शनिवार, 29 जून 2024

अनुवाद

 

अनुवाद : एक बहुआयामी जटिल प्रक्रिया

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

अनुवाद एक व्याख्यात्मक कला है। इसकी मूल प्रकृति बहु-आयामी है। यह असाधारण रूप से कठिन तथा चुनौती भरा कार्य है। इस कार्य को अंजाम देने के लिए उच्चकोटि की प्रतिभा की जरूरत पड़ती है। यह दो भाषाओं के बीच सेतु का काम करता है। अनुवाद बहु-आयामी इस अर्थ में है कि अनुवाद कार्य के केंद्र में अनुवादक होता है। उसके सामने एक पाठ (टेक्स्ट) अर्थात् अनुवाद की सामग्री होती है। वह सामग्री किसी एक भाषा की संरचनात्मक व्यवस्था में आबद्ध होती है, जिसे किसी दूसरी भाषा की संरचनात्मक व्यवस्था में प्रतिस्थापित करना होता है। किंतु यह कार्य इतना सरल नहीं होता। इसमें कई तरह की कठिनाइयाँ एवं चुनौतियाँ होती हैं। प्रथम तो यह कि प्रत्येक भाषा की भिन्न प्रकृति एवं भिन्न रचना-व्यवस्था होती है। उसका भिन्न सांस्कृतिक परिवेश होता है। एक भाषा से दूसरी भाषा की भिन्नता व्याकरण तथा अर्थ दोनों स्तरों पर होती है। प्रत्येक भाषा अपनी ध्वनि-व्यवस्था, पदबंध-संरचना, वाक्य-संरचना, शब्दरूप, शब्दक्रम, अलंकार, छंद, लोकोक्तियों, मुहावरों आदि की दृष्टि से दूसरी भाषा से भिन्न होती है। इन सारी विशिष्टताओं के साथ एक भाषा की पाठ-सामग्री को किसी दूसरी भाषा में ज्यों का त्यों अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त अनुवादक का विषय-ज्ञान, भाषाज्ञान, अभिव्यक्ति क्षमता, अभिरुचि, अनुवाद का उद्देश्य, पाठ-सामग्री की प्रकृति आदि ऐसी बातें हैं, जो अनुवाद कार्य कोबहु-आयामीबनाती है।

अनुवाद व्याख्यात्मक कला इसलिए है; क्योंकि अनुवादक सर्वप्रथम स्रोतभाषा की संरचना के विश्लेषण द्वारा पाठ-सामग्री की, अपने लिए, व्याख्या करता है। फिर लक्ष्यभाषा में उसकी समानार्थक संरचना ढूँढ़ता है; और अंत में लक्ष्यभाषा के पाठ को पुनर्गठित करता है।

अपने लक्ष्य में अनुवाद की प्रकृति सन्निकटतामूलक होती है। वैसे तो अनुवाद को अपने आदर्श रूप में समतामूलक माना गया है। लेकिन यह मान्यता वास्तविक स्थिति से कुछ दूर लगती है; क्योंकि स्रोतभाषा और लक्ष्यभाषा के बीच स्थित काल-भेद, देश-भेद, जाति-भेद, संस्कृति-भेद, संरचना-भेद, अभिव्यक्ति क्षमता-भेद आदि ऐसी वास्तविकताएँ हैं, जो अनुवाद को कभी भी संपूर्णता की स्थिति तक नहीं पहुँचने देतीं। अनुवादक विविध स्तरों पर अधिकाधिक सन्निकटता ही स्थापित कर सकता है। समझौता उसकी प्रकृति का अंग है - उसकी नियति है।

अनुवाद की एक प्रकृति उसकी तुलनात्मकता है; क्योंकि अनुवाद दो भाषाओं के बीच घटित होने वाली एक प्रक्रिया है, जो तुलना का आधार लेकर चलती है। दो भाषाओं की तुलना द्वारा ही उन दोनों के बीच पाई जाने वाली समानता, अर्धसमानता तथा असमानता के तीन बिंदु स्थिर किए जाते हैं। समान बिंदुओं के अनुवाद में कोई कठिनाई नहीं होती; अर्धसमान बिंदुओं के अनुवाद में समझौता करके उन्हें अधिकाधिक निकट लाने की कोशिश की जाती है; जबकि असमान बिंदु चुनौती बनकर अनुवादक के सामने हमेशा खड़े रहते हैं।

अनुवाद की एक प्रकृति उसकी सर्जनात्मकता है। अनुवाद कोई यांत्रिक कार्य नहीं है। चूँकि अनुवाद कार्य को संपादित करने वाला व्यक्ति यानी अनुवादक संवेदनशील प्राणी होता है, इसलिए सर्जनात्मक साहित्य के अनुवाद में अनुवादक के व्यक्तित्व की छाप अनिवार्यतः पड़ती ही है। कभी-कभी उसकी संवेदनशीलता उसे भटका भी देती है। इसके चलते वह कभी-कभी मनमानी भी कर बैठता है।

अनुवाद कार्य में केंद्रीय भूमिका अनुवादक की होती है। उसके सामने कोई एक पाठ होता है। पाठ के आकार की सीमा एक वाक्य से लेकर एक संपूर्ण पुस्तक या पुस्तकों के एक विशिष्ट समूह तक कुछ भी हो सकता है। शर्त यह है कि एक संदेश उसमें अपनी संपूर्णता में अभिव्यक्त होता हो। जैसे किसी सार्वजनिक सूचना या किसी आदेश अथवा निर्देश का एक वाक्य ही पूर्ण संदेश बन सकता है - अंदर आना मना है, प्रवेश वर्जित है, अंदर आओ, बाहर जाओ, उधार कल मिलेगा, कृपया शांत रहिए, बिना टिकट यात्रा अपराध है, पाकिटमारों से सावधान, आगे मोड़ है, बाएँ से चलिए, घास पर मत चलिए आदि ऐसी सूचनाएँ हैं या निर्देश हैं, जो लगभग सभी भाषाओं में मिलते हैं। इनका अनुवाद लक्ष्यभाषा में पाए जाने वाले समानार्थक वाक्य के रूप में करना चाहिए। जहाँ चार-छ या दस-बीस पृष्ठों की कोई कहानी एक पाठ हो सकती है, तो पाँच सौ पृष्ठों का कोई उपन्यास या कोई अन्य रचना भी अनुवाद का पाठ है; यही नहीं, पाँच-पाँच सौ पृष्ठों की कई खंडों की कोई पुस्तक भी अनुवाद का एक पाठ है - बशर्ते कि सारे खंडों का एक समन्वित संदेश हो - संदेश में एकसूत्रता हो।

पाठ की संरचना का ज्ञान भी अनुवाद की प्रक्रिया को समझने के लिए आवश्यक है। पाठ-संरचना के तीन आयाम या संदर्भ माने जा सकते हैं - पाठगत, पाठ-बाह्य तथा अन्य पाठपरक। पाठ की भाषा का पक्ष पाठगत संदर्भ के अंतर्गत आता है - वाक्य की इकाइयों या घटकों का पारस्परिक संयोजन, शब्द-रचना, रूप-रचना, पदबंध-रचना, वाक्य में शब्दों या पदों का क्रम आदि वाक्य के अंदर की व्यवस्थाएँ होती हैं। वाक्य के बाहर एक वाक्य के साथ दूसरे वाक्य का आंतरिक संबंध एवं संगति का विश्लेषण भी इसी के अंतर्गत आता है।

पाठ-बाह्य संदर्भ या आयाम के अंतर्गत पाठ की विषय-वस्तु, उसकी विशिष्ट विधा, उसका सामाजिक महत्त्व, पाठ के वक्ता या लेखक का विशिष्ट आशय या उद्देश्य, पाठ के श्रोता या पाठक का सामाजिक व्यक्तित्व और उसकी आवश्यकता आदि बातें आती हैं।

पाठ-संरचना के अन्य पाठपरक संदर्भ के अंतर्गत एक विशिष्ट पाठ की उसके समान या भिन्न संदर्भ वाले अन्य पाठों के संबंध की चर्चा होती है। जैसे कपड़े के विज्ञापन के भाषा-प्रयोग के साथ प्रसाधन सामग्री के भाषा-प्रयोग की समानता तथा बैंकिंग सेवा के विज्ञापन के भाषा-प्रयोग से भिन्नता बताकर इस बात को अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।

अनुवाद की प्रक्रिया के तीन सोपान हैं - विश्लेषण, संक्रमण या अंतरण तथा पुनर्गठन। अनुवादक सबसे पहले मूल (स्रोत) भाषा के पाठ का विश्लेषण करता है। पाठ की व्याकरणिक संरचना तथा शब्दों एवं शब्द-शृंखलाओं का अर्थगत विश्लेषण कर वह मूल पाठ के संदेश को ग्रहण करता है। विश्लेषण द्वारा मूल पाठ के लंबे, जटिल तथा अनेकार्थक वाक्यों के अर्थबोधन में होने वाली कठिनाइयों को दूर किया जाता है।

यह प्रक्रिया अनुवादक के मस्तिष्क में घटित होती है।विश्लेषणके द्वारा प्राप्त भाषिक तथा संप्रेषण संबंधी तथ्यों का कैसा उपयोग अनुवादक लक्ष्यभाषा में उपयुक्तअनुवाद पर्यायस्थिर करने के लिए करता है, इसी में उसकी कुशलता निहित है। इस प्रक्रिया में विषय-ज्ञान तथा भाषा-ज्ञान की अपेक्षा अनुवादक का अपना व्यक्तित्व, उसकी प्रतिभा तथा कल्पना-शक्ति अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। मूलभाषा (स्रोतभाषा) तथा लक्ष्यभाषा के बीच तालमेल बैठाना अनुवाद-प्रक्रिया की अनिवार्य तथा आंतरिक आवश्यकता है। मुहावरे, लोकोक्तियाँ और उनके लाक्षणिक प्रयोग, अनेकार्थता, अर्थ की समस्या और विशिष्टता आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें तालमेल अनुवादक को ही बैठाना होता है।

संक्रमण या अंतरण लक्ष्यभाषा में संदेश की अभिव्यक्ति का मानसिक सोपान है। यह प्रक्रिया अनुवादक के मस्तिष्क में चलती है। इस सोपान में लक्ष्यभाषा की व्याकरणिक संरचना, शब्दक्रम, सहप्रयोग, भाषा-भेद तथा शैलीगत प्रतिमान की उपयुक्तता तथा स्वाभाविकता पर ध्यान देना आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया में कभी-कभी मूलभाषा का व्याकरणिक स्वरूप लक्ष्यभाषा में बदल जाता है। कर्तृवाच्य का वाक्य कर्मवाच्य में बदल जाता है तथा कर्मवाच्य का वाक्य कर्तृवाच्य में। मूलभाषा का पूरा वाक्य या उपवाक्य लक्ष्यभाषा में एक शब्द में सिमट जाता है या इसके विपरीत मूलभाषा का एक शब्द लक्ष्यभाषा में एक वाक्य का रूप ले लेता है। लक्ष्यभाषा में स्वाभाविकता लाने के लिए वाक्य के घटकों का क्रम भी बदल जाता है।

पुनर्गठन लक्ष्यभाषा में कथ्य की अभिव्यक्ति काप्रकटसोपान है। इसमें अनुवादक लक्ष्यभाषा में अपनी अभिव्यक्ति कौशल का उपयोग करते हुए अनूदित पाठ तैयार करता है, जो सीधे पाठकों के सामने पहुँचता है।

इस तरह स्पष्ट होता है कि अनुवाद मूलभाषा (स्रोतभाषा) के बोधन तथा लक्ष्यभाषा में उसकी अभिव्यक्ति के बीच चलने वाली प्रक्रिया है, जो सीधी तथा प्रत्यक्ष न होकर घुमावदार तथा परोक्ष होती है।

 

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र


 

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