शुक्रवार, 31 मई 2024

आलेख

 

स्त्री विमर्श के निकष पर मीरा और मीरा-काव्य : डॉ.शिवकुमार मिश्र के नजरिए से

प्रो. हसमुख परमार

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हम जानते ही हैं कि स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक प्रभृति से संबद्ध विविध विमर्श व साहित्यिक आंदोलन सामाजिक सरोकार की ही उपज है, अतः साहित्य के अंतर्गत इसे देखने-परखने की दृष्टि मूलतः समाजशास्त्रीय ही रही है । साथ ही, इस बात से भी हम अवगत हैं कि उक्त विविध विमर्शों के इस दौर में स्त्री तथा दलित उभय की, विमर्शगत महत्ता, ऐतिहासिक संदर्भ तथा विस्तार-वैविध्य के लिहाज से अन्य विमर्शों की अपेक्षा थोड़ी ज्यादा ही ऊपर रही है । वैसे तो ये दोनों विमर्श, एक अवधारणा के रूप में, एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में आधुनिक काल के कतिपय समाजसुधार व वैचारिक आंदोलनों से पोषित-पल्लवित हुए हैं, परंतु आधुनिक काल के पूर्व भी विशेषतः मध्यकाल में धार्मिक तथा समाजसुधार संबंधी विविध विचार बिंदुओं को लेकर हुए आंदोलनों में ये दोनों वर्ग-स्त्री तथा दलित संबंधी विचार-विमर्श को महत्व दिया गया । जैसे आधुनिक काल की पृष्ठभूमि में नवजागरण की प्रवृत्तियों का विशेष महत्त्व रहा, और इस वजह से जो मुद्दे प्रकाश में आए, चर्चा में आए, सामाजिक चिंता व चिंतन के कारण बने उनमें दो प्रमुख हैं- स्त्री और दलित । इन्हीं मुद्दों को लेकर आगे चलकर कई समाजसुधारकों, विचारकों तथा साहित्यकारों द्वारा व्यक्तिगत व सामूहिक, दोनों स्तर पर हुए प्रयासों ने इन विमर्शों को गति प्रदान की । ठीक इसी तरह मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन ने भी स्त्री और दलित वर्ग की दयनीय दशा तथा इनके उद्धार हेतु अपने दायित्वों की ओर समाज का तथा साहित्यकारों का ध्यान आकर्षित किया । “मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन अपने समय का एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था । अपने युग संदर्भों में वह एक क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन तथा जन आंदोलन भी था ।.....भक्ति-आंदोलन की इस क्रांतिकारी लोकोन्मुखता ने जिस तरह वर्ण व्यवस्था और दूसरे सामाजिक विधि-विधानों के तहत सदियों से यातनाग्रस्त शूद्रों और अंत्यजों की व्यथा को उन्हीं की पंक्ति से आए संतों की वाणी के माध्यम से मुखर किया, उसी तरह भक्ति-आंदोलन के इस ज्वार ने शूद्रों-अंत्यजों की ही भाँति सामाजिक भेदभाव की यातना से ग्रस्त, सदियों से पीड़ा झेलती हुई नारी के अंतर्मन को भी अपनी आशाओं-आकांक्षाओं तथा स्वप्नों के साथ समाज की सतह पर ला दिया ।” (भक्ति-आंदोलन और भक्ति-काव्य, डॉ.शिवकुमार मिश्र, पृ. 241) मध्यकालीन हिन्दी काव्य से गुजरते हुए हम इस तथ्य को अच्छी तरह देख सकते हैं कि कबीर, दादू, रैदास आदि संतकवियों के काव्य में दलित समाज संबंधी अनेक संदर्भ हैं, जिसे हम दलित विमर्श का एक उज्ज्वल अध्याय कह सकते हैं । ठीक उसी तरह भक्त कवयित्री मीरा के जीवन व काव्य में स्त्री विमर्श की विविध जीवंत झाँकियाँ ।

इस आलेख में ऊपर हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि दलित तथा स्त्री विमर्श को शोध-समीक्षा के एक मुद्दे या दृष्टि तथा सृजन के एक विशेष विषय को लेकर आधुनिक काल में विपुल मात्रा में साहित्य लिखा गया और इस साहित्य का इन विमर्शों के परिप्रेक्ष्य में विवेचन भी खूब होता रहा है । खासकर पिछले दो-तीन दशकों की समयावधि में तो ये दोनों, साहित्य सृजन व साहित्य विवेचन के केन्द्रीय विषय रहे हैं । परंतु हिन्दी साहित्येतिहास के अंतर्गत यह हकीकत इसी समयावधि तक मर्यादित नहीं है, क्योंकि उक्त दोनों विषयों को हम आधुनिक पूर्व हिन्दी साहित्य में भी बखूबी देख सकते हैं । जैसे हम ‘दलित विमर्श’ विषयक संदर्भ आदिकाल के नाथों-सिद्धों की वाणी में तथा मध्यकाल के संतकाव्य में पाते हैं तो ‘स्त्री विमर्श’ संबंधी चर्चा में विशेष रूप से मध्यकालीन कवयित्री मीरा को सर्वप्रथम रेखांकित करते हैं । यह कहना न अनुचित होगा, न अन्योक्ति, कि हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श की चर्चा मीरा और उनके काव्य के बगैर अधूरी है ।

2

डॉ. शिवकुमार मिश्र के लेखन से गुजरने वाला पाठक, साथ ही, जिसने मंच से शिवकुमार जी को सुना हो ऐसा श्रोता, उनके साहित्यिक व्यक्तित्व से महज परिचित ही नहीं बल्कि प्रभावित हुए बिना नहीं रहा होगा । बतौर एक आलोचक आजीवन उनकी लेखनी व वाणी एक बहुत ही प्रबुद्ध व सुलझी हुई प्रगतिवादी सोच को प्रस्तुत करती रही। दरअसल प्रगतिशील चिंतक-समीक्षक के रूप में ख्यात डॉ.शिवकुमार मिश्र वामपंथी विचारधारा के पक्षधर रहे । उनकी आलोचना को पढ़ने पर निश्चित रूप से पाठक को एक दृष्टि मिलती है । असल में मिश्र जी का समग्र आलोचना कर्म मार्क्सवादी दृष्टि से प्रभावित रहा, जिसके चलते हिन्दी जगत में एक प्रतिष्ठित मार्क्सवादी आलोचक के रूप में वे ख्यात है । उनके इसी वैचारिक व्यक्तित्व को लेकर उनके अध्येता-वर्ग में एक तथ्य प्रसिद्ध व स्वीकृत रहा है कि- “मिश्र जी के व्यक्तित्व की एक बडी विशेषता है -अपनी विचारधारा के प्रति पूरी प्रतिबद्धता । विचारधारा के स्तर पर कभी भी किसी तरह के समझौता के पक्ष में वे नहीं रहे ।” विजेन्द्र के शब्दों में कहें तो “वह (डॉ.मिश्र) विचारधारा की दृष्टि से प्रतिबद्ध मार्क्सवादी थे । उन्होंने विचारधारा को न तो कभी भुनाया। न उसकी गरिमा को गिरने दिया ।” ( दृष्टव्य-हिन्दी आलोचना: परंपरा और प्रतिवाद, उमाशंकर सिंह परमार, पृ.108) दरअसल सामाजिक सरोकार से संबद्ध अपने इस प्रगतिशील वैचारिक व्यक्तित्व के निर्माण व विकास में उनके जीवन संघर्षों की मुख्य भूमिका रही ।  सम्प्रति, साहित्यसेवी विज्ञान व्रत की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं-

तपेगा जो, गलेगा वो ।

गलेगा जो, ढलेगा वो ।

ढलेगा जो, बनेगा वो ।

बनेगा वो, मिटेगा वो ।

मिटेगा वो, रहेगा वो ।

सच में, इसी तरह की प्रक्रिया से गुजरकर ही मिश्र जी जैसी शख्सियतें निर्मित होती हैं, और ऐसी शख्सियतें ही  सदैव स्मरणीय और प्रासंगिक रहती हैं ।

 आलोचना ही मिश्र जी के चिंतन-लेखन का मुख्य आधार रहा है । मध्यकालीन और आधुनिक हिन्दी साहित्य, दोनों पर उनकी आलोचकीय लेखनी नियमित चलती रही । वैसे आधुनिक हिन्दी काव्य, विशेषत: छायावादोत्तर हिन्दी काव्य मिश्र जी के उपाधि सापेक्ष शोध का विषय रहा, अपितु आधुनिक गद्य साहित्य, जिसमें कथा-साहित्य । साथ ही, मध्यकालीन हिन्दी काव्य तथा मार्क्सवाद व यथार्थवाद की विभावना-व्याख्या भी, आलोचना हेतु मिश्र जी के उतने ही पसंदीदा विषय रहे हैं । एक बात और, कि साहित्य चाहे मध्यकालीन हो या आधुनिक, गद्य रूप में हो या पद्य रूप में, जिसे देखने-परखने की मिश्र जी की दृष्टि मूलतः मार्क्सवादी-प्रगतिवादी ही रही । सैद्धांतिक व व्यावहारिक दोनों प्रकार की आलोचना में मिश्र जी की गति रही है ।

जहाँ तक हिन्दी साहित्य का मध्यकाल, जिसमें भक्ति-आंदोलन तथा संत-भक्त कवियों का काव्य, इस विषय क्षेत्र को लेकर मिश्र जी की आलोचना की बात है तो हम कह सकते हैं कि मिश्र जी ने इस विषय को भी अपनी मुकम्मिल विचारधारा के तहत् ही देखा है ।  विषय भक्ति-आंदोलन हो या फिर इस दौर के तथा इस आंदोलन की उपज कवियों का काव्य हो, मिश्र जी अपनी प्रगतिशील दृष्टि से कई नवीन मान्यताएँ व स्थापनाएँ हिन्दी आलोचना जगत के समक्ष रखते हैं । “शिवकुमार मिश्र ने भक्तिकालीन कवियों को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से देखा तथा उसका मूल्यांकन किया । उनका मानना है कि भक्ति-आंदोलन कोई धार्मिक आंदोलन नहीं था बल्कि वह एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन था । धर्म मात्र उसका आवरण था । डॉ.शिवकुमार जी का कथन है- मार्क्सवादी दृष्टि ने मुझे भक्तिकाव्य को उसके सही परिप्रेक्ष्य में देखने की दृष्टि दी और फलस्वरूप उसके शक्तिशाली आयाम मेरे सामने उभरे, वे आज भी ज्यों के त्यों बरकरार है, वरन् उसकी मिसाल भी नहीं है ।” (हिन्दी आलोचना: परंपरा और प्रतिवाद, उमाशंकर सिंह परमार, पृ.108)

अपनी ‘ भक्ति-आंदोलन और भक्ति काव्य’ ( 2010) शीर्षक पुस्तक में डॉ.शिवकुमार मिश्र ने कबीर, जायसी, तुलसी, सूर प्रभृति भक्तिकालीन कवियों की पंक्ति में मीरा को लेकर भी दो महत्वपूर्ण निबंध लिखे हैं । एक, ‘दरद दिवानी मीरा’ और दूसरा ‘ स्त्री विमर्श में मीरा (कुछ प्रश्न: कुछ जिज्ञासाएँ ) । इन दोनों निबन्धों में मिश्र जी ने मीरा के जीवन व काव्य को अपने मूल आलोचकीय स्वभाव के अनुसार विश्लेषित किया है ।

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            भारतीय समाज तथा हिन्दी- गुजराती साहित्य में एक प्रेमदीवानी कृष्णभक्त कवयित्री के रूप में मीरा की पहचान व प्रसिद्धि रही है । अधिकांश विद्वान भी मीरा के इसी रूप को रेखांकित करते रहे हैं ; परंतु मीरा और मीरा-काव्य का एक और पक्ष जिसमें मीरा का संघर्ष तथा नारी विद्रोह, जिसकी चर्चा कम हुई है । मीरा विषयक पुस्तकों में कतिपय अपवाद को छोडकर उक्त विषय अनाकलित रह जाता है । डॉ.शिवकुमार मिश्र के मीरा व उनके काव्य संबंधी  दृष्टिकोण पर विचार करते हुए डॉ. भरतसिंह झाला अपनी पुस्तक ‘मार्क्सवादी समीक्षक डॉ.शिवकुमार मिश्र’ में लिखते हैं- “उनके (मीरा) पदों की अधिकांश व्याख्याएँ और समीक्षाएँ भक्ति, उपासना, धर्म, कृष्ण-प्रेम, वियोग वर्णन आदि को केन्द्र में रखकर की गई हैं । परंतु मिश्रजी मीरा के साहित्य को कृष्णभक्ति के आवरण में नारी हृदय के दर्द की अभिव्यक्ति मानते हैं । वे भक्ति और अध्यात्म के ताम-झाम को हटाकर मीरा के भीतर की स्त्री को देखने पर बल देते हैं ।” ( पृ-105)  एक और अध्येता के विचार से “ मीरा भारत की सर्वाधिक प्रसिद्ध कवयित्री है । उनका संबंध भक्ति-आंदोलन से है । भक्ति-आंदोलन का प्रारंभ ही वर्ण व्यवस्था और नारी-पुरुष के भेदभाव को तोड़ने वाला था । मीराबाई की कविता भी भक्ति-आंदोलन, उसकी विचारधारा और तत्कालीन समाज में नारी स्थिति से उनकी टकराहट का प्रतिफलन है ।”

            अपने ‘दरद-दिवानी मीरा’ निबंध में शिवकुमार जी भारतीय स्त्री जीवन के यथार्थ की दृष्टि से मीरा को भक्तिकाल की एक अनूठी देन बताते हुए लिखते हैं- “उनकी कविता नारी के अंतर्मन की उस घुटन और तड़प का प्रतिनिधित्व करती है, हमारी परंपरा और वेद तथा धर्मशास्त्र- विहित हमारे विधि-विधानों के चलते, जो सदियों से नारी के अंतर्मन में उमड़ती-घुमड़ती रही है, और जिसे ढोना नारी की नियति बन गया है, या मान लिया गया है । मीरा के यहाँ भी, सूर की गोपियों की भाँति, यह तड़प और यह घुटन समाज तथा लोक के उन आदर्शों, रीति-रिवाजों, मान्यताओं और मर्यादाओं की पोल खोलते हुए भक्ति के आवरण में ही मूर्त हुई है ।......इस प्रकार देखा जाय तो मीरा ने एक तरह से संपूर्ण नारी जाति के अब तक के अनभिव्यक्ति और अनकहे को कहा है, प्रत्यक्ष भी और परोक्षतः भी ।” ( भक्ति-आंदोलन और भक्ति काव्य, डॉ.शिवकुमार मिश्र, पृ-242)

                 प्रस्तुत निबंध को लिखने के पीछे मिश्र जी का मुख्य आशय मीरा की भक्ति या मीरा-काव्य की सैद्धांतिक चर्चा करना नहीं है, अपितु मीरा के माध्यम से नारी की यथार्थ स्थिति, नारी अस्मिता की चिंता, नारी संबंधी सामाजिक सरोकार या यूँ कहिए कि नारी विमर्श की दृष्टि से इस पर विचार करना रहा है । “ इस निबंध में शुरू से ही हमारा लक्ष्य मीरा के काव्य की या उनकी भक्ति की शास्त्रीय व्याख्या न होकर उसके ऐसे पक्षों को उजागर करना रहा है जहाँ अपनी कविता के साथ मीरा मध्यकालीन भक्त कवियों के बीच अपनी खास पहचान को लेकर हमसे मुखातिब होती हैं । इस पहचान का एक महत्वपूर्ण पहलू नारी होते हुए भी, और राजकुल की वधू होते हुए भी, मध्यकाल के सामंती समाज में नारी जाति पर लागू विधि निषेधों के बावजूद ‘ मैं’ शैली में अपनी वैयक्तिक प्रणय भावना को, अपने प्रेम को उनका मुखर होकर व्यक्त करना है ( भक्ति-आंदोलन और भक्ति काव्य, डॉ.शिवकुमार मिश्र, पृ. 251)

                  इसी निबंध में मिश्र जी लिखते हैं- “यह क्या कम है कि मीरा अपने माध्यम से, मध्यकालीन समाज में घुटती-कराहती, नाना प्रकार के सामाजिक अत्याचारों और पारिवारिक प्रताड़नाओं को सहती आम नारी का भी एहसास कराती हैं, उसके दुख और उसकी कसक को भी अपने माध्यम से वाणी देती हैं, उस समाज को नंगा करती हैं, जहाँ नारी इतनी परवश और इतनी असहाय है कि उसका, समाज के बनाए नियमों के खिलाफ, उठा एक पग भी, उसे भ्रष्ट, पतिता और ‘बिगड़ी’ करार देने के लिए पर्याप्त है, भले ही उसके इस प्रयास के पीछे उसके अंतर्मन की कितनी ही गहरी, कितनी ही उदात्त और कितनी ही पवित्र प्रेरणा क्यों न हो ?” ( वही, पृ- 246)

            सदियों से, विशेषत: मध्यकाल में भारतीय समाज में धर्म, शास्त्र, परंपरा, रीतिरिवाज, लोकमर्यादा के बहाने स्त्री समुदाय के साथ काफी अन्याय होता रहा है । इस पर जो निर्योग्यताएँ थोपी गई जिनसे इस समुदाय की स्थिति बहुत ही दयनीय हो गई । स्त्रियों का स्थान समाज में नगण्य हो गया । उनको कई प्रकार के सामाजिक-धार्मिक अधिकारों से वंचित किया गया । विधवा विवाह पर प्रतिबंध लग गया । सतीप्रथा का प्रचलन बढ़ा । पति की आज्ञा का पालन करना और पारिवारिक दायित्वों को निभाना ही उसका एक मात्र कार्य रह गया । ऐसे में, और वो भी मध्यकाल में एक स्त्री द्वारा अपने वैयक्तिक प्रेम को, अपनी भावनाओं-इच्छाओं की अभिव्यक्ति, एक तरह से स्त्री चेतना व नारी मुक्ति की ही बुलंद आवाज का एक रूप कहा जा सकता है । इस तरह की आवाज उठाने वाली मध्यकालीन कतिपय प्रतिभासंपन्न स्त्रियों में मीरा का नाम सबसे पहले आता है । “मीरा समूचे भक्तिकाल में अकेली नारी भक्त है जिन्हों ने अपनी आत्मनिवेदनपूर्ण कविता में अपनी भक्ति और अपने प्रेम के माध्यम से, एक पूरी की पूरी समाजव्यवस्था की असहिष्णु और अमानवीय मानसिकता को, उसकी भेदभावपूर्ण रीति-नीति को, और उसके दो मुँहे चेहरे को बेनकाब किया है ।   (वही, पृ-251)  

              मीरा का हमारी समकालीन होने या आज मीरा की प्रासंगिकता की वजह क्या है ? इस प्रश्न पर विचार करते हुए मिश्र जी बताते हैं कि श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम या भक्ति के नाते मीरा हमारी समकालीन नहीं है । आधुनिक स्त्री विमर्श में भी उनकी भागीदारी का कारण ये प्रेम व भक्ति नहीं बल्कि उनसे जुडीं कुछ अन्य बातें हैं । इन बातों पर प्रकाश डालते हुए डॉ. शिवकुमार मिश्र अपने दूसरे निबंध ‘स्त्री विमर्श में मीरा’ में लिखते हैं – “ वस्तुतः मीरा हमारी समकालीन और चल रहे स्त्री विमर्श की भागीदार हैं- अपने उस प्रतिरोध तथा विद्रोह के नाते, जो उन्होंने अपने ऊपर लगाई गई पाबंदियों के खिलाफ किया । वे स्त्री विमर्श में इस लिए हमारे साथ है कि सामंती जकडबंदी के बीच अपनी प्रेम पिपासा की उन्होंने निष्कुंठ अभिव्यक्ति दी । उनके विद्रोह का संबंध है, लोक, राज परिवार तथा संबंधियों द्वारा उन्हें दी गई यातना से, उन पर थोपी गई पाबंदियों से जिन्हें मीरा ने अमान्य किया; यहाँ तक कि राजभवन को लात मारकर वे उससे बाहर आ गई ।  ( वही, पृ- 255)

               वस्तुतः समाज व परिवार से स्त्री को मिले बंधन और बेबसी के जीवन से उबरने के लिए, उसका विरोध करते हुए अपने साहस का परिचय देती हुई मीरा यहाँ स्त्री विमर्श व स्त्री चेतना से भी जुड़ती है । “मीरा ने साहस के साथ इस नरक का प्रतिकार किया । पाबंदियों के खिलाफ बगावत की और व्यवस्था के प्रभुओं के इरादों का पर्दाफाश किया । अपने आक्रांताओं को उन्होंने पूरे मन से धिक्कारा । उनका नाम ले लेकर उसे सबके सामने उजागर किया । उस समाज को भी मीरा ने लानत दी जिसने उन्हें बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोडी। मीरा के पद साक्ष्य हैं कि कितनी कठोर यातनाओं से होकर उन्हें गुजरना पडा है ।

हेली म्हासूं हरि बिन रह्यो न जाई ।

सास लडे मेरी, ननद खिजावै, राजा रह्या रिसाई ।

पहरो भी राख्यो, चौकी बिठाइयो ताला दियो जड़ाय ।

पूर्व जन्म की प्रीति पुराणी, सो क्यूं छोडी जाय ।”

                                    (वही, पृ-255)

 

            वैसे मीरा के जीवन से संबंधी जो जानकारी उपलब्ध होती है, वह उसकी पूर्ण प्रामाणिकता को लेकर, अन्य मध्यकालीन संत-भक्त कवियों के जीवन की तरह कतिपय प्रश्न व संदेह से मुक्त नहीं है, फिर भी जिन अलग-अलग स्रोतों से मीरा के जीवन संबंधी जो जानकारी हमें मिलती है उससे गुजरने पर एक बात तो स्पष्टतः सामने आती है कि मीरा का समग्र जीवन संघर्ष की एक अनवरत यात्रा के समान रहा । मीरा के इस संघर्ष तथा झेली हुई यातनाएँ आदि उनके पदों में लक्षित होती है । इस विषय को लेकर डॉ. शिवकुमार मिश्र अपनी एक जिज्ञासा कहिए या सवाल, जिसे हमारे समक्ष रखते हैं कि मीरा का संघर्ष और विद्रोह बृहद्द स्त्री समाज का प्रतिनिधित्व करने से ज्यादा ऐसा लगता है कि वह निजी-व्यक्तिगत स्तर तक ही सीमित रहा । “परंतु पदों का साक्ष्य देखें तो मीरा का यह विद्रोह उनका निजी-व्यक्तिगत विद्रोह ही अधिक लगता है । वह व्यंजक है, परंतु है वह व्यक्तिगत विद्रोह ही । हमें मीरा के ऐसे पद नहीं मिलते जिनमें उनका यह विद्रोह उनके ‘स्व’ से आगे जाकर स्त्री जाति की यातना और मीरा जैसी उसकी मनोकांक्षा से जुड़ा हो । बंधनों से अपनी ‘मुक्ति’ का आग्रह मीरा में है- उस मुक्ति की आकांक्षा के तार स्त्री जाति की वैसी ही मुक्ति से सीधे नहीं जुड़ते । हम उन्हें स्त्री जाति की मुक्ति, पराधीनता से मुक्ति से जरूर जोडते है । परंतु मीरा की मनोभूमि में भी, उनकी अपनी ‘मुक्ति’ के साथ स्त्री जाति की मुक्ति की भी चिंता या उससे उनकी संलग्नता थी या नहीं थी- इस विषय में जिज्ञासा बनी रहती है ।...... जिज्ञासा होती है कि अपनी यातना, अपनी बेबसी, अपनी मुक्ति के साथ मीरा को क्या कभी स्त्री जाति की यातना-पराधीनता या मुक्ति की आकांक्षा की बात याद आई ?” ( वही, पृ- 256) मिश्र जी के इस प्रश्न पर विचार करते हुए डॉ.दयाशंकर त्रिपाठी लिखते हैं कि “लेकिन यहाँ मिश्र जी के ध्यान में नहीं आया कि स्त्री हो या दलित जो पितृसत्तात्मक व वर्णव्यवस्था के शोषण के शिकार रहे हैं उनकी व्यक्तिगत अनुभूति और विरोध व्यक्तिगत के साथ सामाजिक अर्थ रखता है । मीरा और कबीर के व्यक्तिगत विद्रोह इसी प्रकार के हैं ।” (भक्तिकाव्य:  पुनर्पाठ, प्रो.दयाशंकर, पृ-236)

            मीरा का जीवन, पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था के, जिसके एक पहलू-स्त्री के लिए विशेष जीवन शैली-मर्यादाओं-कर्तव्यों और जिनके नाम पर इसके साथ किये जाने वाले अन्याय, जिसके विरूद्ध में आवाज उठाने वाला एक बड़ा उदाहरण है । भक्तमाल के रचयिता नाभादास की निम्न पंक्तियाँ मीरा के संघर्षमय जीवन तथा उनके व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य को बयाँ करती हैं-

सदृश गोपिका प्रेम प्रकट कलिजुगहि दिखायो ।

निरअंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो ।

दुष्टनि दोष विचार मृत्यु को उद्यम कीयो ।

बार न बाँको भयो, गरल अमृत ज्यों पीयो ।

भक्ति निसान बजाय कै काहू ते नाहिन लजी ।

लोकलाज कुल श्रृंखला तजि मीरा गिरधर भजी । ”

            इस बात में किसी प्रकार की अस्पष्टता या संदेह नहीं कि मीरा का विद्रोह और संघर्ष उनकी कृष्ण भक्ति तथा उनके कृष्ण प्रेम की अनुभूति के साथ व्यक्त हुआ है । भक्ति तथा अपने कृष्ण प्रेम की प्राप्ति के लिए मीरा का संघर्ष मौजूदा समय में हमें भले कोई इतनी बड़ी बात न लगें, परंतु मीरा के समय में, उस समय की सामाजिक स्थितियों में उनका यह संघर्ष, कृष्ण भक्ति की ओर जाना , दीवानेपन की इन्तहाँ तक जाना, और वो भी एक स्त्री का जिसे कह दिया जाता था कि उनका पति ही उनका परमेश्वर है और पतिभक्ति ही पतिव्रता स्त्री का एक मात्र धर्म, वाकई में बड़े मायने रखता है । मीरा का यह कहना ‘मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई ।’ एक स्त्री का अपनी स्वतंत्रता, अपने स्वयं का निर्णय आदि के संबंध में बड़े साहस का प्रमाण है ।

            जिस तरह दलित विमर्श या दलित जीवन के निरुपण में अधिक सहजता-स्वाभाविकता व जीवंतता-वास्तविकता के मामले में गैर दलित चिंतकों व सर्जकों की अपेक्षा दलित चिंतकों-सर्जकों की भूमिका ज्यादा अहम रहती है, ठीक उसी तरह स्त्री विमर्श को लेकर भी चिंतन-सर्जन में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों का वर्चस्व अधिक होना स्वाभाविक है । इसमें कोई संदेह नहीं कि स्त्री संबंधी पीडा को जितनी अधिक मार्मिकता, गहराई, सूक्ष्मता से एक स्त्री बयान कर सकती है वैसा पुरुष नहीं कर सकता । नारी जीवन की वास्तविकता को नारी की नजर से देखना, एक स्त्री के द्वारा देखना स्त्री विमर्श को बहुत ही सहज-स्वाभाविक बनाता है । स्त्री विमर्श में मीरा और उनके काव्य को देखते हुए डॉ.शिवकुमार मिश्र इस बारे में यह जरूर कहते हैं कि मीरा के पूर्व हमारे साहित्य में जो कहा गया है वह ज्यादातर पुरुष सर्जकों द्वारा कहा गया परंतु मीरा का सृजन एक स्त्री का सृजन है जिसमें जो निरुपित हुआ वह मीरा का भोगा हुआ सत्य है । उक्त तथ्य को मिश्र जी रेखांकित करते हैं, परंतु यहाँ पर भी वे मीरा के विरोध-विद्रोह, अनुभव-अनुभूति का उनके निजी-व्यक्तिगत स्तर तक मर्यादित होने वाली जिज्ञासा को हमारे सामने प्रकट करते ही है । “मीरा के यहाँ, मीरा के नाम पर जो कुछ संकलित है, वह मीरा का अपना रचा और गाया हुआ है । वह पुरुष की रचना न होकर एक स्त्री की रचना है, पहली बार एक स्त्री की रचना । और उस स्त्री की रचना- जो महज रचनाकार नहीं, भोक्ता भी है । उसने जो कुछ रचा-गाया है, अपने भोगे हुए को, सहन किए हुए को । ऐसी स्थिति में ही हमारी जिज्ञासा को आधार मिलता है कि क्या अपने जिए-भोगे को गाते-अभिव्यक्त करते हुए- मीरा को, रचनाकार मीरा को, अपने साथ-साथ स्त्री-जाति का दुःख, उसकी पराधीनता, उसके द्वारा भोगा और सहा जाना तथा जिन बंधनों में स्त्री जकड़ी है, उनसे स्त्री-जाति की मुक्ति की आकांक्षा भी कभी याद आई ? अपनी यातना में, मुक्ति की अपनी आकांक्षा में, क्या वे स्त्री-जाति की यातना, मुक्ति की आकांक्षा को भी देखा सकीं ? अपनी यातना को क्या स्त्री-जाति की बृहत्तर यातना से वे जोड़ सकीं ? जिज्ञासा इसलिए ताकि मीरा को हम समग्रता में जान सकें ।” ( वही, पृ-257) इसी संदर्भ में मिश्र जी आगे लिखते हैं- “ हम बस इतना जानना चाहते हैं कि एक स्त्री होने के नाते, अपने कहे-लिखे-गाये में क्या मीरा ने ऐसा भी कुछ लिखा जो उनकी अपनी निजी यातना या आकांक्षा से आगे-स्त्री जाति की यातना और आकांक्षा से भी जुड़ सका हो, एक बृहत्तर इयत्ता पा सका हो । यदि मीरा के ऐसे पद हमें मिलें तो मीरा के महत्व का संदर्भ भी बड़ा हो जाता है । मीरा की समकालीनता तो गाढ़ी होती ही है- मीरा अपने समय-संदर्भ से हमारे समय-संदर्भ तक अंधकार में एक प्रखर ज्योति रेखा की तरह भास्वर हो उठती हैं ।” ( वही, पृ-258)

            डॉ.शिवकुमार मिश्र अपने इसी ‘स्त्री विमर्श में मीरा’ निबंध में मीरा काव्य के कतिपय अंशों के आधार पर स्त्री विमर्श की दृष्टि से अपने और भी कुछ विचार रखते हैं, जैसे कि-  • मीरा के काव्य के कुछ अंशों को देखने, पढ़ने और उन पर विचार करने से स्पष्ट होगा कि औरत होने के नाते अपने कमजोर, निरीह, असमर्थ और लाचार होने के अहसास से भी मीरा की मनोभूमि काफी कुछ आच्छादित और आक्रांत है । अबला होने का अहसास उन पर इस कदर हावी है कि वे बार बार अपने प्रभु व प्रियतम से अपनी रक्षा की गुहार लगाती हैं। • अपने प्रभु व प्रियतम जो मीरा के लिए हर स्थिति में उनके संरक्षक और उद्धारक अतः उनकी शरणागति तथा उनके प्रति पूर्ण समर्पण जो भक्ति के स्तर पर तो समझी जा सकती है परंतु प्रेमिका या पत्नी के रूप में, प्रियतम या पति के प्रति ऐसा समर्पण भाव, ऐसी निर्भरता कुछ हैरान और परेशान करती है । मीरा का ऐसा समर्पण भाव व्यवस्था को मौका देता है कि वह उसे सामाजिक जीवन-व्यवहार के रूप में, एक आदर्श के रूप में प्रचारित और व्याख्यायित करें । स्त्री जाति को यह संदेश दे कि पुरुष के बिना स्त्री की, तथा पति के बिना पत्नी की और कोई गति नहीं है । स्त्री के अस्तित्व की शर्त पुरूष के प्रति उसकी निर्भरता है । • मीरा अपने प्रियतम से, अपने मनचाहे पति से कभी बराबरी के स्तर पर नहीं बतियातीं । वे उनके प्रति अपने एकांत समर्पण में ही सुख मानती हैं । ‘गुलामी के इस सुख’ को वे अपना सौभाग्य मानती है । वे अपने प्रभु या प्रियतम या पति परमेश्वर की चाकरी के लिए सहज प्रस्तुत है- ‘ प्रभु जी, म्हाने चाकर रखो जी । ’

             यहाँ यह न भूलें कि डॉ.शिवकुमार मिश्र मीरा का मूल्यांकन आधुनिक स्त्री विमर्श के परिप्रेक्ष्य में कर रहे हैं सो उनके उपरोक्त विचार बिंदु हमें भी इस दिशा में सोचने-विचारने के लिए प्रेरित करते हैं । अपने इन विचारों को लेकर मिश्र जी स्पष्ट कहते हैं कि “हमारी यह सोच किसी को अतिरंजित लग सकती है, परंतु व्यवस्था का इतिहास साक्षी है कि उसने स्त्री की कमजोरी को हमेशा अपने हित में भुनाया और इस्तेमाल किया है ।” इसी क्रम में वे आगे लिखते हैं- “स्त्री के संदर्भ में समर्पण की यह नियति, गुलामी का यह सुख, इस सुख से स्त्री की यह रजामंदी ही हमारी हैरानी और परेशानी का कारण है । कहने की जरूरत नहीं कि स्त्री मुक्ति की वही सबसे बडी बाधा भी है । ”

            डॉ.शिवकुमार जी के उपरोक्त विचारों, जो प्रश्न-जिज्ञासा के रूप में ही उनके द्वारा रखे गए हैं, जिन पर पुनः एक बार प्रो.दयाशंकर की टिप्पणी को यहाँ हम उद्धृत कर रहे हैं- “ इसी क्रम में मिश्र जी ने एक और महत्वपूर्ण बात कही कि मीरा अपने मनचाहे प्रिय पति कृष्ण से बराबरी से नहीं बतियातीं, बल्कि उन्हें अपना संरक्षक, उद्धारक, स्वामी मानकर उनसे दासी और गुलाम स्त्री की मनोभूमि से प्रार्थना करती है और व्यवस्था है कि इसे पुरुष पर स्त्री की निर्भरता के रूप में भुनाती और वैध ठहराती है । लेकिन मिश्र जी ‘मीरा प्रभु के हाथ बिकानी’ कड़ी को याद रखते हैं, और मीरा के प्रेम की दूसरी कडी ‘ माई म्हाँ लियो गोविन्द मोल’ से जोड़कर अर्थ विस्तार कर नहीं पाते ।” (भक्ति काव्य: पुनर्पाठ, प्रो.दयाशंकर,पृ-236)

              प्रस्तुत निबंध में डॉ.मिश्र जी दो और महत्वपूर्ण बातें रेखांकित करते हैं । एक- मीरा का सम्बन्ध राजमहल के अन्दर और  बाहर दो भिन्न स्थितियों से रहा है, यदि इनसे जुड़े पदों की शिनाख्त हो जाये तो मीरा की पूर्वापर मनोभूमि को समझने में आसानी हो जाएगी । दूसरी- मीरा की उस सास और ननद की मुक्ति भी स्त्री-मुक्ति के अभियान से जुड़ी हुई है । मुक्त उन्हें भी होना है । बिना उनके मुक्त हुए, मीरा की, या किसी अन्य की, किसी समुदाय की, मुक्ति का कोई मतलब नहीं ।

            कतिपय महत्वपूर्ण जिज्ञासाओं व प्रश्नों को उठाते हुए भी मिश्र जी ने स्त्री विमर्श व स्त्री मुक्ति की दृष्टि से मीरा की महत्ता को उजागर किया है । “ समकालीन स्त्री विमर्श में मीरा की भागीदारी जरूरी है । मीरा ने अपने समय में, अपनी सीमाओं में जो किया, बड़ा काम था । संतो ने प्रतिरोध की जो बानी बोली उसका भी हमारे लिए महत्व है । व्यवस्था न कबीर बदल सके न मीरा । उनके लिए यह संभव भी न था । उनका महत्व इस बात में है कि मुक्ति के सपने को उन्हों ने पराधीनों की आँखों में जीवित रखा । नई सदी में भी वह उनकी आँखों में जीवित है । ” (भक्ति-आंदोलन और भक्ति काव्य, डॉ.शिवकुमार मिश्र, पृ-261)

            अंत में, डॉ. शिवकुमार मिश्र के दोनों निबंधों- ‘ दरद दिवानी मीरा’ तथा विशेषतः ‘स्त्री विमर्श में मीरा’( कुछ प्रश्न : कुछ जिज्ञासाएँ) की चर्चा के पश्चात, प्रस्तुत विषय को लेकर हम कुछ और भी जोड़ना चाहते है कि सदियों से चली आ रही पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था को बदलना एक बहुत बड़ी चुनौती कही जा सकती है, इसमें पूरी तरह सफल होना मुश्किल है । मीरा ने अपने जीवन आचरण में, अपने काव्य में, स्त्री जीवन के पक्ष से, उसकी मुक्ति व स्वतंत्रता के लिए जो काम किया वह हमारे स्त्री विमर्श के इतिहास में, तत्संबंधी साहित्य में, सांप्रत समय में भी विशेष उल्लेखनीय रहा । उसकी उपयोगिता व प्रासंगिकता को लेकर कोई संदेह नहीं ।

            मध्यकालीन समाज व उसकी स्थितियों में मीरा एक ऐसी स्त्री जिसने आडंबरों-कुरीतियों-पाबंदियों के खिलाफ संघर्ष करते हुए बड़ी निर्भिकता के साथ बेबाकी से अपनी स्त्री सहज पीड़ा व प्रश्नों को प्रस्तुत किया । यह कहना अनुचित नहीं होगा, और न तो अतिशयोक्ति कि मीरा हमारी हिन्दी काव्य परंपरा की वह पहली कवयित्री हैं  जिसने नारी जागरण और नारी मुक्ति का बिगुल बजाया था । मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में- “ स्त्री के बारे में मीरा का दृष्टिकोण बाकी भक्त कवियों से एकदम अलग है । उनकी कविता में एक ओर सामंती समाज में स्त्री की पराधीनता और यातना की अभिव्यक्ति है तो दूसरी ओर उस व्यवस्था के बंधनों का पूरी तरह निषेध और उससे स्वतंत्रता के लिए दीवानगी की हद तक संघर्ष भी है । उस युग में एक स्त्री के लिए ऐसा संघर्ष अत्यंत कठिन था । लेकिन मीरा ने अपने स्वत्व के लिए कठिन संघर्ष किया ।” ( भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पाण्डेय, पृ-27)

 


प्रो. हसमुख परमार

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर

(गुजरात)

1 टिप्पणी:

  1. इतना विस्तृत, विद्वतापूर्ण और नवीन दृष्टिकोण से जुड़े आलेख के लिए आदरणीय डाॅ.शिवकुमार मिश्र और प्रो.हसमुख साहब को नमन के साथ हार्दिक बधाई। 🙏🙏💐💐 Hiya

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