डॉ.
बाबासाहब अम्बेडकर का जीवन और दर्शन: दलित विमर्श की वैचारिक पृष्ठभूमि
प्रो.
हसमुख परमार
दलित विमर्श का विधिवत् प्रारंभ या यूँ
कहिए कि एक अवधारणा के रूप में दलित विमर्श आधुनिक काल की देन है, लेकिन हम यह भी
सुनते-पढ़ते और मानते आ रहे हैं कि दलित-विमर्श-यात्रा का प्रारंभ बौद्ध धर्म के
उदय के साथ होता है । हिन्दी साहित्य के अंतर्गत दलित-स्थिति संबंधी चिंतन-मनन के
कतिपय संदर्भ आधुनिक काल के पूर्व आदिकाल में सिद्धों और नाथों के यहाँ मिलते हैं
। इसके बाद दलित विमर्श में एक नया और उज्ज्वल
अध्याय जुड़ा मध्यकाल के भक्तिकाव्य की निर्गुणधारा के संतकाव्य का, जिसके
प्रतिनिधि कवि थे कबीर । भक्तिकाल के इन संत कवियों के पश्चात रीतिकाल में
रीतिमुक्त कवियों में तथा नीति विषयक काव्य की रचना करने वालों में यह चेतना थोड़ी
बहुत मिलती है । इसे एक बहुत बड़ा ‘गैप’ ही कहना चाहिए ।
आधुनिक काल का ‘नवजागरण’ जिसे कई इतिहासकार
भारतीय उत्क्रान्ति (Indian Renaissance) कहते
हैं, कई नवीन सामाजिक मानवीय मुद्दों को लेकर आता है । इन मुद्दों में मुख्य दो
हैं- नारी विमर्श और दलित विमर्श । ब्रहमोसमाज, प्रार्थना-समाज, आर्यसमाज,
थियोसोफिकल सोसायटी जैसी समाजिक-धार्मिक संस्थाओं के कारण उपर्युक्त दोनों मुद्दों
को लेकर पर्याप्त विचार-विमर्श हुआ । कुछ महानुभावों के नाम इस विषय में विशेष
उल्लेखनीय रहे हैं जिनका दलित विमर्श से किसी न किसी प्रकार का जुड़ाव रहा । जिनमें- गोपालराव हरिदेशमुख ‘लोकहितवादी’,
महात्मा ज्योतिबाफुले, गोपाल गणेश आगरकर, लोकमान्य तिलक, महर्षि प्रो. अण्णासाहब
कर्वे, श्रीमंत महाराजा सयाजीराव गायकवाड, गोपालकृष्ण गोखले, महात्मा गाँधी , डॉ.
बाबासाहब अम्बेडकर प्रभृति ।
आधुनिक काल में दलित विमर्श को एक मजबूत वैचारिक आधार
प्रदान कर उसे उच्चतम शिखर पर पहुँचाने वाले बाबा साहब अंबेडकर न केवल भारत के
बल्कि विश्वविख्यात नेताओं में अपना विशेष स्थान रखते हैं । दलित विमर्श के महान
अनुसंधानकर्ता और गंभीर अध्येता अंबेडकर दलित विमर्श के एक बहुत बड़े पर्याय बन गए
हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि दलित वर्ग
की वास्तविक स्थिति का ज्ञान जितना बाबासाहब को था उतना शायद और विचारकों को नहीं
था । आखिर ‘ पुस्तक की लेखी और पढ़ी’ तथा ‘ आँखन की देखी’ साथ ही ‘सहानुभूति’
और ‘स्वानुभूति’ में फर्क तो होता ही है
।
अम्बेडकर की वैचारिकता पर वैज्ञानिकता,
आधुनिक सामाजिक चिन्तन और पश्चिमी राजनीतिक-आर्थिक अवधारणाओं की गहरी छाप रही ।
दलितोद्धार व सामाजिक क्रान्ति के मामले में अम्बेडकर के आदर्श एवं प्रेरक बिंदु
रहे हैं- गौतम बुद्ध, कबीर और ज्योतिबाफुले । ये तीनों मनुष्यता के पूर्ण पर्याय, दलितोद्धार
के भी प्रबल हिमायती थे । “ डॉ. अम्बेडकर ने इस बात को सदैव दुहराया कि उनके ऊपर
गौतम बुद्ध, कबीरदास और ज्योतिबाफुले का प्रभाव था । कबीर ने उन्हें भक्तिमार्ग
दिखाया । ज्योतिबाफुले से उन्हें संघर्ष की प्रेरणा मिली । जो कुछ भी द्विजवाद के
विरुद्ध उनका सक्रिय संघर्ष है उसकी प्रेरणा महात्मा फुले थे । बुद्ध ने उन्हें
मानसिक व कायिक शांति का आदेश दिया । उन्हीं के आदर्शों पर चलकर उन्होंने सामूहिक
धर्म परिवर्तन का काम किया । उनके आदर्शों का ही अनुकरण करके दलित उद्धार का कार्य
किया जा सकता है । ” ( डॉ. भीमराव अम्बेदक- व्यक्तित्व के कुछ पहलू, मोहन सिंह,
पृ.07)
दरअसल दलित समाज की दुर्दशा को लेकर
बाबासाहब सवर्ण मानसिकता को ही सिर्फ जिम्मेदार नहीं मानते बल्कि सवर्ण तत्त्व के
साथ साथ दलितों की अशिक्षा, अपने मानवीय अधिकारों को लेकर उनमें जागरूकता का अभाव,
अपमान-अन्याय के विरोध को लेकर उनकी निष्क्रियता आदि को भी जिम्मेदार मानते थे । अतः
इस वर्ग में चेतना, संघर्ष की तीव्र भावना तथा शिक्षा के प्रति लगाव पैदा करना
अंबेडकर का विशेष उद्देश्य रहा । उनका स्पष्ट मानना था कि किसी भी प्रकार की
सामाजिक क्रांति के लिए एक सुस्पष्ट विचारधारा का होना बहुत जरूरी है ।
दलितोद्धार के संदर्भ में बाबासाहब का
कार्य सतत संघर्ष का रहा । “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो” इस सूत्र को न
केवल उपदेश द्वारा बल्कि अपने जीवन-संघर्ष द्वारा उन्हों ने चरितार्थ किया है ।
दलित वर्ग की चिंता करना, दलितों की स्थिति पर चिंतन, दलितों की दयनीय-शोषित
स्थितियों के कारणों की पड़ताल, उनकी समस्याओं का विश्लेषण, उन पर थोपी गई
निर्योग्यताओं के खिलाफ चेतना जाग्रत करना, दलितों को अपने अधिकारों के प्रति
सचेष्ट करना, उन्हें संगठित कर आवश्यकता पडने पर संघर्ष करने के लिए उन्हें
प्रेरित करना ही बाबासाहब के जीवन का मुख्य उद्देश्य रहा । जिसे पूरा करने के लिए
यह महान कर्मवीर ताउम्र सामाजिक व राजनीतिक मंच पर डँटे रहे । एक उपेक्षित व
शोषित-पीडित वर्ग के उद्धार हेतु उनके इस कार्य की प्रसिद्धि भारत तक ही नहीं
बल्कि विश्वस्तर पर रही । इसी के एवज में बाबासाहब की गणना अब्राहम लिंकन आदि गिने
चुने कुछ विश्वस्तर के नेताओं में होती रही है ।
एक दलित परिवार में जन्म लेने के कारण
अंबेडकर को बचपन से ही उस जातिगत भेदभाव-अस्पृश्यता का अपमान व दर्द मिला । इसी से
जुड़ी अनेक शारीरिक व मानसिक यंत्रणा का सामना करना पड़ा । अपने स्कूली जीवन में
दलित होने के कारण उन्हें अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ा । छुआछूत के दंश को
बचपन से झेलने वाले अंबेडकर ने अपने संस्मरणों में इस स्थिति को बखूबी व्यक्त किया
है । “ मुझे याद है कि एक दिन मुझे बहुत प्यास लगी । नल को छूने की मुझे अनुमति
नहीं थी । मैंने मास्टर जी से कहा कि मुझे
पानी चाहिए । उन्होंने चपरासी को आवाज देकर नल खोलने के लिए कहा । चपरासी ने नल
खोला और तब पानी पिया । चपरासी गैरहाजिर होता तो मुझे प्यासा ही रहना पड़ता । घर
जाकर ही मेरी प्यास बुझती ।” ( दृष्टव्य- डॉ.अम्बेडकर: एक प्रेरक जीवन,
संपादक-रत्नकुमार सांभारिया, पृ-30) इस तरह के और भी कटु अनुभवों का ब्यौरा
अम्बेडकर की आत्मकथा ‘Waiting
for a visa’ में मिलता है । असल में दलित होने के कारण अपने और अपने
समाज के अपमान की बाबासाहब को शिक्षित, साहसी, दलितों के उद्धारक एवं संघर्षी
बनाने में अहम भूमिका रही ।
डॉ.बाबासाहब का समग्र जीवन भारतीय
परिप्रेक्ष्य में अछूतोद्धार का एक महत्वपूर्ण अध्याय है । जातिगत भेदभाव से उत्पन्न उत्पीडन की गंभीर
बिमारी से समाज को मुक्त करने के लिए इस अछूतोद्धार आंदोलन की अगुआई बाबासाहब ने
बडी हिम्मत के साथ की । और यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि पहले की तुलना में आज
दलित वर्ग की स्थिति जो बेहतर है उसका कारण अंबेडकर ही है । वाकई में अंबेडकर दलित
समाज के लिए ‘बोधिसत्व’ ही है । डॉ. विकास दिव्यकीर्ति के एक व्याख्यान में सुना
कि जो व्यक्ति अपनी मुक्ति के लिए योग्य है उसके बावजूद भी वह मुक्त होना नहीं
चाहता, क्योंकि वह चाहता है कि सबको मुक्त कराकर ही मुक्त होगा । और इस दलित समाज में
यदि कोई बोधिसत्व हुआ है तो वह है डॉ. अम्बेडकर । अस्पृश्यता के दलदल से सिर्फ
स्वयं को ही नहीं परंतु अपने समाज के हर व्यक्ति को निकालना ही अंबेडकर का संकल्प
था । इस संकल्प व कठोर साधना के परिणामस्वरूप वे उच्च व स्तरीय शैक्षिक योग्यता को
प्राप्त करते हुए अपने दलित वर्ग के उद्धार के लिए आजीवन प्रयासरत रहे और सफल भी
हुए । वे स्पष्ट कहते थे कि “ मेरे लिये मेरे व्यक्तिगत हितों से ज्यादा
महत्त्वपूर्ण राष्ट्र के हित हैं किंतु
यदि दलितों के हित और राष्ट्रहित के बीच कोई टकराव की स्थिति आएगी तो मैं दलितों
के हित को वरीयता दूँगा ।”
सही अर्थों में कथनी और करनी से पूरी तरह
समर्पित व प्रतिबद्ध इस दलित वर्ग के नेता के कार्य के बारे में मिस्टर ग्लोरेन
बोल्टन ने लिखा था- “ मिस्टर गाँधी का अछूतों का नेतृत्व मात्र भावनात्मक है ।
वास्तविक और जन्मजात नेता डॉ.अम्बेडकर ही हैं, जो सर्वत्र अछूतों की बात कहने के
साथ-साथ भारत के हितों को बराबर ध्यान में रखते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इनका जन्म
उपेक्षित, निराश, पीड़ित दलित वर्ग के दुःखों को दूर कराने तथा उनके अधिकार दिलाने
के लिये ही हुआ है । ” (उद्धृत द्वारा- डॉ.अम्बेडकर: एक प्रेरक जीवन, सं. रत्नकुमार
सांभारिया, पृ-46)
अछूतोद्धार को लेकर डॉ.बाबासाहेब अम्बेडकर
के कार्यों व विचारों की विस्तृत जानकारी हमें उनके लेखन, भाषण, अस्पृश्य निवारण
तथा दलितों के अधिकारों के लिए उनकी अगुआई में हुए आंदोलन-सत्याग्रह आदि से
प्राप्त होती है । हू वेर धी शूद्राज ( शुद्र कौन थे ), शुद्र कौन और कैसे, जाति
का उच्छेद, बुद्ध और उनका धर्म, गाँधी एवं अछूतों की विमुक्ति, वेटिंग फॉर अ विज़ा, हिन्दू नारी का उत्थान व
पतन आदि पुस्तकों तथा “ अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में एन्थ्रोपोलोजी के
ऊपर हुई परिचर्चा में वहाँ के एक प्रमुख विद्वान डॉ. गोल्डन वेजर के सान्निध्य में
एक पर्चा तैयार किया और उसे बहस के लिए प्रस्तुत किया । जिसका शीर्षक था ‘भारत में
जाति व्यवस्था’ । जिसमें जाति के निहित सिद्धांत और उसके व्यावहारिक दुष्परिणामों
की विशद व्याख्या की । ” अंबेडकर के लेखन ने दुनियाभर के पाठकों को आकर्षित और
प्रेरित-प्रभावित किया है । बाबासाहब
अंबेडकर के कुछ प्रमुख अध्येताओं ने उनकी कुल 21-22 पुस्तकों को विषयवस्तु
के आधार पर कुल पाँच भागों में वर्गीकृत किया है- धर्म, समाज, अर्थ, राजनीति तथा
इतिहास एवं व्यक्ति । जहाँ तक दलित समाज या दलित विमर्श का विषय है तो उससे
संदर्भित किताबों में हम भारत में जातियाँ, जाति का विनाश, शुद्र कौन थे, अछूत कौन
और कैसे, गाँधी और कांग्रेस ने अछूतों के लिए क्या किया, गाँधी और अछूतों की
मुक्ति, वेटिंग फॉर अ विजा आदि को देख सकते हैं ।
अम्बेडकर के ‘मूकनायक’ पत्र (1920) के
संपादक-प्रकाशन का मूल उद्देश्य भी दलित समाज की जमीनी हकीकत को बताना था । इसी
क्रम में अंबेडकर जी द्वारा ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ का गठन । “अछूतोद्धार को नई
दिशा देने के लिए डॉ.अम्बेडकर 10 जुलाई 1924 को बम्बई में ‘बहिष्कृत हितकारिणी’
सभा का गठन किया । इस सभा का कार्य दलितों का चहुँमुखी विकास करना था ।
(डॉ.अम्बेडकर: एक प्रेरक जीवन, सं. रत्नकुमार सांभारिया, पृ-40) बाबासाहब के
नेतृत्व में हुए इतिहास-प्रसिद्ध महाड सत्याग्रह, नासिक मंदिर प्रवेश आंदोलन,
मनुस्मृति दहन आदि से अछूतों को बल मिला तथा शनैः शनैः अपने अधिकारों विशेषतः
समानता के लिए चेतना का उनमें संचार हुआ । अन्याय-अपमान के खिलाफ आवाज़ उठाने की
ऊर्जा प्राप्त हुई ।
दलितोद्धार तथा दलितों की दयनीय स्थिति और
उसके कारणों के संबंध में बाबासाहब ने अपने विचारों व मान्यताओं को तर्क व ठोस
प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया । दलित वर्ग को लेकर अपने गहन तर्क व चिंतन तथा
व्यावहारिक रूप से कई जमीनी ठोस कार्यों से जुड़े अंबेडकर का यह सामाजिक आंदोलन आगे
चलकर अंबेडकरवाद नाम से जाना गया । साहित्यिक व सामाजिक क्षेत्र में दलित विमर्श
की चर्चा का एक मुख्य आधार अंबेडकर का दलित चिंतन या अंबेडकरवाद रहा है । हिन्दी
तथा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में जिस दलित विमर्श की आज सोदाहरण व्याख्या हो
रही है, विवेचन हो रहा है उसके वैचारिक आधारों में अंबेडकर और अंबेडकरवाद मुख्य है
।
डॉ.अम्बेडकर ने दलित मुक्ति के साथ-साथ
स्त्री अधिकारों पर भी विशेष ध्यान दिया । हम देखते हैं कि आज बहुत से लोग अंबेडकर
को सिर्फ एक दलित समाज के नेता के रूप में ही मानते हैं । असल में ऐसा नहीं है,
माना कि दलित मुक्ति उनके जीवन का एक बड़ा मिशन था, परंतु नारी जाति के उत्थान के
लिए भी वह प्रयत्नशील रहे । अपने बौद्धिक बल के बल पर उन्हों ने दलितों, स्त्रियों, गरीबों के उत्थान
के लिए कानूनी व्यवस्था में भी अपनी विशेष भूमिका का निर्वाह किया । संवैधानिक
प्रावधानों व कानून द्वारा शोषितों-पीडितों की मुक्ति के विषय को महत्व देने वाले
इस विराट व्यक्तित्व पर हर कोई भारतवासी गर्व कर सकता है ।
अंत में मोहन सिंह के शब्दों में “ डॉ.भीमराव
अम्बेदकर का नाम भारत के परिवर्तनवादी आंदोलनों
के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा । वे भारत के दलित समाज के उद्धारक तथा
पुरुषार्थ के प्रतिक थे । भारतीय समाज, जो अनन्तकाल से जाति, वर्ग विभाजन के कारण
हजारों भागों में विभक्त था, उसके स्वीकरण का जो सराहनीय प्रयास डॉ.अम्बेदकर ने
किया वह भारतीय इतिहास का सुनहरा अध्याय है । जातिप्रथा पर आधारित भारतीय समाज में
जन्म-आधारित विषमता थी, रोजी-रोजगार में भयंकर अंतराल था, प्रगति के अवसर जन्मना जाति के आधार पर कुछ हिस्सों के लिए विशेष अवसर
प्रदान करते थे और बहुसंख्यक वर्ग के लिए आगे बढ़ने के दरवाजे बन्द थे, द्विजवादी
उच्चता के शिकार, अनन्तकाल से जन्म के अभिशाप से अभिशप्त एक बहुसंख्यक वर्ग को
डॉ.अम्बेदकर ने अपने साहसिक नेतृत्व से आगे बढ़ने की अदम्य शक्ति दी । (डॉ.भीमराव अम्बेदकर-
व्यक्तित्व के कुछ पहलू, मोहन सिंह, पृ.01)
प्रो.
हसमुख परमार
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभाग
सरदार
पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर
गुजरात
– 388120
भारतीय समाज के उत्थान में डॉ भीमराव अम्बेडकर जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता । सुंदर आलेख । सुदर्शन रत्नाकर
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