
जमींदार की कोठी का नाला साफ करते हुए एक दिन साँप के काटने से भूंगी की मृत्यु हो
जाती है। मंगल अब जमींदार की जूठन पर पलने लगता है। यही मंगल जब बड़ा होगा तो
जमींदार को बिना मूल्य का नौकर मिल जायेगा। इस तरह से इस संसार में पता नहीं कितने
‘दूध का दाम’ का ‘मंगल’, ‘सौभाग्य
के कोड़े’ का ‘नथुवा’ जैसे लोग बेगार की समस्या से जूझ रहे होंगे। प्रेमचंद इस
समस्या से ‘दुखी’, ‘शंकर’,
‘मंगल’ और ‘नथुवा’ जैसे लोगों को निजात दिलाना चाहते थे।
हमारे
देश व समाज में एक लोभ-रोग व्याप्त है, यह
छूत-रोग (चेपी रोग) जैसा है जो भी इसे छूता है उसे लग जाता है। उसे सब भ्रष्टाचार
के नाम से जानते हैं। जो समाज व देश को धीरे-धीरे घुन की तरह खतम कर रहा है। वह
प्रेमचंदजी के समय में भी था, लेकिन
बहुत कम। आज तो निचले तबके से लेकर ऊपर तक के लोगों को इसने अपने अधीन कर रखा है।
यह विकट समस्या वैश्विक समस्या बन गयी है। अभी-अभी हमारे देश में भ्रष्टाचार का
मुद्दा जोरों से चल रहा है, इस
भ्रष्टाचार रूपी सुनामी ने एक तरह से कहें तो सरकार को हिलाकर रख दिया। जहाँ तक
मुझे लग रहा है यह सुनामी सरकार को अपने साथ बहा ले जाएगी।
समाजव्यवस्था
की तह में इसने अपना स्थान जमा रखा है। भ्रष्टाचार समाज व देश की प्रमुख समस्या
बना हुआ है जिसे दूर किये बिना स्वस्थ समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसलिए
प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के माध्यम से भ्रष्टाचार का पर्दाफास करने का प्रयास
किया है, स्वस्थ
समाज व देश से भ्रष्टाचार का निर्मूलन नितांत आवश्यक है,
इसीलिए प्रेमचंद ने ‘गरीब की हाय,
शिकारी राजकुमार,
बलिदान, ब्रह्म
का स्वाँग, विषम
समस्या, नमक
का दारोगा, उपदेश,
यह मेरी मातृभूमि है,
अमावस्या की रात्रि,
पछतावा, कप्तान
साहब, पिसनहारी
का कुआँ, सवा
सेर गेहूँ, सभ्यता
का रहस्य, डिक्री
के रूपये, नेकी,
करिश्मा-ए-इन्तिकाम (अद्भुत प्रतिशोध),
अंधेर, बैंक
का दिवाला, खूनी,
कानूनी कुमार, दारोगा
जी और दण्ड’ आदि जैसी कहानियों में भ्रष्टाचार की समस्याओं को उद्घाटित करने का
प्रयास किया। उन्हें पता था कि यदि इस समस्या का कोई निराकरण न लाया गया तो एक दिन
ऐसा अवश्य आयेगा, जैसाकि
आया है।
प्रेमचन्द
इन भ्रष्टाचारियों का निर्मूलन करना चाहते थे,
जो दीमक की तरह देश को खोखला बनाते रहते हैं। प्रेमचन्द
की रचनाओं की विषयवस्तु के अन्तर्गत राजनीति,
नेता, पुलिस,
अधिकारी, पूंजीवाद,
बेकारी, बेरोजगारी,
शोषण, अत्याचार,
भ्रष्टाचार आदि तमाम समस्याएं आती हैं और जिनका सीधा
संबंध समाज से होता है।
दुखी,
शंकर, मंगल,
नथुवा आदि के दुख के पीछे का सबसे बड़ा कारण अशिक्षा भी
है। पिछड़ी, अछूत
व अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों के लोगों को यह समाज पढ़ने की इजाजत नहीं देता
था, क्योंकि जब ये पढ़-लिख
लेगें तो समझदार हो जायेंगे और तब ढोंगियों का ढोंग,
पाखण्डियों का पाखण्ड नहीं चल पाएगा। इसलिए इन्हें पढ़ने
ही नहीं दिया जाता था। जैसाकि एम. एल. गुप्ता ने लिखा है कि-‘‘अस्पृश्यता के नाम
पर समाज के इतने बड़े वर्ग को शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित रखा गया और
चेतना-शून्य और विवेकहीन बना दिया गया। करोड़ों व्यक्तियों को शिक्षा से वंचित रखकर
किसी समाज से प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने की आशा नहीं की जा सकती। इसके अलावा गंदे
और घृणित समझे जाने वाले कार्यों में अस्पृश्यों को लगाये रखकर और बदले में भोजन
की बची हुई जूठन, फटे-पुराने
वस्त्र और टूटी-फूटी झोंपड़ियाँ देकर इनके प्रति घोर अन्याय किया गया है। ऐसी
स्थिति में इन्हें दरिद्रता और अशिक्षा के मध्य अपना जीवन बिताना पड़ा है।’’7
हमारे
समाज की विडम्बना तो देखिए कि जिस मंदिर को मजदूर बनाता है उसके बनकर तैयार हो
जाने के बाद उसी में वह प्रवेश नहीं करने पाता। ‘मंदिर’ कहानी प्रेमचंद की ऐसी ही
एक कहानी है जिसमें ‘मंदिर-प्रवेश’ की समस्या को उठाया गया है। प्रेमचंद हरिजन की
समस्या का कारण आर्थिक विपन्नता मानते हैं। इसलिए वे कहते हैं- ‘‘हरिजनों की
समस्या केवल मंदिर-प्रवेश से हल होने वाली नहीं है। उसकी समस्या तो आर्थिक है। यदि
हम अपने हरिजन भाइयों को उठाना चाहते हैं तो हमें ऐसे साधन पैदा करने होंगे जो
उन्हें उठने में मदद दें। विद्यालयों में उनके लिए वजीफे करने चाहिए,
नौकरियॉं देने में उनके साथ थोड़ी-सी रियायत करनी
चाहिए।’’8
प्रेमचंद
गाँधीजी के प्रभाव से प्रभावित थे। ‘मंदिर’ कहानी पर गाँधीजी का प्रभाव परिलक्षित
होता है। यही कारण कि कहानी के अन्त में सुखिया का तेवर सुखिया का नहीं है बल्कि
सुखिया के रूप में प्रेमचंद का तेवर दिखाई देता है- ‘‘पापियों,
मेरे बच्चे के प्राण लेकर दूर क्यों खड़े हो?
पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है,
पारस लोहा नहीं हो सकता। मेरे छूने से ठाकुर जी अपवित्र
हो जायेंगे। मुझे बनाया तो छूत नहीं लगी? लो,
अब कभी ठाकुरजी को छूने नहीं आऊँगी। ताले में बंद रखो,
पहरे बैठा दो। हाय,
तुम्हें दया छू भी नहीं गयी। तुम इतने कठोर हो।
बाल-बच्चेवाले होकर भी तुम्हें एक अभागिन माता पर दया नहीं आयी। तिस पर धरम के
ठेकेदार बनते हो। तुम सब हत्यारे हो, निपट
हत्यारे। डरो मत, मैं
थाना पुलिस नहीं जाऊॅगी। मेरा न्याय भगवान करेंगे,
अब उन्हीं के दरबार में फरियाद करूंगी।’’9
सुखिया एक चमारिन है, उसके
जीवन का आधार उसका पुत्र जियावन है जो बीमार है। सुखिया के पति की मृत्यु हो गयी
है। उसका पति स्वप्न में आकर कहता है कि बेटा ठीक हो जायेगा बसर्ते मंदिर जाकर
ठाकुरजी की पूजा करनी पड़ेगी। बेटे के जीवन को बचाने के लिए वह मंदिर जाती है,
उसे मंदिर में प्रवेश नहीं करने नहीं दिया जाता। उसे
मार भी खानी पड़ती है और वह बच्चे को भी नहीं बचा पाती। सुखिया की वेदना को तो एक
माँ ही समझ सकती है। यह समस्या अब मुख्य समस्या नहीं रही,
क्योंकि अब हरिजन भी अपने-अपने मुहल्ले में मंदिर
निर्माण करने लगे हैं।
प्रेमचंद
समाज के अन्तस्तल में प्रवेश करते हैं और समाजविनासक तत्वों को ढूंढ निकालते हैं।
उसके बाद उस पर कहानी का प्लोट तैयार करते हैं और फिर कहानी लिखते हैं। कहानी का यथार्थ
चित्रण करने के साथ-साथ उसका उद्देश्य भी प्रस्तुत करते हैं जो उस कहानी में छिपा
होता है। पाठक कहानी पढ़ता है, समझता
है और अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता है। ऐसे अविस्मरणीय,
अद्वितीय कथाकार हैं हम सबके प्रेमचंद,
वे हम सबके प्रेरणास्रोत हैं,
मार्गदर्शक है,
आदर्श हैं, जो
सदा-सर्वदा हमारे बींच अपनी रचनाओं के माध्यम से उपस्थित रहेंगे।
सन्दर्भ
:
1.
प्रेमचंद स्मृति-शिवरानी देवी,
पृ. 217-218
2. वही,
पृ. 218-219
3.
जागरण, नवम्बर-1932,
सम्पादकीय से।
4.
प्रेमचंद स्मृति -सुदर्शन,
पृ.234
5.
कलम का सिपाही,
पृ 530
6.
मानसरोवर भाग-4,
सवा सेर गे गेहूँ,
पृ.137
7.
भारतीय सामाजिक समस्याएँ,
डॉ. एम. एल. गुप्ता,
पृ. 283-284
8.
विविध प्रसंग, प्रेमचंद,
पृ. 455
9.
‘मंदिर’, मानसरोवर
भाग-5, पृ.
5
डॉ.
माया प्रकाश पाण्डेय
असिस्टेंट
प्रोफेसर
हिन्दी
विभाग, कला
संकाय,
महाराजा
सयाजीराव विश्वविद्यालय,
बडौदा-390
002, गुजरात
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