रविवार, 14 अप्रैल 2024

कहानी

 

पौधों की वेदना

मालिनी त्रिवेदी पाठक

सुशिक्षित तुलसी बचपन से ही आत्मनिर्भर थी । वह अपना सारा काम खुद ही करती थी । जैसे घर की साफ-सफाई, खाना बनाना, कपडे धोना, बर्तन माँजना आदि । वह अपने घर को एक पावन मंदिर ही समझती थी । स्नान कर के पूजा पाठ करना उसके माता-पिता ने बचपन से ही सिखाया था ।

अब तो उसे जीव-जंतु, पशु-पक्षी, वनस्पति, प्राणी मात्र में भी ईश्वर के ही दर्शन होते थे । तुलसी ने अपने घर के कम्पाउंड में औषधीय वनस्पति के साथ-साथ रंग-बिरंगी फूलों के गमले सजा कर रखे थे । वह एक-एक पौधे के पास जाकर उन्हें अपने बच्चे समझ कर बातें करती । फूल पत्ते भी झूम-झूम कर अपना प्यार जताते ।

तुलसी कभी भी फूल नहीं तोड़ती थी । वह मानती थी कि,फूल तोड़ना मतलब उसकी अकाल ही हत्या करना । फूलों की ऐसी हत्या कर के भगवान कैसे प्रसन्न होंगे भला !

अपने पौधों को तृप्त, जीवंत और प्रसन्न देखकर वह बहुत खुश हुई । आज उसका मन गजब उमंग और ऊर्जा से भर गया । फूलों की सुगंध को अपने में समेट कर वह कॉलेज जाने के लिए तैयार हुई । उसे अध्यापिका के रूप में नौकरी मिली थी । आज उसका कॉलेज में पहला दिन था । हरे रंग की साड़ी और हरी चूड़ियाँ पहन कर कुछ ही देर में वह कॉलेज पहुँची । कॉलेज के विशाल प्रांगण को पार कर के जैसे ही वह स्टाफरूम की ओर मुड़ी, सहसा उसने कॉरिडोर में रखे गए गमलों में मृतपायः अवस्था में कुछ पौधें देखे । उसका संवेदनशील हृदय भर आया । वह दुःख के साथ उन गमलों की ओर देखती रही । उसकी संवेदना महसूस कर के गमले रो-रो कर कहने लगे, “ परसों पर्यावरण दिन के अवसर पर नर्सरी से खरीद कर, टेम्पो में भरकर हमें यहाँ लाया गया । हम बहुत खुश थे कि इतने बड़े प्रांगण में, हरी-भरी जगह पर हमें प्यार से सजाया जायेगा । कुछ ही देर में हमने कानाफूसी सुनी कि, कॉलेज के इको क्लब की गतिविधि के अंतर्गत प्रभारी के निर्णय पर हमें यहाँ लाया गया था । थोड़ी ही देर में कुछ अनुभवहीन छात्रों ने हमें मिट्टी से आधा भर दिया और वृक्ष की डालियाँ तथा अधमरे पौधे भी मिट्टी में ठूँस दिए । फिर मन की तसल्ली के लिए थोड़ा खाद और पानी भी डाल दिया । हमारे प्रति ऐसे असंवेदनशील व्यवहार से मन में आनेवाले भय की एक लहर सी दौड़ गई । इतना कह कर गमला मौन हो गया ।

“ अरे डरो मत ! फिर क्या हुआ ? बताओ तो ।”, तुलसी ने पूछा ।

गमले ने सुबकते हुए आगे कहा, “ फिर हमें पौधों सहित यहाँ आये कुछ अध्यापकों के हाथों में थमा दिया गया, जैसे कि हम कोई निराश्रित बच्चे हों । इतना ही नहीं, इस पूरे धटनाक्रम का फोटो सेशन भी किया गया । फिर क्या, उन अध्यापकों ने हमें या तो अपने कमरे के किसी कोने में या फिर कॉरिडोर में उपेक्षित हालत में रख दिया । यहीं से शुरू हुई हमारे दुःख और दर्द की दास्तान ! वक्त पर कभी न मिला हमें जरुरी खाद और न ही पानी । कई पौधे हवा, सूर्य-प्रकाश और पानी के बिना अपना दम तोड़ने लगे । अब केवल हम सब बिना पौधों के गमले ही एक दूसरे को दूर से ताक रहे हैं । बचा लो हमे इंसानों की इस दरिंदगी से, बचा लो इन हत्यारों से.......”

गमले की इस दुःख भरी दास्तान ने तुलसी को और भी झकझोर कर रख दिया । उसे गमलों और पौधों के परस्पर गहरे संबंधों की अनुभूति हुई । गमले मिट्टी के दीपक के समान और पौधे जैसे कि दीपक की बाती, दीये की लौ, जिसमें हम सबको नेह भरना ही होगा ।

उसी दिन से तुलसी ने कॉलेज को भी अपना घर मानते हुए ख़ुशी से गमलों और पौधों की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली ।

 

मालिनी त्रिवेदी पाठक

वड़ोदरा

 

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